प्रज्ञा पुराण भाग-1

॥अथ द्वितीयोऽध्याय॥ अध्यात्म दर्शन प्रकरण-6

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सुविधासम्पदा पूर्णं जगदेतत्तु भौतिकम् । 
सम्पदिभरात्मिकं तृप्तितुष्टिशान्तिभिराप्लुतम् । । ४५ । । 
सुविधा साधनेष्वेव रमन्ते मन्दबुद्धय: । 
यथा क्रीडनकैर्बालास्तथा ते सन्ति निश्चितम् । । ४६ । । 
आध्यात्मिकस्य जगत: स्वर्ग्यां प्राप्तुं तु सम्पदाम् । 
रुचियेंषां महाभाग्या धन्यं तेषां हि जीवनम् । । ४७ । । 

टीका- भौतिक जगत में सुविधा- सामग्री भरी पड़ी है तो आत्मिक क्षेत्र तुष्टि और शान्तिरूपी सम्पदा से सम्पन्न है। जो व्यक्ति: सुविधा साधनों में रमते है वे खिलौनों मे खेलने वाले बालकों की तरह 
मन्द- बुद्धि है।जिन्हें आत्मिक जगत् की स्वर्गीय सम्पदा को प्राप्त करने में रुचि है , उन्हें बड़भागी कहा जाना चाहिए उन्हीं का मानव- जीवन धन्य है ।
। ४५ ४७ । 


व्याख्या- मनुष्य को बाह्यजगत में भौतिक उपलब्धियाँ मिली हैं तो अन्त:जगत में चेतन शक्ति प्रवाह के रूप में आत्मिक सम्पदा भी । अज्ञानवश मनुष्य भौतिक उपलब्धियों को ही उन्नति- सफलता का प्रतीक मान लेता है । मनुष्य शरीरबल, बुद्धि, धन, वैभव, यश, ऐश्वर्य- पद के क्षेत्र में भले ही हिमालय की तरह ऊँचा व सागर की तरह गहरा क्यों न हो, आत्म- सम्पदा के अभाव में वह निम्न  कोटि का ही जीवन जीयेगा, सुख तो होंगे पर शान्ति न होगी, साधन तो होंगे पर तृप्ति न होगी । 

भौतिक जगत की मृग- मरीचिका आत्मा की प्यास को कभी बुझा नहीं सकती । ऐसी बात नहीं कि जीवन में भौतिक पदार्थो का कोई मूल्य बही । निर्वाह हेतु कुछ सीमा तक वे आवश्यक तो हैं पर दिगभान्त 

मनुष्य साधनों को ही साध्य मान कर उनमें भटक जाता है । वस्तुत: जीवन में दोनों का ही समुचित समन्वय करना पड़ता है । एक चित्रकार अपनी रचना में कला एवं सौंदर्य का समावेश कर ही उसे सर्वश्रेष्ठ बना पाता है । भौतिक जगत यदि कला है तो आत्मिक जगत सौन्दर्य । पहला पक्ष तो वहाँ तक जरुरी है जहाँ तक शरीर निर्वाह के लिए साधनों की आवश्यकता है । दूसरा पक्ष अपने आपको समग्र बनाने,  आत्मिक उत्कर्ष द्धारा चरम लक्ष्य पाने के लिए आवश्यक है । जिन्हे आत्मिक जगत की सम्पदा को पाने में रुचि बढ़ती है वे ही धन्य होते हैं और शरीर की दृष्टि से तृप्ति, ज्ञान की दृष्टि से तुष्टि और आत्मा की दृष्टि से शान्ति का अमूल्य वैभव पाने में सफल होते हैं । 


याज्ञवल्क्य- मैत्रेयी संवाद


महर्षि याज्ञवल्क्य अपनी सम्पत्ति दोनों पत्नियों में बराबर- बराबर बांटकर गृहत्याग के लिए उद्यत मैत्रेयी' को '' संतोष नहीं हुआ।वह पूछ ही बैठी-। ' '' भगवन् । क्या मै इस सबको ले जीव इस सबको ले जीव मुक्ति का लाभ प्राप्त कर सकूँगी' महर्षि ने कहा- ' '' साधन- सुविधा सम्पन्न सुखी जीवन जैसा अब तक चला है आगे भी चलता रहेगा और अन्य सांसारिक लोगों की तरह तुम भी जीवन सुखमय बिता सकोगी । 

मैत्रेयी का अन्तर्द्वन्द्व शान्त नहीं हुआ, वे बोली- 

येनाहंनामृता स्याम् किमहं तेन कुर्याम्। 

'' जिससे मुझे अमरत्व प्राप्त न उसे लेकर मैं क्या करूंगी? यह पूछा जाने पर कि वे क्या चाहती हैं- मैत्रेयी ने महर्षि के चरणों में शीश झुकाते हुए कहा- 

'' 'असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, '' मृत्योर्माऽमृतं गमय ।' '' 

'' हे प्रभो! रुद्र बनकर मेरे अन्त : के अन्धकार को नष्ट कर '' । मुझे भी आप अपने आत्मिक पुरुषार्थ का सहभागी बनायें । '' 

कात्यायनी ने भौतिक सुख सम्पत्ति- ऐश्वर्य को वरीयता दी और उसे पाया । मैत्रेयी चाहती थी उस परम- तत्व का साक्षात्कार, एकानुभूति, नित्य- दर्शन जो सत्य, ज्योतिर्मय स्वरूप है, जो उसके जीवन का चिर प्रकाश बन सके । 
याज्ञवल्क्य ने प्रसन्नचित्त हो मैत्रेयी को ब्रह्मज्ञान की शिक्षा दी । उसे पति के साथ श्रेष्ठ ऋषि पद मिला । 

हम भी जीवन भर नाना प्रकार के ऐश्वर्य एकत्र करते हैं व अन्त : में स्थित '' मैत्रेयी कात्यायनी '' को सौंपते हुए कहते हैं- लो । इससे तुम्हें प्रसन्नता होगी, आनन्द मिलेगा, किन्तु अन्त : में बैठी यह मैत्रेयी आत्मिक प्रगति की ओर अग्रसर व्यक्ति से पूछती है- '' येनाहं नामृता स्याम् किमहं तेन कुर्याम्?' इस प्रार्थना को हम एकाग्रता के साथ सुनें व उसकी इच्छा पूर्ति करें तो कोई कारण नहीं कि यह जीवन अमृतमय न बन जाय । 

प्रहलाद का चयन -प्रभुनिष्ठा 

प्रहलाद  हिरण्यकश्यप के पुत्र थे । पुत्र को सभी वैभव- असुर संस्कृति के अनुकूल मिले- इसकी सारी व्यवस्था करायी गयी । पर प्रभु भक्ति को ही अपना लक्ष्य मान उन्होंने उस प्रतिकूल वातावरण में भी चयन- आत्मिक सम्पदा अर्जित  करने का पुरुषार्थ किया । जब बेटा ही विषयासक्ति के विरुद्ध हो भगवान की, आदर्शो की स्तुति पिता के समक्ष करने लगा तो वह असुर उसे मारने को उद्यत हुआ । सारी माया का प्रयोग कर वह उसे पराजित न कर पाया और अवतार का संकल्प लिए स्वयं नृसिंह भगवान कों असुर का वध करने आना पड़ा । यह है आत्मिक पुरुषार्थ की महिमा । 



 विक्रमादित्य  राज्य त्याग में सुख क्यो

राजा विक्रमादित्य के राज्य में एक सदाचारी, सन्तोषी ब्राह्मण रहता था । वह निर्धन था । स्त्री की प्रेरणा से धन प्राप्ति के निमित्ति घर से निकला तो जंगल में एक महात्मा से भेंट हुई उन्होने उसे चिंतित देख आश्वासन दिया और विक्रमादित्य को प्रत्र लिखा कि तुम्हारी इच्छा पूर्ति का अब समय आ गया है। अपना राज्य इस ब्राह्मण को देकर यहाँ चले आओ। 


वह पत्र विक्रमादित्य ने पढ़ा तो उन्हें बडी प्रसन्नता हुई और ब्राह्मण को राज्य साँपने की तैयारी की । ब्राह्मण ने राजा को राज्य- त्याग के लिए इतना उत्सुक और अत्यन्त आनन्दविभोर देखा तो सोचने लगा कि जब राजा ही राज्य सुख को लात मारकर योगी के पास जाने में विशेष आनन्द अनुभव कर रहे है तो योगी के पास अवश्य ही कोई राज्य से भी बड़ा सुख है । अत: उसने राजा से कहा कि '' महाराज । मै अभी महात्माजी के पास पुन : जा रहा हूँ,लौटकर राज्य लूँगा । '' यह कह कर योगी के पास पहुँचकर बोला कि '' भगवन् । राजा तो राज्य- त्याग कर आपके पास आने के लिए नितान्त उतावला और हर्ष विभोर हो गया । इससे जान पड़ता है कि आपके पास राज्य से भी बड़ी कोई वस्तु है, मुझे वही दीजिए । '' 

महात्मा ने प्रसन्नचित्त हो ब्राह्मण देवता को आत्मविद्या सिखाई और उसे वह वैभव दे दिया जो उसे मोक्ष दिला गया । उस सुख की तुलना में सारे सांसारिक सुख नगण्य है ।
 
जो आत्मावलम्बी बहुरंगीय दुनिया के सुख- आकर्षणों को ठुकराता है, अन्तत : वही इस श्रेय का भागी बनता है । जो क्षणिक सुख लाभ के मोह में उन्हीं में लिप्त हो जाते हैं थे अन्तत : त्रास ही पाते हैं, भले ही उन्हें उसमें तात्कालिक दृष्टि से सुख मिलता हो । उनकी उपमा तो उस बालक से ही दी जा सकती है जो खिलौनों से खेलकर सामयिक आनन्द पाने में ही रुचि लेता है । आयु की दृष्टि से बड़े  होने पर भी ऐसे मन्द बुद्धि बालकों का अनुपात जन समुदाय में अधिक ही होता है । 
बहिर्मुखा: जना: सर्वे भ्रमजालेषु पाशिताः । 
अन्तर्मुखाश्च तथ्यज्ञा सत्यं श्रेय: श्रयन्त्यलम् । । ४८ । । 


टीका- बहिर्मुखा:- जना: भ्रम जंजालों में उलझते है-अंतर्मुखी-तथ्यों को समझते ,सत्य को अपनाते और श्रेय पाते है॥४८॥


व्याख्या- जैसा कि पहले ऋषि श्रेष्ठ ने स्पष्ट किया हैं- भौतिक जगत और आत्मिक जगत दोनों ही 
क्षेत्रों में समुचित समन्वय स्थापित कर मनुष्य आत्मोत्थान का पथ प्रशस्त कर सकता है परन्तु ऐसे व्यक्ति 
जो बाह्य आकर्षणों से विरत हो, अपने आपको आत्मिक पुरुषार्थ में नियोजित कर दें, कम ही होते हैं । 
इसी आधार पर वे बहिर्मुखी और अन्तर्मुखी दो समूहों में जब समुदाय को विभाजित करते हैं । पहले 
भटकटे हैं, दूसरे राह खोजते हैं व अनेक को राह दिखाते हैं । एक सन्त ने इनकी बड़ी सुन्दर व्याख्या 
प्रस्तुत उपाख्यान में की है । 


सूप बने या चलनी 

संसार में दो प्रकार के स्वभाव वाले मनुष्य पाये जाते हैं कुछ तो सूप की तरह स्वभाव वाले होते हैं 
और  कुछ चलनी की तरह ।सूप जिस प्रकार भूसी इत्यादि असार वस्तुओं का त्याग करके 
सारयुक्त वस्तुओं को ग्रहण करता जैसे अनाज इत्यादि । उसी प्रकार कुछ लोग संसार की असार 
वस्तुओं (कामिनी- कांचन आदि) को छोड़कर सारयुक्त बात अर्थात् भगवान को ग्रहण करते है । चलनी जिस प्रकार सार युक्त वस्तुओं को निकाल कर असार वस्तुओं को अपने में रख लेती है, उसी प्रकार संसार के कुछ पुरुष सार- युक्त सार में दो प्रकार के स्वभाव वाले मनुष्य पाये जाते हैं कुछ तो  संसार में दो प्रकार के स्वभाव वाले मनुष्य पाये जाते है कुछ तो सूप की तरह स्वभाव की तरह होते है। वाले होते हैं और कुछ चलनी की तरह ।सूप जिस प्रकार भूसी इत्यादि असार वस्तुओं का त्याग करके सारयुक्त वास्तुओं को ग्रहण करता है जैसे अनाज इत्यादि।उसी प्रकार कुछ लोग संसार की असार वस्तुओं(कामिनी-कांचन आदि)को छोडज्कर सारयुक्त बात अर्थात् भगवान को ग्रहण करते है।चलनी जिस प्रकार सार युक्त वस्तुओं को निकल कर असार वस्तुओं को अपने में रख लेती है,उसी प्रकार संसार के कुछ पुरुष सार युक्त वस्तु ईश्वर का त्याग कर कामिनी -कांचनादि को ग्रहण करते है।

बर्हिर्मुखी व्यक्ति का चिन्तन हर वस्तु के प्रति एवं अपने जीवन क्रम के प्रति भी एकांगी होता है।वे आत्म -शोधन से अधिक बाह्मा उपचारों को प्रधानता देते देखे जाते है। 
चक्त असार वरतुओं को अपने में रख लेती है, उसी प्रकार संसार के कुछ पुरुष सार- युक्त. 
वस्तु ईश्वर का स्पश कर कामिनी- काचनादि को ग्रहण करते हैं । 

बहिर्मुखी 'ध्यक्ति का चिन्तन हर वस्तु के प्रति एवं अपने जीवन क्रम के प्रति भी एकांगी होता है । वे 
आत्म- शोधन से अधिक बाह्य उपचारों को प्रधानता देते देखे जाते है । 

तीर्थयात्री  कमण्डल  कड़वा

 महाभारत समाप्त होने के उपरान्त धर्मराज युधिष्ठर ने तीर्थयात्रा करने का निश्चय किया, साथ में चारो 
भाई- अर्जुन, भीम, नकुल, सहदेव और द्रोपदी भी थीं । प्रस्थान करने से पूर्व वह भगवान कृष्ण के पास भी गये और उनसे साथ चलने का आग्रह किया। कृष्ण को उस समय कुछ आवश्यक कार्य थे । अत : तीर्थयात्रा में साथ न जा सके, पर सुखद यात्रा की कामना करते हुए उन्होंने अपना कमण्डल अवश्य दे दिया और यह कहा, '' जहाँ- कहाँ तीर्थ स्थानों, नदियों और सरोवरों में खान करने का आपको अवसर मिले स्नान करने का आपको अवसर मिले वहाँ-वहाँ इस कमण्डल को भी उनमें डुबा ले॥युधिष्ठिर कमण्डल लेकर सपरिवार तीर्थयात्रा को चल पड़े ।काफी दिनों के बाद वापस लौटे और कृष्ण को उनका कमण्डल देते हुए कहा-आपकी आज्ञानुसार जहाँ मैंने स्नान किया वहाँ इसे भी पानी में डुबिया है।
यहाँ तो मैं चाहता था।इतना कहकर कृष्ण ने कमण्डल  को जमीन में पटक कर टुकड़े-टुकड़े कर दिये और प्रसाद रुप में एक -एक टुकड़ा वहाँ उपस्थित सभी लोगों को वितरित कर दिया।जिसने भी प्रसाद चखा उसका मुँह खराब हो गया।लोगों को थुकते हुए तथा मुँह बनाते हुए देखकर कृष्ण ने धर्मराज से पूछा-यह इतने तीर्थों में घुमकर आ रहा है और अनेक स्थानों पर स्नान भी किया है फिर भी इसका कड़वापन दुर क्यों नहीं हुआ?"


आप भी कैसी अजीब बात करते है  कृष्ण ,कहीं धोने मात्र से कमण्डल का कड़वापन निकल सकता है । अनगढ़ पशुओं की तरह मस्तिष्क रूपी झाड़ियों में उछल कूद मचाते अनावश्यक विचारों को एकाग्रता के द्वारा अथवा उच्चस्तरीय उद्देश्यों में तन्मयता सम्पादन द्वारा सही दिशा दी जा सकती है । इस प्रकार समीक्षा करने पर हम पाते हैं कि विचार संयम के दो भाग है- एक है निग्रह- बिखराव को समेट कर एक दिशा में लगा देना- एकाग्रता सम्पादन भी इसी में आता है । दूसरा है- विचारों को निकृष्ट चिन्तन से हटाकर सदुद्देश्यों में नियोजित कर देना, अपने कर्मों में उत्कृष्टता को मुखरित होने देना । विचारों का असंयम ही इन्द्रिय, वाणी, समय तथा अर्थ के असंयमी शक्ति अपव्यय का मूल कारण होता है ।

अर्जुन को मात्र आँख दिखी

 लक्ष्य के प्रति तन्मयता सच्चे साधक की विशेषता है । यह विचार एकीकरण का ही परिणाम है । द्रोणाचार्य ने प्रश्न किया- ''दुर्योधन ! सामने क्या दिखाई दे रहा है ?'' ''आकाश, वृक्ष, पत्तियाँ और चिडि़या जिस पर निशाना लगाना है । ''द्रोणाचार्य ने कहा-  ''तुम्हारा निशाना सही न लगेगा, बैठ जाओ । '' एक-एक करके सारे शिष्य असफल होते गये । अब अर्जुन का नम्बर आया । आचार्य ने वही प्रश्न दुहराया । अर्जुन ने कहा- '' गुरुदेव । मुझे पक्षी की आँख के अतिरिक्त और कुछ दिखाई नहीं देता ।'' '' बाण चलाओ, आचार्य ने आदेश दिया । तीर सही ठिकाने पर जा लगा । द्रोणाचार्य ने शिष्यों को बताया, जिसे लक्ष्य के अतिरिक्त कुछ दिखाई न दे उसी की साधना सफल होती है ।

प्रतिभाएँ परमात्मा की देन होती है- ऐसा माना जाता है । इसी कारण हजारों में एक वैज्ञानिक, दार्शनिक अथवा विषय विशेष का निष्णात प्रकाण्ड पण्डित बन जाता है । वस्तुत: परमपिता की यह कृपा बरसती सब पर एक साथ है, लाभ वे ही उठाते हैं जो अपने विचारों को रचनात्मक चिंतन एवं कर्तृत्व में नियोजित कर लेते हैं । महर्षि पतंजलि ने विचारों की एकाग्रता का महत्व समझा, उसे जीवन में उतारा एवं योगदर्शन के रूप में एक महान ग्रंथ मानवता को दे सके ।

ऋषि जैमिनि सात दिन कक्ष में बन्द रहे

प्रख्यात आर्ष दार्शनिक जैमिनि जिन्होंने ''मीमांसा"  की रचना की, के साथ एक घटना ऐसी जुडी़ है जो विचारों की शक्ति भी बताती है व इस ग्रन्थ रचना की पृष्ठभूमि थी । जब वे मीमांसा दर्शन के सूत्रों को क्रमबद्ध कर रहे थे, अपनी धर्मपत्नी को उन्होंने कह दिया ''जब तक वे न कहें  कक्ष का द्वार न खोला जाय । चाहे रात्रि का आगमन हो जाय एवं अगले दिन का अरुणोदय, कोई उनके कार्य में व्यवधान न डाले ।'' बिना आहार लिए वे उसी कक्ष में ७ दिन तक बन्द रहे । बाहर निकले तो चेहरे पर अभूतपूर्व तेज था एवं सफलता कीं मुस्कान थी । वे महत्त्वपूर्ण सूत्रों को क्रमबद्ध करके ग्रन्थ की रचना पूरी कर चुके थे । ''मीमांसा दर्शन'' नामक यह ग्रन्थ अध्यात्म के मूल सिद्धांतों का आधार बना ।

विचार शक्ति के चमत्कार

 विचार अपने आप में एक चिकित्सा है । शुभ कामना, सत्परामर्श रूपी विचारों का बीजारोपण यही प्रयोजन सिद्ध करते हैं ।  विचार संप्रेषण, विचारों से वातावरण का निर्माण, विचार विभीषिका इसी सूक्ष्म विचार शक्ति के स्थूल परिणाम हैं । महर्षि अरविन्द व रमण ने मौन साधना की व अपनी विचार शक्ति को सूक्ष्म स्तर पर क्रियान्वित किया जिसका परिणाम था कि वातावरण में संव्याप्त विक्षोभ मिटाया जा सका तथा स्वतंत्रता आन्दोलन की लहर फैली । सारी क्रांतियाँ विचारों के स्तर से ही आरम्भ हुई हैं । साम्यवाद-प्रजातन्त्र विचार संयमजन्य सामर्थ्य की देन है । विचारों की आँधी जब आती है तो प्रचण्ड तूफान की तरह सबको अपनी लपेट में ले लेती है । बुद्ध और गांधी के समय भी इसी प्रकार आँधी आयी जिसने सूक्ष्म स्तर पर जन-जन को प्रभावित किया व परिवर्तन ला दिया ।

अनगढ़ विचार बनाम विक्षिप्तता:- अस्त-व्यस्त विचार-शक्ति व्यक्ति को जल्दबाज बनाते हैं व ऐसे व्यक्ति दूरगामी निर्णय न लेकर ऐसे कदम उठा सकते हैं जिन्हें प्रकारान्तर से विक्षिप्तता ही कहा जा सकता है । 

बिना सोचे नेवले को मार डा़ला:- देव शर्मा के धर पुत्र ने जन्म लिया । उसी दिन एक नेवली ने नेवले को भी जन्म दिया । दयावश ब्राह्मणी ने उस बच्चे को पाल लिया । दोनों बच्चों में बड़ा प्रेम था । एक दिन ब्राह्मणी पानी भरने चली गई । बच्चा सो रहा था । नेवला भी पास ही बैठा था । दैवयोग से उधर एक सर्प निकला और बच्चे को कटने लपका । नेवले ने यह देखा तो साँप के टुकड़े- टुकड़े कर डाले । उसके मुंह में खून लग गया । वह इसी अवस्था में मालकिन को देखने कुँए की ओर दौड़ा । द्वार पर ही ब्राह्मणी मिल गई । नेवले के मुँह में खून लगा देखकर उसने सोचा यह बच्चे को काटकर आया है । यह विचार आते ही उसने भरा हुआ घड़ा नेवले के ऊपर दे मारा, नेवला मर गया । घर जाकर ब्राह्मणी ने सारी बात समझी तो उसे बड़ा पश्चात्ताप हुआ । इसलिए बिना विचारे कोई काम नहीं करना चाहिए ।

संयम मन से भी करें:- विचारों का संयम न हो तो वाणी, इन्द्रिय, धन आदि का अपव्यय न करते हुए भी व्यक्ति कुछ पाता नहीं, सतत खोता ही है । एक ग्रामीण ने संत ज्ञानेश्वर से पूछा- ''संयमित जीवन बिताकर भी मैं रोगी हूँ, महात्मन् ऐसा क्यों ?'' दृष्टा संत बोले-''पर मन में विचार तो निकृष्ट हैं । भले ही तुम बाहर से संयम बरतते रहो-मन में कलुष भरा हो, विचार गन्दे हो तो वह अपव्यय रोगी बनायेगा ही ।''

क्षीवानिव शुनो नैव विचारान्मनुजः क्वचित् ।
अचिन्त्यचिंतने व्यर्थं दिशाहोनान्नियोजयेत् ।। ४६ ।।
तान् सदैवोपयोगिन्या दिशया धारयाऽपि च ।
नियोजयेद् विचारेश्चामूलैर्योद्धुमनैतिकै ।। ४७ ।।
सद्यविचारचमू: काचिद् भवेद् यऽचिन्त्यचिन्तनै:।
विचारैर्युद्धयमानेव ताँस्तु विद्रावयेद् द्रुतम् ।। ४८ ।।

टीका- विचारों को आवारा कुत्तों की तरह अचिन्त्य-चिंतन में भटकने न दिया जाय । उन्हें हर समय उपयोगी दिशा-धारा के साथ नियोजित करके रखा जाय । अनगढ़-अनैतिक विचारों से जूझने के लिए सद्विचारों की एक सेना बनाकर रखी जाय, जो अचिन्त्यय-चिंतन उठते ही जूझ पड़े उन्हें निरस्त करके भगा दें ।।४६-४८।।

व्याख्या- विचार संयम का सबसे अच्छा तरीका है, उन्हें बिखराव से रोककर उत्कृष्ट उद्देश्य के साथ जोड़ दिया जाय । इसके लिए अपने अन्दर भी एक विरोधी विचारों की सेना उसी प्रकार खड़ी करनी होगी जैसी कि विजातीय द्रव्यों के शरीर में प्रविष्ट होने पर रक्त के कण खड़ी कर देते हैं । निकृष्ट विचारों व उत्कृष्ट चिंतन की परस्पर लड़ाई ही अन्तर्जगत का देवासुर संग्राम है । विचारों की विचारों से काट एक बहुत बड़ा पुरुषार्थ है । इसलिए अनिवार्य है कि कुविचारों को सद्विचारों से काटने का महाभारत अहर्निश जारी रखा जाय । विचारों के लिए उपयोगी मर्यादा एवं दिशाधारा निर्धारित की जाय जिनमें अभीष्ट प्रयोजन अथवा मनोरंजन के लिऐ परिभ्रमण करते रहने की छूट रहे । चिड़ियाघरों में जानवरों का बाड़ा होता है ।
उन्हें घूमने-फिरने की छूट तो रहती है, पर उस बाड़े से बाहर नहीं जाने दिया जाता । ठीक यही नीति विचार वैभव के बारे में भी बरती जाय । उसे जहाँ-तहाँ बिखरने न दिया जाय ।

कल्पवृक्ष के नीचे उल्टे विचार- विचार यदि अस्त-व्यस्त हों तो उसके क्या परिणाम होते हैं, इसे समझाते हुए संत एकनाथ ने एक कथा सुनाई-

एक मनुष्य किसे गाँव को जा रहा था । धूप-प्यास का मारा वह एक पेड़ के नीचे विश्राम करने को लेट गया । पेड़ की ठण्डी छाया में उसका मन बड़ा प्रसन्न हुआ । वह कल्पना करने लगा 'काश!-यहां पीने के लिए पानी होता ।' इतने में ही उसने देखा कि एक ठण्डा पानी का झरना फूट पडा़ । उसने पानी पिया, प्यास बुझाई । फिर उसने सोचा कुछ खाने को होता तो कैसा रहता । इतने में ही एक स्वादिष्ट पदार्थो से भरा हुआ थाल आ गया । उसने भोजन करके सोने के लिए शैथ्या की कल्पना की तो एक पलंग वस्त्र बिछा हुआ दिखाई दिया । इन सब घटनाक्रमों से उसे भय हुआ कि कहीं यहाँ कोई मायावी राक्षस तो नहीं है । इतने में ही एक राक्षस सामने आ खड़ा हुआ । 'यह मुझे खा न जाय' इस विचार के साथ ही वह राक्षस उस यात्री को खा
गया । वस्तुत: वह वृक्ष कल्पवृक्ष था, जो मन की इच्छा के अनुसार फल देता था । मनुष्य का चिंतन एवं मनोबल एक प्रकार से कल्पवृक्ष ही है । उसका सदुपयोग करने वाला जीवन लक्ष्य की प्राप्ति का अभीष्ट उद्देश्य पूर्ण कर सकता है ।

महर्षि नृत्योत्सव में- विचारों में यदि विकृति न हो ती बहिरंग हमेशा पवित्र रहेगा, चाहे आस-पास का वातावरण कैसा भी हो । सम्राट पुष्यमित्र का अश्वमेध सानन्द सम्पन्न हुआ और दूसरी रात को अतिथियों की विदाई के उपलक्ष्य में नृत्योत्सव रखा गया । यज्ञ के ब्रह्मा महर्षि पतंजलि उस उत्सव में सम्मिलित हुए । महर्षि के शिष्य चैत्र को उस आयोजन में महर्षि की उपस्थिति अखरी । उस समय तो उसने कुछ न कहा पर एक दिन जब महर्षि योग दर्शन पढ़ा रहे थे तो चैत्र ने उपालम्भपूर्वक पूछा- ''गुरुवर ! क्या नृत्य-गीत के रस-रंग चित्तवृत्तियों के
निरोध में सहायक होते हैं ?"
 
महर्षि ने शिष्य का अभिप्राय समझा । उन्होंने कहा-'सौम्य! आत्मा का स्वरूप रसमय है । रस में उसे आनन्द मिलता है और तृप्ति भी । वह रस विकृत न होने पावे और अपने शुद्ध स्वरूप में बना रहे, इसी सावधानी का
नाम 'संयम' है । विकार की आशंका से रस का परित्याग कर देना उचित नहीं । क्या कोई किसान पशुओं द्वारा खेत चर लिए जाने के भय से कृषि करना छोड़ देता है ? यह तो संयम नहीं पलायन रहा । रस रहित जीवन बनाकर किया
गया संयम प्रयत्न ऐसा ही है जैसे जल को तरलता और अग्रि को ऊष्मा से वंचित करना । सो हे भद्र । भ्रम मत करो ।' रस हेय नहीं, हेय और त्याज्य तो उसकी विकृति है ।
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