प्रज्ञा पुराण भाग-1

लोककल्याण- जिज्ञासा प्रकरण - प्रथमोऽध्यायः-5

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कौआ न मारने का शुभारम्भ

महावीर ने व्याध के अन्दर दया का उत्साह जगाया व उसे सुनियोजित भी कर दिया। उनकी एक शर्त, एक पक्षी 'कौआ' न मारने को जब वह राजी हो गया तो उसके अन्दर से प्राणी समुदाय के प्रति करुणा का भाव प्रस्फुटित हुआ और हिंस्र- हेय कर्म छोड़ उसने अपना जीवन हो बदल दिया। 

सदुत्साह जग जाय व सुनियोजित हो सके तो व्यक्ति ऐसे प्रवाह में बह जाते हैं, जो उन्हें आत्म- कल्याण की दिशा में ले जाता है। शेष कार्य युगान्तरीय चेतना, भगवत् सत्ता स्वयं सम्पादित कर लेती है। परिस्थितियों की जटिलता को सरल बनाना व प्रक्रिया को आश्रर्यजनक मोड़ देने का काम परमात्मा का 
का है। 

छोटों से बडे़ काम 

भगवान बुद्ध का अभियान थोड़े से बौद्ध भिक्षुओं ने चलाया और एक दिन वह सारे भारतवर्ष और एशिया मे छां गया। कंस दुर्धर्ष था, बालकों में कृष्ण ने दूध- दहीं सत्याग्रह जगाया। वे सक्रिय हुए तो चेतन शक्ति ने उसका संहार कर दिखाया। आततायी असुर रावण के प्रति देवताओं का आक्रोश समवेत उत्साह के रूप में उभरा एवं वानर यूथों ने चेतन- शक्ति के सहारे उसका संहार कर डाला। थोड़े व्यक्तियों के प्रयतों से अर्जित सफलता को ईश्वरीय ही कहा जाना चाहिए। 

मानवी पुरुषार्थ जब सही दिशा पाकर अपने काम में जुट जाता है तो स्वयमेव वे परिस्थितियाँ बनने लगती हैं जिन्हें 'युग परिवर्तन' के नाम से जाना जाता है। गाँधी का उदाहरण हमारे सामने है। दण्डी यात्रा, नमक आन्दोलन, खादी आन्दोलन, विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार ऐसे छोटे सरल कार्यक्रमों में उन्होंने उत्साहित अग्रदूतों को लगा दिया। छोटे नजर आने वाले इन कार्यक्रमों की ही अंतिम परिणति स्वतन्त्रता प्राप्ति के रूप में हुई। यही महामानवों की क्रियाप्रणाली है जो सूक्ष्म सत्ता द्वारा संचालित व प्रेरित होती रही है। 

नारद उवाच- 

पप्रच्छ नारदो भगवन् स्पष्टतो विस्तरादपि। 
किं नु कार्यं मया ब्रूहि मानवै: कारयामि किम्॥५२॥

श्री भगवानुवाच- 

उवाच भगवाँस्तात ! हिमाच्छादित एकदा। 
उत्तराखण्ड संशोभिन्यारण्यक शुभस्थले॥५३॥ 
तत्वावधाने प्राज्ञस्य पिप्पलादस्य नारद। 
प्रज्ञासत्रसमारम्भो जात: पञ्चदिनात्मक:॥५४॥
अष्टावक्र : श्वेतकेतुरुद्दालकशृङ्गिणौ। 
दुर्वासाश्चेति जिज्ञासा: पञ्चाकुर्वन् क्रमादिमे॥५५॥ 
तत्वदर्शी महाप्राज्ञस्तेषां संमुख एव स:। 
संक्षिप्तं ब्रह्मविद्याया: प्रास्तौत्सारं सममृषि:॥५६॥
सर्वसाधारणोऽप्येनं ज्ञातुं बोधयितुं क्षम:। 
इह लोके परे चायमृद्धिसिद्धिप्रद: स्मृत:॥५७॥
तं प्रसङ्ग स्मारयामि ध्यानेन हृदये कुरु। 
प्रज्ञा पुरगारूपे च योजितं यन्त्रतस्तु तम्॥५८॥
वरिष्ठानामात्मानं तु पूर्व साधारणस्य च। 
हृदयगंममेनं त्वं कारयाद्य महामुने ॥५९॥

टीका- नारद ने पूछा- "भगवन्! और भी स्पष्ट करें कि क्या करना और क्या कराना है। "
भगवान् बोले- "हे तात् ! एक बार उत्तराखण्ड के हिमाच्छादित एक शुभ आरण्यक में महाप्राज्ञ पिप्पलाद के तत्वाधान में पाँच दिवसीय 'प्रज्ञा- सत्र' हुआ था। उसमें क्रमश: अष्टावक्र, श्वेतकेतु, शृंगी, उद्दालक और दुर्वासा ने पाँच जिज्ञासाएँ की थीं। तत्वदर्शी महाप्राज्ञ ऋषि ने उनके समक्ष ब्रह्मविद्या का सार- संक्षेप प्रस्तुत किया था वह सर्वसाधारण के समझने- समझाने योग्य है साथ ही लोक-  परलोक में उभय- पक्षीय ऋद्धि- सिद्धियाँ प्रदान करने वाला भी है। उस प्रसंग का तुम्हें स्मरण दिलाता हूँ। ध्यान- मग्न होकर हृदयंगम करो सुनियोजित करो और 'प्रज्ञा पुराण' के रूप में सर्वप्रथम वरिष्ठ आत्माओं को तदुपरान्त सर्वसाधारण को हृदयंगम कराओ॥५२- ५९॥

व्याख्या- अध्यात्म विज्ञान के व्यावहारिक शिक्षण की विस्तृत कार्य प्रणाली जानने को उत्सुक देवर्षि को भगवान् एक विशिष्ट प्रज्ञासत्र का स्मरण दिलाते हैं। यह ऋषि प्रणाली है कि किसी भी तथ्य का समर्थन, प्रतिपादन प्रत्यक्ष उदाहरणों द्वारा किया जाय। ध्यान मग्न नारद को भगवान ने ज्ञान सत्रों में हुई चर्चा को संक्षेप में अपनी परावाणी, विचार सम्प्रेषण द्वारा समझा दिया एवं अग्रदूतों तक इसे पहुँचाने, उन्हें इस ज्ञान आलोक से प्रकाशित करने का निर्देश भी दिया। 

समाधिस्थो नारदोऽभूत्तस्मिन्नेव क्षणे प्रभु:। 
प्रज्ञापुराणमेतत्तद्हृदयस्थम कारयत् ॥६०॥
उवाच च महामेघमण्डलीव समन्तत:। 
कुरू त्वं मूसलाधारं वर्षां तां युगचेतनाम्॥६१॥ 
अनास्थाऽऽतपश्रष्कां च महर्षे धर्मधारणाम्। 
जीवयैतदिदं कार्यं प्रथमं ते व्यवस्थितम् ॥६२॥ 

टीका-  नारद समाधिस्थ हो गये। भगवान् ने उस समय प्रज्ञापुराण कण्ठस्थ करा दिया और 
कहा- 'इस युगचेतना की वर्षा मेघों की तरह सर्वत्र बरसाओ। अनास्था के आतप से सूखी धर्म- धारणा को फिर से हरी- भरी बना- दो तुम्हारा प्रथम काम यही है ॥६०- ६२॥ 

व्याख्या- बादलों का काम है बरसना तथा जल अभिसिंचन द्वारा सारी विश्व मानवता को तृप्त करना। जहाँ अकाल पड़ा हो वहाँ वर्षा की थोड़ी- सी बूंदें गिरते ही चारों और प्रसन्नता का साम्राज्य छा जाता है- कुछ ही समय में हरियाली फैली दिखाई पड़ती है। समुद्र सें उठने वाली भाप जब बादल बनती है तो उसका एक ही उद्देश्य रहता हैं- वनस्पति जगत तथा सारे जीव जगत में प्राण भर देना। 

चेतना विस्तार की यही भूमिका अवतार, महामानव, अग्रदूत, जागृत आत्माएँ निभाती हैं। उनका उद्देश्य भी यही होता है। आस्था संकट का जो मूल उद्गम है- अन्त:करण, वहाँ वे व्यक्ति- व्यक्ति तक पहुँचकर उसके अन्दर हलचल मचाते हैं। मरुस्थल बन गये अन्तस्थल में संवेदनाएँ उभारते हैं, आदर्शवादी उत्कृष्टता के प्रति- समर्पण की भविष्य- जगाते हैं। अवतार की प्रक्रिया यही है। भगवान ने नारद ऋषि को वही काम सौंपा ताकि प्रस्तुत परिस्थितियों में परिव्रज्या द्वारा वे जन- जन में प्रज्ञावतार की प्रेरणा भर सकें। परिवर्तन- विचारणा में परिष्कार तथा संवेदनाओं में उत्कृष्टता परायण उभार की ही परिणति है। युग परिवर्तन की प्रक्रिया जो अगले दिनों सम्पादित होने जा रही है, उसका प्रथम चरण यही है। 

महाकाल ने हमेशा बीज रूप में उपयुक्त पात्र को यह संदेश दिया हैं, वही कालान्तर में फला और मेघ की भूमिका उसनें निभाई है। इसी तथ्य को रामायणकार ने इस तरह समझाया है- 

'राम सिंधु धन सज्जन धीरा। चन्दन तरु हरि सन्त समीरा॥'

अर्थात्-  'भगवान समुद्र हैं तो सज्जन व्यक्ति बादल के समान। चन्दन वृक्ष यदि भगवान है तो सन्त पवन की तरह मलयज सुगन्ध को फैलाने वाले। ' भगवान से अर्थ है आदर्शवादिता का समुचय। मेघ व पवन की ही भाँति संत व सज्जन उस युगचेतना को विस्तारित करते हैं, असंख्यों को धन्य बनाते हैं। 

बुद्ध और उनकी प्रव्रज्या

बुद्ध को आत्मबोध हुआ। कठोर तपश्चर्या के बाद प्राप्त इस उपलब्धि से वे निर्वाण- मोक्ष की ओर भी बढ़ सकते थे। पर उनका लक्ष्य था-  अनाचार, कुरीति से भरे समाज का परिशोधन 
तथा विवेक रूपी अस्त्र द्वारा जन- मानस का परिष्कार। आत्मबोधजन्य ईश्वरीय सन्देश को व्यापक बनाने वे निकल पड़े और जन- जन तक पहुँचकर विचार- क्रांति कर सकने में सफल हुए। परिव्रज्या बौद्ध धर्म का प्रधान अंग मानी जाती थी। भिक्षुक गण सतत चलते रहते थे व बुद्ध के साथ 'संघं, धर्म शरणम् गच्छामि' का नारा लगते। फलत: भारतवर्ष ही नहीं, सारे विश्व भर में उनका सन्देश पहुँचाने का लक्ष्य पूरा कर सके। सिद्धार्थ के अन्दर विश्व कल्याण की कामना रूप में जो बीज पला वह गौतम बुद्ध के रूप में विकसित, पल्लवित होकर सारी मानवता को धन्य कर गया। 

उवाच नारदो देव ! वाच्य: श्राव्यस्लयं मत:। 
ज्ञानपक्ष: पूरकं तं कर्मपक्षं विवोधय॥६३॥
कर्त्तव्यं यद्यदन्यैश्चाप्यनुष्ठेयं, समग्रता। 
उत्पद्यते द्वयोर्ज्ञानकर्मणोस्तु समन्वयात्॥६४॥

टीका- नारद बोले- 'यह ज्ञान पक्ष हुआ, जिसे कहा या सुना जाता है। अब इसका पूरक कर्मपक्ष बताइये, जो करना और कराना पड़ेगा। ज्ञान और कर्म के समन्वय से ही समग्रता उत्पन्न होती है ॥६३- ६४॥'

व्याख्या- कोई सिद्धान्त अपने आप में अकेला पूर्ण नहीं। प्रयोगपक्ष जाने बिना सारा ज्ञान अधूरा हैं। फिर क्रिया पक्ष, ज्ञान पक्ष का पूरक है। ब्रह्म ज्ञान- तत्व चिन्तन अपनी जगह है, अनिवार्य भी है, परन्तु उसका व्यवहार पदा जिसे साधना- तपश्चर्या के रूप में जाने बिना एक मात्र मानसिक श्रम और ज्ञान वृद्धि तक ही सीमित रहने से उद्देश्य की पूर्ति नहीं होगी। चिकित्सकों को अध्ययन भी करना होता है एवं व्यावहारिक ज्ञान भी प्राप्त करना होता है। यह समग्रता लाये बिना वे चिकित्सक की पात्रता- पदवी नहीं पाते। 

ऐसा अधूरापन अध्यात्म क्षेत्र में बड़े व्यापक रूप में देखने को मिलता है। ब्रह्म की, सद्मुणों की, आदर्शवादिता की चर्चा तो काफी लोग करते पाये जाते हैं परन्तु उसे व्यवहार में उतारने, जीवन का अंग बना लेने वाले कम ही होते हैं। 

माँ की सच्ची सीख

एक साधु द्वार पर बैठे तीन भाइयों को उपदेश कर रहे थे- वत्स! संसार में सन्तोष ही सुख है। जो कछुये की तरह अपने हाथ- पाँव सब ओर से समेट कर आत्म- लीन हो जाता है, ऐसे निरुद्योगी पुरुष के लिए संसार में किसी प्रकार का दु:ख नहीं रहता। 

घर के भीतर बुहारी लगा रही माँ के कानों में साधु की यह वाणी पड़ी तो वह चौकन्ना हो उठी। बाहर आई और तीनों लड़की को खड़ा करके छोटे से बोली- 'ले यह घडा, पानी भर कर ला', मझले से कहा- 'उठा यह झाडू और घर- बाहर की बुहारी कर', अन्तिम तीसरे को टोकरी देते हुए उसनें कहा- 'तू चल और सब कूड़ा उठाकर बाहर फेंक' और अन्त में साधु की ओर देखकर उस कर्मवती ने उपदेश दिया- 'महात्मन्! निरुद्योगी मैंने बहुत देखे हैं, कई पड़ोस में ही बीमारी से ग्रस्त, ऋण भार से दबे शैतान की दुकान खोले पड़े है। अब मेरे बच्चों को भी वह विष वारुणी पिलाने की अपेक्षा आप ही निरुद्योगी बने रहिये और इन्हें कुछ उद्योग करने दीजिए। ' ज्ञान को कर्म का सहयोग न मिले तो कितना ही उपयोगी होने पर भी वह ज्ञान निरर्थक है। 

चलकर आओ- मिठाई लो 

कथा में युवक ने सुना भगवान सबको रोटी देते हैं। युवक को बात जँच गई। उसने काम पर जाना बन्द कर दिया। जो पूछता यही उत्तर देता- "भगवान जब रोटी देने ही वाले हैं तो मेहनत क्यों करूँ?" एक ज्ञानी उधर से निकले, मतिभ्रम में ग्रस्त लड़के की हालत समझी और प्यार से दूसरे दिन सबेरे उसे अपने पास बुलाया और कुछ उपहार देने को कहा। युवक भावुक था। सबेरे ही पहुँच गया। ज्ञानी ने पूछा- 'कैसे आये?' उसने उत्तर दिया- 'पैरों से चलकर। ' ज्ञानी ने उसे मिठाई उपहार में दी और कहा- "तुम पैरों से चलकर मेरे पास तक आये तभी मिठाई पा सके। ईश्वर रोटी देता तो है पर देता उसी को है जो हाथ पैरों के पुरुषार्थ से उसे कमाने और पाने के लिए चलता है। जब मेरा मिष्ठान्न तुम बिना पैरों से चले प्राप्त नहीं कर सके, तो भगवान द्वारा दी जाने वाली रोटी कैसे प्राप्त कर सकोगे ?"

महापुरुष अपने समय और समाज को इस पलायनवादी वृत्ति से बचाने और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में धर्मधारणा के विकास को ही उपासना- आराधना समझ कर सम्पन्न करते रहे हैं। 

बुद्ध और विनायक

भिक्षु विनायक को वाचलता की लत पड़ गई थी। जोर- जोर से चिल्लाकर जनपथ पर लोगों को जमा कर लेता और धर्म की लम्बी- चौड़ी बातें करता। 

तथागत के समाचार मिला तो उन्होंने विनायक को बुलाया और स्नेह भरे शब्दों में पूछा- 'भिक्षु यदि कोई ग्बाला सड़क पर निकलने वाली गायें गिनता रहे तो क्या उनका मालिक बन जायेगा?, विनायक ने सहज भाव से कहा- ' नहीं भन्ते! ऐसा कैसे हो सकता है। गौओं के स्वामी ग्वाले को तो उनकी सम्भाल और सेवा में लगा रहना पड़ता है। ' तथागत गम्भीर हो गये। उनने कहा- 'तो तात! धर्म को जिह्वा से नहीं जीवन से व्यक्त करो और जनता की सेवा साधना में संलग्न रहकर उसे प्रेमी बनाओ। ' इस तरह सत्कर्म को पाठ तक नहीं, कर्तव्य में भी उतार लिया जाय, तो जीवन में सच्चे अर्थो में समग्रता आ जाती है। 

उवाच विष्णुर्ज्ञानार्थं कथा प्रज्ञापुराणजा। 
विवेच्या, कर्मणे प्रज्ञाभियानस्य विधिष्वलम्॥६५॥
विधयोऽस्य च स्वीकर्तुं प्रगल्भान्प्रेरयानिशम्। 
युगस्य सृजने सर्वे सहयोगं ददत्वलम् ॥६६॥
यथातथा विवोध्यास्ते भावुका अंशदायिन। 
समयस्य च दातार: सोत्साहा उस्फुरन्तु यत् ॥६७॥
संयुक्तशक्त्या श्रेष्ठानां दुर्गावतरणोज्ज्वला। 
प्रचण्डता समुत्पन्ना समस्या दूरयिष्यति॥६८॥। 

टीका-  विष्णु भगवान् ने कह- ज्ञान के लिए प्रज्ञा पुराण का कथा विवेचन उचित होगा और कर्म के लिए प्रज्ञा अभियान की बहुमुखी गतिविधियों में से प्रगल्भों को उन्हें अपनाने की प्रेरणा निरन्तर देनी चाहिए। युग सृजन में सहयोग करने के लिए सभी भावनाशीलों में समय दान, अंशदान की उमंग उभारनी चाहिए। वरिष्ठों की इस संयुक्त शक्ति से ही दुर्गावतरण जैसी प्रचण्डता उत्पन्न होगी और युग समस्याओं के निराकरण में समर्थ होगी ॥६५- ६८॥

व्याख्या- युग चेतना को व्यापक करने के बाद कर्म में प्रवृत्त होने के लिए भगवान प्रगल्भों की चर्चा करते हैं। प्रगल्भ अर्थात् साहसी। ऐसे शूरवीर जो सत्प्रयोजनों के लिए कमर कस कर तैयार हो जायें। 

अवतारों में उच्चस्तरीय वे ही माने जाते हैं जिनमें सन्त सी पवित्रता, सुधारक सी प्रखरता के साथ ऋषियों जैसी तत्व दृष्टि होती है। वे उत्कृष्टता को समर्पित होते हैं। अहंता के परिपोषण में लगने वाली शक्ति समर्पण के बाद उनके पास इतनी अधिक मात्रा में बच जाती है जिसके आधार पर सामान्य व्यक्ति भी असामान्य काम कर दिखाते हैं। भगवान कृष्ण, राम, ईसा, दयानन्द, गाँधी, गुरुगोविन्दसिंह, बुद्ध, मीरा, शंकराचार्य, ज्ञानेश्वर, समर्थ रामदास ऐसे जीते जागते प्रमाणों में से हैं, जिन्होंने प्रतिकूलता से जूझने का साहस दिखाया व सत्प्रयोजन में लगने के लिए असंख्यों को प्रेरित किया। 

ऐसे व्यक्तियों का संगठन तो वह प्रचण्ड चमत्कार कर दिखाता है जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकी। 

संघे शक्ति: कलौयुगे

असुरता के नाश के लिए ऋषिगणों ने अपना रक्त एकत्र कर घड़ा भरा व सीता की उत्पत्ति हुई जो राम अवतरण तथा रामराज्य की स्थापना का निमित्त करण बनी। यह संघशक्ति का ही चमत्कार है। वह उपख्यान सर्वविदित है जिसमें देवताओं की संयुक्त शक्ति से दुर्गा का उद्भव, महादैत्यों का वध तथा देवताओं का परित्राण सम्भव हो सका। रीछ- वानरों के संयुक्त प्रयास से सेतु बंध, ग्वाल- बालों के सहयोग से गोवर्धन उठाना ऐसे तथ्य हैं जिनमें प्रगल्भों- पुरुषार्थियों के स्नेह- सहकार के आधार पर कठिन कार्य के सरल हो जाने की सच्चाई को इन कथा- गाथाओं के माध्यम से प्रकट किया गया है। 

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