ईक्कीसवी सदी के लिए हमें क्या करना होगा ?

यह सरल है, कठिन नहीं

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>
सर्वतोमुखी श्रेय-साधना का यह सर्वश्रेष्ठ समय है। इसे चूका नहीं जाना चाहिए। जो उपयुक्त अवसर पर मुंह मोड़ते और पीठ दिखाते हैं, वे परीक्षा भवन में गायब हो जाने वालों की तरह सदा-सर्वदा पछताते ही रहते हैं। इस भूल को अनेक बार दुहराया जाता रहा है, पर जब भगवान ने सुदामा से उसकी तंदुल-पोटली मांगकर बदले में टूटे छप्पर वाली सुदामापुरी को सर्वसम्पन्न सृजित द्वारिकापुरी के रूप में बदलने का आमंत्रण भेजा है; तब उस स्वर्ण सौभाग्य को स्वीकार करने में आना-कानी नहीं ही की जानी चाहिए। पेट और प्रजनन की छोटी सी परिधि में तो कीड़े-मकोड़े भी अपना समय गुजार लेते हैं, पर जब कल्पवृक्ष के नीचे विश्राम मंच किसी ने बिछाया हो, तो उस पर बैठने भर में आना-कानी क्यों करनी चाहिए।
फालतू पैसे वाले, अपना ढिंढोरा पिटवाने के लिए भी धनदान उपेक्षापूर्वक कर देते हैं, पर उच्चस्तरीय लक्ष्य पर चल पड़ना तभी बन पड़ता है, जब श्रद्धा, सद्भावना और उत्कृष्टता का उसके साथ समुचित समावेश बन पड़े। परीक्षा की इस घड़ी में यहां जांच-खोज हो रही है कि यदि कहीं महानता जीवित होगी, तो वह इस नव निर्माण के पुण्य-पर्व पर अपनी जागरूकता और सक्रियता का परिचय दिये बिना न रहेगी। दिनमान का अभिनन्दन करने में मात्र निशाचर ही मुंह छिपाते देखे गये हैं।
गांधी और बुद्ध के आह्वान पर असंख्यों ने अपने तथाकथित आवश्यक काम छोड़कर भी उन दिनों के महान अभियान में अपनी कारगर भूमिका निबाही थी और पीढ़ियों तक के लिए यश गाथा सुरक्षित छोड़ कर गये थे। वर्तमान को यह उलाहना नहीं सहना चाहिए कि एक समय ऐसा भी रहा है, जिसमें चोर-चालाकों की भी भरमार थी और आदर्शवादी शौर्य-साहस का एक प्रकार से बीज नाश हो ही गया था। युग सृजन के लिए समयदान-यह ही आज का पुण्य-पराक्रम है, जिसका परिचय देने के लिए जीवन्तों में से हर एक को आगे आना चाहिए।
लिप्सा, तृष्णा और अहंमन्यता के उन्माद पर यदि थोड़ा अंकुश लगाया जा सके, तो हर किसी के पास इतना समय श्रम और साधन सहज बच जाता है, जिसके बल-बूते सराहनीय स्तर पर युग धर्म निबाहते बन पड़े। जो सादा जीवन जी सकेगा और वही उच्च विचारों की अवधारणा में समर्थ हो सकेगा। अच्छा हो—वासना, विलासिता की जंजीरों को कम से कम इस अवधि काल में थोड़ा ढीला कर ही लिया जाय। भौतिक महत्त्वाकांक्षा के लिए आतुर होने पर अंकुश लगाया जाय।
अपरिग्रही साधु-ब्राह्मण ही दैवी प्रयोजनों को पूरा कर सकने में समर्थ हुए हैं। लिप्सा और तृष्णा की समुद्र जैसी खाई को पाट सकना, किसी से भी नहीं बन पड़ा। सोने के पहाड़ जमा करने से कोई लाभान्वित नहीं हुआ। जब विश्वविजयी बनने के लिए सब कुछ कर गुजरने के लिए उद्धत महादैत्यों के लिए असीम मनोकामनाओं को पूरा कर सकना संभव नहीं हुआ, तो सामान्य योग्यता और क्षमता वाले, कुछ कहने लायक सुखोपभोग कर सकेंगे, इस मान्यता को उपहासास्पद ही बनना पड़ेगा।
जो तृष्णाओं को मर्यादित कर सके, जिनकी परमार्थ-भावना गहरी खुमारी से उबर सके, उनमें से किसी के लिए भी इन दिनों की अनिवार्य समयदान योजना को उदारतापूर्वक पूरी करने से वंचित न रहना पड़ेगा। व्यस्तता और अभावग्रस्तता तो मात्र बहाने हैं। अभिरुचि होने पर जब अवांछनीय कार्यों के लिए सारा समय और मनोयोग खपाते रह सकते हैं, तो कोई कारण नहीं कि भावनाशीलों के लिए युग चिन्तन के अनुकूल बनने में कोई ऐसा व्यवधान सामने आये, जिसे हटा सकना बन ही न पड़े।

<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118