ईक्कीसवी सदी के लिए हमें क्या करना होगा ?

तपने और तपाने की आवश्यकता क्यों पड़ी?

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>
शान्तिकुंज के सूत्र संचालक के जीवन में घटित-घटनाओं में से कुछ की जानकारी और प्रयत्नों की प्रतिक्रिया का तारतम्य समझ लेने के उपरान्त अनेकानेक आगन्तुकों ने अपनी जानकारी के आधार पर कई बातें पूछी—कि ‘अगले दिनों आप एकान्तवास की साधना करेंगे और कठोर तपश्चर्या में निरत रहने का संकल्प साधेंगे। ऐसा क्यों? जब धर्मधारणा और सेवा-साधना से ही ईश्वर भक्ति का प्रयोजन बहुत अंशों में पूरा हो जाता है, तो एकान्त तपश्चर्या की अतिकष्टसाध्य प्रक्रिया अपनाने का क्या प्रयोजन? इससे तो आपकी, जन सम्पर्क, कार्यक्रमों का नियोजन, मार्गदर्शन एवं सेवा-सहयोग की अन्यान्य क्रिया-प्रक्रियाएं, जो इन दिनों चलती हैं, वे भी न बन पड़ेंगी? आपको कष्टसाध्य उपक्रम अपनाकर अनेक असुविधाओं से भरी जीवनचर्या बितानी पड़ेगी और सम्पर्क में आने वाले जो निरन्तर लाभ उठाते रहते हैं, उनसे उन्हें वंचित रहना पड़ेगा।
प्रश्न समझदारी पूर्ण, गंभीर और उलझन भरा था। सो उस संबंध में चर्चा के अवसर पर मात्र उन्हें ही सम्मिलित रखा गया, जिन्हें अध्यात्म-विधा को, पृष्ठभूमि के साथ पहले से भी गहराई स्तर तक समझने का अवसर मिलता रहा है।
कहा गया है कि अब तक जो सेवा और साधना चलती रही है, उसका प्रभाव स्थूल जगत तक, पदार्थ जगत तक—मार्गदर्शन और सीमित अनुदान दे सकने जितनी क्षमता अर्जित कर सकता है। पर अगले समय असाधारण रूप से विकट हैं। उसके लिए इतनी सीमित क्षमता पर्याप्त न होगी। विशिष्ट स्तर की प्रचंडता उत्पन्न करने के लिए उच्चस्तरीय तपश्चर्या से कम में काम नहीं चलता। भगीरथ, दधीचि, ध्रुव, सप्तऋषि स्तर की उस तपश्चर्या की आवश्यकता पड़ती है, जो प्रत्यक्ष शरीर में अधिक बढ़ी-चढ़ी क्षमता उत्पन्न करने तक सीमित न रहे; वरन् सूक्ष्म शरीर, कारण शरीर की गहराई में प्रवेश करके उच्चस्तरीय प्राण-चेतना का ऐसा भंडार संचय कर सके, जो विषम परिस्थितियों से लोहा ले सके और असाधारण दिव्य-उत्पादन में अपनी सामर्थ्य का परिचय दे सके। सूक्ष्म जगत में संव्याप्त विकृतियों को भी बुहार सके।
इन दिनों विकृतियों और विपन्नताओं के घटाटोप छाये हुए हैं। आकाश प्रदूषण से भर गया है। जलवायु में विषाक्तता की मात्रा इतनी बढ़ गई है कि इससे प्रकृति ने विद्रोह खड़ा कर दिया है। विविध प्रकार के प्रदूषण अपने-अपने क्षेत्र में ऐसे संकट खड़े कर रहे हैं, जो विदित व्यावहारिक उपाय-उपचारों से नियंत्रण में नहीं आ रहे हैं। दुर्भिक्ष, युद्धोन्माद, राजनैतिक विग्रह, अपराधों की बाढ़, विचार विकृति का तूफानी प्रवाह मिलजुलकर ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न कर रहे हैं, जिससे अपनी धरती पर जीवधारियों का निर्वाह कठिन हो जाय। शारीरिक-मानसिक रोगों की अभिवृद्धि नियंत्रण से बाहर हो जाय। शालीनता का व्यवहार और प्रचलन ढूंढ़ पाना दुर्लभ हो जाय। अनाचारजन्य उपद्रवों की रोकथाम का उपाय-उपचार असफल रहने लगे। व्यक्ति और समाज को पग-पग पर विपत्तियों का सामना करना पड़े।
प्रस्तुत अवांछनीयता को हटाने-घटाने के लिए असाधारण प्रवाह विनिर्मित करना आवश्यक होगा। देवत्व को पराजित होने से बचाने के लिए उसी दिव्य शक्ति का अवतरण होना चाहिए, जो महाकाली की तरह दैत्य-सत्ता से लोहा ले सके, उसे परास्त कर सके। मनुष्य को ऐसा वरदान मिले, इसके लिए प्रचण्ड तप के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं। तप शक्ति से ही देव सत्ता का अवतरण संभव होता रह सकता है। ऋषि-तपस्वियों द्वारा अनेक बार का परिचित उपचार इन दिनों भी अपनाये जाने की आवश्यकता पड़ गयी है। सो उसे करने के लिए ऐसे दुस्साहसपूर्ण कदम उठाये जा रहे हैं।
सत्प्रयोजनों में आसुरी शक्तियां सदा आक्रमण करती और विघ्न उपस्थित करती हैं। विश्वामित्र के यज्ञ को असफल करने में निरत सुबाहु, मारीच, ताड़का आदि के उपद्रवों का सामना करने के लिए राम-लक्ष्मण की सहायता आमंत्रित की गयी थी। कालनेमि, अहिरावण और सुरसा-हनुमान को असफल करने जा रहे थे। इस सबका सामना दिव्य शक्ति के माध्यम से ही संभव हो सका। अगले दिनों भी ऐसी ही प्रचण्ड सामर्थ्य उपार्जित की जानी है।
भस्मासुर, वृत्तासुर, महिषासुर, अघासुर आदि ने दैवी प्रयोजनों में कितने विघ्न उत्पन्न किये थे, यह सर्वविदित है। इस बार सतयुग की वापसी वाली प्रस्तुत दैवी योजना पर भी ऐसे ही आसुरी संकट आते और अपनी भरपूर सामर्थ्य लगाते रहेंगे। उनका सामना भी समान स्तर की देवी शक्ति से ही किया जा सकता है।
परिजनों में से अनेकों अवगत हैं कि शान्तिकुंज की युग निर्माण योजना का कितने दुरात्माओं ने समय-समय पर अपनी छोटी सामर्थ्य के अनुरूप चिकोटी काटने और हक मारने में कमी नहीं रहने दी। वे आक्रमण तो आसानी से रद्द और निरस्त कर दिये गये, पर भारत के भीतर, पड़ोस में तथा विश्व के हर कोने में जो आतंकवादी आक्रामकता छाई हुई है, वह न जाने कब, क्या अड़ंगा खड़ा कर दे, इसे कोई नहीं जानता। ऐसी दशा में विश्वशांति की सुरक्षा करने के लिए ऐसी सतर्कता और शक्ति चाहिए, जैसी कि वन्य-पशुओं की भरमार वाले एक छोटे से खेत की सुरक्षा के लिए रखवाले के सारे परिवार को जुटा रहना पड़ता है। भले ही हम आक्रमणकारी न हों, पर आक्रान्ताओं से आत्मरक्षा करने के लिए कुछ तो करना ही होगा। आतंक का आवेश तो ठण्डा करने की आवश्यकता तो रहेगी ही। यह एक बड़ी व्यापक और भयंकर समस्या है, जिससे निपटने के लिए उस स्तर की तैयारी हर हालत में अपेक्षित है, जैसी कि शान्तिकुंज के सूत्रधार ऐकान्तिक प्रचण्ड तपश्चर्या द्वारा समर्थ आत्म शक्ति को संग्रह कर रहे हैं।
संकटों की कोई कमी नहीं है। उनसे कोई क्षेत्र बचा नहीं है। तोप-बंदूक के धमाके हुए बिना भी ऐसी परिस्थिति बनी रह सकती है, जो आतंक, आशंका, विपत्ति और अराजकता जैसी अवांछनीयता बनाये रहे। युद्ध आग्नेय ही नहीं होते, शीत युद्धों की अनेक किस्में भी ऐसी हैं, जो विप्लवी परिस्थितियां बनाये रह सकती हैं और अपनी परिधि में उन्मादी अशान्ति खड़ी किए रह सकती हैं। शान्ति की परिस्थितियां बनाये रहने के लिए इससे भी बड़ी क्षमता हाथ में रहनी चाहिए। प्रस्तुत तपश्चर्या को ऐसी ही शक्ति साधना समझा जा सकता है। अवांछनीयताओं, अनाचारों, आपदाओं, मूढ़ मान्यताओं, कुरीतियों और विडम्बनाओं से जूझने के लिए भी कारगर हथियार चाहिए। सीधे-साधे तरीके से तो दहेज वाली बर्बादी भरी शादियों तक से छुटकारा नहीं पाया जा सका तो और भी अनौचित्य की जो विषम विडम्बनाएं घटाटोप की तरह घहरा रही हैं, उनको लेख-लेक्चर जैसे दुर्बल साधनों से कैसे निरस्त किया जा सकेगा। विषैले प्रदूषण की तरह अनाचार भरा वातावरण भी कम घातक नहीं। विपन्नताएं वे ही नहीं होतीं जो घटाओं के रूप में प्रत्यक्ष दीखती हैं, उनकी गहरी जड़ें अदृश्य वातावरण में, सूक्ष्म जगत में भी विद्यमान रहती हैं। उन्हें निर्मूल करने के लिए आत्मशक्ति की प्रचण्डता भी कम आवश्यक नहीं है।
बुद्ध और गांधी ने मात्र उपदेश ही नहीं दिये थे, ऐसे संघर्ष भी खड़े किए थे, जो व्यापक अनाचार को निरस्त कर सके। दयानन्द, विवेकानन्द, गुरुगोविन्द सिंह जैसों को भी इसी वर्ग में गिन सकते हैं। उनकी सफलता के अन्य कारण भी जुड़े हुए रहे होंगे, पर आत्मशक्ति की बहुलता का विद्यमान आधार भी उस संदर्भ में नकारा नहीं जा सकता। आज की अवांछनीयताओं को भी अपने निराकरण के लिए ऐसी ही आत्मशक्ति अपेक्षित है। समुद्र सोखने वाले अगस्त्य मुनि को, और विचार तंत्र को उलटने वाले परशुराम के कुल्हाड़े को भी विस्मृत नहीं किया जा सकता।
अगले दिनों अनेक खाई-खंदकों को पाटना आवश्यक होगा। साथ ही टीलों को भी झुकने के लिए विवश करना होगा। समतल भूमि तभी बन सकेगी और उसी पर कोई भव्य निर्माण संभव हो सकेगा। खेत उगाने के लिए भी तो समतल भूमि चाहिए। ऐसे प्रसंगों में प्रायः बुलडोजर प्रयुक्त करने पड़ते हैं। रेगिस्तानों को हरे-भरे बनाने के लिए समतल करके नहरों का, जल-स्रोतों का प्रबंध करना पड़ता है। ऐसी ही एक व्यवस्था आत्मशक्ति की उपलब्धि भी है। गंगा लाने का श्रेय भगीरथ को जाता है और मन्दाकिनी को अवतरित करने में महातपस्विनी अनुसूया का पुरुषार्थ काम आया था। पाताल गंगा अर्जुन के धनुष-बाण से प्रादुर्भूत हुई थी और उसी से भीष्म की प्यास बुझी थी।
तपते सूर्य की किरणों से, समुद्रों से भाप के अम्बार उठते हैं। बादलों का जन्म उसी से होता है। वर्षा ऋतु ही हरीतिमा और खाद्य-सम्पदा का उत्पादन करती है। यह तय की गरिमा है। उज्ज्वल भविष्य के निर्माण हेतु प्रचुर साधन-सामग्री की आवश्यकता पड़ेगी। उसका उत्पादन मात्र मन्त्र से नहीं होगा। अपेक्षित तप शक्ति ही है, जो हिमालय पिघला सके, तो हाहाकारी प्यास को अपने बलबूते शान्त कर सके। ऐसे ही अनेक कारण हैं, जो उस तपश्चर्या के साथ जुड़े हैं, जो शान्तिकुंज के सूत्र-संचालक द्वारा इसी वसंत पर्व से कठोर अनुबंधों के साथ आरम्भ की गयी है।

<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118