उज्ज्वल भविष्य की विश्वव्यापी संरचना के लिये आवश्यक समझा गया है कि संसार भर में रह रहे 600 करोड़ मनुष्यों में से प्रत्येक को मानवी गरिमा और मर्यादा के अनुरूप चिन्तन, चरित्र और व्यवहार अपनाने के लिये सहमत ही नहीं, बाधित भी किया जाय। दुर्बुद्धिजन्य अनीति अपनाने पर तो, समग्र एवं समर्थ उत्कृष्टता की संभावना ही नहीं बनती। व्यापक लोक-मानस का परिष्कार यद्यपि बहुत बड़ा कार्य है, फिर भी उसे सम्पन्न किये बिना और कोई विकल्प नहीं। जिस ढर्रे पर हम सब इन दिनों चल रहे हैं, वह पतन और पराभव का ही है। उसे अपनाये रहने पर महाविनाश की परिस्थितियां ही उत्पन्न हो सकती हैं।
इतना बड़ा काम कैसे किया जाय? कौन करे? इस संबंध में उथले विचार करने पर बिल्ली के गले में चूहे द्वारा घंटी बांधे जाने की बात बनना असंभव ही लगता है; पर जब यह विचार सामने आता है कि एक छोटी नर्सरी में लगाये हुए पौधे जब स्थान-स्थान पर आरोपित किये जाते हैं, तो अगणित वृक्षों से सजा उद्यान, सघन वन विनिर्मित होता है; तो साहस उभरता है। विश्वास होता है कि अच्छे शुभारंभ का परिणाम यह भी हो सकता है कि विश्व-व्यवस्था में असाधारण परिवर्तन असंभव न रहकर संभव होगा। पिछले दिनों बौद्ध धर्म, ईसाई धर्म और साम्यवादी मान्यता ने किस प्रकार गति पकड़ी और चिनगारी से दावानल जैसा रूप धारण किया, यह बात किसी से छिपी नहीं है।
शान्तिकुंज ने इस दिशा में जो श्रीगणेश-शुभारंभ किया है, वह अपने पांच लाख पंजीकृत और पच्चीस लाख सहयोगी-समर्थकों द्वारा आरंभ होता है। इस देव-समुदाय में से प्रत्येक को एक से पांच में विकसित होने के लिए कहा गया है। पांच से पच्चीस पच्चीस से एक सौ पच्चीस, एक सौ पच्चीस से छै सौ पच्चीस वाली गुणन-प्रक्रिया यदि अनवरत रूप से गतिशील रहे, तो मिशन का प्रस्तुत समुदाय भी कुछ बड़ी छलांगों में समूचे मनुष्य-समुदाय तक संसार भर में अपना प्रकाश पहुंचा सकता है। इस विश्वास के साथ मजबूत कदम उठाने और समर्थ कार्यक्रम चलाये गये हैं।
मिशन की यह घोषित प्रतिज्ञा सर्वविदित है कि युगसंधि के इन्हीं दस वर्षों में एक लाख से अधिक संगठन-समारोह सम्पन्न करने हैं और अपने बलबूते ही युग-संधि की पूर्णाहुति में एक करोड़ ऐसे लोग सम्मिलित करने हैं, जो नव-सृजन के प्रति निष्ठावान हों। अपनी पूर्णाहुति यदि एक ही जगह सम्पन्न की जाय, तो यह सचमुच बहुत कठिन होगा। इसलिए उसे स्थान-स्थान पर करने की योजना बनी है।
सन् 58 में गायत्री तपोभूमि, मथुरा में सम्पन्न हुए एक हजार कुंड वाले यज्ञ का जिन्हें स्मरण है, उन्हें विदित है कि उसमें चार लाख याजक और 10 लाख दर्शक उपस्थित हुए थे। उनके ठहरने आदि की व्यवस्था दस मील के दायरे की भूमि घेरने पर संपन्न हुई थी। उन दिनों सम्बद्ध व्यक्तियों को यह आश्चर्य होता था कि इतने बड़े समारोह से संबंधित अनेकानेक जटिल व्यवस्थाएं किस प्रकार जुटायी जा सकेंगी, किस प्रकार इतने साधन एकत्रित हो सकेंगे; पर उन आश्चर्यचकित लोगों में से प्रत्येक को यह एक तथ्य स्वीकार करना पड़ा था कि दैवी शक्तियों के मनोरथ सचमुच ही ऐसे होते हैं, जिसमें ‘‘असंभव’’ शब्द का प्रयोग कहीं नहीं हो सकता। आकाश के ग्रह-नक्षत्रों का, धरती का, वनस्पतियों और प्राणियों का, जलाशयों की लहरों पर खेलते जल-जीवों का, संकल्प मात्र से जो सत्ता सृजन कर सकती है, उसके लिए इतने बड़े आयोजन समारोह का संयोग बिठा देना क्यों कुछ कठिन होगा? उस समारोह की सफलता देखते ही बनती थी।
उस अनुमान के आधार पर जो मनोबल और संकल्प उभरा है, उसने एक प्रकार से निश्चित ही कर दिया है कि अगले बड़े कदम भी डगमगायेंगे नहीं। एक लाख समारोह-संगठन—एक करोड़ भागीदार, जिस आयोजन में सम्मिलित हो सकते हैं, वह वायु, रोशनी, गर्मी, वर्षा की भांति अपना विस्तार संसार भर में भी कर सकता है। साधारणजनों से भी असंख्य गुना दृढ़-विश्वास इस संदर्भ में उन्हें है, जो शान्तिकुंज जैसे छोटे कुटीर में रहकर इक्कीसवीं सदी के साथ जुड़े हुए उज्ज्वल भविष्य की, सतयुगी वातावरण के अवतरण की आशा संजोये बैठे हैं।
विचार उतरा कि एक स्थान पर इतना बड़ा आयोजन करने पर प्रयाग कुम्भ जैसे अनेकों समारोह एकत्रित करने जैसी व्यवस्था बनानी होगी; साधन जुटाने होंगे और पर्यावरण पर जो प्रदूषण का दबाव पड़ेगा, वह सारी व्यवस्था लड़खड़ा देगा। इतने बड़े मेले में सम्मिलित लोग परस्पर परिचित एवं संगठित भी न हो सकेंगे और घुल-मिल भी न सकेंगे। भविष्य की वैसी रूपरेखा भी न बन पायेगी, जैसे कि सन् 58 के सहस्रकुण्डीय यज्ञ के साथ 6 हजार शाखाओं र एक लाख कार्यकर्ताओं का हाथों-हाथ गठन बन पड़ा था।
इस कठिनाई पर गंभीरतापूर्वक विचार करने के उपरान्त मार्गदर्शक सत्ता ने सुझाया है कि यह अधिक अच्छा होगा कि एक स्थान पर इतना बड़ा समारोह न करके उसे खण्डों में विभाजित कर दिया जाय। अनेकों केन्द्रों में उनकी शक्ति और सामर्थ्य के अनुरूप इस महान संकल्प को छोटे-छोटे खण्डों में कार्यान्वित किया जाय।
इन दिनों 2400 विनिर्मित प्रज्ञापीठें हैं, जिनमें दर्शनीय और कीमती इमारतें बनी हुई हैं। जहां नियमित रूप से निर्धारित गतिविधियों का सूत्र-संचालन होता है। इनके अतिरिक्त नवनिर्मित 24 हजार केन्द्रों की व्यवस्था भी की जा रही है। यह सचल स्तर के होंगे। जहां ज्ञान रथ चलेंगे, जहां तीर्थ यात्रा के साइकिल जत्थे निकलेंगे, जहां साप्ताहिक सत्संगों के निर्धारण क्रियान्वित होंगे, वे भव्य इमारतों के रूप में दृष्टिगोचर भले ही न हों, पर उपयोगिता की दृष्टि से यह चल केन्द्र अचल निर्माणों से किसी भी प्रकार कम न होगा। विश्वासपूर्वक प्रयत्न चल रहा है कि न केवल पिछले 2400 प्रज्ञापीठ अधिक सक्रिय हों, वरन् नव-निर्मित 24 हजार प्रज्ञा केन्द्र भी उपयोगिता की दृष्टि से अपने को अधिक शक्तिशाली सिद्ध करें। यह चल-अचल केन्द्रों की संख्या पच्चीस हजार से अधिक हो जाती है।
योजना यह चल रही है कि एक लाख आयोजनों और एक करोड़ भागीदारों को इन नये-पुराने प्रज्ञा-केन्द्रों को आबंटित कर दिया जाय। इससे देश के कोने-कोने में नव जागरण का आलोक प्रसारित होगा और एक स्थान पर इतना दबाव एकत्रित न होगा जो अव्यवस्था पैदा करे और असाधारण रूप से भारी पड़े। यह विभाजन-आबंटन योजना इन दिनों पूरे उत्साह के साथ क्रियान्वित की जा रही है और केन्द्रों की हर इकाई अपनी भागीदारी निर्धारित करने के लिए पूरी दौड़-धूप कर रही है।
इस विभाजन-प्रक्रिया की सरलता को देखते हुए यह भी आशा की गयी है कि एक लाख केन्द्र और एक करोड़ भागीदार बनाने के पूर्व निर्धारण को, नयी रीति-नीति के आधार पर कई गुनी संख्या में फलित होने का अवसर मिलेगा। इतने सृजन शिल्पी सन् 2000 तक विनिर्मित हो जायेंगे, जो इक्कीसवीं सदी के अवतरण में—भागीरथी भूमिका निबाह सकें, स्वयं धन्य बन सकें, योजनाकारी सत्ता को संतुष्ट कर सकें और यह भी दिखा सकें कि दैवी मार्गदर्शन में चलने वाले प्रयास युग परिवर्तन जैसे असाधारण असंभव लगने वाले कार्य को मनुष्यों के सहारे ही साधारण और संभव बना सकते हैं।