ईक्कीसवी सदी के लिए हमें क्या करना होगा ?

अध्यात्म अविश्वस्त सिद्ध हुआ तो?

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साधना, शक्ति की की जाती है। शक्ति, समृद्धि या प्राण-प्रवाह रूप में प्रकट होती है। सम्पत्ति, सिद्धि और सफलता का चिह्न परस्पर पर्यायवाचक है। किसने, किस स्तर की साधना की इसका पता उसकी परिणति को देखकर ही जाना-समझा जाता है।
शरीर-बल की साधना करने पर बलिष्ठता, सुन्दरता आदि विभूतियों की प्राप्ति होती है, उसी के सहारे अभीष्ट उपलब्धियों के लिए पुरुषार्थ करते बन पड़ता है; आक्रमण किया या उसे निरस्त किया जा सकता है। रुपये पास में हों, तो बाजार में मिलने वाली हर वस्तु उससे खरीदी जा सकती है; सुविधा-साधनों का अभीष्ट मात्रा में संचय करते बन पड़ता है। अहंता का प्रदर्शन, चाटुकारों का समर्थन आदि की उपलब्धियां धन-बल के सहारे होती हैं। बुद्धिबल के धनी उच्च पदाधिकारी बनते हैं। वकील, डाक्टर, इंजीनियर, नेतृत्व, संयोजन-संचालन कर सकने की गौरव-गरिमा पायी-कमायी जा सकती है। दार्शनिक-वैज्ञानिक निर्णायक होने के लिए अभीष्ट मात्रा में बुद्धि-बल का संचय आवश्यक है।
युद्ध में शस्त्र-संचालन, साहस, रण-नीति का कौशल काम आता है। कलाकारिता की साधना करने वाले, साहित्यकार, कवि, संगीतज्ञ, चित्रकार, मूर्तिकार, अभिनेता आदि बनते हैं। इसी प्रकार संसार में अनेकानेक शक्तियों के अपने-अपने चमत्कार देखे जा सकते हैं। अशक्तों को अभाव, तिरस्कार, दौर्बल्य, पराजय आदि का ही भाजन बनते, जैसे-तैसे काम चलाते और परावलम्बन पर आश्रित रहते देखा जाता है। इसलिए बहुमुखी शक्तियों में से किसी न किसी की साधना के लिए मनुष्य को प्रयत्नशील होना पड़ता है।
शक्तियों में सर्वोपरि स्तर की क्षमता आत्मबल है। उसे अलौकिक, असाधारण माना जाता है। इस स्तर के प्रयासों को परम पुरुषार्थ गिना जाता है। उनकी ललक उच्चस्तरीय होती है। वे आत्मबल सम्पादित करने के लिए उन्मुख-तत्पर होते हैं। इसकी कीमत तपश्चर्या के रूप में चुकानी पड़ती है और वे इसे प्रसन्नतापूर्वक चुकाते हैं। उपार्जन के लिए पूंजी तो जुटानी ही पड़ती है। शक्तिवानों में से प्रत्येक को यही करना पड़ा है।
ऋषियों को आत्मबल सम्पादन की साधना के लिए-अभीष्ट तपश्चर्या के लिए साहस जुटाते रहना पड़ा है। योगी-तपस्वी अपने कार्यक्रम इसी आधार पर विनिर्मित करते हैं। बदले में उन्हें जो कुछ मिलता है, उत्कृष्टता की दिशा-धारा का अवलम्बन करने के कारण हस्तगत भी ऐसा ही कुछ होता है, जिसे असाधारण, अद्भुत, अलौकिक कहा जा सके। इस बल के धनी होते ही इस स्तर के हैं, कि वे अपने को महामानव-धरती के देवता कह सकें। उन्हीं को ऋद्धि-सिद्धियों के अधिष्ठाता स्तर का, अभ्युदय कर सकने की स्थिति में पाया जाता है। अपने को अभ्युदय के चरम शिखर तक वे पहुंचाते हैं। अलौकिक स्तर की विभूतियों से सम्पन्न होते हैं। अपनी नाव पर बिठाकर अनेकों को भयंकर प्रवाह वाली नदी से उबारते, और पार उतारा करते हैं। वातावरण को—प्रवाह को बदल देना भी, ऐसों से ही बन पड़ता है। दैवी अनुकम्पा एवं सहायता भी ऐसे ही लोग विपुल मात्रा में हस्तगत करते हैं। उनमें दूसरों को प्रभावित करने वाली शाप-वरदान देने की क्षमता होती है। स्वर्ग और मुक्ति के नाम से दिव्य आनन्दों की जो चर्चा होती रहती है, उन्हें उपलब्ध कर सकना भी आत्मबल के अधिष्ठाताओं से बन पड़ता है। इन सनातन मान्यताओं को कोई भी, कभी भी यथार्थता की कड़ी कसौटी पर कस सकता है; आग पर तपाये, कसौटी पर कसे सोने की तरह खरा पा सकता है।
इस संदर्भ में भी इन दिनों एक भारी असमंजस भरी विपन्नता देखी जाती है। आत्म-साधना का अवलम्बन करने का दावा असंख्यों को करते देखा जाता है; पर उनमें वे विभूतियां नहीं देखी जातीं, जो इस दिशा में सफल पुरुषार्थियों में देखी जानी चाहिए। सफलता के लक्षण न दीख पड़ने पर विडम्बना का ही आरोप लगेगा। वह धनाध्यक्ष कैसा, जो रोटी-कपड़े जैसी सामान्य आवश्यकता न जुटा सके? वह पहलवान कैसा, जो सौ कदम की दौड़ न लगा सके? वह विद्वान कैसा, जो चिट्ठी-पत्री तक पढ़ने-लिखने में असमर्थता प्रकट करे? वह कलाकार कैसा, जो एकाग्र रहने तक की क्षमता प्रदर्शित न कर सके? इसी प्रकार आत्म साधना में अपने को संलग्न करने वालों के लिए क्या कहा जाय; जो न तो अपना निजी व्यक्तित्व परिष्कृत कर सके, जो न सामयिक विपत्तियों के समाधान में कोई योगदान दे सके? जिनमें दूसरों को प्रभावित परिवर्तित करने की सामर्थ्य, कुछ कहने लायक सफलता प्राप्त कर सकने की क्षमता न हो। जिनमें समय की मांग-प्रवाह के परिवर्तन और पतन को अभ्युदय में परिवर्तित कर सकने की क्षमता न हो। इन अभावों को देखते हुए सन्देह होता है कि या तो आत्मबल की, आत्म-साधना की जो महत्ता बतायी, महिमा गायी जाती रही है, वह अत्युक्ति या आलंकारिक है अथवा जो आत्म-साधना करने के दावेदार हैं, वे भ्रमग्रस्त हैं।
किसी समय आत्म-शक्ति से सम्पन्न अनेकों व्यक्तित्व थे। उनने अपनी अर्जित क्षमता के सहारे ऐसे कार्य कर दिखाये, जो साधारण जनों की दृष्टि में अलौकिक कहे जा सकें। विश्वामित्र, अगस्त्य, परशुराम, नारद, दधीचि जैसे तपस्वियों के नाम याद आते ही वे घटनाएं भी आंखों के सामने गुजरने लगती हैं, जिनमें उनने अपने समय में असाधारण पुरुषार्थ प्रकट करते हुए सिद्ध पुरुषों जैसे स्तर के प्रमाण-परिचय दिये थे।
आज साधु-संतों की जनसंख्या प्रायः 60 लाख के लगभग है। तंत्र-मंत्र की कला में अपने को प्रवीण-पारंगत कहने वालों के संख्या भी हजारों में हैं। देवी-देवताओं की पूजा-पत्री में निरन्तर निरत रहने वाले पुजारी वर्ग के लोगों की गणना भी लाखों में की जा सकती है, क्योंकि प्रस्तुत देवताओं में से हर मंदिर पीछे कम से कम एक पुजारी की नियुक्ति तो आंकी ही जा सकती है। व्यक्तिगत पूजा-पाठ में घंटों समय लगाने वाले भक्तजनों को गिना जाय, तो वे भी करोड़ों न सही, लाखों तो होंगे ही। पंडित-पुरोहित अपने को देवताओं का एजेन्ट बनाकर प्रचुर परिमाण में दान-दक्षिणा बटोरते रहे हैं। इस समूचे परिकर को एकत्रित करके गिना जाय, तो उनकी संख्या मात्र अपने देश में ही लाखों-करोड़ों में हो सकती है। प्रस्तुत तथ्य को नकारा भी नहीं जा सकता और साथ ही यह विश्वास भी नहीं किया जा सकता कि उनकी स्थिति वैसी ही है, जैसी कि कही, सुनी और बतायी जाती है। सामयिक समस्याएं इतनी हैं कि समर्थ अध्यात्म के सहारे, उन्हें इतने सारे लोग एकाकी न सही, तो मिल-जुलकर तो कर ही सकते हैं। किन्तु देखा इसके ठीक विपरीत जाता है। इन तथाकथित अध्यात्मवादियों की संख्या बरसाती उद्भिजों की तरह बढ़ती जा रही है। उनके द्वारा नियोजित कर्म काण्डों का भी अत्यन्त खर्चीला और आडम्बर भरा प्रदर्शन इतना बढ़ रहा है, जिसे आसमान छूने स्तर का कहा जा सके।
यह उलझन किसी प्रकार सुलझाने में नहीं आती कि आत्म शक्ति की प्रखरता जिस प्रकार बतायी जाती है, वह किस प्रकार विश्वस्त हो सकती है, जबकि हर क्षेत्र में संकटों, विग्रहों, अभावों और अनाचारों के अंबार लगे हुए हैं और उन्हें निरस्त करने में निरंतर बढ़ते हुए अध्यात्म-विस्तार का दबाव कुछ ऐसा नहीं कर पा रहा है, जिससे परिस्थितियां सुधरें, अवांछनीयताओं की बाढ़ रुके।
हो तो इतना भी नहीं रहा है कि उपरोक्त लाखों-करोड़ों वेशधारियों की संख्या लोक-हित की दृष्टि से कुछ न कर सके, तो कम से कम अपने आपको तो आदर्श व्यक्तित्व के रूप में प्रस्तुत करे। जिसके चिन्तन, चरित्र और व्यवहार-प्रयास को देखते हुए यह मान्यता बने कि अपने देश में उच्चस्तरीय व्यक्तित्व से सम्पन्न ऐसे लाखों-करोड़ों मौजूद हैं, जो अपनी उपस्थिति से जन साधारण की जन-जागरण में बढ़ती जा रही अश्रद्धा से निपट सकें। कम से कम इतना तो सिद्ध कर सकें कि अध्यात्म के दावेदार निजी जीवन में तो इतने प्रखर और प्रामाणिक होते ही हैं कि उनकी साक्षी में आत्म-विद्या की गरिमा को तो विश्वस्त समझा जा सके।
लगता है कहीं बहुत बड़ी गड़बड़ हो गयी है। कुछ को कुछ समझ लिया गया है। मात्र कलेवर को सब कुछ समझा गया है और वह आवश्यकता अनुभव नहीं की गयी कि उपासक को प्राणवान भी होना चाहिए। पूजा-कृत्यों के साथ अध्यात्मवादी की जीवनचर्या भी उच्चस्तरीय होनी चाहिए। उसके व्यक्तित्व में प्रामाणिकता एवं उत्कृष्टता का भी गहरा पुट होना चाहिए।
मात्र बहिरंग कलेवर का गठन कर लेना पर्याप्त नहीं होता। मिट्टी के खिलौने जैसी गाय से बच्चे का मन बहल सकता है, पर उससे दूध देने और बछड़े जनते रहने की आशा नहीं की जा सकती। काठ से बड़े हाथी की आकृति तो बन सकती है, पर उस पर सवारी करके लम्बी मंजिल पूरी करने की आशा नहीं की जा सकती। खोटे सिक्के देखने में असली जैसे लगते तो हैं, पर दुकानदार के हाथ तक पहुंचते-पहुंचते उपहासास्पद बनने लगते हैं। नकली तो आखिर नकली ही रहेगा। उससे मन बहलाया जा सकता है, पर वह प्रयोजन पूरा नहीं कराया जा सकता, जो असली के माध्यम से सम्पन्न हो सकता है।
नकली अध्यात्म के खिलौने से एक भारी हानि यह हो सकती है कि आध्यात्मिकता और आस्तिकता के तत्त्व-ज्ञान को ही लोग अविश्वस्त-अप्रामाणिक मानने लगें। उसे छद्म समझने और उसे प्रपंच से दूर रहने की बात सोचने लगें। यदि ऐसा हुआ तो आप्तवचनों में, संसार के उच्चस्तरीय प्रतिपादनों को भारी क्षति पहुंचेगी और उस नास्तिकता का बोलबाला होने लगेगा, जिसकी आड़ में अनैतिकता, असामाजिकता, अराजकता, अवांछनीयता की वृद्धि होने लगे। उत्कृष्टता, आदर्शवादिता को अनावश्यक समझा जाने लगे। महावत का अंकुश न रहने पर उन्मत्त हाथी किसी भी दिशा में चल सकता है और कुछ भी अनर्थ कर सकता है। आत्मिक तत्व के साथ जुड़े हुए उत्कृष्टता के, मर्यादाओं के, पुण्य-परमार्थ के विचार यदि बांध तोड़कर उच्छृंखलता की दिशा में चल पड़ें तो मनुष्य, मनुष्य नहीं रह जायेगा। उसे प्रेत-पिशाचों जैसे उद्दण्ड कोलाहल खड़े करते चारों ओर देखा जायेगा।
इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि इन दिनों कड़ुई गिलोय कड़ुए नीम पर चढ़ने का सम्मिलित कुयोग बन रहा है। भौतिक विज्ञान ने नियन्ता की मान्यता से इनकार करके विशुद्ध भौतिकवादी मान्यताओं को जन्म दिया है। आत्मा-परमात्मा को अमान्य ठहराकर प्रकारान्तर से उस नीति-निष्ठा की उपयोगिता से इनकार कर दिया है, जो अब तक किसी रूप में मानवीय गरिमा और मर्यादा से किसी सीमा तक मनुष्य को सराबोर बनाए हुए थी।
इसी के साथ-साथ यह दार्शनिक संकट उभरता दिखता है, जो अध्यात्म-आधारों के सहारे बड़े महत्वपूर्ण प्रयोजन सिद्ध होते रहने की आशा दिलाता रहा है; उच्चस्तरीय सिद्धियों और साधनों द्वारा व्यक्तित्व के देवोपम बनने की मान्यता पर विश्वास कराता रहा है।
वर्तमान परिस्थितियां सन्निपात जैसी बन गयी हैं। मनुष्य में विकसित पशुता द्वारा पतन के गर्त में गिरने का प्रोत्साहन, विज्ञान द्वारा नास्तिकता का पोषण तथा आत्मिक क्षेत्र में बढ़ रही विडम्बनाओं की भरमार जन-मानस को इतना भ्रमित कर रही है कि उनका प्रतिफल विनाशकारी रूप धारण करके ही सामने आ सकता है।

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