ईक्कीसवी सदी के लिए हमें क्या करना होगा ?

इस बार का वसन्त पर्व एवं उसकी उपलब्धियां

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लम्बी मंजिल लगातार चलकर पार नहीं की जाती। बीच में सुस्ताने के लिए विराम भी देना पड़ता है। रेलगाड़ी जंक्शन पर खड़ी होती है। पुराने मुसाफिर और असवाब उतारे जाते हैं, नये चढ़ाये जाते हैं। ईंधन भरने और सफाई करने की भी आवश्यकता पड़ती है। आर्थिक वर्ष पर पुराना हिसाब-किताब जांचा जाता है और नया बजट बनता है। भ्रूण माता के गर्भ में रहकर अंग-प्रत्यंगों को इस योग्य बना लेता है कि शेष जीवन उनके सहारे बिताया जा सके। किसान हर साल नयी फसल बोने और काटने का क्रम जारी रखता है। यह सब क्रम नित्य-लगातार नहीं होते! बीच-बीच में विराम के क्रम भी चलते-रहते हैं। फौजियों की टुकड़ी कूच के समय भी बीच-बीच में सुस्ताती है।
ब्रह्म कमल की एक फुलवारी 80 वर्ष तक हर साल एक नया पुष्प खिलाने की तरह अपनी मंजिल का निर्धारित विराम पूरा कर चुकी। अब नयी योजना के अनुरूप नयी शक्ति-संग्रह करके नया प्रयास आरम्भ किया जाना है। यह विराम-प्रत्यावर्तन लगभग वैसा ही है, जैसे वयोवृद्ध शरीर को त्याग कर नये शिशु का नया जन्म लिया जाता है और नये नाम से सम्बोधित किया जाता है।
सभी को तो नहीं, पर साथ में जुड़े हुए लोगों को इसका पूर्व संकेत विदित था। इसलिए उन्हें भूतकाल के आश्चर्यजनक रहस्यों और भविष्य के अभूतपूर्व निर्धारणों के सम्बन्ध में अधिक कुछ जानने की उत्सुकता एवं जिज्ञासा उभरी। समय रहते उनने प्रत्यक्ष पूछताछ करने की आतुरता प्रदर्शित की। सन् 90 का वसन्त आने के कई महीने पूर्व आत्मीयजनों के हरिद्वार आने का तांता लग गया। आगमन का उद्देश्य वह लाभ उठाने का था, जो किसी बड़े व्यवसायी के कारोबार में भागीदार बन जाने वालों को सहज ही मिलने लगता है। अनुसंधान-अन्वेषण भी एक कारण होता रहा है, रहस्यों का पता लगाने का सहज कौतुहल भी इस उत्साह का निमित्त कारण हो सकता है। जो हो, पिछले 6 महीने इसी ऊहापोह में बीते हैं। इस बीच इतने प्रज्ञापुत्रों का आगमन हुआ, जितना कि इस आश्रम के निर्माण से लेकर अब तक के पूर्व वर्षों में कभी भी नहीं हुआ। बहुसंख्य परिजनों के आगमन से भी अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह रही कि जिज्ञासुओं ने आग्रहपूर्वक वह सब उगलवा लिया जो रहस्यमय समझा जाता और लुक-छिप कर किया जाता रहा है। महत्त्वपूर्ण स्थानान्तरों के अवसर पर सहज सौम्यता इसके लिए बाधित भी तो करती ही है कि चलते समय तो गोपनीयता का, आश्चर्य-असमंजस का समाधान कर ही दिया जाय। सो कुशल-क्षेम सहज आतिथ्य के अतिरिक्त ऐसा भी बहुत कुछ पूछा बताया गया, जिनका तनिक दूर रहने वालों को अनुभव भी नहीं है। जो आ नहीं सके, उन्हें भी उस रहस्यमयी चर्चाओं की जानकारी प्राप्त करने से वंचित न रहना पड़े, यह विचार करते हुए आवश्यक रहस्यों को इन पंक्तियों में लिपिबद्ध कर देना उचित समझा गया; ताकि उपयोगी जानकारी से वे लोग भी वंचित न रहें, जो अबतक न सही अगले दिनों सम्पर्क में आयेंगे और अतीत के सम्बन्ध में उपयोगी जानकारी प्राप्त करने के लिए उत्सुक होंगे। कारण कि इस रहस्योद्घाटन में उनका भी तो ऐसा लाभ सन्निहित है, जो सबल लोगों के सहचरों को सहज मिलता रहता है।
अनुमान सभी को यह था कि इस तंत्र की प्रायः सभी महत्त्वपूर्ण गतिविधियों का प्रथम दिन वसंत पंचमी है। सो उस मुहूर्त को विशेष महत्त्व देने वाले आगन्तुकों की संख्या निश्चय ही पहले दिनों की अपेक्षा निश्चित रूप से अधिक रहेगी। हुआ भी ठीक ऐसा ही।
आश्रम की परिधि और आगन्तुकों के लिए साधनों की तुलनात्मक दृष्टि से कमी होने के कारण शान्तिकुंज के आश्रमवासी इस आपत्तिकालीन समस्या से निपटने में जुट गये। भूमि न मिल सकी, तो जितना स्थान पास में था, उसे बहुमंजिला और सघन बनाया गया। ढेरों काम श्रमदान से भी किया गया और जितनों के लिए जगह थी, उससे प्रायः ढाई-तीन गुना के लिए जगह बना दी गयी। भोजन-व्यवस्था के लिए बड़े आधुनिक यंत्र-उपकरण नये सिरे से लगाये गये और ऊपरी मंजिल पर बने भोजनालय से नीचे खाद्य पदार्थ लाने के लिए एक ट्राली (गुड्स लिफ्ट) को फिट किया गया। बिछाने के लिए फर्शों का अतिरिक्त प्रबन्ध किया गया। फिर भी असुविधा रहने की आशंका थी, पर काम किसी प्रकार चल गया, जैसे कि ईश्वर पर आश्रित लोगों का चल जाया करता है। इस बार का वसन्त पर्व न केवल आयोजन की दृष्टि से, वरन् स्वजनों के साथ आत्मीयता भरे परामर्श देने की दृष्टि से भी अनुपम रहा। लोगों ने इतना कुछ—ऐसा कुछ पाया, जिसकी आशा या संभावना कदाचित् थोड़ों को ही रही होगी।
सुनना अधिक-कहना कम, करना अधिक-बताना कम, सीखना अधिक-सिखाना कम जिनकी जीवन शैली रही हो, वे इतने गम्भीर प्रसंगों को इतनी सरलतापूर्वक बता देंगे, इस स्थिति का प्रावधान पाकर आगन्तुकों में से अधिकांश को भारी संतोष हुआ। सभी की जिज्ञासाओं की झड़ी लगी रही। इतनों को एक व्यक्ति इतना कुछ प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से बता सकता है, यह प्रसंग भी अपने आप में अद्भुत रहा।
अधिकांश जिज्ञासुओं ने एक जिज्ञासा प्रधान रूप से प्रकट की कि साधन रहित एकाकी व्यक्ति सीमित समय में इतने भारी और इतने व्यापक काम कर सकता है, इसका रहस्य क्या है? पूछने वालों को उन सर्वविदित बातों का तो पता ही था, जो कानों से सुनी और आंखों से देखी गयीं हैं।
मूल प्रश्न था, युग चेतना उभारने वाला इतना साहित्य कैसे सृजा गया? उसका अनेक भाषाओं में अनुवाद और प्रकाशन-प्रसार कैसे सम्पन्न हुआ? इतना बड़ा परिवार कैसे संगठित हो गया, जिसमें पांच लाख पंजीकृत और इससे पांच गुना अधिक सामयिक स्तर पर सम्मिलित उच्चस्तरीय व्यक्तियों का समुदाय जुड़ता चला गया और साथ चलता रहा? एक व्यक्ति के तत्त्वावधान में 2400 आश्रम, देवालय कैसे बन सके? शान्तिकुंज, ब्रह्मवर्चस्, गायत्री तीर्थ धाम—जैसे बहुमुखी सेवा-कार्यों में संलग्न संरचनाओं की इतनी सुव्यवस्था कैसे बन सकी? सुधारात्मक और सृजनात्मक आन्दोलन की देशव्यापी-विश्वव्यापी व्यवस्था कैसे बन गयी? ‘रोता आये—हंसता जाये’ वाला उपक्रम अनवरत रूप से कैसे चलता रहा? आदि-आदि ऐसे विदित-अविदित अगणित क्रिया-कलाप इन अस्सी वर्षों में घटित हुए हैं, जिनकी इतने सुचारु रूप से चलने की सूत्र-संचालन की एक नगण्य एवं साधारण से व्यक्तित्व से आशा की नहीं जा सकती थी। फिर भी वे कैसे सम्पन्न होते चले गये?
जड़ी-बूटी चिकित्सा पर आधारित आयुर्वेद की नयी सिरे से शोध कैसे बन पड़ी? मनोरोगों के निवारण और मनोबल के संवर्धन की ब्रह्मवर्चस्-प्रक्रिया कैसे चलती रही? सात पत्रिकाओं का सम्पादन एकाकी प्रयास से कैसे चल पड़ा? लाखों शिक्षार्थी हर वर्ष प्रशिक्षण पाकर किस प्रकार लाभान्वित होते रहे? सृजनात्मक आन्दोलनों को इतनी गति कैसे मिल सकी, जितनी कि अनेकानेक संगठन और समुदाय भी नहीं कर सके?
उपरोक्त प्रत्यक्षदर्शी कृत्यों को जिनने अंकुरित, पल्लवित, फलित होते देखा है, उनका समाधान एक ही उत्तर से हुआ कि सर्वशक्तिमान सत्ता की इच्छा और प्रेरणा के अनुरूप अपने व्यक्तित्व, कर्तृत्व, मानस और श्रम को समर्पित कर सकने वालों के लिए ऐसा कुछ बन पड़ना तनिक भी कठिन नहीं है। एक छोटी सी चिनगारी के, ईंधन के अम्बार से मिल जाने पर प्रचण्ड अग्निकाण्ड बन जाता है। गंगा में मिलकर नाला, नदी बन सकता है। पारस को छूकर लोहे का सोना बनने वाली उक्ति प्रसिद्ध है। फिर भगवान के साथ रहने की, सर्वतोभावेन जुड़ने वालों की स्थिति ऐसी क्यों नहीं हो सकती, जैसे कि बिजली के विशाल उत्पादन-केन्द्र के साथ जुड़ जाने पर छोटे-मोटे यंत्र-उपकरण सहज ही चलते रहते हैं। बताया जाता रहा है कि यह सब कुछ मात्र कठपुतली के खेल की तरह होता रहा। श्रेय लकड़ी के खिलौने को नहीं, बाजीगर की उस कलाकारिता को मिलना चाहिए, जो पर्दे के पीछे रहकर अंगुलियों में बंधे तारों के सहारे कठपुतलियों को अद्भुत हलचल करते, चलने लायक बनाता और नचाता रहता है।
कुछ का समाधान तो हो गया, पर हजारों जिज्ञासु संदेह ही प्रकट करते रहे और पूछते रहे कि जब लाखों की संख्याओं में गिने जा सकने वाले भगवत् भक्त गयी-गुजरी उपहासास्पद अवांछनीयताओं के बीच ही जीवन व्यतीत करते हैं, तो एक व्यक्ति ने ऐसा क्या किया, जिसमें भगवान के अनुदान-अनुग्रह द्रौपदी को वस्त्र, सुदामा को गुरुकुल, नरसी मेहता को हुण्डी भुनाने तथा हनुमान अर्जुन जैसे किन्हीं विरलों को भगवत्-सखी होने के रूप में मिले। संदेह सही भी था, पर जो उत्तर दिया गया, वह भी कम समाधान कारक नहीं था। पात्रता के अनुरूप उपलब्धियों का हस्तगत होना एक ऐसी वास्तविकता है, जिसे हर-कहीं चरितार्थ होते देखा जा सकता है। खोटे सिक्के ही सर्वत्र ठुकराये जाते हैं। खरे सोने की कीमत तो कहीं भी उठाई जा सकती है। जिसने अपना सब कुछ पति के सामने सौंप दिया, उस पत्नी को अपने पति की समूची सम्पत्ति, सहायता और सद्भावना मिलकर रहती है।
स्रष्टा की एक ही अपेक्षा है कि सुरदुर्लभ मानव तन तथा जीवन पाने वाला प्राणी, उपलब्ध विभूतियों के सहारे स्रष्टा के विश्व उद्यान को हरा-भरा रखने के लिए वफादार माली की भूमिका निवाहे, तो कोई कारण नहीं कि उसे आत्म-संतोष, सभी का सम्मान, श्रेय, यश तथा स्वामी का समुचित अनुग्रह-अनुदान प्राप्त न हो। इस तथ्य की परीक्षा करनी हो, तो संसार में जन्मे अब तक के महामानवों की जीवनचर्या को साक्षी देने के लिए आमंत्रित किया जा सकता है। पुण्य-परमार्थ को उस बीज की तरह विकसित होते देखा जा सकता है, जो आरंभ में राई के बराबर होता है, पर कुछ ही समय में विशालकाय बरगद वृक्ष की तरह उत्कर्ष के उच्चशिखर तक जा पहुंचता है। ईश्वर का अजस्र अनुदान प्राप्त करने का एक ही तरीका है और रहेगा, कि स्वार्थ को परमार्थ में बदल दिया जाय। धर्म-धारणा और सेवा-साधना को जीवनचर्या का अविच्छिन्न अंग बनाया जाय। भिखारी बनकर नहीं, उदारचेता, दानवीर बनकर भगवान के दरवाजे पर पहुंचा जाय और अनुदान का प्रतिदान असंख्यगुनी मात्रा में वापिस लौटाया जाय।
‘‘साधना से सिद्धि’’ प्राप्त होने के रहस्य का उद्घाटन करने के इच्छुकों में से प्रत्येक को यही जताया और जनाया गया है कि सत्प्रवृत्तियों के संवर्धन हेतु अपने को प्रखर, प्रामाणिक और साहसी उदारचेता बनाया जाय, तो उतने भर से अनेकानेक कर्मकाण्डों की आवश्यकता पूरी हो जाती है। साधना अपने आपको संयमी और सुसंस्कृत बनाने हेतु की जाती है। इसके लिए स्रष्टा की एक मात्र इच्छा को पूरा करना पड़ता है कि संयमशील उदारचेता स्तर का परमार्थ परायण जीवन जिया जाय। ईश्वर समर्पित मनुष्य ही देव-मानव कहलाते हैं और उन्हीं में वे सिद्धियां-विभूतियां प्रकट होती हैं, जिनके बारे में एक व्यक्ति के माध्यम से बन पड़े अनेकानेक महान कार्यों की चर्चा एवं पूछताछ की जाती है।

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