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दीप यज्ञों की अति सरल एवं अत्यंत प्रेरक प्रक्रिया

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छोटे बच्चे तो मदारियों, बाजीगरों और सपेरों की डुगडुगी सुनकर भी एकत्रित हो जाते हैं, पर विचारशील लोगों को किसी महत्त्वपूर्ण चर्चा में सम्मिलित होने को बुलाना और प्रस्तुत प्रगतिशील तर्कों तथा तथ्यों को सुनने के लिए एक मंच पर जमा करना आसान नहीं है। कठिन होते हुए सच्चाई यह भी है कि कोई उपयोगी परिवर्तन लाने या कदम उठाने के लिए भावनाशील एवं प्रबुद्धजनों को एक स्थान पर जमा करने के बिना काम नहीं चलता। जिनका समय बहुमूल्य है और जिनका अपना प्रभावशाली व्यक्तित्व है, वे मात्र तभी कहीं पहुंचते हैं, जब उसकी गरिमा और उपयोगिता के सम्बन्ध में आश्वस्त हो जाते हैं।
युग परिवर्तन जैसे महत्त्वपूर्ण परिवर्तन के लिए भावनाशील वर्ग को अभीष्ट विचार-विनिमय के लिए एकत्रित करना और उन्हें प्रगतिशील निर्धारणों पर सहमत करके सहयोगी बनने के लिए तत्पर करना एक बड़ा काम है, जिसे किए बिना बात बनती नहीं। इसके बिना महान परिवर्तन संभव नहीं हो सकते हैं, जिनकी कि इन दिनों सर्वत्र उत्सुकतापूर्वक प्रतीक्षा की जा रही है।
कठिनाई यह है कि व्यर्थ के प्रवचनों और बेकार की लेक्चरबाजी से लोग ऊब गये हैं। इसलिए प्रबुद्ध जनों की ज्ञान-गोष्ठियां नियोजित करना असाधारण कठिनाई भरा काम बन गया है। अरुचि के वातावरण में लोग टी.वी. देखकर या ताश खेलकर अपना समय गुजारना अच्छा समझते हैं। ऐसी दशा में प्रगति के अग्रदूत बनने की भूमिका निबाहने में समर्थ लोगों को कैसे एकत्रित किया और एकजुट बनाया जाय? बड़े काम, बड़े लोगों के बड़े संकल्प उभारने और बड़े कदम उठाने पर ही संभव हुए हैं। इन तथ्यों के अनुरूप नवसृजन के अग्रदूतों को, समर्थ ज्ञान गोष्ठियां नियोजित करने की बात को समुचित महत्त्व देना ही चाहिए।
दीप यज्ञों की योजना इस प्रयोजन के लिए अतीव सार्थक सिद्ध हुई है। धर्म-प्रयोजनों के लिए शिक्षित-अशिक्षित सभी में इस गये-गुजरे समय में भी किसी न किसी हद तक श्रद्धा विद्यमान है। इसके अनेकों प्रमाण समय-समय पर देखे जा सकते हैं। इन दिनों नव नियोजित दीपयज्ञ इस प्रयोजन के लिए अतीव आकर्षक और महत्त्वपूर्ण सिद्ध हो रहे हैं। यज्ञ, भारतीय धर्म का जनक माना जाता है। गायत्री, भारतीय संस्कृति की जननी कही जाती है। दोनों का सम्मिलन-गायत्री यज्ञ बनता है। इस हेतु भारतीय मानस के लोगों में विशेष-रूप से और अन्य धर्मावलम्बियों में साधारण स्तर पर श्रद्धा सद्भावना पायी जाती है। कम से कम उनका विरोध तो कदाचित् ही कहीं, किसी के द्वारा किया जाता है। गायत्री यज्ञ आयोजन अब तक जब कभी, जहां कहीं होते रहे हैं, उनमें विज्ञजन श्रद्धापूर्वक बड़ी संख्या में एकत्रित होते देखे गये हैं।
इतने पर भी इन दिनों एक बड़ी कठिनाई यह है कि पुरातन शैली के यज्ञ आयोजनों में इतना खर्च पड़ता है, इतनी भाग-दौड़ करनी पड़ती है, कि उसे देखते हुए मध्यम वर्ग के लोगों में निराशा ही होती है। दूसरी कठिनाई यह है कि एक वर्ग विशेष के, संस्कृत मंत्रों के मर्मज्ञ, अनेकानेक मंत्रों के उच्चारण में अभ्यस्त लोग इस संचालन के लिए इतनी दान-दक्षिणा मांगते हैं, जो इस महंगाई के जमाने में, अन्यमनस्क मानसिकता में, उत्साह नहीं—उपेक्षा ही उत्पन्न कर सकती है। यही कारण है समय-समय पर होने वाले धर्म कृत्य दिन-दिन लुप्त होते जाते हैं। संस्कारों और पर्वों तक को श्रद्धा भरे वातावरण में मनाया जाना संभव नहीं हो पाता।
उलझनों को सुलझाने के लिए एक सरल किन्तु अभीष्ट प्रयोजनों की सिद्धि कर सकने वाला एक उपचार ढूंढ़ निकाला गया है—‘दीप यज्ञ’। शास्त्रकारों ने समय-समय पर यह विकल्प लिखा है कि खर्चीले और झंझट भरे कर्मकाण्ड न बन पड़ें, तो उस स्थान पर जलांजलि देने के सरल माध्यम भी अपनाए जा सकते हैं। सूर्य को जल अर्घ्य चढ़ाना, दीपक जलाकर, अग्निदेव का आवाहन करना भी ऐसा माध्यम बन सकता है, जिससे श्रद्धा संवर्धन का उद्देश्य पूरा हो सके।
पिछले दिनों शान्तिकुंज द्वारा विचारशील लोगों को धर्म प्रयोजनों के लिए एकत्रित करने और उन्हें प्रेरणाएं अपनाने, संकल्प भरे कदम उठाने के लिए प्रयुक्त किया गया है। कहना न होगा कि यह छोटे आयोजन बड़े समारोहों की तरह सफल सिद्ध हुए हैं और विचारशील लोगों की अच्छी उपस्थिति संभव बनाते रहे हैं। उन धर्मानुष्ठानों में सम्मिलित होने वालों ने ऐसे प्रगतिशील कदम उठाने का साहस किया है, जिसे देखते हुए हर दृष्टि में उनकी सार्थकता स्वीकार करनी पड़ती है।
गायत्री मंत्र जिन्हें याद हैं, वे कुछ अगरबत्तियां और थोड़े से दीपक जलाकर उन्हें एक समग्र देवता की मान्यता देते हैं और अत्यंत सरल कर्मकाण्ड को मिल-जुलकर पूरा कर लेते हैं। हवस सामग्री में विनिर्मित सुगंधमय अगरबत्तियों से यज्ञ का प्रतीक बन जाता है और प्रदीप को प्रकाश की अधिष्ठात्री, सद्ज्ञान को देवी गायत्री का प्रतीक मान लिया जाता है। इन आयोजनों को गायत्री यज्ञों का प्रतीक मान लेने में भी किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। यह नवयुग की आरती का एक पूर्वाभ्यास है, जो संसार के कोने-कोने में अधिकाधिक उत्साह के साथ सम्पन्न होते रहना चाहिए। साप्ताहिक सत्संग निर्धारण का तो दीप यज्ञ अविच्छिन्न अंग है। वार्षिकोत्सव तथा अन्य छोटे-बड़े आयोजन भी इसी प्रक्रिया के साथ बड़े रूप में, बड़ी संख्या में संपन्न हो सकते हैं।
दीप यज्ञ का कर्मकाण्ड यहां विस्तारपूर्वक लिखना तो अनावश्यक है, पर वह है ऐसा, जिसे कोई भी मिशन से संबंधित व्यक्ति एक घंटे में भली प्रकार सीख या सिखा सकता है।
हर्षोत्सवों, शुभारंभों, संस्कारों, जन्मदिनों एवं युगचेतना संबंधी किसी भी क्रिया-कृत्यों में दीप यज्ञ जोड़ा जा सकता है। बिना किसी खर्च या परावलम्बन के सम्पन्न होने वाली इस विधा से सभी शिक्षित नर-नारी अवगत हो जायें, तो अपने घर, दफ्तरों, दुकानों, कार्यालयों में धार्मिक वातावरण का उत्साहपूर्वक आयोजन कर सकते हैं।
लोक शिक्षण भी दीप यज्ञों का एक अविच्छिन्न अंग है। सहगान-कीर्तन द्वारा भाव संवेदनाओं को आन्दोलित करने वाला बहुत कुछ आधार पर्याप्त मात्रा में इनमें जुड़ा हुआ है। यह भी अति सरल है कि जब, जिस प्रसंग से जोड़कर दीपयज्ञ सम्पन्न किया जाय, तब उस विषय का प्रतिपादन करके कोई भी प्रबुद्ध व्यक्ति उपस्थित जनों को वह विषय हृदयंगम कराने का प्रयत्न करे।
इनमें सम्मिलित करने के लिए विचारशील नर-नारियों के यहां व्यक्तित्ववानों को स्वयं जाना चाहिए और आग्रहपूर्वक अनुरोध करना चाहिए कि उनकी उपस्थिति, ऐसे विचार वालों को आन्दोलित करने के लिए महत्त्वपूर्ण है। इस प्रसंग में स्वयं तो उपस्थित हों ही, साथ ही अपने स्तर के अन्य लोगों को भी उस आयोजन में घसीट लाने में कुछ भी कमी न रहने दें।
धार्मिकता, आध्यात्मिकता, आस्तिकता के सभी महत्वपूर्ण संदर्भ दीपयज्ञ के साथ जुड़ते हैं। साथ में बड़ी बात यह है कि युग परिवर्तन के लिए जिस विचारधारा एवं क्रिया-प्रक्रिया को गतिशील करना है। उनका द्वार इन आयोजनों से खुलता है। साथ ही हर शिक्षित को बिना किसी वंश-शवे का भेदभाव रखे, बिना महंगे साधन जुटाये, वह सब हो सकता है, जो जनमानस के परिष्कार हेतु इन दिनों किया जाना नितान्त आवश्यक है।

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