ईक्कीसवी सदी के लिए हमें क्या करना होगा ?

हम बिछड़ने के लिए नहीं जुड़े हैं

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ध्वंस के सरंजाम तो माचिस की एक तीली, आग की छोटी चिनगारी भी कर सकती है; पर निर्माण एक झोंपड़े का करना हो, तो भी ढेरों साधन, सामग्री और श्रमशीलों की कुशल तत्परता चाहिए। बिगड़ बहुत चुका। मनुष्य खोखला, उन्मादी और इस स्तर तक अनाचारी हो गया है कि उसे नर-पशु तक नहीं कहा जा सकता। मरघट में प्रेत-पिशाच कोलाहल करते रहते हैं। डरना डराना ही उनका प्रधान कार्य होता है। मनुष्यों में से एक बड़ी संख्या आज ऐसे ही लोगों की दीख पड़ती है।
भ्रष्ट चिन्तन ही दुष्ट आचरणों का निमित्त कारण है। उस आधार पर विनिर्मित वातावरण ही उन अनेकानेक विभीषिकाओं, विपत्तियों, कठिनाइयों और अभावों-अवरोधों का प्रमुख कारण है। इस कठिनाई को साधनों के सहारे दूर नहीं किया जा सकता। कहने भर से नासमझों को उलटी चाल अपनाने से कहां विरत किया जा सकता है। इसके लिए ऐसे प्रतिभावान व्यक्तित्व चाहिए, जनने अपने को ऊंचा उठा लिया हो और दूसरों को पतन-पराभव। से उबारने लायक बल-कौशल उपलब्ध कर लिया हो। ऐसे ही लोग देवमानव कहलाते हैं और उनके कार्य-क्षेत्र में उतरने पर वे साधन विनिर्मित होते चले जाते हैं, जिन्हें ‘‘अभ्युदय’’ के नाम से जाना जा सके।
इन दिनों पतन और पराभव की विपन्नता को बढ़ाने में निरत हेयजनों की बहुलता, प्रबलता होने का आंकलन गलत नहीं है। फिर यही समझा जा सकता है कि मानवी गरिमा को उबारने सुरक्षित रख सकने वाले देव मानवों का सर्वथा अभाव हो गया है? हैं, रहे हैं और रहेंगे। अन्यथा धरती रसातल को चली जाएगी। भावी नव सृजन के लिए ऐसे ही उत्कृष्टता के पक्षधर आदर्शवादियों की आवश्यकता पड़ेगी। उन्हीं के प्रयत्न-पुरुषार्थ से पुण्य-परमार्थ से समय को बदला और वातावरण को श्रेष्ठता से युक्त बनाया जा सकेगा। उन्हीं को तलाशना, संगठित, सुगठित एवं सुशिक्षित किया जाना, अपने समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है। इस दिशा में अपने प्रयत्नों से अपने ढंग का कीर्तिमान स्थापित किया गया है। युग शिल्पियों का एक बड़ा समुदाय मिशन की पत्रिकाओं के साथ सम्बद्ध करके इस स्तर का विनिर्मित किया है, जो स्वयं उठ सकने की सफलता प्राप्त करने के उपरान्त दूसरों को सहारा देने, उबारने, उभारने में समर्थ हो सकें। जिनके लिए गिरों को उठाना और उठों को उछालना स्वाभाविक विषय बन गया हो। इन्हीं को नवयुग के अग्रदूत, नव सृजन के कर्णधार भी कहा जाता रहा है।
पांच लाख को पच्चीस लाख बनाने—इसी गुणन प्रक्रिया को निरन्तर जारी रखने और कार्तिकी अमावस्या की रात्रि को सघन तमिस्रा से उबार कर जगमगाती दीपावली बनाने की चर्चा होती और योजना बनती रहती है। नव सृजन के आधार, उपकरण, औजार या साधन यही वह समुदाय है, जिसे शान्तिकुंज के महा गरुड़ ने अण्डे-बच्चों की तरह अपने डैनों में छिपा रखा है। उनको समर्थ एवं परिपुष्ट बनाने की प्रक्रिया इसी तन्त्र के अंतर्गत चल रही है। कहना न होगा, इस प्रयोजन के लिए नवयुग के अध्वर्यु ने अपने जीवन के अस्सी पुष्प सुनियोजित गुलदस्ते के रूप में समर्पित किए हैं और दैव-मानवों की एक ऐसी समर्थ मण्डली विनिर्मित की है, जो नवयुग के अवतरण में ब्रह्म मुहूर्त की तरह अपना परिचय दे सकें, भोर का उद्घोष करने वाले कुक्कुटों की भूमिका निभा सकें। शान्तिकुंज में इन दिनों यही सृजन कार्य होना है। उसके सम्पर्क में आये प्रभाव क्षेत्र में ऐसी ही बहुमुखी गतिविधियों का सूत्र-संचालन होना है। इस बार उसका वह नया स्वरूप निखरा है, जिसे नया पौधा कहा जा सकता है। जहां से अब तक बन पड़े प्रयासों की तुलना में कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण निश्चय-निर्धारण होने जा रहे हैं।
विगत वसन्तपर्व पर ऐसे ही परिजनों को सूक्ष्म संकेतों से आमंत्रित किया गया अथवा वे अपनी निजी उमंगों से विवश होकर उस आयोजन में सम्मिलित होने के लिए चल पड़े, इसी का संक्षिप्त विवरण इन पंक्तियों में यत्किंचित् प्रस्तुत किया जा रहा है।
जो नहीं आ सके, उनका आवश्यक निजी परिचय एवं स्तर जानने के लिए एक पत्र भेजा गया है; ताकि उस जानकारी के आधार पर यदि घनिष्ठता में कोई कमी रह गयी हो, तो पूरी हो सके। आदान-प्रदान का सिलसिला इस रूप में चल सके, जिसमें सबके लिए एक प्रकार से श्रेय-साधना ही सन्निहित हो।
प्रत्यक्ष पधारने या अपने व्यक्तित्व के स्तर को लिपिबद्ध व्यवस्थित भेजने वाले दोनों ही वर्गों की संख्या में वर्तमान उत्कृष्टता संपन्न लोगों की गणना है, जिन पर गर्व भी किया जाता है और नव सृजन के उज्ज्वल भविष्य की आधारशिला भी माना जा सकता है।
इन दोनों ही वर्गों के साथ लेखनी या वाणी के माध्यम से प्रत्यक्ष या परोक्ष संबंध बने रहे हैं और उस आधार पर युग-चेतना का प्रकाश अधिकाधिक बलिष्ठ, विस्तृत, सार्थक एवं सफल होता रहा है।
विगत वसंत से कुलपति के एकान्त साधना में चले जाने, चेतना को विशेष प्रयोजन के लिए नियोजित कर देने पर एक असमंजस खड़ा होता है कि इतने बड़े और इतने समर्थ-समुदाय के साथ जो घनिष्ठता पनपती और प्रगति की प्रक्रिया चलती रही है, उसमें विक्षेप, गतिरोध, व्यवधान पड़ेगा। पारस्परिक जोड़ने वाला स्नेह-बन्धन टूट जाने पर वह उपक्रम कैसे बनेगा, जिसमें पतंगे की भांति दीपक के प्रति स्नेह निभे, प्रकाश की तरह उज्ज्वल भविष्य के आकाश पर छाया और अपनी सक्रियता का परिचय दिया जा सके।
इस संबंध में सभी परिजनों को उपलब्ध माध्यमों से यह सूचित किया गया है कि कोई यह न समझे कि दीप बुझ गया और प्रगति का क्रम रुक गया। दृश्य शरीर रूपी गोबर की मशक चर्म चक्षुओं से दिखे या न दिखे, विशेष प्रयोजनों के लिए नियुक्त किया गया प्रहरी अगली शताब्दी तक पूरी जागरूकता के साथ अपनी जिम्मेदारी वहन करता रहेगा।
पक्षी सुदूर अन्तरिक्ष में इतनी दूर उड़ जाते हैं कि खुली आंखों से दीख नहीं पड़ते, फिर भी वे अपने घोंसले का, दुधमुंहे बच्चों का पूरा ध्यान रखते हैं। बच्चे भी समय पर उनके द्वारा खुराक मिलने की प्रतीक्षा करते हैं। गाय अपने बछड़े सहित जंगल में चरने चली जाती है। संयोगवश कभी दोनों बिछुड़ भी जाते हैं, फिर भी एक दूसरे को ढूंढ़ने और पुकारने में कमी नहीं रहने देते। वर्तमान पत्रिका-पाठकों का अपने-अपने परिवार का परिकर अगले दिनों बढ़ तो सकता है, पर घटेगा नहीं। मिशन की पत्रिकाओं के रूप में प्रकाश चेतना हर महीने अपने पाठक-परिजनों के यहां अप्रत्यक्ष रूप से जा पहुंचती है। हर दिन एक लेख को एक प्रवचन समझा जाय, तो यह मान्यता उचित है कि परिजनों और अभिभावकों के बीच दैनिक मिलन-सत्संग सम्भव है। इसलिए परिजन एक महीने में ढाई रुपये का व्यक्तिगत अनुदान पत्रिका के चन्दे के रूप में प्रदान करते हैं। इस प्रकार प्रत्यक्ष न सही परोक्ष मिलन एवं नियमित आदान-प्रदान का क्रम चलता रहता है। इसी माध्यम से विचारों का ही नहीं, प्राण-चेतना का शक्ति का प्रत्यावर्तन भी बन पड़ता है।
अब इस संदर्भ में आगे भी यही प्रक्रिया चलेगी। सभी परिजनों के परिचय, जन्म-तिथि, फोटोग्राफ संग्रह कर लिए गये हैं। इस आधार पर शान्तिकुंज से जन्मदिन के अवसर पर एक प्रेरणापूर्ण संदेश एवं अनुदान पहुंचा करेगा। मिलन की आंशिक पूर्ति इस प्रकार हो जाया करेगी। शान्तिकुंज परिसर में संचालक अपना सूक्ष्म शरीर, अदृश्य अस्तित्व बनाए रहेंगे। आने वाले, रहने वाले अनुभव करेंगे कि उनसे अदृश्य किन्तु समर्थ प्राण-प्रत्यावर्तन और मिलन-आदान-प्रदान भी हो रहा है। इस प्रक्रिया का लाभ अनवरत रूप से जारी रहेगा।
युग संधि पुरश्चरण के अन्तर्गत सभी साधकों को अपने-अपने यहां कुछ साधना करते रहने के लिए कहा गया है। वह तो चलेगी ही। साथ ही एक अनुबंध यह भी जोड़ा गया है, यदि संभव हो तो वर्ष में कभी भी पांच दिन के लिए शान्तिकुंज आकर एक सत्र सम्पन्न कर लें और लगभग वही लाभ प्राप्त कर लें, जो बैटरी को बिजली के साथ जुड़कर नए सिरे से चार्ज होने एवं धीमी पड़ी शक्ति को नए सिरे से अर्जित करने के रूप में मिलता है। बिना शक्ति अर्जित किए, वे सभी कार्य कर पाना असम्भव होगा; जिनकी इक्कीसवीं सदी अपेक्षा रखती है। यह प्राण-अनुदान निरन्तर इस तपस्थली से वितरित होता रहेगा। आवश्यकता मात्र स्वयं को केन्द्र से जोड़े रखने की है।
कहने-सुनने, करने-कराने की प्रक्रिया चलती रहने के संबंध में इस वसंतपर्व पर उपस्थित परिजनों से, ऊपर से उतरे आदेश के अनुसार यह कहा गया था कि ‘‘हम में से कोई-किसी से अगले दिनों बिछड़ न सके’’। जो प्रमाद और उपेक्षा बरतेगा, उसे शान्तिकुंज की संचालक शक्ति झकझोरेगी, उसके कान उमेठेगी और बाधित करती रहेगी। हर व्यक्ति जुड़कर एवं सक्रिय रहकर ही चैन से बैठ सकेगा। कहा भले ही असांसारिक भाषा में गया हो, पर इसे एक सच्चाई मानकर चलना चाहिए कि ऐसे सशक्त मूत्र मजबूती के साथ परस्पर बांधे गए हैं, जो बिछुड़ने-बिगड़ने की स्थिति आने नहीं देंगे, भले ही हम लोगों में से किसी का दृश्यमान शरीर रहे या न रहे।

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