ईक्कीसवी सदी के लिए हमें क्या करना होगा ?

सृजन शिल्पियों का समर्थ शिक्षण

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शिक्षा के नाम पर साक्षरता से लेकर सामान्य काम-काज में आने वाली जानकारियों का प्रशिक्षण तो वर्तमान स्कूल-कालेजों में भी होता है। उस आधार पर नौकरी से लेकर अन्य अनेक प्रकार के व्यवसायों की योग्यता प्राप्त होती है। इसलिए उसे उदरपूर्णा भी नाम दिया जाता है। उस आधार पर लोग पैसा और प्रशिक्षण भी प्राप्त कर लेते हैं। पर व्यक्तित्व का विकास-परिष्कार, जो इस प्रस्तुत शिक्षा-परिधि से आगे की बात है, सहज उपलब्ध करने की कोई व्यवस्था कहीं दीख नहीं पड़ती।
प्राचीन काल में व्यक्तित्व के विकास-परिष्कार को ही ‘विद्या’ कहा जाता था। उसी की महिमा-महत्ता ‘विद्ययाऽमृतमश्नुते’ जैसी सूक्तियों में प्रकट की गयी थीं। उदरपूर्णा में काम आने वाली शिक्षा तो किसी भी तद्विषयक जानकार व्यक्ति या केन्द्र से उपलब्ध की जा सकती है, किन्तु विद्या की प्राप्ति के लिए प्रशिक्षक का स्तर ही नहीं, प्रशिक्षण केन्द्र का वातावरण भी उच्चस्तरीय होना चाहिए। प्रशिक्षण का पाठ्यक्रम भी ऐसा होना चाहिए, जो सामान्य जानकारियां ही उपलब्ध न कराये; वरन् अन्तराल के उन मर्मस्थलों को भी विकसित करे, जहां व्यक्तित्व-उद्भव का मूल स्रोत सन्निहित है।
उस स्तर की विद्या की उपलब्धि जहां से होती थी, उन केन्द्रों को गुरुकुल, आरण्यक, आश्रम, तीर्थ आदि के नाम से जाना जाता था। ऐसा प्रबंध जुटा सकना, हर किसी के बस में नहीं होता। उन्हें मूर्धन्य मनीषा के धनी ऋषि स्तर के अध्यापक ही विनिर्मित संचालित करते थे। इसलिए जहां-तहां पाये जाने वाले, उन केन्द्रों में स्थानीय समीपवर्ती लोगों के अतिरिक्त सुदूर क्षेत्रों के—संसार भर के विद्यार्थी एकत्रित होते थे। उस बड़ी व्यवस्था को विश्वविद्यालय के नाम से जाना जाता था। नालन्दा और तक्षशिला विश्वविद्यालय ऐसी ही भूमिका निभाते थे। बौद्ध-विहारों और अन्यान्य समर्थ तीर्थों में भी ऐसी ही व्यवस्था थी। उन्हीं खदानों से बहुमूल्य नररत्न विनिर्मित होते थे। महामानव ढालने की टकसाल भी उन्हीं को कहा जाता था। इन्हीं केन्द्रों का महान कर्तृत्व था, जिसने महामानवों की इतनी बड़ी सेना खड़ी कर दी थी, जिसने संसारव्यापी अनाचार से जूझने और सत्प्रवृत्तियों को विश्वव्यापी बनाने में असाधारण सफलता पायी। वही पुरुषार्थ फलित और ऐसा वातावरण विनिर्मित करता था, जिसे अब भी सतयुग के रूप में स्मरण किया जाता है। उन दिनों की सुविकसित प्रतिभाओं को देव मानव नाम दिया जाता है। उनकी बहुलता के कारण ही यह भारत भूमि ‘स्वर्गादपि गरीयसी’ बनी थी। विश्व-शान्ति और सर्वतोमुखी प्रगति का श्रेय इन्हीं महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों को दिया जाता था। इन निर्माणों को धरती पर स्वर्ग उतारने वाले आधार कहकर, उन्हें असाधारण श्रेय दिया जाता था।
इन दिनों पुरातन महानता की विधि-व्यवस्था का प्रतिरूप कहीं दिखाई नहीं पड़ता। शिष्यों की कमी नहीं, पर विद्यालयों का महान उद्देश्य पूरा कर सकने वाले केन्द्र कहीं खोजने पर भी नहीं मिलते। कोई समय था, जब इस महान परम्परा के पुनर्जीवन की महान आवश्यकता समझी गयी थी और कई महामानवों ने अपने-अपने ढंग से ऐसे विद्यालयों का नव निर्माण करने के लिए अपनी-अपनी क्षमता को अपने ढंग से नियोजित किया था।
महामना मालवीय जी द्वारा स्थापित हिन्दू विश्वविद्यालय, शिवप्रसाद गुप्त द्वारा स्थापित काशी विद्यापीठ, योगी अरविन्द द्वारा स्थापित कलकत्ते का नेशनल कौंशिल कालेज, स्वामी श्रद्धानन्द का गुरुकुल कांगड़ी, राजा महेन्द्रप्रताप का प्रेम महा विद्यालय, टैगोर का शान्तिनिकेतन आदि कुछ ही स्थापनाएं अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति के लिए बन पड़ीं; पर यह नहीं कहा जा सकता कि उनमें से कितनी प्रतिभाएं उभरीं और वे तंत्र किस सीमा तक उद्देश्य की पूर्ति कर सके? महात्मागांधी, योगी अरविन्द विनोबा आदि के अपने निजी सम्पर्क-प्रयास इसी प्रयोजन के लिए चले और उनके किसी हद तक प्रभाव-परिणाम भी निकले। इनमें गांधी के सत्याग्रही और बुद्ध के परिव्राजक विशेष रूप से प्रभावशाली सिद्ध हुए, जिनने प्रतिभाएं भी निखारी और सामयिक समस्याओं के कारगर समाधान भी निकाले।
इसी श्रृंखला में एक अभिनव कड़ी शान्तिकुंज, हरिद्वार की भी जुड़ती है। वहां वातावरण, प्रशिक्षण एवं अध्यात्म-साधना उपक्रम की तीनों व्यवस्था जुटाते हुए ऐसा प्रबन्ध किया गया है कि प्राचीन विश्वविद्यालयों की तरह सभी शिक्षार्थियों को, बिना अमीर-गरीब के अन्तर के शिक्षा पाने में सभी अनिवार्य सुविधाओं को प्राप्त करने का अवसर मिल सके। अन्यथा मूल्य चुकाने की स्थिति रहने पर मात्र अमीरों को ही उपयुक्त विद्या लाभ-मिल पाता और निर्धनों को आत्मपरिष्कार एवं परमार्थ-प्रयोजनों के लिए कुछ कर सकने से सर्वथा वंचित ही रहना पड़ता। उपयुक्त साधनों के अभाव में ऐसे समर्थ विद्यालय हर कहीं स्थापित भी तो नहीं हो सकते थे। एक प्रकार से इसे बहुमुखी एवं समग्र विद्यारण्यक या ‘मल्टीवर्सिटी’ कहा जा सकता है।
कहा जा चुका है कि युग परिवर्तन की प्रक्रिया के पीछे पूंजी, प्रतिभा, संगठन आदि कोई प्रत्यक्ष दीख पड़ने वाली भौतिक शक्ति काम नहीं कर रही है। इतनी बड़ी योजना, जिसमें किसी देश और क्षेत्र का सुधार-परिवर्तन ही नहीं, वरन समूचे विश्व की चेतन और अचेतन स्तर की असंख्य समस्याएं जुड़ी हुई हैं; जिनकी जड़ें पाताल तक गहराई में घुसी हुई हैं, जिन्हें प्रभावित करना, बदलना किसी भौतिक शक्ति का काम नहीं है, उसकी योजना और व्यवस्था बनाने में एक मात्र दैवी शक्ति ही सफल हो सकती है। उसी के द्वारा समूचा, नव-निर्माण से संबंधित ताना-बाना बुना जा सकता है। उसी शक्ति ने, उद्गम-उद्भव केन्द्र के रूप में शान्तिकुंज का चयन किया है। चम्बल, नर्मदा, गंगा, यमुना जैसी विशाल नदियों के उद्गम छोटे-छोटे हैं; पर आगे बढ़ने पर वे आश्चर्यजनक विस्तार पकड़ गये हैं। शान्तिकुंज को भी गोमुख की तरह एक छोटा झरना कह सकते हैं, जिसके साथ गौरी कुंड या ‘नियाग्राफाल’ जैसी सुविस्तृत संभावनाएं जुड़ी हुई हैं।
गंगा की गोद, हिमालय की छाया, सप्तऋषियों की तपोभूमि, दिव्य वातावरण और अखण्ड दीप प्रज्वलन, नित्य यज्ञ, युग संधि महापुरश्चरण की आधारशिला के साथ-साथ यहां अनायास ही ऐसा शिक्षण-तंत्र बन गया है, जिसे चन्दन वन की उपमा दी जा सकती है। कहा जा सकता है कि उसमें प्रवेश करने वाला जब लौटता है, तो उसकी स्थिति उस काया-कल्प जैसी हो जाती है, जिसकी तुलना वयोवृद्ध च्यवन का अश्विनीकुमारों के अनुग्रह से तरुण हो जाने से दी जा सकती है।
शान्तिकुंज की अपनी अनेक विशेषताएं हैं, पर उनमें से प्रमुखता इसे दी जाती है कि उसने नालंदा-तक्षशिला के समान बनाने का प्रयत्न किया है। एक लाख प्रज्ञा केन्द्र और एक करोड़ सृजनशिल्पी विनिर्मित करने और उन्हें युग देवता के चरणों में भाव-भरी श्रद्धांजलि के रूप में प्रस्तुत करने का ऐसा संकल्प किया है, जिसके साकार एवं सार्थक होने के संबंध में आशंका नहीं की जा सकती। यहां अपने ढंग की ऐसी-शिक्षा पद्धति चलती है, जिसमें पाठ्यक्रम ही पूरे नहीं कराये जाते; वरन् साधना एवं प्रेरणा के उभयपक्षीय प्रयत्नों से सामान्यों को असामान्य बना देने का प्रयत्न किया जाता है, टकसाल के सिक्कों और सीप के मोतियों की तरह युग परिवर्तन की मध्य संध्या दस वर्षों की है, सन् 1990 से 2000 तक। इस केन्द्र से साहित्य-सृजन, संगठन एवं प्रचार-परिवर्तन से लेकर सृजनशिल्पियों का सृजन—इन क्रियाकलापों में प्रमुख है। आश्रम में स्थान की कमी और सम्मिलित होने वाले भागीदारों की बहुलता को देखते हुए पांच-पांच दिन के छोटे-छोटे शिक्षण-शिविर चलाकर किसी प्रकार समाधान ढूंढ़ा गया है। इतने पर भी यह गुंजायश रखी गई है कि जिनको अधिक देर टिकाना आवश्यक है, उन्हें एक महीने तक के लिए रोक लिया जाय। सीखना और सिखाना वही है, जिनसे भागीरथी-वरिष्ठता अर्जित की जा सके; हनुमान, अंगद जैसा युगधर्म निबाहा जा सके।
प्रेरणाएं, परामर्श, विचार-विनिमय के समाधान के आधार पर उपलब्ध करायी जाती है। इसके लिए कोई निर्धारित पाठ्यक्रम नहीं है। व्यक्ति विशेष की चिन्तन को आवश्यकतानुसार इतना बदल देने का प्रयत्न किया जाता है, कि उस आधार पर व्यक्ति को दिव्य स्तर का बनाया जा सके। यह प्रयोग इतना सफल हुआ है कि मिशन के कार्यकर्ता देश-विदेश के कोने-कोने में छाये, देखे जा सकते हैं। यह प्रेरणा पक्ष हुआ।
इसके साथ ही साधना की ऐसी प्रक्रिया भी जुड़ी हुई है, जिसे युग-साधना, या सामयिक तपश्चर्या कहा जा सकता है। नित्य गायत्री जप, उदित होते स्वर्णिम सविता का ध्यान, नित्य यज्ञ अखंड दीप का सान्निध्य, दिव्यनाद की अवधारण, आत्मदेव की साधना, सहगान-कीर्तन जैसे अनेक प्रयोग ऐसे हैं, जो सम्मिलित रूप से युग साधना की आवश्यकता पूरी करते हैं, तपाकर खरा सोना बनाने में बहुत हद तक सफल होते हैं। सूर्यतापी गंगा जल से बना हुआ हविष्यान्न यहां का भोजन रूपी प्रसाद है। आश्रम की परिधि में पांच दिनों तक, उसी प्रकार बिना दौड़-धूप के एकनिष्ठ रहना पड़ता है, जैसा कि मां के गर्भ में नियत अवधि तक भ्रूण पकता है। संचित कुसंस्कारों के प्रायश्चित्त-परिमार्जन के रूप में, जो कुछ करना पड़ता है, उसे सामर्थ्य के अनुसार नव-सृजन की लोक सेवा में निरत रहने के रूप में जाना जा सकता है।
सोचा यह गया है कि जिस प्रकार कभी हर राजपूत के घर से एक सैनिक हर ब्राह्मण के घर से एक परिव्राजक, हर लोकसेवी परम्परा के परिवार से एक समर्पित शिष्य निकला करता था, उसी प्रकार अब हर सुसंस्कारी परिवार में एक सृजनशिल्पी निकलने की परम्परा चल पड़े। उसके घरेलू उत्तरदायित्व परिवार के अन्य सदस्य मिल-जुल कर पूरे करें। इस निमित्त आश्रम में गृह-उद्योगों की भी एक सुव्यवस्थित शिक्षणशाला है, जिसमें वह सिखाया जाता है—जिसके आधार पर हर परिवार स्वावलम्बनपूर्वक अपना खर्च चला सकें और एक व्यक्ति की आर्थिक जिम्मेदारियां अपने कंधों पर वहन कर सकें।
मिशन दिन-दिन मत्स्यावतार की तरह अपना कलेवर निरंतर बढ़ाता चला जाता है। इसलिए सम्पर्क परिकर के सदस्यों का आश्रम में निरंतर आते-जाते रहना स्वाभाविक है। उनके ठहरने और भोजन का प्रबंध भी असाधारण रूप से अधिकाधिक बढ़ाना पड़ रहा है। इसलिए पिछले दिनों वाले रसोई-घर से काम नहीं चला। अब उसे आधुनिक यंत्र-उपकरणों से इस प्रकार सुसज्जित कर दिया गया है कि हर दिन हजारों का भोजन पाना कठिन न रहे। आश्रम में स्थायी रूप से रहने वाले लगभग पांच सौ कार्यकर्ता हैं। मिल-जुलकर श्रमदान से उन सब कार्यों को सेवा-साधना के आधार पर पूरा कर लेते हैं, जिनके लिए यदि कर्मचारी रखने पड़ते, तो उनका व्यय-भार असंभव हो जाता।
शान्तिकुंज की और भी कई अद्भुत विशेषताएं हैं। जड़ी-बूटी उद्यान और अनुसंधान के सहारे आयुर्वेद का पुनर्जीवन, ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान द्वारा मनोविकारों का निष्कासन और प्रतिभा परिवर्धन के अदृश्य स्रोतों का रहस्योद्घाटन ऐसे ही प्रयोग हैं, जिनके सहारे अभीष्ट शारीरिक-मानसिक परिष्कार में असाधारण सहायता मिलती है। यह दोनों तंत्र जैसी सफलता अर्जित कर रहे हैं, उसे देखने के लिए देश के कोने-कोने से अगणित मनुष्य इसलिए आते हैं कि अध्यात्म-आधार को लेकर व्यक्ति का सर्वतोमुखी परिष्कार सचमुच बन पड़ सकता है?
इक्कीसवीं सदी उज्ज्वल भविष्य के अनेक पक्षों पर प्रकाश डालने वाला सर्वसुलभ साहित्य भी इसी आश्रम में छपता रहता है, जिसके लिए एक छोटा प्रेस लगा है, जिसमें मिल-जुलकर ही प्रचार साहित्य छपता रहता है।
नित्य का सांस्कृतिक कार्यक्रम, प्रखर प्रवचन, तीर्थ-यात्रा योजना का प्रशिक्षण, स्लाइड प्रोजेक्टर, ऑडियो टेप, वीडियो स्तर के कैसेट आदि मशीन-उपकरणों की एक वैज्ञानिक कक्षा अलग से चलती रहती है, जिसमें यांत्रिक प्रचार-प्रक्रिया की आवश्यकता पूरी होती रहती है। इन्हें दर्शक देखते और शिक्षार्थी सीखते हैं।
पत्राचार विभाग द्वारा व्यापक संख्या में सृजन-शिल्पियों का मार्गदर्शन चलता रहता है। इसके लिए आश्रम में ही एक पोस्ट आफिस भी है। आश्रम की प्रचार जीपें निरन्तर देशव्यापी दौरे पर रहती हैं, ताकि छोटे-बड़े आयोजनों और सम्मेलनों की आवश्यकता भी क्रमबद्ध रूप से पूरी होती रहे। यह क्रम वर्ष भर चलता रहता है।

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