भारतीय ही नहीं विश्व की सांस्कृतिक मान्यताओं में तीर्थ यात्रा का अतिशय महत्त्व है। येरुसलम, मक्का, बोधगया, सारनाथ आदि तीर्थों की यात्रा हेतु उन मतों के अनुयायी लम्बी दूरियां तय करके उन केन्द्रों में पहुंचते और अपनी श्रद्धा की सघनता का परिचय देते हैं। भारतीय धर्म में उनकी महिमा और गरिमा का असाधारण प्रतिपादन हुआ है, इसलिए असंख्य तीर्थ यात्री इस प्रयोजन के लिए असाधारण मात्रा में समय, श्रम और धन का नियोजन करते हैं।
इन दिनों विकृतियों ने कोई क्षेत्र अछूता नहीं छोड़ा है; तीर्थ प्रयोजन भी नहीं। तीर्थ यात्रा का महत्व एवं पुण्य-फल इस तथ्य पर आधारित है कि उसमें धर्म-प्रचार की पद यात्रा के रूप में जन-जन से सम्पर्क साधते थे। उसका नेतृत्व करने वाले विचारशील, जन-जीवन में सत्प्रवृत्तियों को उभारने की महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते थे। पर आज तो द्रुतगामी वाहनों में सवारी करके देवालयों की दर्शन-झांकी करने, जलाशयों में डुबकी लगाने और पूजा-पुत्री करने मात्र जैसी लकीर पीटकर लोग तीर्थ यात्रा सार्थक मान लेते हैं। धक्का-मुक्की और फैली हुई गंदगी के अतिरिक्त और कोई वस्तु बाद में स्मरण नहीं रहती। यह कैसी तीर्थ यात्रा? इतने भर से पुण्यफल कैसे आकाश से बरसेगा और पापों का क्षय होने जैसी मान्यताओं को किस आधार पर प्रकाश मिलेगा?
भूल सुधारनी पड़ती है। अच्छा हो तीर्थ यात्रा संबंधी प्रचलन में हम नये सिरे से विचार करें और देखें कि उस यात्रा के साथ कहीं लोकमंगल जुड़ा है या नहीं? धर्म प्रचार की पद यात्रा के पुराने प्रचलन में अब यह अन्तर हो सकता है कि उसे विनोबा की सर्वोदयी पद-यात्रा स्तर की उपयोगिता से समन्वित किया जाय। समीपवर्ती क्षेत्र में सत्प्रवृत्तियों की प्राचीन या अर्वाचीन कार्यपद्धति के प्रति निष्ठा जमाने के लिए सुनियोजित क्रिया-प्रक्रिया निर्धारित करें।
गांधीजी जब कांग्रेस के माध्यम से देश-सेवा की तैयारी करने लगे, तो उन्हें श्री गोखले ने सलाह दी कि वे पहले उस भारत माता की परिस्थितियां आंखों से देख लें। इसके लिए एक बार देश भ्रमण कर लें। गांधी जी ने वही किया और एक अधनंगी महिला की परेशानी आंखों देख कर इतने द्रवित हुए कि स्वयं भी आधी धोती पहनने और आधी ओढ़ने लगे। तभी से वे सच्चे अर्थों में ‘महात्माजी’ नाम से प्रख्यात हुए। लोक सेवियों के लिए तीर्थ यात्रा इसीलिए आवश्यक है कि वे अपने समाज की वस्तुस्थिति समझे और तदनुसार उपचार के लिए जुटें। संत-परिव्राजक इसी प्रयोजन के लिए तीर्थ यात्रा को धर्मकृत्य मानते थे और उसमें निरत होकर लोक-कल्याण की बहुमुखी योजनाओं में निरत होते थे।
श्रावण या फाल्गुन के महीनों में गंगा जल की कांवर कंधे पर रखकर लोग ले जाते हैं और समीपवर्ती किसी शिवालय में उसे चढ़ाते हैं। जो लोग इस प्रयोजन के लिए निकलते हैं, वे मिल जुलकर धार्मिक गीत ऊंचे स्वर से गाते चलते हैं, ताकि जो भी उस गायन को सुनें, वे कुछ प्रेरणा प्राप्त करें। यह चिह्न-पूजा बताती है कि धर्म प्रचारक ही नहीं, तीर्थयात्रा का उपक्रम हर स्तर के लोग किसी न किसी रूप में क्रियान्वित करने के लिए लालायित रहते हैं। पापों के प्रायश्चित्त के लिए एक बहुप्रचलित माध्यम तीर्थ-यात्रा की मान्यता अभी भी है।
प्राचीन काल के ऋषि-मुनियों की एक प्रशिक्षण-पद्धति यह भी थी कि वे अपने शिष्यों की मण्डली साथ लेकर तीर्थयात्रा पर निकलते थे और उपयुक्त स्थानों पर विराम करते हुए अध्ययन अध्यापन का क्रम चलाते रहते थे। इससे उन्हें अनेक क्षेत्रों के साथ सम्पर्क साधने, अनुभव बटोरने एवं स्वास्थ्य संवर्धन के बहुमुखी लाभ मिलते थे। पद-यात्रा स्वास्थ्य संवर्धन का एक अति सरल और महत्त्वपूर्ण माध्यम माना गया है। अभी भी छुट्टी के दिनों में छात्रों, किसानों एवं दूसरे लोगों को पर्यटन के लिए विशेष सुविधाएं मिलती हैं। इस प्रकार पर्यटन एक उद्योग भी बन गया है। यह सब प्रयोजन प्राचीन काल की उस तीर्थ परम्परा का ही स्मरण दिलाते हैं, जिससे अनेकों को, अनेक प्रकार के प्रत्यक्ष एवं परोक्ष लाभ उठाते रहने का अवसर मिलता था।
इक्कीसवीं सदी की युगान्तरीय चेतना का संदेश सुनाने एवं वातावरण बनाने, उत्साह उभारने के लिए उसी प्राचीन परम्परा को अब नये ढंग से, नये कार्यक्रम के साथ प्रयुक्त करने की योजना बनायी गयी है। जिसे अपनाकर प्रचारकों और विचारकों ने यहां के जन समुदाय एवं वातावरण को उच्चस्तरीय बनाने में असाधारण सफलता अर्जित की थी, उसे पुनर्जीवित करके उद्देश्यमय तथा सार्थक बनाने का ठीक यही समय है।
युग धर्म के पालन के लिए, जनमानस के परिष्कार के लिए, सघन जनसम्पर्क के लिए सार्थक तीर्थ यात्राएं प्रारंभ की जायें। आज की स्थिति में यह उपयुक्त लगता है कि जन-जागरण के लिए उत्साही युगशिल्पी, साइकिल टोलियां बनाकर निकलें। साइकिल यात्रा को पद-यात्रा के समकक्ष ही माना जा सकता है। समय की बचत भी होती है, इच्छित क्रम से सम्पर्क किया जा सकता है, कहीं भी सुविधापूर्वक पहुंचा और रुका जा सकता है।
साइकिल टोलियां अपने साथ छोटा प्रचार-साहित्य, दीवाल लेखन के साधन, कीर्तन के लिए ढपली मंजीरे जैसे वाद्य रखें। गोष्ठी, सत्संग, कीर्तन, सहगान, वाक्य-लेखन, स्लाइड-प्रदर्शन, छोटे दीप-यज्ञ जैसे माध्यमों से जन-जन में युग चेतना का संचार करते चलें। कस्बों, देहातों तक में, देश के कोने-कोने में इस प्रक्रिया द्वारा नवजागरण का संदेश पहुंचाया जाना संभव है।
साइकिल यात्रा में तीन चार की टोली पर्याप्त है। टोली में एक साइकिल पर लाउडस्पीकर रहे, तो और भी अच्छा हो। इसके लिए हलके और छोटी बैट्री से भी काफी समय तक चल सकने वाले एम्प्लीफायर तैयार कराये गये हैं, जो शान्तिकुंज में उपलब्ध रहते हैं। माइक-हार्न, बैट्री, बैट्री-चार्जर सहित मूल्य लगभग 11 सौ रुपये पड़ता है। इसी में कैसेट-प्लेयर भी जुड़ा है। इससे संगीत, उद्बोधन, गोष्ठी, जयघोष आदि सभी में सुविधा रहती है।
यह तीर्थ-यात्राएं किन्हीं स्थूल देवालयों को लक्ष्य करके निकाली जायें, यह आवश्यक नहीं। रामचरितमानस में यह कहा गया है—‘‘मुद मंगलमय संत समाजू, जो जग जंगम तीरथ राजू’’ अर्थात् लोकमंगल के लिए संकल्पित सक्रिय सज्जनों का, लोक सेवियों का समुदाय चलते-फिरते तीर्थराज की तरह होता है। महाकाल का, युग शक्ति का संदेश स्वयं तीर्थ-चेतना का प्राण है। उसे गांव-गांव स्थापित करके सारे देश को पुनः तीर्थ रूप में जागृत-विकसित करना, उन यात्राओं का महान उद्देश्य है। इनका पुण्य-फल भी असाधारण होता है।
इन यात्राओं के कई प्रकार हो सकते हैं। निकटवर्ती क्षेत्रों के लिए प्रातः चलकर रात्रि तक वापस लौट आने का क्रम सबसे सुगम है। दिन का भोजन अपने साथ रखा जा सकता है। सत्तू, चूड़ा (पोहा) आदि जैसे आहार साथ लेकर कई दिन की यात्राएं भी सुविधापूर्वक की जा सकती हैं। अधिक ठण्ड हो, तो ओढ़ने-बिछाने के कपड़ों की जरूरत पड़ती है। वैसे पुआल बिछाकर कम्बल ओढ़कर अधिकांश समय काम चल भी जाता है। जैसी परिस्थितियां हों, तदनुसार विवेकपूर्वक यात्रा योजना बनायी जा सकती है।
यों साइकिल पर पर्याप्त सामान लेकर चलना संभव नहीं है। यदि साइकिल यात्रा का उत्साह उभरे, नियमित क्रम चले, तो एक ट्राली वाला रिक्शा भी एक टोली के साथ रखा जा सकता है। उसमें सबके लिए आवश्यक वस्त्र, भोजन का सामान आदि रह सकता है। साइकिल यात्री आस-पास के गांवों में सम्पर्क करते हुए बढ़ें और रिक्शा सीधा निर्धारित भोजन या रात्रि विश्राम के स्थल पर पहुंचकर पूर्व व्यवस्था बनाकर रखें। ऐसा करने से लम्बी यात्राएं भी बड़े मजे में की जा सकती हैं।
कभी प्रचलन यह भी रहा है कि देवालयों, धर्मशालाओं का निर्माण विशालकाय धर्म-प्रचार केन्द्रों के रूप में ही किया जाता था। वहां निवास एवं भोजन की व्यवस्था रहती थी; ताकि प्रचारकों को कम से कम असुविधाओं का सामना करना पड़े। अब वह समय न जाने कब आयेगा। अब तो मनोकामना पूर्ण करने या सस्ती वाहवाही लूटने के उद्देश्य से ही धर्मस्थानों का निर्माण होते देखा गया है।
इस दिशा में शान्तिकुंज ने 2400 प्रज्ञापीठों की स्थापना उत्तर भारत के अनेकों स्थानों पर पिछले दिनों की थी; किन्तु दुर्भाग्य यही रहा कि पुरानी मान्यताओं को बदल सकने में वैसी सफलता नहीं मिली, जैसी मिलनी चाहिए। अब नये सिरे से नये ऐसे धर्मस्थानों को बनाने की आवश्यकता अनुभव की जा रही है, जो तीर्थयात्रा आन्दोलन के साथ सघन रूप से जुड़े हुए रहें। जहां ठहरने की, भोजन की और लोगों को एकत्रित कर लेने की तीनों ही सुविधाएं उपलब्ध रहें। अगले दिनों हर गांव-कस्बों को ही नये धर्म संस्थानों की आवश्यकता बड़ी संख्या में पड़ेगी। भले ही वे आर्थिक असुविधा की स्थिति में, झोपड़ी, खपरैल, टीनशेड, सघन वृक्ष के उद्यान के रूप में ही बना लिए जायें।
एक प्राचीन परम्परा यह भी थी कि हर घर से एक-एक रोटी संग्रह करके तीर्थयात्रियों की भोजन-व्यवस्था जुटा ली जाती थी। किसी पर अधिक भार न पड़ता था। बनाने-पकाने का झंझट भी नहीं रहता था और देने वाला यह अनुभव करता था कि उसने भारतीय धर्म में सर्वोत्तम स्तर के माने जाने वाले कार्य में सहयोग दिया। अब से जहां संभव होगा, वहां शान्तिकुंज की साइकिल यात्राएं उस परम्परा को पुनर्जीवित करने का प्रयत्न करेंगी। जहां संभव न होगा, वहां अपने साथ भोजन-व्यवस्था रखने जैसा अन्य क्रम बनाये जा सकते हैं।
जहां भी प्रज्ञा केन्द्र हैं, छोटे-बड़े संगठन बन चुके हैं, वहां समय-समय पर तीर्थ यात्राएं निकालने का प्रयत्न चलना चाहिए। साधन जुटाना कठिन नहीं, साइकिलें मांगी भी जा सकती हैं। इसके लिए फरवरी से जून तक का और सितम्बर से दिसम्बर तक का समय भी ऋतु की दृष्टि से अनुकूल रहता है। देश का हर गांव तीर्थ बने, हर क्षेत्र में जीवन्त युगान्तरीय चेतना उभरे, इसके लिए मनीषियों को गांव-गांव पहुंचने और जन-जन को ऐसे विचारशील प्रतिभाशाली लोगों के सम्पर्क में आने का अवसर मिले, तो समझना चाहिए कि नवयुग के अवतरण की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया चल पड़ेगी।
जहां कोई बड़ी तैयारी नहीं है, पूर्व योजना बनाने तथा इस संबंध में अब तक प्रशिक्षण प्राप्त करने का अवसर नहीं मिला है; वहां पर सरल उपाय यह है कि अपने यहां से हरिद्वार चल पड़ने की योजना बनायी जाय। रास्ते में वाक्य लेखन, दीप यज्ञ, सहगान कीर्तन, प्रवचन, साहित्य-विस्तार स्टीकर, लगाने आदि कार्य करते हुए शान्तिकुंज पहुंचा जाय। वहां दो-चार दिन विश्राम एवं नये प्रशिक्षण का लाभ प्राप्त करते हुए, दूसरे रास्ते से घर वापस लौट जाया जाय; ताकि लौटने में अलग गांवों से सम्पर्क सधे।
उसके अतिरिक्त यह भी हो सकता है कि अपने इलाके की एक परिधि बनाकर, उसके हर गांव के साथ सम्पर्क साधने का काम हाथ में लिया जाय और निर्धारित परिक्रमा पूरी की जाय। इमारतों, मंदिरों, जलाशयों तक तीर्थयात्रा को सीमित करते हुए उस क्षेत्र को ही एक जीवंत तीर्थ मान लिया जाय और उसकी अभ्यर्थना नवचेतना-संचार द्वारा की जाय।
अगले दिनों जनशक्ति ही समस्त समस्याओं का समाधान करेगी। राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, पारिवारिक एवं अनीति-उन्मूलन, सत्प्रवृत्ति-संवर्धन जैसे कार्यक्रमों में जो लोग निरत होंगे, उन्हीं के हाथ सुदृढ़ और सुनिश्चित नेतृत्व अनायास ही जा पहुंचेगा। सेवा के बदले श्रद्धा उपलब्ध करने वाले ही संसार का नेतृत्व करते और महामानव बनते रहे हैं। इस साधना को सम्पन्न करने वाले स्वयं लाभान्वित होंगे और अपने सम्पर्क-क्षेत्र को भी लाभान्वित करेंगे। इसलिए नवयुग के आगमन की पुण्य वेला में तीर्थ यात्रा के रूप में युग चेतना का अभिनव संचार किया जा रहा है।
यों झोला पुस्तकालय चलाना, ज्ञानरथ धकेलना, घरों में स्लाइड प्रोजेक्टर दिखाना, आदर्श वाक्य लेखन, स्टीकर्स लगाना, प्रचार उपकरण पेटी से छोटी-छोटी गोष्ठियां नियोजित करना, प्रभात फेरी स्तर का अलख जगाना, सामूहिक सत्संग के लिए दौड़-धूप करना—यह सब भी प्रकारान्तर से पद-यात्रा, तीर्थ-यात्रा की ही आवश्यकता पूरी करते हैं; पर साइकिल टोली यात्रा का जो प्रभाव परिणाम देखने को मिलता है, उसकी बात ही दूसरी है।
युगचेतना-संचार के लिए सूत्रधारों ने इस यात्रा-प्रक्रिया पर बहुत जोर दिया है। हर जागृतात्मा को इसमें जुटने के लिए कहा जा रहा है। हजारों साइकिल यात्री निकल पड़ें और नव जागरण की तीव्र लहर सब ओर उभर कर आये, ऐसी आशा-अपेक्षा की गयी है। शान्तिकुंज से ऐसी क्रान्तिकारी टोलियां निकालने की भी व्यवस्था बनायी गयी है।