ईक्कीसवी सदी के लिए हमें क्या करना होगा ?

युग चेतना का प्रसारण

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विचार-परिष्कार के लिए युग धर्म का प्रतिपादन और प्रस्तुत भ्रान्तियों-विकृतियों के निराकरण में साहित्य का अधिकाधिक प्रचार-प्रसार। इस प्रकार का स्वाध्याय उपक्रम अधिकाधिक लोगों तक पहुंच सके, इसके लिए शान्तिकुंज द्वारा उस साहित्य का अभिनव सृजन किया गया है, जो युग धर्म की रूप-रेखा, सामयिक समस्याओं को ध्यान में रखते हुए दूरदर्शी विवेकशीलता को जगाता है।
इस प्रयास को एकाकी स्तर पर करना हो, तो उसके लिए झोला पुस्तकालय योजना सर्वसुलभ है। इसके लिए अपने सम्पर्क क्षेत्र में शिक्षितों के साथ सम्पर्क बढ़ाया जाय। उनकी अन्तरात्मा को स्पर्श करने वाले युग साहित्य को एक छोटे झोले में लेकर उन तक पहुंचा जाय। पढ़ने के लिए उन्हें घर बैठे वह साहित्य पहुंचाया जाय तथा नियत अवधि में उसे पढ़कर वापस करने के लिए सहमत किया जाय।
अपने देश की गरीबी, अशिक्षा और सत्साहित्य के प्रति अरुचि को देखते हुए यह आशा नहीं की जा सकती कि युग चेतना को प्रोत्साहन देने वाला साहित्य अभीष्ट मात्रा में लिखा, प्रकाशित किया जायेगा। विक्रेता भी ऐसे झंझट में क्यों हाथ डालें, जिसमें उन्हें तत्काल संतोषजनक लाभ न होता हो? यह एक अवरोध है, जिसके कारण नवोदित राष्ट्र को उपयुक्त दिशा-निर्देशन प्राप्त करने के लिए अभीष्ट साहित्य उपलब्ध नहीं हो पाता। इसलिए शान्तिकुंज ने उपरोक्त सभी पक्षों को अपने हाथ में लिया है और हर शिक्षित को पढ़ाने और हर अशिक्षित को सुनाने के लिए झोला पुस्तकालय योजना बनायी और स्वयं सेवी समयदानियों द्वारा समग्र निष्ठापूर्वक चलायी है। इस प्रयास के अन्तर्गत लाखों को घर बैठे, बिना कुछ खर्च किये, नवयुग का संदेश मिल रहा है।
इसी प्रयास का कुछ बड़ा रूप है ज्ञानरथ-संचालन। युग साहित्य को युग देवता का संदेश-प्रतीक मानते हुए, उसे ठोस रबड़ के तीन पहिये वाली गाड़ी पर सुसज्जित रूप से इस स्तर का बनाया गया है कि बाहर से देखने वालों को एक छोटा देवालय ही प्रतीत हो। इसे खींचते-धकेलते हुए परिजन अपने क्षेत्र में शिक्षित नर-नारियों तक झोला-पुस्तकालय की भांति सत्साहित्य देने, पढ़ाने और वापस लेने का उपक्रम चलाते हैं और घर-घर, जन-जन तक अपनी पैठ बनाते हैं। जो चाहें, वे उनसे साहित्य खरीद भी सकते हैं।
प्रज्ञा केन्द्रों को अचल और ज्ञानरथों को चल प्रज्ञा मंदिर मानकर इस योजना को चलाया तो बहुत दिनों से सफलतापूर्वक जा रहा था; पर अब उसमें कुछ और नये एवं सशक्त उपकरण जोड़ दिये गये हैं, जिनके कारण वह प्रज्ञा वाहन जिधर से भी गुजरता है, उधर ही अच्छी खासी भीड़ जमा हो जाती है और ऐसी प्रेरणाएं मनोयोगपूर्वक हृदयंगम की जाती है, जिसकी इन दिनों नितान्त आवश्यकता है।
नवनिर्मित ज्ञानरथों में मोटर वाली चार्जर युक्त छोटी बैटरी से चलने वाला टेपरिकॉर्डर और लाउडस्पीकर फिट कर दिया गया है। इस माध्यम से जन समुदाय की प्राण-प्रेरणा झकझोरने वाला युग संगीत सुनने को मिलता है और छोटे-छोटे, किन्तु सारगर्भित प्रवचन-परामर्श सुनने को मिलते रहते हैं। निर्जीव होते हुए भी ज्ञानरथ सजीव वक्ता, प्राणवान संगीत से अपने रास्ते में मिलने वाले से ऐसा कुछ कहता और गाता रहता है, जिसकी कि परिवर्तन की पृष्ठभूमि बनाने के लिए महती आवश्यकता है।
पिछले दिनों वाले ज्ञानरथ मात्र साहित्य का लाभ पहुंचाने के लिए झोला-पुस्तकालय स्तर की सेवा-साधना में निरत रहते थे। पर अब वे अपने छोटे कलेवर में दिन भर प्रवचन और गायन करते रहने पर भी न थकने वाला माध्यम संजोये रहने लगे हैं। इसलिए उसकी उपयोगिता अनेक गुनी अधिक बढ़ गयी है। पुराने ज्ञानरथों को चलाने वाले, राह में मिलने वालों को अपने प्रयास का, वाणी द्वारा परिचय भी देते थे। पर अब उन्हें कम पढ़े, भाषण-कला से अनभिज्ञ भावनाशील भी लिये-लिये फिरते हैं और दिनभर एक अति प्रभावोत्पादक चलते-फिरते प्रचार समारोह को गतिशील रखे रहते हैं। पुराने की तुलना में नये ज्ञानरथों की लागत तो कुछ बढ़ गयी है, पर वह इतनी नहीं कि औसत नागरिक उसे अपनी सीमित सामर्थ्य में ही जुटा न सकें। इस प्रयास में स्वाध्याय और सत्संग के दोनों ही प्रयोजन एक साथ जुड़ जाते हैं।
इसके अतिरिक्त इस क्षेत्र का एक और माध्यम है—दीवारों पर आदर्श वाक्य लिखते रहना। गेरू, काजल, नील, पीली रामरज, मुलतानी मिट्टी, खड़िया आदि को एक डिब्बे में डालकर बड़ी दावात के रूप में विनिर्मित किया जा सकता है और उसमें से बालों के ब्रुश या बांस जैसे किसी लकड़ी के उपकरण को कलम बनाकर जहां भी खाली दीवार दीख पड़े, वहां हाथ साधकर, सुन्दर अक्षरों में आदर्श वाक्य लिखे जा सकते हैं। जिन पर उधर से रास्ता निकलने वाले व्यक्ति नजर डालते ही सामयिक प्रेरणाएं प्राप्त करते रह सकते हैं। 1- हम सुधरेंगे-युग सुधरेगा, हम बदलेंगे-युग बदलेगा। 2- नर और नारी एक समान, जाति वंश सब एक समान। 3- इक्कीसवीं सदी-उज्ज्वल भविष्य का अवतरण जैसे दर्जनों आदर्श वाक्य गढ़े गये हैं। उनमें से जहां, जिनका चयन उपयुक्त दीखता हो, उसे वहां लिखा जा सकता है। इस प्रकार हर दीवार, खण्डहर, टीले, पत्थर को बोलती दीवार बनाया जा सकता है।
इस वर्ग में एक अन्य योजना स्टीकर चिपकाने की आती है। यह भी अनेकों प्रकार के तथा नाम-मात्र की लागत से मिलते हैं। उन्हें किवाड़ों पर, अलमारियों पर, अटेचियों पर, फर्नीचरों पर कहीं भी चिपकाया जा सकता है। प्लास्टिक पर बनी और पक्की स्याही से अंकित एवं मजबूत गोंद से सटे होने के कारण छोटे-बड़े साइज के यह स्टीकर ऐसे हैं जिन्हें वर्षों के लिए स्थायी रहने की स्थिति में चिपकाया जा सकता है। इनकी कीमत कुछ पैसे मात्र होने से हर किसी को खरीदने और घर सजाने के लिए सहमत किया जा सकता है।
इस प्रकार की प्रचार सामग्री के सस्ते-महंगे अनेक प्रकार के उपकरण विनिर्मित किये गये हैं। रुमालों, साड़ियों, दुपट्टों पर भी ऐसे ही कुछ प्रेरणाप्रद अंकन सटा देने की भी योजनायें बनती और चलती रहती हैं।
साक्षरता की, प्रौढ़ शिक्षा की, व्यवस्था बनाना अपनी जगह आवश्यक है। अशिक्षितों की अंधों में गणना होती है। इसलिए प्रत्येक शिक्षित परिजन को यह कहा गया है कि वह अपने सम्पर्क क्षेत्र में से अशिक्षित नर-नारियों को, बालकों-वृद्धों को, ठालों और व्यस्तों को तलाश करके उनके साथ सम्पर्क साधें। उनकी सुविधा का समय खोजें और अपने घर बुलाकर अथवा उनके घर जाकर हर किसी को साक्षर बनाने का प्रयत्न करें। अपने देश का कोई भी नागरिक अशिक्षित न रहे, इसके लिए विद्या-विस्तार में हर शिक्षित को ‘‘विद्या-ऋण’’ चुकाने के लिए कहा गया है।
इसी प्रयास का दूसरा चरण यह है कि साक्षरता के उपरान्त दैवी प्रेरणाएं पढ़ने का अवसर मिले। जिससे व्यक्तित्व विकास में, लोकमानस के परिष्कार की, अभीष्ट प्रगति-प्रेरणा का भी समावेश हो सके। युग साहित्य को जन-जन तक पहुंचाने के लिए झोला पुस्तकालय और ज्ञानरथ इसी निमित्त चलाये जा रहे हैं। दीवारों पर आदर्श वाक्य लिखने और प्रेरक स्टीकर स्थान-स्थान पर चिपकाने की योजना भी इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए है।

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