ईक्कीसवी सदी के लिए हमें क्या करना होगा ?

शोष जीवन का उत्सर्ग

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कृपणता, कायरता और अभ्यस्त हेय-परम्परा मनुष्य को मात्र वासना, तृष्णा के लिए अहंकार प्रदर्शन में यत्किंचित् सफलता प्राप्त करने के लिए बाधित करती है। मनुष्य रूप में कृमि-कीटकों की तरह जीने वालों को चारों ओर फैला हुआ समुदाय भी ऐसा हीन अनुकरण, आचरण, अपनाने के लिए प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से समझाता-फुसलाता रहता है। अदूरदर्शिता से ग्रस्त मानव इसी प्रयास में जीवन-संपदा गंवा देता है और पापों की पोटली सिर पर लादकर हाथ मलते प्रभु के दरबार में वापस लौटता है।
यह संभव है कि मानवीय गरिमा के उल्लास से भरा जीवन जिया जाय और आत्म संतोष, लोक सम्मान एवं देव अनुग्रह जैसे लाभ प्राप्त किये जायें। विश्वास इतना भर चाहिए कि आदर्श-निष्ठों को नंगे-भूखे नहीं रहना पड़ेगा। यह आश्वासन तो प्रभु ने जन्म के पूर्व ही दूध के स्रोत खोल कर दे दिया था। नव सृजन के लिए, भावनाशील एवं कर्मठ व्यक्तियों के लिए ऐसा ही आश्वासन शान्तिकुंज ने भी दिया हुआ है। उपेक्षा उन्हीं की, की जाती है, जो कोल्हू के बैल की तरह लोभ, मोह के कुचक्र में फंसकर खली की तरह छूंछ बन चुके हैं, जिनमें श्रम-साहस शेष नहीं रह गया है। संसार पर भार बनकर रहते हैं, उनके लिए शान्तिकुंज ही अपनी दस-दस पैसे की याचना करके जमा की गयी राशि को क्यों बर्बाद करे? स्वर्ग, मुक्ति, सिद्धि चमत्कार जैसे निरर्थक प्रलोभनों में न उलझाकर यहां तो कर्म चेतना को भगवान के चरणों पर अर्पित करने और आत्मोत्कर्ष का प्रत्यक्ष लाभ प्राप्त करने की ही शिक्षा और प्रेरणा दी जाती है।
जिन्हें प्रभु के अनुपम उपहार—मानव जीवन को प्रपंचों के दुर्गन्धित दलदल में फंसे रहने से अरुचि उत्पन्न हो, जिन्हें युग देवता द्वारा द्वार खटखटाये जाने पर सर्वथा निष्ठुर न बने रहने की भावचेतना उभरे, उन्हें नये सिरे से सोचना चाहिए कि मसखरी के लिए जिन्दगी निछावर करने की अपेक्षा, युगधर्म के निर्वाह हेतु शेष जीवन को परमार्थ प्रयोजन के लिए ईश्वर के हाथों सौंप देना चाहिए।
शान्ति-कुंज में स्थानीय एवं परिव्राजक स्तर के भी कई काम रहते हैं। इसके अतिरिक्त शाखा-प्रशाखाओं में भी कार्यकर्ताओं की मांग रहती है। उसके लिए तत्परता प्रकट करते हुए नये युग की नई साधना आरंभ की जा सकती है। कठिनाई तभी पड़ती है, जब कोई व्यक्ति लोकसेवी तो बनता है; पर वित्तेषणा से आक्रान्त होकर औसत नागरिक से अधिक खर्च करना चाहता है, काम से जी चुराता है या अहंकार की पूर्ति के लिए आत्म-विज्ञापन का प्रपंच रचता है। ऐसे लोग विज्ञ समुदाय में सर्वत्र दुत्कारे जाते हैं, फिर सेवा-साधना के क्षेत्र में ही उनकी क्यों व्यापक उपयोगिता-आवश्यकता रह जायेगी? धर्म-धारणा और सेवा-साधना वस्तुतः योगाभ्यास और तपश्चर्या का ही एक बुद्धिसंगत उपचार है।
घोर संसारी बनकर जीना भी सरल कहां है। उसमें भी पग-पग पर उपहास, आरोप और संकट भरे रहते हैं। जो कमाया जाता है, उसे मसखरे झटक ले जाते हैं। उस सड़े दलदल में हाथ-पैर पीटते रहने की अपेक्षा, जिन्हें आदर्शवादी अनुशासन अपनाना श्रेयस्कर लगे, उनके लिए शान्ति-कुंज का आह्वान है। जो शान्ति-कुंज चल पड़ने की सोचें, अपनी संचित कमाई को भी साथ ले जाने की योजना बनायें, अन्यथा उसे मसखरे हड़प लेंगे और अपना गुजारा भिक्षा के धन पर करना पड़ेगा। जिनके पास कुछ अर्थ-साधन संचित नहीं है, उनका तो शान्ति-कुंज अपना घर है ही।
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*समाप्त*


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