ईक्कीसवी सदी के लिए हमें क्या करना होगा ?

समय-सम्पदा का श्रेष्ठतम सदुपयोग

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लेने और देने दोनों को ही अपने-अपने स्थान पर अपना-अपना महत्त्व है। इस सुविस्तृत प्रसंग पर गंभीरतापूर्वक विचार करते हुए ‘‘दान’’ के सम्बन्ध में भी वैसा ही विचार करना पड़ता है। दान देते समय प्रसन्नता एवं गर्व-गौरव की अनुभूति होती है। लेने वाले से कृतज्ञ, सहयोगी, प्रशंसक बनने की अपेक्षा रहती है। देखने-सुनने वाले उदार व्यक्तित्व की झांकी करते और समय-समय पर प्रशंसा भरी चर्चा करते हैं, उसे विश्वस्त मानते और परोक्ष रूप से सहायक बनते हैं। इसके अतिरिक्त पापों के प्रतिफल से छुटकारा, पुण्यों की अभिवृद्धि, स्वर्ग और मुक्ति के प्रति-अमुक देवता की अनुकम्पा जैसी कितनी ही उपलब्धियों की आशा की जाती है, जो खर्ची हुई राशि की तुलना में कहीं अधिक लाभ मिलने का आश्वासन दिलाती है।
कुपात्रों को दान देने से उनके दुर्व्यसन भड़कते हैं। मुफ्त में पाने वाले अपव्यय के अतिरिक्त अनेक बार अपने आलस्य-प्रमाद को बढ़ाते, मुफ्तखोरी के कुचक्र में आत्महीनता से लदते और गिड़गिड़ाते हुए सिर नीचा करते हैं। दान का उपयोग अनर्थ के लिए भी होता है। देवता के नाम पर पशु-पक्षियों का वध-बलिदान किया जाता है। कुकर्मी उसे पाकर दुष्टता के पक्षधर प्रयासों पर उतरते हैं। ऐसी स्थिति को ध्यान में रखते हुए शास्त्रकारों ने कुपात्रों को अविवेक पूर्वक दिये गये दान की निन्दा भी की है। गांधी जी ने गरीबों की आर्थिक सहायता का उपयुक्त तरीका यही बताया था कि उनकी बनी खादी जैसी वस्तुएं खरीद कर उनकी परोक्ष सहायता की जाय।
संकटग्रस्तों, अभावग्रस्तों की सहायता करने में धन का सदुपयोग ही है। सुविधा-संवर्धन के लिए कई लोग धर्मशालाओं, सदावर्त आदि का ऐसा भी विनियोग करते हैं, जिनका लाभ सत्पात्रों को कम और कुपात्रों को अधिक मिलता है। मुफ्त औषधि वितरण की व्यवस्था को सराहा तो जाता है, तीर्थयात्री पर—प्रीतिभोजों पर किये जाने वाले खर्च भी वास्तविक हित-साधन कितना कर पाते हैं—इसके लिए उपयोग की प्रक्रिया पर भी ध्यान देना होगा। लाखों-करोड़ों की जनसंख्या में भिखारियों की संख्या बढ़ाने वालों ने पाने वालों से स्वावलम्बन और आत्मगौरव छीना है। ऐसा कुप्रचलन बढ़ाया है, जिसने आदर्शनिष्ठा को, मानवी गरिमा को गिराने में ही सहायता की है। भिक्षा भी एक व्यवसाय गिना जाने लगने से देश का गौरव बढ़ा नहीं, वरन् गिरा ही है। इसलिए विचारशील वर्ग में उसे अनुचित ठहराया गया और हेय कहा गया है।
देवालय और तीर्थ कभी लोक शिक्षण की अतिमहत्त्वपूर्ण आवश्यकता की पूर्ति करते रहे होंगे। कोई समय ऐसा भी रहा होगा, जब लोकमंगल के लिए समर्पित पुरोहित वर्ग आकाशवृत्ति पर अपरिग्रही रीति-नीति अपनाये रहा होगा। तब उन्हें दान-दक्षिणा देने की भी उपयोगिता थी, पर जब वह अधिकार वंश और वेश के आधार पर उनके हिस्से में चला गया, तो उनकी परिणति क्या हुई? इसकी विवेचना करते किस प्रकार बन पड़े?
यहां मात्र इतना कहा जा रहा है कि कुपात्रों को ही यदि धनदान दिया जाना हो, तो मुट्ठी खोलने से पहले हजार बार यह भी विचार कर लेना चाहिए कि इसकी परिणति क्या हुई, या क्या हो सकती है? गिरों को उठाने और उठों को उछालने जैसी सत्प्रवृत्तियों के संवर्धन में सहायक होने वाले दान सदा से सराहनीय एवं श्रेयस्कर रहे हैं। उस पुनीत परम्परा को तो अभी भविष्य में भी जीवन्त बनाये रहने की, रखे जाने की आवश्यकता है।
यहां इन पंक्तियों में एक नया सोच प्रस्तुत किया जा रहा है कि मानवता को लगे घावों को भरने के लिए जिस दान-पुण्य की पारमार्थिक आवश्यकता है। उसके लिए उपयुक्त माध्यम जनमानस का परिष्कार होना चाहिए। यह बन पड़े तो समझना चाहिए कि इस क्षेत्र की उर्वर-भूमि में बोया गया प्रत्येक बीज, ऐसे प्रतिफलों से लदा रहेगा, जिसमें प्रस्तुत संकटों को टालने से लेकर भविष्य में हर क्षेत्र को समृद्धिमय बनाने की क्षमता होगी। विचार परिमार्जन से लेकर सत्प्रवृत्ति-संवर्धन तक की परिधि में आने वाले पुनीत कार्य ही ऐसे हैं, जिनके लिए स्वयं आधे पेट रहकर भी भाव-भरे अनुदान प्रस्तुत करने की उदारता दिखाई जानी चाहिए। व्यक्ति और समाज का सर्वतोमुखी कल्याण उन्हीं भाव-संवेदनाओं के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ है।
भगवान ने मनुष्य को सृष्टि का सर्वोत्तम प्राणी बनाया है और साथ ही शारीरिक, मानसिक क्षमताओं का अजस्र भण्डार भी विपुल मात्रा में दिया है। इसे अन्य प्राणियों के साथ किया गया अन्याय या मनुष्य के साथ बरता गया भाई-भतीजावाद स्तर का पक्षपात नहीं समझा जाना चाहिए। यह सामन्तों से उनकी संतान को उत्तराधिकार में मिलने वाली मुफ्त का कोष या भण्डार नहीं है, जिसे कुकर्मों और दुर्व्यसनों में भी मनमाने ढंग से खर्च कर डालने की छूट मिली हो। अन्य प्राणियों की तुलना में मनुष्य को, जो कुछ भी अतिरिक्त रूप से मिला है, वह एक विशुद्ध धरोहर है। उसे ऐसी अमानत समझा जाना चाहिए, जिसे मात्र विश्व-वाटिका को अधिक सुरम्य और अधिक सुसंस्कृत बनाने के लिए ही खर्च किया जा सकता है। सरकारी खजाने में बड़ी सम्पदा जमा रहती है, पर उसमें से खजांची किसे, कितना दे, यह शासकीय निर्धारणों पर ही निर्भर है। बैंक के कोषाध्यक्षों की तिजोरी में प्रचुर सम्पदा रहती है और उस तिजोरी की चाभी-कुंजी नियुक्त खजांची ही संभालते हैं। इतने पर भी वे उसमें से निजी प्रयोजन के लिए अथवा अनधिकारी कामों के लिए एक पाई भी खर्च नहीं कर सकते। यदि वे लोग उस धन को ले भागें या मनमाने खर्च करने में उड़ा दें, तो इसे अनधिकारपूर्ण चेष्टा माना जायेगा।
इस तथ्य को भुला देने वाले ही ईश्वर प्रदत्त बहुमूल्य सम्पदा जीवनकाल की अवधि का मनमाने ढंग से दुरुपयोग करते हैं और बदले में अपना लोक-परलोक बिगाड़ते हैं। पैसा तो मनुष्य का अपना कमाया हुआ है, इसलिए उसमें की जाने वाली धांधली को तो दरगुजर भी किया जा सकता है, पर समय-सम्पदा की बर्बादी तो खुली डकैती के सदृश है। इसे असाधारण स्तर का अनाचार कहा जा सकता है। ईश्वर के प्रति विद्रोह भी। जीवन के साथ की गई खिलवाड़ भी।
मनुष्य की आवश्यकताएं अत्यन्त स्वल्प हैं। उसकी उपार्जन क्षमता इतनी अधिक है कि कुछ ही घंटे श्रम-साधना से निर्वाह की उचित आवश्यकताएं पूरी की जा सकती हैं। सात घंटे सोने में, आठ घंटे कमाने में, पांच घंटे इधर-उधर के कामों में खर्च कर लेने पर भी बीस घटे से अधिक, रोज कुंआ-खोदने और रोज पानी-पीने वाले को भी नहीं चाहिए। चौबीस घंटे समय में से चार घंटे हर किसी के पास इसलिए बच जाते हैं कि उन्हें ईश्वर द्वारा निर्धारित प्रयोजनों के लिए, लोकमंगल के लिए, सत्प्रवृत्ति संवर्धन के लिए लगाया जा सके। पर जो इस अनुशासन को पूरी तरह भूल जाते हैं; सारा समय विलास, संग्रह, मनोरंजन एवं अवांछनीय प्रयोजनों के लिए खर्च कर डालते हैं, उनके लिए यही कहा जा सकता है कि आत्मा और परमात्मा के साथ विश्वासघात कर रहे हैं।
यह आपत्तिकाल जैसा समय है। अग्निकाण्ड, तूफान, भूकम्प, दुर्भिक्ष, महामारी, बाढ़, दुर्घटना जैसे समय में तो हर भावनाशील को अपने निजी आवश्यक कामों को छोड़कर भी उस विपत्ति में सहायता करने के लिए दौड़ना पड़ता है। उस समय निष्ठुरता धारण करके यदि कोई मूकदर्शक बना रहे और गुलछर्रे उड़ाने में निरत रहे, तो वह भी सर्वत्र-धिक्कारा जायेगा। जो सुनेगा, देखेगा, वह भी इस निष्ठुरता को धिक्कारे बिना रहेगा नहीं। आत्मा और परमात्मा की दृष्टि से भी इस प्रकार की उपेक्षा का बरता जाना अक्षम्य ही समझा जायेगा।
लूट, बलात्कार, हत्या, डकैती जैसे अपराध आंखों के सामने होते रहें, पर जो समर्थ होते हुए भी उन अनाचारों की रोक-थाम के लिए टस से मस न हो, तो उसे भी अपराधियों की श्रेणी में ही गिन लिया जाता है।
समय की सम्पदा को जिस भी प्रयोजन के लिए लगाया जाय, उसी स्तर की फसल पक कर सामने आती है। लोभ, मोह और अहंकार के लिए, वासना, तृष्णा के लिए बौनी समझ के लोग उसे लगाते हैं, फलस्वरूप शोक-सन्ताप, कलह-पतन के पराभव भुगतते हैं। इसी प्रचलन ने व्यक्ति और समाज को ऐसे जंजालों में फंसा दिया है, जिनमें विनाश और विग्रह के अतिरिक्त कुछ मिलता ही नहीं दीख पड़ता। आवश्यकता इस अभ्यास को आदि से अन्त तक बदलने की है। देवमानवों को मात्र पुण्य और परमार्थ ही सुहाता था। अन्तराल की शक्तियों और बहिर्जगत की सम्पदाओं को सत्प्रवृत्ति संवर्धन के लिए लगाया जाता था, वे अपनी सामर्थ्य का नियोजन अपने और परायों का कल्याण करने में ही निरत रखते थे। फलतः सर्वत्र सतयुगी वातावरण बिखरा दीखता था और दैवी अनुग्रह अमृत-वर्षा की तरह बरसता था।
पिछली शताब्दी में गिरने और गिराने का मार्ग अपनाया गया। उसने नारकीय परिस्थितियां उत्पन्न करके रख दी हैं। इस अनाचार से प्रकृति और परमेश्वर दोनों को ही भारी कष्ट हुआ है। उनने कुमार्गगामियों को कड़ी प्रताड़ना देकर सीधे रास्ते पर चलाने का निश्चय किया है। साथ ही जो विनाश हो चुका है, उसे नये सिरे से सुधारने का भी। लंकाध्वंस और धर्म राज्य की स्थापना की त्रेता वाली दुहरी प्रक्रिया पुनः दुहराई जा रही है। इस भवितव्यता में सम्मिलित होकर श्रेयाधिकारी बनने की मानसिकता वाले हनुमान, जामवन्त, नल-नील ढूंढ़े जा रहे हैं। जो सहमत हो रहे हैं, उनसे एक ही अपेक्षा की जा रही है—‘‘महाक्रान्ति के लिए समयदान’’। इसे अपनाने वाले लगभग उतने ही बड़े श्रेय के अधिकारी बनेंगे, जिसे अब तक मात्र परमेश्वर को ही दिया जाता है। राम काज करने वाले हनुमान के देवालय राम मंदिरों से कम नहीं हैं।
यह चिन्ता करना व्यर्थ है कि अपनी समय-सम्पदा यदि महाकाल की पुकार सुनकर नवसृजन के लिए लगा दी गई, तो हमें घाटा पड़ेगा। वस्तुतः यह नफे का सौदा है। संसार भर के महा मानवों का इतिहास इस तथ्य का साक्षी है कि परमार्थी देवपुरुषों ने जो खपाया उसकी तुलना में पाया कहीं अधिक है। मात्र संकीर्णता के वशीभूत होकर ही लोग युगधर्म निवाहने और समय की पुकार सुनने में आनाकानी करते हैं, पर जिनने भी इस प्रयोजन के लिए साहस बटोरा है, वे कृत-कृत्य होकर रहेंगे और लोकहित के निमित्त इतना कुछ कर सकेंगे, जिसके लिए उन्हें अनुकरणीय-अभिवंदनीय देवमानव के रूप में अनंतकाल तक स्मरण किया जा सके।
भगवान का द्वार निजी प्रयोजनों के लिए अनेकों खटखटाते पाये जाते हैं, पर अबकी बार भगवान ने अपना प्रयोजन पूरा करने के लिए साथी, सहयोगियों को पुकारा है। जो इसके लिए साहस जुटायेंगे, वे लोक और परलोक की सिद्धियों-विभूतियों से अलंकृत होकर रहेंगे। शान्तिकुंज के संचालकों ने यही सम्पन्न किया और अपने को अति सामान्य होते हुए भी अत्यन्त महान कहलाने का श्रेय पाया है। जागृत आत्माओं से भी, इन दिनों ऐसा अनुकरण करने की अपेक्षा की जा रही है।

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