ईक्कीसवी सदी के लिए हमें क्या करना होगा ?

सहस्रकुण्डी महायज्ञों का देशव्यापी सरंजाम

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>
शासन-व्यवस्था संसार भर पर आच्छादित है, पर उसका क्रम खण्ड-खण्डों में विभाजित होकर लागू होता है। दुनिया एक है, पर उसमें देश अनेक हैं। देश में प्रान्त, प्रान्तों में जिले, जिलों में मण्डल बंटते हैं और उनके अनुसार शासनाध्यक्ष नियुक्त होकर कार्यरत होते हैं। केन्द्रीय शासन के अन्तर्गत विधान सभाएं जिला परिषदों आदि के चुनाव होते हैं; तभी विकेन्द्रीकरण का तारतम्य बैठता है।
धर्मतंत्र अथवा समाजतंत्र का भी इसी प्रकार विभाजन बन पड़ता है। छोटी इकाइयां मिलकर एक बड़ी इकाई बनती हैं। यों इन दिनों उनमें सम्प्रदायों और मतमतान्तरों का भी बोलवाला है; और तीर्थों, धर्म-केन्द्रों का विभाजन विघटन स्तर का हो गया है। फिर भी ऐसी अराजकता प्राचीनकाल में नहीं थी और भविष्य में भी न रहेगी। राजतंत्र और धर्मतंत्र दोनों मिलकर एक समग्र लोक तंत्र का सृजन करेंगे। शासनतंत्र सुरक्षा, सुव्यवस्था, स्वास्थ्य, शिक्षा, संचार, मुद्रा, अर्थतंत्र आदि वा संचालन करेगा और मानसिकता, भावना, आचार-संहिता, प्रथा-प्रक्रिया आदि का दायित्व धर्मतंत्र को संभालना पड़ेगा। भौतिकता से मनुष्य को लाभान्वित करने का सरंजाम शासन जुटाये और आध्यात्मिकता, नीति-निष्ठा, समाज निष्ठा, आदर्श, अनुशासन आदि को समुन्नत करने की जिम्मेदारी धर्मतंत्र के कंधे पर रहे। समग्रता इसी आधार पर बन पड़ेगी, अगले दिनों ढांचा ऐसा ही खड़ा करना पड़ेगा।
शासनतंत्र अपने ढंग से चल रहा है, उसकी उठक-पटक राजनैतिक पार्टियां करती रहती हैं; सुधार-परिवर्तन होते रहते हैं, पर दुर्भाग्य यही है कि मानसिकता, भावना और आदर्शवादी अनुशासन को सुस्थिर-समुन्नत रखने वाला धर्मतंत्र इन दिनों अन्य क्षेत्रों की तुलना में विकृतियों से अधिक भर गया है, जबकि उसके अधिक परिष्कृत, प्रभावी एवं संगठित होने की आवश्यकता थी; ताकि शासन क्षेत्र में जो गड़बड़ी चले, उसे संतुलित करने में उसकी प्रभाव-क्षमता का परिचय मिल सके। धर्म-तंत्र से लोक शिक्षण की प्रक्रिया इसी आधार पर चल पड़ी है। इक्कीसवीं सदी की युग परिवर्तन योजना के अन्तर्गत इसी प्रक्रिया को प्रमुखता दी गयी है। जन-सम्पर्क, जनजागरण के अनेकानेक कार्यक्रम इसी लक्ष्य को आगे रखकर संचालित किये गये हैं।
यह घोषणा देश के—विश्व के—कोने-कोने में की गयी है कि सन् 60 से 2000 के बीच दस वर्षों में जन-जागृति का, लोकमानस के परिमार्जन का लक्ष्य पूरा कर लिया जायेगा। उस हेतु एक लाख दीप यज्ञों और एक करोड़ सृजन शिल्पियों की भागीदारी नियोजित किये जाने का इतना बड़ा कार्य-क्रम बना है, जिसे अभूतपूर्व, असाधारण एवं ऐतिहासिक कहा जा सकता है। अपेक्षा की गयी है कि इस कार्यक्रम के आधार पर देश भर के कोने-कोने तक युग चेतना का प्रकाश पहुंचाया जायेगा। इससे कुछ कदम आगे बढ़ते ही विश्व भर में बिखरे भारतीय मूल के प्रवासियों और इसके बाद अनेक धर्मावलम्बियों, भाषा-भाषियों, मान्यताओं वाले लोगों की, उनकी अभिरुचि के साथ संगति बिठाते हुए, इसी प्रयास को व्यापक बनाया जायेगा। प्रस्तुत 600 करोड़ मनुष्य को मानवी-गरिमा की छत्र-छाया में लाने की यही योजना है। शान्तिकुंज से संबंधित सभी परिजन इस विशालकाय योजना को कार्यान्वित करने में इन्हीं दिनों जुट गये हैं। परिजनों-पाठको को ही नहीं, अपरिचितों को भी इस माध्यम से एक जुट करने और प्रगति-पथ पर चल पड़ने के लिए आन्दोलित किया जा रहा है। सन् 60 को शुभारम्भ वर्ष माना गया है। अगले दस वर्ष इस प्रयोजन को व्यापक और परिपक्व बनाने में लगेंगे। फिर सन् 2000 के आगमन के साथ इक्कीसवीं सदी का सूत्रपात हो ही जायेगा।
सन् 90 का निर्धारण यह है कि जहां भी प्रज्ञा पीठें, प्रज्ञा मंडलियां, जागृत शक्तिपीठें विद्यमान हैं, उन सभी में एक-एक हजार दीप यज्ञों के आयोजन हों। उसमें एक मंडल के लोगों को आमंत्रित ही नहीं, सम्मिलित भी किया जाय। मंडल के गठन आवश्यक हैं। राजनैतिक क्षेत्र की तरह धर्म-तंत्र को भी अपने मंडल संगठित करने चाहिए और उसके आधार पर दीप यज्ञों के समारोह होने चाहिए। उस क्षेत्र की विचारशील जनता को इनमें प्रयासपूर्वक अधिकाधिक संख्या में सम्मिलित किया जाना चाहिए।
हर मंडल में कई-कई हजार वेदी के दीप यज्ञ हों। इसके लिए सम्पर्क साधकर, उद्देश्य एवं महत्त्व बताकर, संभावनाओं पर ध्यान केन्द्रित कराया जा सके, तो निश्चय ही दो-दो, तीन-तीन मील के फासले पर उपरोक्त स्तर के आयोजनों की धूम मच सकती है। उस परिधि के लाखों व्यक्ति नवयुग के, नवजीवन के आधारों को अपनाने के लिए आन्दोलित हो सकते हैं।
कुछ प्रभावशाली प्रतिभाएं यदि इन आयोजनों को सम्पन्न बनाने के लिए कटिबद्ध हो सकें, तो इतने भर से ही उज्ज्वल भविष्य से जुड़े हुए नवयुग आन्दोलनों की तूफानी लहर पैदा हो सकती है। समर्थ प्रतिभाओं को कार्य-क्षेत्र में उतारने का संदेश शान्तिकुंज से सभी दिशाओं में, देश के कोने-कोने में भेजने की प्रक्रिया योजनाबद्ध रूप से आरंभ कर दी गयी है।
उपरोक्त आयोजन न तो अत्यधिक श्रम-साध्य हैं और ने खर्चीले। इच्छा-शक्ति की प्रबलता और व्यवस्थित दौड़-धूप से आयोजन में सम्मिलित होने वालों की अभीष्ट संख्या एकत्रित हो सकती है। प्रचार के अनेक सरल माध्यम हैं। साइकिल यात्राओं, ज्ञान रथों, स्लाइड प्रोजेक्टरों और टेप प्लेयर-लाउडस्पीकर सैटों के माध्यम से जन-जन तक आयोजनों के संदेश, उद्देश्य और आमंत्रण पहुंचाये जा सकते हैं। गीतों, गोष्ठियों आदि के माध्यम से उद्देश्य और महत्व समझकर लोग सहज ही भाग लेने लगते हैं।
संयोजकों को छाया का प्रबंध करने के लिए शामियाना, बैठने के लिए फर्श, घेरा बंदी के लिए कनात जैसी आवश्यकताएं पड़ेगी। लाउडस्पीकर का भी प्रबन्ध करना होगा। प्रवचन मंच तथा पूजा वेदी की व्यवस्था तख्त एकत्र करके बनाई जा सकती है। ऐसा भी हो सकता है कि एक क्षेत्र के लिए एक सेट की व्यवस्था करली जाय और उसी का प्रयोग फिर समीपवर्ती सैकड़ों कार्यक्रमों में होता रहे। बड़ी संख्या में जन उपस्थिति के लिए पीने का पानी और पेशाबघरों का प्रबंध भी करना पड़ता है। सज्जा तथा सुव्यवस्था के लिए अपने ही लोगों में से कुछ को स्वयंसेवक स्तर की जिम्मेदारी संभालने के लिए प्रशिक्षित कर दिया जाय।
एक दिन का यह आयोजन प्रायः सवेरे से शाम तक चलेगा। इतने लम्बे समय तक सम्मिलित रहने वालों के लिए एक बार का भोजन प्रबंध बन पड़े, तो ठीक है। यह मुश्किल तब पड़ेगा, जब एक ही जगह, पूड़ी-सब्जी जैसी खर्चीली व्यवस्था बनाई जाय। यह प्रीतिभोज शैली अपने कार्यक्रमों में अपनाये जाने की तनिक भी आवश्यकता नहीं है।
नया निर्धारण यह है कि हर घर से एक-दो रोटी तथा शाक-सब्जी लाने के लिए प्लास्टिक की थैलियां बांट दी जायें और कहा जाय कि इसमें अपनी सामर्थ्यानुसार कुछ बना हुआ भोजन भी आयोजन में आने के समय साथ लेते आवें। रोटी संग्रह करने वाली थैलियों पर छपा रहे ‘‘स्वच्छतापूर्वक बना - शाकाहारी भोजन’’। इस प्रकार का भोजन सब लोग पंक्तिबद्ध बैठकर प्रीतिभोज की तरह खायें, तो उससे ‘‘जाति-वंश सब एक समान’’ के आदर्श की पूर्ति होती है और जातिगत ऊंच-नीच का जो भेद-भाव चल रहा है, उससे निवृत्ति मिलती है। सहभोज के सम्बन्ध में एक प्रयोग यह भी हो सकता है कि खिचड़ी या दलिया एक जगह बना ली जाय और उसे पत्तलों में परोस कर खाया जाय।
सहगान कीर्तन से भी एकता के भाव विकसित होते हैं। साथ-साथ गायत्री मंत्र के उच्चारण में भी जहां एकता और समता का प्रतिपादन है, वहां उससे सूक्ष्म जगत का ऐसा परिष्कार भी जुड़ा है, जो नवयुग के अवतरणों में सहायता करेगा।
इन आयोजनों में सम्मिलित होने वालों को कुछ उपयोगी प्रतिज्ञाएं भी करनी चाहिए। जैसे हर साक्षर द्वारा दो निरक्षरों को साक्षर बनाया जाय। नशेबाजी छोड़ी और छुड़ायी जाय। प्रगति कार्यक्रमों में सहयोगी बनने के लिए समयदान-अंशदान का पुण्य छोटे-बड़े किसी रूप में निबाहा जाय।
धर्म के चार चरण भी व्याख्या करने योग्य हैं और प्रतिज्ञा में सम्मिलित रखने योग्य भी। 1. समझदारी, 2. ईमानदारी, 3. जिम्मेदारी, 4. बहादुरी। पांच नियम ऐसे हैं, जिन्हें अपने प्रभाव क्षेत्र में सुविस्तृत किया जाना चाहिए—1. श्रमशीलता, 2. शिष्टता, 3. मितव्ययिता, 4. सुव्यवस्था, 5. सहकारिता। व्याख्यानों में इन सद्गुणों को अपनाने की उपस्थित जनों को प्रेरणा दी जानी चाहिए। विवाहों में दहेज-जेवर और धूम-धाम का परित्याग करने का व्रत लेना भी ऐसा है, जिसे सभी लोगों को संकल्प रूप में निबाहने की प्रतिज्ञा करनी चाहिए।
दीपयज्ञ में उपस्थित जन अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र में ऐसे ही छोटे बड़े आयोजन करने-कराने की प्रतिज्ञा लें, तो इस प्रक्रिया का व्यापक प्रचार हो सकता है और धर्म-धारणा के लिए, सेवा-साधना के लिए एक नया वातावरण विनिर्मित हो सकता है।
इस योजना से कुछेक प्रतिगामियों को छोड़कर अन्य किसी की कोई असहमति नहीं हो सकती है। एक दिन का समय निकालना और घर से कुछ खाद्य-पदार्थ लेकर चलना भी इतना कुछ कठिन नहीं है, जिसके लिए यदि समुचित प्रचार किया जाय, तो बड़ी संख्या में लोगों को सम्मिलित न किया जा सके। इस प्रकार एकत्रित हुए लोगों का एक परिवार समुदाय गठित होता है। उसकी संयुक्तशक्ति को अवांछनीयताओं से जूझने और एकजुट होकर उपयोगी कार्य सम्पन्न करने के निमित्त लगाया जा सकता है और उसके सत्परिणाम कुछ ही दिनों में सामने आ सकते हैं।
इन आयोजनों को गठित करने वाले, एक लोकसेवी और सुधारवादी के रूप में जन साधारण के सामने आते हैं और छवि बनती है। उस छवि का लाभ व्यक्तिगत और सामूहिक प्रगति के रूप अनेक आधार लेकर सामने आ सकता है। नेतृत्व के अभिलाषी तो इन आयोजनों के सहारे अपनी मनोकामना सौम्यतापूर्वक सहज पूरी कर सकते हैं।
समर्थ शाखा-संगठनों के लिए कुछ उपकरण खरीदना और अपने तथा अन्यों के क्रिया-कलापों में उपयोग करना कठिन नहीं है। दीपयज्ञों के साथ धार्मिकता और पुण्य-परमार्थ के जुड़े होने के कारण, खुशहाल लोगों से इतना पैसा भी आसानी से संग्रह किया जा सकता है, जिसके सहारे तीर्थयात्रा, ज्ञान रथ, स्लाइड प्रोजेक्टर, टेपरिकॉर्डर पेटी, बिछावन, आच्छादन आदि को खरीद सकना सरलतापूर्वक बन पड़े। दीपयज्ञों को सुनियोजित ढंग से आयोजित किया जा सके, तो युग अवतरण के महान प्रयोजन में उनसे बड़ी सहायता मिल सकती है।

<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118