गीत संजीवनी-2

जब- जब सौ- सौ बाँह पसारे

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जब- जब सौ- सौ बाँह पसारे, खड़ा तिमिर हो बीच राह में-

तुम दीपक से जलते जाओ॥
उठते तूफानों को आखिर, एक दिन मिट जाना ही होगा।

बढ़े प्रलय तो उसे सहमकर, आखिर रुक जाना ही होगा॥
मंजिल दूर भले हो लेकिन, उर में दृढ़ विश्वास यही है।

दुःखी जगत् के इस आँगन में, सुख को फिर आना ही होगा॥
पग- पग से तुम डगर नापते, अंगारों पर चलते जाओ॥

ज्योति तुम्हारी बिखरे जो, भू- तल से अम्बर तक छा जाये।
और सिसकती मानवता फिर, हँसकर मंगल मोद मनाये॥

पाने को यह लक्ष्य तुम्हें नित, तिल- तिल करके जलना होगा।
हो सकता है क्रूर काल यह, तुमको ठोकर देता जाये॥

तुम गिरकर भी, फिर उठ- उठकर, सतत् लक्ष्य तक बढ़ते जाओ॥
जग में जीते वही, परिस्थितियों से, जो टकराया करते।

चट्टानों को तोड़ स्वयं ही, अपना मार्ग बनाया करते॥
उन फूलों की ही सुगन्धि तो, छायी है सारे उपवन में।

जो काँटो से विंधते लेकिन, म्लान न हो मुस्काया करते॥
सौरभ बरसाना चाहो तो, काँटों में भी पलते जाओ॥

मुक्तक-

उगो सूर्य की तरह गगन पर, बन प्रकाश छा जाओ।
और अन्धेरा इस जगती का, जलकर स्वयं मिटाओ॥
बन ऊषा की लाली, जन- जन के मन कमल खिलाओ।
शशि बन निशि में भी पथिकों के, हित प्रकाश फैलाओ॥
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