गीत संजीवनी-2

जगदम्बे सविनय प्रणाम

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जगदम्बे सविनय प्रणाम- सुमनों को अंगीकार करो।

अपने इन मानस पुत्रों की- श्रद्धाञ्जलि स्वीकार करो॥
तुमने अपनी पलकों से- ममता के सिन्धु उड़ेले थे।

जिसकी पावन लहरों में- हम, सब हँस- हँसकर खेले थे॥
सद्गुण विकसे पर्वत- पर्वत, मैदानों- मैदानों में।

बादल बन- बनकर करुणा, बरसी थी रेगिस्तानों में॥
उठो शुष्क अन्तःकरणों में- स्नेह सुधा संचार करो॥

मानवता की बगिया सींची- अमृत के उपदेशों से।
दौड़- दौड़कर बालक आये- देशों और प्रदेशों से॥

शिवा सरीखे दिये सुवन- संस्कृति की रक्षा करने को।
शक्ति रूप बनकर उतरी थीं- जग की पीड़ा हरने को॥

बढ़ती जाती आज दनुजता- उठकर वज्र प्रहार करो॥
जीवन सागर मथकर जो- अनुभव के रत्न निकाले थे।

वे देवों के चौदह रत्नों- से भी अधिक निराले थे॥
परम पूज्य के साथ रहीं तुम- हर पल मैत्रेयी बनकर।

गायत्री माँ की अनुजा सी- मुस्कातीं बैठीं घर- घर॥
फिर होकर साकार हमें- पुचकारो और दुलार करो॥

शान्तिकुञ्ज के कण- कण का- मन डूबा, है दृग के जल में।
भावुकता विह्वलता बनकर- उमड़ रही है पल- पल में॥

संयम निग्रह समस्वरता की- शिक्षायें बेकार हुईं।
आज तुम्हारे बिन इनकी- परिभाषायें लाचार हुईं॥

तुम्हीं अधीरों को धीरज दो- और एक उपकार करो॥
तुमने जो पथ दिखलाया- हम उसे कदापि न छोड़ेंगे।

शपथ उठाते हैं कर्तव्यों से- न कभी मुँह मोड़ेंगे॥
सत्कर्मों की, सद्विचार की- भागीरथी बहायेंगे।

एक दिवस, देखना, स्वर्ग हम- इस धरती पर लायेंगे॥
दो हमको आशीर्वाद माँ- आत्मशक्ति संचार करो।

मुक्तक-

झरझर आँखें बरस रही हैं- सुनते हुए अन्तिम सन्देश।
मातु तुम्हारी हेतु तुम्हारे- कुछ न बचा रखेंगे शेष॥
जिसने जल- जलकर    
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