जिन्दगी हवन करें, चलो समाज के लिये।
बहुत दिनों मरे जिये हैं, तख्त
ताज़ के
लिये॥
मिल गया मनुष्य तन, ज्ञान ज्योति मिल गयी।
किन्तु मात्र स्वार्थ में ये, जिन्दगी निकल गयी॥
मूल खो रहा मनुष्य, आज ब्याज के
लिये॥
न्याय, नीति, प्रीति, रीति, दीन- हीन हो रही।
प्यार आग बुझ रही, प्रकाशहीन हो रही॥
जिन्दगी बनी हुई, मशीन आज के
लिये॥
ज्ञान के विवेक के, प्राण हैं बिलख रहे।
दुष्ट जोश पा रहे, कि श्रेष्ठ जन सिसक रहे॥
शीलवान प्रण करें, विवेक लाज के
लिये॥
घुट रही है जिन्दगी, लुट रहा है आदमी।
दब रही है चेतना, सिमट रहा है आदमी॥
बन सुधा संजीवनी, चलो इलाज के
लिये॥
रूढ़ि में सड़ें नहीं, कुरीतियाँ गढ़ें नहीं।
बढ़े कदम प्रकाश के, विरोध में अड़ें नहीं॥
चलो चलें करें
प्रयाण,आत्म राज्य के
लिये॥
मुक्तक-
हो गया दूषित सभी वातावरण-
जिस तरफ देखो उधर ही है पतन।
इसलिये वातावरण की शुद्धि को-
जिन्दगी को ही बनायें हम
हवन॥