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रामायण में यज्ञ की महत्ता का विशद रूप से वर्णन है। दशरथ जी के चारों पुत्रों का जन्म पुत्रेष्टि यज्ञ द्वारा होता है। भगवान् राम अपने अवतार का श्रेय यज्ञ भगवान को ही देते हैं। यज्ञ ही रामावतार का जनक है। पुत्र की इच्छा से प्रेरित होकर दशरथ जी ने पुत्रेष्टि यज्ञ किया और उन्हें अभीष्ट सत्परिणाम की प्राप्ति हुई। इसका वर्णन तुलसी कृत रामायण में इस प्रकार मिलता है—
एक बार भूपति मन मांही । मै गलानि मोरे सुत नाही ।।
गुरुगृह गयउ तुरत महिपाला । चरण लागि करि विनय विशाला ।।
शृंगी ऋषिहि वशिष्ठ बोलावा । पुत्र काम शुभ यज्ञ करावा ।।
भगति सहित मुनि आहुति दीन्हें । प्रगटे अगिनि चरु कर लीन्हें ।।
यह हवि बांटि देहु नृप जाई । जथा जोग जेहि भाग बनाई ।।
तबहि राय प्रिय नारि बुलाईं । कौशल्यादि तहां चलि आईं ।।
अर्ध भाग कौशल्यहिं दीन्हा । रह्यौ सो उभय भाग पुनि कीन्हा ।।
कैकई कहं नृप सो दयऊ । रह्यो सो उभय भाग पुनि भयऊ ।।
कौशल्या कैकई हाथ धरि । दीन्ह सुमित्रहि मन प्रसन्न करि ।।
एहि बिधि गर्भ सहित सब रानी । भईं हृदय हरषित सुख भारी ।।
राक्षस पति रावण को भी यज्ञ-शक्ति पर पूरा विश्वास है। इसे प्रकट करते हुए अपने अनुचरों को आदेश करता है कि जहां कहीं भी यज्ञ होते दिखाई दें, उन्हें नष्ट करने और विघ्न डालने का प्रयत्न करो।
सुनहु सकल रजनीचर जूथा । हमरे बेरी विबुध वरूथा ।।
तिन कर मरन एक विधि होई । कहहुं बुझाइ सुनहु अब सोई ।।
द्विज भोजन मख होम सराधा । सब कै जाइ करहु तुम बाधा ।।
छुधा छीन बलहीन सुर, सहजेहि मिलिहहिं आइ ।
तब मारिहउं, कि छांड़िहउं, भली भांति अपनाइ ।।
रावण पण्डित भी था, इसलिए वह भलीभांति जानता था कि यज्ञादि धर्मानुष्ठान देव गणों का पोषक है, इसलिए अन्य राक्षसों की अपेक्षा उसमें (रावण में) ऐसे सत्कार्यों को रोकने की अत्यधिक उतावली थी—जैसा निम्नोक्त छन्द से बोध होता है।
जप जोग विरागा तप मख भागा, श्रवण सुनइ दशशीशा ।
आपुनु उठि धावहि रहै न पावइ, धरि सब घालइ खीसा ।।
यज्ञ में असुर सदा ही विघ्न फैलाते हैं। मित्र और शत्रु के रूप में पण्डित और मूर्ख के रूप में, सहयोगी और विरोधी के रूप में नाना प्रकार के वेष बनाकर असुर लोग यज्ञ की प्रक्रिया को नष्ट करने के लिए प्रयत्न करते हैं। कारण यह है कि यज्ञ से दैवी तत्व बलवान् होते हैं और असुरता दुर्बल होती है। असुरों की अपनी हानि और अपने विरोधी देवताओं की शक्ति का बढ़ना सहन नहीं होता इससे वे यज्ञ को नष्ट करने के लिए जो कुछ कर सकते हैं, सो अवश्य करते हैं। विश्वामित्र ऋषि के यज्ञ को नष्ट करने में भी असुर लोग भारी विघ्न कर रहे थे। उनसे रक्षा करने के लिए विश्वामित्र जी, दशरथ के पास गये और रामचन्द्र जी तथा लक्ष्मण जी को मांगकर लाये। वाल्मीकि रामायण में इस प्रसंग का वर्णन इस प्रकार है।
अहं नियममातिष्ठे विद्ध्यर्थ पुरुषर्षभः ।
तस्य विध्न करो द्वौतु राक्षसौ कामरूपिणौ ।।4
कृतश्रमो निरुत्साहस्तस्माद्देशादया क्रमे ।
बच मे क्रोधमुत्स्रटुं बुद्धिर्भवति पार्थिव ।।7
तथाभूतहिसाचर्या न शापस्तत्र मुच्यते ।
स्वपुत्र राजशादूल रामं सत्य पराक्रमम् ।।8
काकपक्षधरं वीर ज्येठमदातुमर्हसि ।।9
—वाल्मीकि रामायण आदि काण्ड ।।19 सर्ग
अर्थ—(विश्वामित्र) दशरथ से कहते हैं कि हे राजन्! आज-कल मैं एक महायज्ञ में दीक्षित हुआ हूं। कामरूपी दो राक्षस उसकी समाप्ति न होते-होते ही विघ्न कर देते हैं ।।4।। जब हमारे यज्ञ की प्रतिज्ञा भ्रष्ट हो जाती है, तो हमें केवल श्रम ही होता है, इस कारण भग्नोत्साह होकर मैं यहां चला आया हूं। हे पार्थिव! मैं उनको शाप दे सकता हूं, परन्तु इस यज्ञ में क्रोध करना वर्जित है ।।7।। कारण कि ऐसे यज्ञ साधन काल में किसी को शाप नहीं देना चाहिए। हे राजों में सिंह! आपसे यह प्रार्थना है कि सत्य पराक्रमी रामचन्द्र को, जो काक पक्ष धारण किये महावीर श्रेष्ठ हैं, इनको मेरे हाथ सौंप दीजिये। यह मेरे दिव्य तेज के प्रभाव से मुझसे रक्षित किये जाकर, मेरे यज्ञ की रक्षा करने में समर्थ होंगे।
तुलसी कृत रामायण में इसका वर्णन यों मिलता है—
जहं जप यज्ञ जोग मुनि करहीं । अति मारीच सुबाहुहि डरहीं ।।
देखत जग्य निशाचर धावहिं । करहिं उपद्रव मुनि दुःख पावहिं ।।
गाधि तनय मन चिंता व्यापी । हरि बिनु मरहिं न निशिचर पापी ।।
तब मुनिवर मन कीन्ह विचारा । प्रभु अवतरेउ हरन महिं भारा ।।
यहि विधि करत मनोरथ, जात लागि नहिं बार ।
करि मज्जन सरयू जल, गये भूप दरबार ।।
स्वागतादिक के उपरान्त राजा ने पूछा—
केहि कारण आगमन तुम्हारा । कहहु सो करत न लावउं बारा ।।
असुर समूह सतावहिं मोही । मैं जाचन आयउं नृप तोही ।।
अनुज समेत देहु रघुनाथा । निशिचर बध मैं होव सनाथा ।।
दशरथ जी ने राम, लक्ष्मण को यज्ञ की रक्षा के लिये भेज दिया—
प्रात कहा मुनि सन रघुराई । निर्भय यज्ञ करहु तुम जाई ।।
होम करन लागे मुनि झारी । आपु रहे मख की रखवारी ।।
सुनि मारीच निशाचर कोही । लै सहाय धावा मुनि द्रोही ।।
बिनु फरै बाण राम तेहि मारा । शत जोजन गै सागर पारा ।।
पावक सर सुबाहु पुन जारा । अनुज निशाचर कटकु संहारा ।।
विश्वामित्र जी का यज्ञ पूर्ण होने के पश्चात् राम-लक्ष्मण, राजा जनक जी के यज्ञ में विश्वामित्र के संग पधारे। जनक जी ने पुरोहित और ऋषियों को साथ लेकर विश्वामित्र का अर्चन और पूजन किया। उपरान्त जनक बोले—
यत्तोपसदनब्रह्मन्प्राप्तोऽसिमुनिभिः सह ।
द्वादशाहं तु ब्रह्मर्षे दीक्षामाहुर्मनीषिणः ।।
—वाल्मीकि रा. आ. का. 15।50
अर्थ—हे ब्रह्मर्षे! आप जो ऋषियों समेत मेरे यज्ञ में पधारे यह मेरा बड़ा भाग्य है। हे महर्षे! पण्डित गणों ने बारह दिन दीक्षा काल के नियत किये हैं।
ततौ भागार्थिनो देवानद्रष्टुमर्हसिकौशिक ।
इत्युक्त्वामुनिशार्दूल प्रमृष्ट वदनस्तदा ।।।16
अर्थ—हे कौशिक! आप तभी यज्ञ भागार्थी देवताओं को देखेंगे।
जनक के शिव-यज्ञ में देवता साक्षात् रूप से पधारेंगे ऐसा योगीवर जनक को विश्वास है। सीता जी का विवाह जैसे महान् कार्य सम्पन्न करने के लिए राजा जनक ने स्वयंवर यज्ञ करना ही उचित समझा था। सीता जी का विवाह अन्ततः एक विशाल यज्ञ द्वारा ही सम्पन्न हुआ। राम का जन्म और सीता का विवाह यह दोनों ही कार्य यज्ञ की महत्ता द्वारा प्रतिपादित हुए हैं।
रावण को जब अपनी पराजय होती दीखती है तो वह चिन्तित और दुःखी होकर अन्तिम ब्रह्मास्त्र (यज्ञ) का ही सहारा लेता है। अपने पुत्र मेघनाद को एक बड़ा तान्त्रिक यज्ञ करके ऐसी शक्ति प्राप्त करने के लिये आदेश करता है जिससे वह अजेय हो जाय और राम को सेना समेत परास्त कर सके। मेघनाद निकुम्भिला नाम स्थान में जाकर अपने पिता रावण के बिताये हुए विधान के अनुसार तान्त्रिक होम करने लगा। वाल्मीकि रामायण में इसका वर्णन इस प्रकार है—
एतस्तुहुत भोक्तारं हुत भुक्सदृशप्रभः ।
जुहुवे राक्षस श्रेष्ठो विधिवन्मन्त्र सत्तमैः ।।18।।
सहविर्लाज सत्कारैर्माल्य गन्ध पुरस्कृतैः ।
जुहुवे पावकं तत्र राक्षसेन्द्रः प्रतापवान ।।19।।
शस्त्राणि शर पत्राणि समिधोऽथ विभीतकाः ।
लोहिता निचगासांसि स्रुवं कार्ष्णायसं तथा ।।20।।
अर्थ—इस स्थान का नाम निकुम्भिला था। अग्नि तुल्य तेजस्वी इन्द्रजीत यहां पर विधिपूर्वक अग्नि में होम करने लगा ।।18।। उस प्रतापशाली राक्षसों में श्रेष्ठ इन्द्रजीत ने प्रथम अग्नि में माला और सुगन्धित द्रव्य चढ़ाकर उसके बाद खीर एवं अक्षत से उसका संस्कार पूरा करके हवन कर्म को प्रारम्भ किया ।।19।। उस हवन कुण्ड के चारों ओर जहां शरतप बिछाना चाहिये, वहां उसने सब शस्त्र बिछाये व बहेड़े की लकड़ी को ईंधन बनाया, समस्त लाल वस्त्र धारण किये और लोहे का स्रुवा बनाया। मारण में यही पदार्थ काम में आते हैं।
तस्मिन्नहूयमानेस्त्रे हयमाने च पावके ।
सार्वग्रहेन्दूनक्षत्रं वितत्रास नमः स्थलम् ।।25।।
सपावकपावकं दीप्ततेजा हुत्वा महेन्द्र मतिक प्रभाव ।
सच पाणावसिसिरथाश्च शूलः खेंतर्दधेआत्मानमचिन्त्यवीय ।
अर्थ—जब उस वीर मेघनाद ने अग्नि में आहुति दी और सब अस्त्रों को ब्रह्म मन्त्र से अभिमन्त्रित किया उस समय चन्द्र, सूर्य आदि ग्रह नक्षत्र गणों के सहित समस्त आकाश मण्डल त्रसित हो गया ।।25।। इन्द्र के समान प्रभावशाली और अग्नि के समान प्रदीपत वह अप्रमेय वीर्य वाला इन्द्रजीत इस प्रकार से अग्नि में आहुति दे धनुष, वाण, शूल, अश्व और रथ के सहित आकाश में जाकर अन्तर्धान हो गया। वह नाना प्रकार की मायावी शक्तियां प्राप्त करके राम-दल को भ्रम में डालने लगा। उसने माया मन्त्र से एक नकली सीता बनाई और उसका वध करके राम तथा उनकी सेना को शोक तथा चिन्ता में डालकर अपना काम बना लेना चाहा। इस सब मायाचार का भण्डाफोड़ करते हुए विभीषण ने रामचन्द्र जी से कहा—
चैत्य निकुम्भिलामद्यप्राप्यं होमं करिष्यति ।
हूतवानुपयातोहिदेवैरपिसवासवैः ।14।
दुराधर्षोभवत्येषसंग्रामेरावणात्मजः ।
तेन मोह्यतानूनमेषा माया प्रयोजिता ।
विघ्नमान्वच्छातातत्रवानराणां पराक्रमे ।
15।
—वाल्मीकि युद्ध 85 सर्ग
अर्थ—आज निकुम्भिला में जाकर मेघनाद होम करेगा। इन्द्रादि देवताओं सहित अग्निदेव वहां पहुंचे हैं। जबकि यह यज्ञ होम करके अग्नि को प्रसन्न कर लेगा, तब देवताओं सहित इन्द्र को भी संग्राम में मेघनाद दुर्धर्ष हो जायगा, हम निश्चित कहते हैं कि अपनी अभिलाषा सिद्ध करने के लिए और वानरों का पराक्रम नष्ट करने के लिये ही उसने ऐसी माया प्रकट की है।
ससैन्यास्तत्रगच्छामोयावतत्नं समाप्यते ।
त्यजैनंनरशार्दूल मिथ्ययासन्तापमागतं ।16।
अर्थ—जब तक उसका यज्ञ न समाप्त हो जाय तब तक हम सेना सहित उस तांत्रिक यज्ञ को विध्वंस करने के लिए वहां पहुंच जायं।
विभीषण जी सेना सहित लक्ष्मण को साथ लेकर मेघनाद का यज्ञ विध्वंस करने गये हैं। वह स्थान सेना से घिरा हुआ है। विभीषण जी लक्ष्मण से कहते हैं—
सत्वमिन्द्राशनिप्रख्यैः शरैरवकिन्परान् ।
अभिद्रावाशुवै नैतत्कर्मसमाप्वते ।4।
वाल्मीकि रा. युद्ध का. सर्ग 86
अर्थ—जब तक यह अभिचारक होम पूरा नहीं होता तब तक इन्द्र वज्र सदृश वाणों से आप राक्षसों की सेना को पीड़ा देते रहिये।
ऐसा ही किया गया, तदुपरान्त—
स्वमनीकं विपण्णंतु श्रुत्वा शत्रुभिरर्दितम् ।
उदतिष्ठत दुर्धषः सकर्मण्यनुतिष्ठिते ।14।
अर्थ—इस ओर अजेय रावण पुत्र अपनी सेना को शत्रु दलों से मर्दित और व्याकुल देख अपने यज्ञ को बिना पूरा किये ही उठ बैठा।
इस प्रकार उस यज्ञ के असफल हो जाने पर असुरों को वह शक्ति प्राप्त न हो सकी, जिससे वे राम सेना को नष्ट करने और स्वयं अजेय बनने में समर्थ होते।
रावण भी इस युद्ध में विजय पाने के लिए यज्ञ का ही आश्रय ग्रहण करता है।
तुलसी कृत रामायण में इस प्रसंग का वर्णन इस प्रकार है—
इहां दशानन जागि कर, करै लाग कछु जग्य ।
राम विरोध विजय चहु, शठ हठ वश अति अग्य ।।
इहां विभीषण सब सुधि पाई । सपदि जाइ रघुपतिहि सुनाई ।
नाथ करहि रावण एक जागा । सिद्धि भये नहिं मरहि अभागा ।।
पठवहु नाथ वेगि भट बन्दर । करहिं विधंस आव दशकंधर ।।
प्रात होत प्रभु सुभट पठाये । हनुमदादि अङ्गद सब धाये ।।
जग्य करत जब ही सो देखा । सकल कपिन्ह भै क्रोध विशेखा ।।
रण से निकल भागि घर आवा । इहां आइ शठ ध्यान लगावा ।।
अस कहि अङ्गद मारी लाता । चितवन शठ स्वारथ मन राता ।।
* छन्द *
नहिं चितव जब करि कोप कपि गहि दसन्ह लातन्ह काटहीं ।
धरि केश नारि निकारि बाहेर तेऽतिदीन पुकारहीं ।।
तब उठे क्रुद्ध कृतान्त सम गहि चरन बानर डारई ।
इहि बीच कापन्ह विधंस कृत मख देखि मन महुं हारई ।।
रावण ही नहीं, उसके पुत्र मेघनाद को भी यज्ञ के द्वारा शक्ति प्राप्त करने का अपना अनुभव है—
मेघनाद के मुरछा जागी । पिताहि विलोकि लाज अति लागी ।।
तुरत गयउ गिरिवर कन्दरा । करौ अजय मख अस मन धरा
।।
इहां विभीषण मन्त्र विचारा । सुनहु नाथ बल अतुल अपारा ।।
मेघनाद मख करइ अपावन । खल मायावी देव सतावन ।।
जौं प्रभु सिद्ध होइ यह पाइहि । नाथ वेगि पुनि जीति न जाइहि ।।
विभीषण के विश्वास का राम समर्थन करते हैं और तुरत कहते हैं—
लछिमन संग जाहु सब भाई । करहु विधंस यज्ञ कर जाई ।।
जाइ कपिन्ह सो देखा वैसा । आहुति देत रुधिर अरु भैंसा ।।
कीन्ह कपिन्ह जब यज्ञ विधंसा । जब न उठहिं तब करहिं प्रशंसा ।।
तदपि न उठइ घरेन्हि कच जाई । लातन्हि हति-हति चले पराई ।।
लै त्रिशूल धावा कपि भागे । आये सजहं रामानुज आगे ।।
वनवास से वापिस लौटने पर श्री रामचन्द्र को उस कार्य के करने की इच्छा हुई जो समस्त प्रजा के लिये, समस्त संसार के लिये, समस्त प्राणी मात्र के लिए एक अतीव उपयोगी आयोजन है। रामचन्द्र जी के पूर्वज भी बड़े-बड़े यज्ञ करते रहे थे। श्रेष्ठ क्षत्री और श्रेष्ठ ब्राह्मण सदा ही विश्व-कल्याण के लिये यज्ञों के विशद् आयोजन करने का प्रयत्न करते थे। राज्य-शासन हाथ में लेने के बाद, वैसा आयोजन करने का राम का विचार उचित, आवश्यक और स्वाभाविक ही था। वाल्मीकि रामायण उत्तर काण्ड 83 वां सर्ग में, इस प्रसंग का वर्णन यों है—
श्रीरामचन्द्र जी ने भरत एवं लक्ष्मण जी को बुलाया और प्रेम भाव सहित पूछने लगे—
कृतंमयायथातथ्यं द्वित कार्यमनुत्तमम् ।
धर्मसेतुमथो भूयः कुर्तुमिच्छामि राघवौ ।3।
अक्षयश्चाव्ययश्चैवधर्मसेतुर्मतोमम् ।
धर्मप्रवर्धनं चैव सर्वपापप्रणाशनम् ।4।
अर्थ—मैंने द्विज का सम्पूर्ण कार्य किया परन्तु अब एक (राजसूयादि यज्ञ) धर्मसेतु करने की इच्छा है। मेरे मन में धर्मसेतु अक्षय−अव्यय धर्म का बढ़ाने वाला और पापों का नाश करने वाला है ।।3-4।।
युवाभ्यामात्मभूताभ्यां राजसूयमनुत्तमम् ।
सहितो यष्टुमिच्छामि तत्रधर्मस्तु शाश्वतः ।5।
इष्ट्वा तु राजसूयेन मिश्रः शत्रु निबर्हणः ।
सुहुतेन सुयज्ञेन वरुणत्वमुपगत ।6।
सोमश्च राजसूयेज इष्ट्वाधर्मेण धर्मवित् ।
प्राप्तश्च सर्वलोकेषु कीर्त्तिस्थान शाश्वतम् ।7।
अर्थ—तुम दोनों अपने भाइयों की सहायता से मैं यज्ञ-श्रेष्ठ राजसूय का अनुष्ठान करना चाहता हूं, इसके करने से अक्षय धर्म होता है ।।5।। शुत्रतापन मित्र भी सम्यक् प्रकार से राजसूय यज्ञ का अनुष्ठान करके वरुण की पदवी को उपलब्ध करने में समर्थ हुए हैं। धर्मात्मा सोम भी धर्मपूर्वक राजसूय यज्ञ करके अत्यन्त कीर्ति और अक्षय स्थान को प्राप्त हुए हैं ।।7।।
भरत तथा राम में विचार होने के उपरान्त श्री लक्ष्मण जी यज्ञ के सम्बन्ध में विचार देते हैं।
अश्वमेधो महायज्ञः पावनः सर्व पापनाम् ।
पावनस्तव दुर्धर्षो रोचतां रघुनन्दन ।1।
श्रूयतेहि पुरावृत्तं वासवेसु महात्मनि ।
ब्रह्म हत्यावृत्ता शक्रो हयमेधेन पावितः ।3।
—वाल्मीकि रामायण 84 वां सर्ग उत्तर काण्ड
अर्थ—हे रघुनन्दन! सम्पूर्ण पापों से पवित्र करने वाला अश्वमेध यज्ञ है। हे दुर्धर्ष! यदि आपकी इच्छा हो तो वही यज्ञ कीजिए ।2। ऐसा सुना है कि पूर्व काल में महात्मा इन्द्र को ब्रह्महत्या लगी थी, वह इसी अश्वमेध यज्ञ के करने से पवित्र हुए थे ।।3।।
रामचन्द्र के पूछने पर लक्ष्मण जी ने, वृत्रासुर की तपस्या करते समय निरपराध मारने के कारण इन्द्र को जो ब्रह्महत्या लगी थी, वह कथा कह सुनाई। उसके उपरान्त अग्नि आदि सभी देवता विष्णु भगवान से इन्द्र की ब्रह्महत्या रूपी पाप निवारण का उपाय पूछते हैं—
हतश्चायंत्वयावृत्रो ब्रह्महत्या च वासव ।
बाधाते सुर शार्दूल मोक्षं तस्य विर्निर्दिश ।19।
तेषां तद्व चनं श्रुत्वा देवानां विष्णुरव्रवीत ।
मामेव यजतां शक्रः पावयिष्यामि बज्रिणम् ।20।
अर्थ—हे देवताओं में श्रेष्ठ (विष्णु भगवान)! वृत्रासुर मारा गया परन्तु इन्द्र को ब्रह्महत्या बाधा करती है। उसके छुटकारे का कोई उपाय बताइये ।।19।। उन देव के वचनों को श्रवण कर विष्णुजी बोले—हे देवताओ! इन्द्र हमारा यज्ञ करे, हम उन्हें पवित्र कर देंगे ।।20।।
पुण्येनहयमेधैनमामिष्ट् वापाक शासनः ।
पुनरेष्यति देवानामिन्द्रत्वमकुतोभय ।21।
अर्थ—हे इंद्र! पुण्यमय अश्वमेध यज्ञ से मेरा यजन करके तुम पुनः देवपति की पदवी को प्राप्त करेंगे।
विष्णु भगवान के निर्देशानुसार देवताओं ने यज्ञानुष्ठान की सारी तैयारी की।
ते तु दृष्ट्वा सहस्राक्षमावृतब्रह्महत्यया ।
तं पुरस्कृत्यदेवेशमश्वमेधं प्रचक्रिणा ।8।
ततोश्वमेघः सुमहान्महेन्द्रस्य महात्मनः ।
ववृते ब्रह्महत्याया पावनार्थ नरेश्वरः ।9।
ततो यज्ञै समाप्ते तु ब्रह्महत्या महात्मनः ।
अभिगम्याब्रवीद्वीरंक्वमे स्थानं विधानस्यथ ।19।
—वाल्मीकि रामा. उत्तर काण्ड सर्ग 86
अर्थ—इन देवताओं ने इन्द्र को ब्रह्महत्या से मुक्त देख इन्हें दीक्षा में बैठाकर यज्ञ करना आरम्भ किया ।।8।। हे राजन् तब महात्मा इंद्र को ब्रह्महत्या से मुक्त करने के लिए अश्वमेध यज्ञ होने लगा ।।9।। जब यज्ञ पूर्ण हुआ तब वह ब्रह्महत्या इन्द्र के शरीर से निकल गई।
प्रशान्त च जगत्सर्वं सहस्राक्षे प्रतिष्ठिते ।
यज्ञं चाद्भुत सकाशं तदाशक्रोभ्यपूजयत् ।19।
इदृश्योहयमेधस्य प्रसादो रघनन्दन ।
यजुस्य सु महाभाग हममेधेनपार्थिव ।20।
अर्थ—जब इन्द्र अपने स्थान पर आकर विराजे, तब सब जगत शान्त हो गया और फिर इन्द्र ने बड़े अद्भुत यज्ञ का यजन और पूजन किया ।।19।।
हे रघुनाथ जी! अश्वमेध यज्ञ की ऐसी महिमा है। हे महाभाग भगवान्! इस कारण आप भी अश्वमेध यज्ञ कीजिए ।।20।।
एतदाख्याकाकुत्सथो भ्रातृभ्यामतिप्रभः ।
लक्षमणं पुनरेवाहधर्मयुक्तोऽभिर्वच ।।1।।
वशिष्ठं वामदेवं च जाबालिं कथ कश्यपम् ।
द्वितांश्च सर्वप्रवरानश्वमेध पुरस्कृतान् ।।2।।
अर्थ—अमित पराक्रमी रामचन्द्र अपने भ्राताओं से ऐसा कह फिर लक्ष्मण जी से धर्मपूर्वक यह वचन बोले ।।1।। कि अश्वमेध यज्ञ कराने वाले, वशिष्ठ, वामदेव, जाबालि, कश्यप इन श्रेष्ठ ब्राह्मणों को बुलाओ।
सबों के आने के बाद रामचन्द्र जी ने अश्वमेध यज्ञ करने के सम्बन्ध में चर्चा की।
तेऽपिरामस्य तच्छुत्वा नमस्कृत्वा वृषध्वजः ।
अश्वमेधं द्विजाः सर्वे पूजयन्तिस्म सर्वशः ।।7।।
अर्थ—वे ऋषि राजचंद्रजी की वाणी श्रवण कर शिवजी को प्रणाम कर सब (ब्रह्मवादी ऋषि) अश्वमेध यज्ञ की प्रशंसा करने लगे।
इस यज्ञ में अविरत दान चलता रहा। सीताजी ने आकर पृथ्वी की गोद ग्रहण की और रामचंद्र यज्ञ को सम्पूर्ण धर्मकार्य समझ कर प्रतिवर्ष करते रहे।
न सीताया पराभार्य्या वव्रेस रघुनन्दनः ।
यज्ञे-यज्ञे चपत्न्यर्थ जानकी कांचनीभवतः ।।7।।
दसवर्ष सहस्राणि वाजमेधानथा करोत ।
वाजपेयांदसगुणांस्तथा बहु स्वर्णकान् ।।8।।
अग्निष्टोमातिरात्राभ्यांगोसर्वैश्च धनैः ।
ईजेक्रतुभिरन्यैश्च स श्रीमानाप्त दक्षिणैः ।।
—वाल्मीकि रामा. उत्तर काण्ड 99 सर्ग
अर्थ—जानकी के बिना रघुनाथ जी ने और कोई भार्या नहीं की किंतु जब यज्ञ करते, सोने की सीता से यज्ञ कार्य पूर्ण किया जाता ।।7।। इस प्रकार से प्रति वर्ष अश्वमेध यज्ञ, दस सहस्र वर्ष तक किये और सहस्र वर्ष के पीछे उनने दस गुना फलदायक वाजपेय यज्ञ किया जिसमें बहुत-सा स्वर्णदान किया जाता है, ।।8।। अग्निष्टोम, अतिरात्र,गोमेधादि यज्ञ तथा और भी अनेक यज्ञ महादक्षिणा और दान देकर किये।
तुलसीदास रामायण में अनेक स्थानों पर अनेक प्रसंगों में यज्ञों की महत्ता का प्रतिपादन है। देखिए—
श्रद्धा−भक्ति के संग यज्ञ करने से देवता तुरन्त ही साक्षात होते हैं। जैसा सीता-राम के विवाह में—
होम समय तनु धरि अनल, अति सुख आहुति लेहिं ।
विप्र वेष धरि वेद सब, कहि विवाह विधि देहिं ।।
देवताओं को यज्ञ में सम्मिलित होने का आकर्षण है। वे दक्ष के यज्ञ में प्रसन्नता पूर्वक जाते हैं—
दक्ष लिए मुनि बोलि तब, करन लगे बड़याग ।
नेवते सादर सकल सुर, जे पावत मख भाग ।।27।।
किन्नर नाग सिद्ध गन्धर्वा। वधुन्ह समेत चले सुर सर्वा ।।
सर्व शक्ति, सुख सम्पन्न चक्रवर्ती राजा भी अपने प्रेय और श्रेय की चिरंतना के लिये यज्ञ करते ही रहते हैं।
जहं लगि कहे पुरान श्रुति, एक-एक सब जाग ।
बार सहस्र-सहस्र नृप, किये सहित अनुराग ।
—तुलसीदास (रामायण लंका काण्ड)
राक्षस राज रावण ने यज्ञ में अपने सिर काटकर आहुति दी थी, यह यज्ञ की निश्चित फलदायकता का प्रमाण है।
सूर कवन रावण सरिस स्वकर काटि जेहिं सीस ।
हुने अनल अति हरष बहु बार साखि गौरीस ।।
राजा प्रतापभानु के दुश्मन कपटी मुनि को भी विश्वास है।
करहिं विप्र होम मख सेवा । तेहि प्रसंग सहजेहि वश देवा ।।
अर्थ—विप्र लोग हवन, यज्ञ और सेवा करते हैं, इसीलिए स्वभावतया ही देवगण उनके वश में रहते हैं।
कैकेय (वर्तमान काश्मीर) देश के राज प्रतापभानु जब तक निष्काम भाव से यज्ञादि सदनुष्ठान करते रहे तब तक उसका प्रताप भी भानु सदृश ही रहा।
स्वयं भगवान राम भी राज्य ग्रहण करने के बाद यज्ञ करना आवश्यक समझते हैं—
कोटिन्ह बाजिमेध प्रभु कीन्हें । दान अनेक द्विजन्ह कहं दीन्हें ।।
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