gytri yagya vidhan part 2

यज्ञ द्वारा अनन्त सुख-शान्ति

<<   |   <   | |   >   |   >>
*******
यज्ञ में वेद मन्त्रों का उच्चारण, विशेष प्रकार की समिधायें, विशिष्ट हवि शाकल्य, चरु पुरोडास भावनाओं का प्रवाह आदि अनेकों सूक्ष्म प्रक्रियाओं से एक प्रचण्ड अदृष्ट−अदृश्य वातावरण बनता है। उसकी शक्ति से यज्ञ-कर्ताओं को ही नहीं समस्त संसार को अनेक प्रकार के भौतिक और आध्यात्मिक लाभ होते हैं। अन्तःकरण की पवित्रता, मल विक्षेप और कुसंस्कारों का निवारण होने से आत्म बल की वृद्धि होती है और आत्मा का साक्षात्कार होकर, स्वर्ग, मुक्ति , ब्रह्म निर्वाण एवं परम पद की प्राप्ति होती है। साथ ही भौतिक अभाव एवं त्रास भी—कष्ट भी दूर होते हैं। सच्चा याज्ञिक जीवनोपयोगी आवश्यकताओं से वञ्चित नहीं रहता। अग्नि की उपासना करने वाले दीन-दुखी नहीं रहते, इसके अनेक प्रमाण शास्त्रों में उपलब्ध हैं। यज्ञ करने से मन, वाणी एवं बुद्धि की उन्नति होती है, इसका प्रतिपादन यज्ञ भगवान स्वयं करते हैं—
देव सवितः प्रसुव यज्ञं प्रसुवयज्ञपतिं भगाय । दिव्यो गर्न्धवः केतपूः केतं नः पुनातु वाचस्पतिर्वाचं नः स्वदतु ।। —यजु. ।।30−1।।

अर्थ—मन, वाणी और बुद्धि की उन्नति तब होगी जब यज्ञ एवं यज्ञपति की उपासना की जाय। ऋषयो मुनयश्चैव ब्राह्मणः क्षत्रियादयः । स्वाहं मन्त्रमुच्चार्य हविदर्दति नित्यशः ।। स्वाहायुक्तंच मन्त्रं च मो गृहणातिप्रशस्तकम् । सर्वसिद्धिर्भवेतस्य ब्रह्मग्रहणमात्रतः ।। —ब्रह्मवैवर्त पुराण, ब्रह्म खण्ड, अर्थ—श्रीकृष्ण कहते हैं कि ऋषि, मुनि, ब्राह्मण क्षत्री आदि मन्त्र के अन्त में ‘स्वाहा’ शब्द बोलकर नित्य हविष्य देते हैं। जो स्वाहा युक्त मंत्र को ग्रहण करता है, अर्थात् हवन करता है, उस ब्राह्मण को सब सिद्धियां मिलती हैं।
अग्निहोत्रात्परंनान्यत्पवित्रमिहिपठ्यते । सुकृतेनाग्निहोत्रेणप्रशुद्धयतिभुवि द्विजाः ।।83
पंथानोदेवलोकस्यब्राह्मणैदर्शितास्त्वमी । एकोऽग्निः सर्वदाधार्योगृहस्थेन द्विजन्मना ।।84 (पद्म पुराण) ‘‘अग्निहोत्र से बढ़कर कोई पवित्र कर्म नहीं। अच्छी प्रकार से किये गये अग्निहोत्रों के द्वारा द्विजों का अन्तःकरण पवित्र हो जाता है।’’ ब्राह्मणों ने विश्व को यज्ञ करने की प्रक्रिया बताकर सबों के लिए स्वर्ग पाने का निश्चित पथ बता दिया है। अतः हे गृहस्थो! यज्ञ को प्रतिदिन करते रहना ही गृहस्थ का धर्म है। बिना हवन किये गृहस्थ धर्म की प्राप्ति नहीं होती। अहन्यहन्यनुष्ठानं यज्ञानां पार्थिवोत्तम । उपकारकरपुंसांक्रियमाणंफलार्थिनाम् ।।152 —पद्म पुराण, भूमिखण्ड अर्थ—हे राजन! सुख पाने की इच्छा रखने वाले मनुष्यों को प्रति दिन अवश्य ही होम करना चाहिये, इससे होम-कर्त्ता का निश्चित रूप से कल्याण होता है। ‘पंक्तिदूषकः’ का पौराणिक अर्थ दृष्टव्य है। महायज्ञविहीनश्च ब्राह्मणः ‘पंक्तिदूषकः’ ।। —कूर्म पुराण उत्तरार्ध अ. 21 श्लोक 24 अर्थ—महायज्ञ नहीं करने से ब्राह्मणों की पंक्ति में स्थान पाने योग्य नहीं होता। नास्तिक्यादथबालस्याद्योऽग्निन्नाधातुमिच्छति । यजेत वान यज्ञेन स याति नरकान बहून ।।7 —कूर्म पुराण उत्तरार्ध अ. 24 श्लोक 7 अर्थ—नास्तिकता से अथवा आलस्य से जो अग्नि को धारण नहीं करना चाहता अथवा यज्ञ से जो परमात्मा का भजन नहीं करता वह अनेक नरकों को प्राप्त करता है। अग्निहोत्रात् परोधमो द्विजानां नेह विद्यते । तस्मादाराधयेन्नित्यमग्निहोत्रेण शाश्वतम् ।। —कूर्म पुराण उत्तरार्ध अ. 24 श्लोक 8 अर्थ—इस लोक में द्विजों के लिए अग्निहोत्र से महान कोई धर्म नहीं है, इसलिए सनातन परमात्मा की नित्य ही अग्निहोत्र से आराधना करनी चाहिए। व्यास उवाच— माता पित्रोर्हिते युक्तो गो ब्राह्मण हिते रतः। दान्तो यज्वा देवभक्तो ब्रह्मलोके महीयते ।। —कूर्म पुराण उत्तरार्ध अ. 15 श्लोक 24 अर्थ—माता-पिता के हित में ‘रत’ गो ब्राह्मणों का हित करता हुआ देव भक्त और दाता, ये सभी, यज्ञ करने से ब्रह्मलोक में प्रतिष्ठा प्राप्त करते हैं। सायं सायं गृहपतिनो अग्निः प्रातः प्रातः सोमनस्य दाता ।।1 प्रातः प्रातः गृहपतिनो अग्निः सायं सायं सौमनसस्य दाता ।।2 अनु. कां 19 अ. 7 म. 3।4 अर्थ—जो गृहपति सन्ध्याकाल में हवन करता है, उसे वह यज्ञाग्नि देव रूप से प्रातःकाल तक सौमनस्य देने वाला होता है अर्थात् उस गृहपति के मन, बुद्धि, शरीर एवं प्राण को शुद्ध करता रहता है, इसी भांति प्रातःकालीन आहुति, उस दिन भर तक, उस गृहपति के सर्वांगीण सुख-वृद्धि में सहायक होता है और—सौमनस्य का देने वाला होता है। दिवि विष्णु व्यक्तिस्त जागतेन छन्दसा । ततो निर्भययोक्ता योऽस्मान द्वेष्टि यंच वयं द्विष्मः । अन्तरिक्षे विष्णुव्यक्रंस्ते त्रैष्टुभेन छन्दसा । सतो निर्भक्तो0 पृथिव्यां विष्णुर्व्यक्रस्ते गायत्रेण छन्दसा । सतोनिर्भक्तो0 अस्यादन्नात् । अस्ये प्रतिष्ठान्ये । अगन्य स्वः । संज्योतिषाभूम । —यजु. 2−25 अर्थ—अर्थात् अग्नि में प्रक्षिप्त जो रोगनाशक, पुष्टि प्रदायक और जलादिसंशोधक हवन सामग्री है वह भस्म होकर वायु द्वारा बहुत दूर तक पहुंचती है और वहां पहुंचकर रोगादिजनक वस्तु को नष्ट कर देती है। इस हेतु वेद में कहा जाता है, जो वस्तु हम लोगों से द्वेष करती है एवं जिससे हम लोग द्वेष करते हैं वह वस्तु यज्ञ के द्वारा नष्ट हो जाती है। आगे भी यही भाव समझना चाहिए। अर्थात् यज्ञ से इहलौकिक और पारलौकिक दोनों कार्य सम्पन्न होते हैं।
ग्नि पूजा परानित्यं गुरुपूजारतास्तथा । ब्राह्मणां तृप्तिकरोः सर्वेस्वर्गस्य भागिनः ।।
—शिवपुराण वि. सं. 1। अध्याय 14।1
श्लोक 13 अर्थ—जो प्रतिदिन यज्ञ करते, गुरुपूजा एवं ब्रह्मभोज करते हैं, वे सभी स्वर्ग प्राप्त करने योग्य हैं। मनुश्चसगरोराजामरुत्तोनहुषात्मजः । एते ते पूर्वजाः सर्वे लक्षं कृत्व पदगताः ।। —पद्म पुराण पाताल खण्ड अ. श्लोक 35 अर्थ—शेषजी कहते हैं हे राम! राजा मनु, सगर, नहुष के आत्मज मरुत, ये सब आपके पूर्वज, यज्ञ करने से ही परमपद को प्राप्त हुए हैं। शतक्रतुः शतंकृत्वा क्रतूनां युरुषर्षभः । पदमापानरक्त्यां देवदैत्य सुसेवितम् ।।
—पद्म महापुराण पाताल खण्ड अ. 8 श्लोक 34 अर्थ—इन्द्र ने एक सौ महायज्ञ करके ही, उसी के फलस्वरूप, देव−दैत्य जिसका सेवन करते और करना चाहते हैं, उस सुख सौन्दर्यमय स्वर्ग की प्राप्ति की।
सपृतन्तुर्महीभर्त्तात्वया साध्योमनीषिणा । महासमृद्धियुक्तेन महाबल सुसालिना ।।
—पद्म महापुराण पाताल खण्ड अ. 8 श्लोक 32 अर्थ—शेष भगवान् श्री रामचन्द्रजी से कहते हैं कि अश्वमेध करने से आप सप्त लोक का शासन करेंगे तथा महासमृद्धि युक्त होकर महाबली तथा पवित्र आचरण करने वाले होंगे।।22।।
युधिष्ठिर ने शान्ति पुष्टि को बढ़ाने वाले तथा सब कामों को सिद्ध करने वाले कृत्य को श्रीकृष्ण भगवान् से पूछा तो श्रीकृष्ण जी बोले— श्रीकामःशान्ति कामावाग्रह यज्ञं समारभेत् । बृष्टायायु पुष्टि कामो वा तथैवाभिचरन्पुनः ।।
ग्रहयज्ञस्त्रिधाप्रोक्तः पुराण श्रुतिकोविदैः । प्रथमोऽयुत होमः स्याल्लक्षहोमस्ततः परम् ।।
तृतीय कोटिहोमस्तु सर्वकामफलप्रदः । अयुतेनाहुनीनां च नवग्रह मख स्मृतः ।।
होमं समारभेत्सर्पि यव व्रीहितिलादिना । अर्कः पलाश खदिरौह्यपामार्गोंऽथ पिप्पलः ।।
उदुम्बर शमीदूर्वा कुशाश्च समिधः क्रमात् । एकैकस्य चाष्टशतमष्टाविंशतिर्वा पुनः ।।
दक्षिणाभिःप्रयत्ने बहून्वा बहु वित्तवान् । लक्षहोमस्तु कर्त्तव्यो यदिवित्तं गृहे-गृहे ।।
यतः सर्वानवाप्नोति कुर्यत्कामान्विधानतः । पूज्येतशिव लोके च वास्वादित्यमरुदगणैः ।।
यावत्कल्प शतान्यष्टावथ मोक्षमवाप्नुयात् । सकामोयस्त्विमं कुर्याल्लक्ष होम यथाविधिः ।।
सतकाममवाप्नोति पद चानन्त्यमश्नुते । पुत्रार्थी लभते पुत्रं धनार्थी लभते धनम् ।।
भार्यार्थी शोभनांभार्या कुमारी च शुभपतिम् । भ्रष्टराज्यस्तथाराज्यं श्रीकामश्रियमाप्नुयात् ।।
यं यं कामयतेकामं तं तं प्राप्नोति पुष्कलम् । निष्कामः कुरुते यस्तु पर ब्रह्म स गच्छति ।।
—अग्नि पुराण अ. 141 उ.प. 4
श्लोक 2,5,6,30,31,32, 116,117,118,119,120,121,। अर्थ—लक्ष्मी की इच्छा करने वाला अथवा शान्ति चाहने वाला नवग्रह यज्ञ करे। उसी प्रकार वृष्टि, आयु की पुष्टि चाहने वाले को भी ग्रह यज्ञ करना चाहिये। ग्रह यज्ञ तीन प्रकार कहा गया है, पुराणवेत्ता, श्रुतिवेत्ताओं के द्वारा। पहला अयुतहोम, दूसरा लक्ष होम, तीसरा कोटि होम, ये सम्पूर्ण कामनाओं के फल को देने वाले हैं। आयुत (दस हजार) आहुतियों के देने से वह नवग्रह यज्ञ कहा गया है। आर्क, पलाश, खदिर, अपामार्ग, पिप्पल, उदुम्बर, शमी, छोंकर, दूब और कुशा इन समिधाओं के क्रम से घी, जौ, ब्रीहितिलादि से एक-एक ग्रह को एक सौ आठ अथवा अट्ठाईस आहुतियों से हवन करें। बहुत धन वालों को प्रयत्न पूर्वक बहुत से लक्ष होम करना चाहिए। यदि घर में धन हो तो विधि-विधान से लक्ष होम को करने से सम्पूर्ण कामनाओं की पूर्ति होती है और आठ सौ कल्प तक वसु, आदित्य, मरुद्गणों आदि के द्वारा शिवलोक में पूजित होता है, इसके बाद मोक्ष पद को प्राप्त करता है। जो मनुष्य सकाम भावना से इस लक्ष होम को विधि-विधान से करता है उसको इच्छित काम की प्राप्ति होती है ओर अन्त समय परम पद को प्राप्त करता है। पुत्रार्थी पुत्र को प्राप्त करते हैं, धनार्थी धन को प्राप्त करते हैं, भार्यार्थी सुन्दर स्त्री को प्राप्त करते हैं और कन्या शुभ पति को प्राप्त करती है। राज्य से च्युत राजा राज्य को प्राप्त करता है—लक्ष्मी की कामना वाला लक्ष्मी को प्राप्त करता है। जो पुरुष जिस-जिस कामना की इच्छा करता है, उसी−उसी कामना को अधिक मात्रा में प्राप्त करता है। जो निष्काम भाव से लक्ष हवन करता है वह परब्रह्म को प्राप्त करता है। ऋषि गणों ने सूतजी से संसार बन्धन छूटने का उपाय पूछा। उत्तर में श्री सूतजी कहते हैं—
सर्वबाधा निवृत्यर्थं सर्वान् देवान् यजेत् बुधः । ज्वरादि ग्रन्थि रोगांश्च बाधाह्मात्मिकी मता ।।100
पिशाच जम्बुकादीनां बाल्मीकाद्युद्भव स्तथा । अकस्मादेव गोधादि जन्तूनां पतनेऽपि च ।।101
गृहे कच्छप सर्प स्त्री दुर्जना दर्शनेऽपि च । वृक्ष नारी गवादीनां प्रसूति विषयेऽपि च ।।102
भावि दुःख समायाति नस्मात्ते भौतिकाः मताः । अमेध्याशनि पातश्च महामारी तथैव च ।।103
ज्वरमारी विषूचिश्च गोमारी च मसूरिका । जन्मर्क्षं ग्रह संक्राति ग्रहयोगाः स्वराशि के ।।104
दुःस्वप्न दर्शनाद्याश्च माता व ह्याधिदैविका । शव चाण्डाल पतित स्पर्शादंतर्गृहे गते ।।105
एतादृशे समुत्पन्ने भाविदुःखस्य सूचके । शान्ति यज्ञ तु मतिमान्कुर्यात्तद्दोष शान्तये ।।106
—शिव महापुराण, अ. 18
अर्थ—सभी बाधाओं की निवृत्ति के लिए, बुद्धिमान पुरुषों को सभी देवताओं का यज्ञ-हवन के द्वारा पूजा करनी चाहिए। ज्वर आदि ग्रन्थि रोग, आध्यात्मिक बाधा, पिशाच एवं शृंगालों के उपद्रव, दीमक की उत्पत्ति, अकस्मात् यदि गोधा (गोह) का पतन हो जाय, घर में कच्छप सांप का निवास होने से, दुराचारी स्त्री−पुरुष के दर्शन से, वृक्ष के फैलने तथा गौ तथा नारी के प्रसव काल में कोई संकट उपस्थित होने से, भावी भौतिक दुःखों का विनाश करने के लिए, अपवित्र वस्तु का स्पर्श होने पर, शनि आदि ग्रहों के प्रकोप होने पर, महामारी, विषूचिका, गौमारी, आदि आधिदैविक संकट, जन्म, नक्षत्र, ग्रह, संक्रान्ति, चाण्डाल एवं पतितों के स्पर्श से यदि अन्त-पुर का भवन अशुद्ध हो जाय, किसी भावी संकटों की सम्भावना हो तो शान्ति यज्ञ करके बुद्धिमान पुरुष, उन दोषों को शान्त कर देते हैं। अग्नि—यज्ञ, देव यज्ञ आदि के सम्बन्ध से जिज्ञासा करने पर सूतजी कहते हैं— सम्पतकारी तथा ज्ञेया सायमग्न्याहुतीर्द्विजाः । आयुष्यकरोति विज्ञेया प्रायः सूर्य्याहुतिस्तथा ।।7 —शिव पुराण अर्थ—सन्ध्या काल में अग्नि में आहुति देने से वह सम्पत्ति देने वाली है और सूर्योदय के समय आहुति आयु को बढ़ाने वाली होती है। हवन-यज्ञ करने वाले मनुष्य को माया नहीं सता पाती। वह माया के कुचक्र में नहीं बंधता और बन्धन मुक्त होकर, परम शान्ति को प्राप्त करता है। ब्रह्माजी ने महामाया को आदेश दिया है कि वह अपना कुचक्र, यज्ञ करने वाले पर न चलावे। महायज्ञपरान्विप्रान्दूरतः परिवर्ज्जय । ये यजन्ति जपैर्होमैः देव महेश्वरम् ।। —कूर्म पुराण 2।16 अर्थ—श्री ब्रह्माजी, महामाया से कहते हैं कि हे देवि! जो कोई यज्ञ के द्वारा परमेश्वर की अर्चना करते हैं, उन्हें तुम दूर से ही त्याग दो ऐसे व्यक्ति पर तुम अपना प्रभाव मत डालो। आयुष्यञ्चापि भक्तानां त्रयाणां विधिपूर्वकम् । यजेत जुहुयाग्नौ जपेद्यद्याज्जितेन्द्रिय ।।100 ।। —कूर्म पुराण, अध्याय 3 अर्थ—जो भक्त जितेन्द्रिय रह कर जप और यज्ञ करते हैं, उनकी आयु बढ़ती है। ***
<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118