gytri yagya vidhan part 2

यज्ञों से देव-तत्वों की परिपुष्टि

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******* ‘यज्ञ’ शब्द ‘यजयाचयतविच उप्रक्चरक्षो नड्’ (3।3।90) इस पाणिनिसूत्र से नड् प्रत्यय करने पर बनता है और यज्ञ धातु का अर्थ ‘देव पूजा संगतिकरण दान ऐसा’ पाणिनीय धातु पाठ में आया है। सो देवताओं की पूजा, हरि द्वारा देवताओं की अर्चना का नाम ही यज्ञ है। जैसे इस जगत में प्रत्येक राष्ट्र को सुव्यवस्थित करने वाली राज शक्ति विविध रूप में हुआ करती है, उससे प्रजा पर आई व आने वाली आपत्ति को दूर किया जाता है, वैसे ही सम्पूर्ण भूमण्डल को आवश्यक वृष्टि आदि द्वारा सुव्यवस्थित करने वाली परमात्मा की विविध शक्तियों का नाम ही देवता हुआ करता है। जैसे राज्य-शक्ति को अनिवार्य कर (टैक्स) ठीक-ठीक न मिलने से राज्य-शक्ति का ठीक-ठीक प्रयोग न होने से चोरी, डाका आदि घटनाओं से प्रजा यदाकदा संत्रस्त रहती हैं, वैसे ही दैव-शक्ति के खमुपवृर्हक यज्ञ यज्ञादि न होने से ‘यज्ञे नष्टे देवनाशः ततः सर्व प्रणश्यति’ (60।6) इस वायुपुराण के कथनानुसार जल, वायु, आदि भूतों पर देव-शक्ति के ठीक नियन्त्रण न रहने से अतिवृष्टि, अनावृष्टि, जलप्लावन आदि प्रजा को संतप्त करने वाली भीषण विपत्तियां हुआ करती हैं। निरुक्त में ‘यज्ञ कस्मात्’? ‘प्रख्यातं यजति कर्म इति नैरुक्ता यजुरन्नो भवतीति वा, यजूति एन यजन्तीति वा’ (3।19।6) यह कहकर यजन देव-पूजन हवनादि का नाम ‘यज्ञ’ बताया गया। इसमें देवों का सन्तर्पण होता है जिससे वे जल-शक्ति, अग्नि-शक्ति आदि को नियन्त्रण में रखते हैं—जिससे इनके कारण प्रजा नष्ट नहीं होती। पर आजकल शासन के धर्म निरपेक्ष होने से उसमें वेदों तथा यज्ञों का यह महत्व नहीं रहा—जिसमें हमें आये दिन उक्त दैवी विपत्तियों का सामना करना पड़ रहा है। पर यज्ञ-याग आदि दैवी कर्म करने से आधिदैविक विपत्तियां न आने से जगत् सुख की सांस ले सकता है। यज्ञ से सम्पूर्ण जगत् का पालन कैसे? बात यह है कि देवताओं को हमें उनका हव्य देना है। हम हैं स्थूल, पर देवता है सूक्ष्म। हम उन्हें स्थूल हव्य देंगे, तो उन्हें कैसे प्राप्त होगा? उन्हें तो सूक्ष्म हव्य चाहिए, तभी वे प्रसन्न होंगे। इसका उपाय सोचा गया था ‘यज्ञ’। इसका दृष्टान्त भी समझ लेना चाहिये। हमें अपने आत्मा को भोजन देना है। हम भी स्थूल हैं, हमारा दिया हुआ भोजन भी स्थूल है, पर आत्मा हमारी सूक्ष्म हैं। उसे यह स्थूल भोजन कैसे मिल सकता है? उसे चाहिये सूक्ष्म भोजन। उसका उपाय यह सोचा गया था कि—हम उस स्थूल भोजन को मुख के द्वारा अपनी जठराग्नि में होम करें। ऐसा करने से वह जठराग्नि उस स्थूल भोजन को सूक्ष्म कर देती है। वही सूक्ष्म अन्न हमारे आत्मा को प्राप्त हो जाने से वह हमारे शरीर को स्वस्थ रखता है। यदि आत्मा को स्थूल अन्न न पहुंचाया जायगा, तो हमारा शरीर, मन, इन्द्रिय आदि सभी अस्वस्थ हो जावेंगे। फिर हम न अपना कोई लाभ कर सकेंगे, न दूसरों का उपकार। न कुछ बुद्धि द्वारा दूसरों का, न अपना कुछ हित सोच सकेंगे। जब हम अग्नि में हव्य डालते हैं, तब स्थूल अग्नि उस हवि को सूक्ष्म कर देती है और शान्त होकर स्वयं भी सूक्ष्म हो जाती है। तब वह सूक्ष्म अग्नि सूक्ष्म महाग्नि के साथ मिलकर उसे सूक्ष्म वायु की सहायता से आकाशाभिमुख जाती हुई द्युलोक में पहुंचकर देवों को समर्पण करती है। वे देवता उस सूक्ष्म हवि से तृप्त होकर प्रजा के हित के लिये और धान्य आदि की उत्पत्ति के लिये यथोचित वृष्टि कर देते हैं। जैसे कि मनुस्मृति में कहा है और उसी का बीज वेद में मिलता है। ‘हविष्यान्तमजरं स्वविदि दिविस्पृशि आहुतं जुष्मग्नौ’ (ऋ0 सं0 70।88।1) यहां श्री दुगाचार्य ने लिखा है—‘
हवि पान्तं देवानां च पुरोडाशादि निर्दग्धस्थूल भावमग्नि क्रियते। पवः—आदित्यः, यं वेत्ति, यथाऽसो वेदितव्यः—इति स्वर्विद् अग्निः।
दिविस्पर्श—द्यामसौ स्पृशति हविरुपनयन् आदित्यम्’ (निरुक्त 7।25।1)
इसमें स्पष्ट हुआ कि जब हम देवताओं को प्रसन्न कर लेंगे, तो वह सम्पूर्ण चराचर स्थावर जंगम पालित रहेगा, क्योंकि सभी का निर्वाह वृष्टि एवं अन्न पर है। उन देवताओं को प्रसन्न करने का उपाय है—यज्ञ। तो यज्ञ से देवपूजा सिद्ध हुई, अतः यज्ञ का महत्व सिद्ध हुआ। शास्त्रों की यह घोषणा है कि यज्ञ देवों को प्रसन्न करने के लिये किया जाता है, विचारिये ये देव कौन हैं? इनका हमसे क्या सम्बन्ध है? हम यज्ञ में इनकी उपेक्षा नहीं कर सकते और हमारे प्रति उनका भी कुछ कर्त्तव्य है। श्रीमद्भगवद्गीता में लिखा है।
देवान् भावयताऽनेन ते देवाः भावयंतु वः । परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ।।

प्रजापति ने कहा—इस यज्ञ के द्वारा देवों को प्रभावित करो—तृप्त करो, तृप्त हुए देव तुमको तृप्त करें। परस्पर एक दूसरे को भावित तुम करते हुए आप सब परम कल्याण को प्राप्त करेंगे। विचारना चाहिये कि वे कौन से देव हैं, जिनको प्रजा यज्ञ के द्वारा तृप्त करती है और वे उसके बदले में सुख की अथवा अनुकूल स्थितियों की वर्षा से प्रजा को तृप्त कर देते हैं। इसकी खोज में जब हम निकलते हैं, हमें अग्नि, इन्द्र, वायु, अपस्, पृथ्वी, सूर्य, औषधि, वनस्पति आदि नामों में व्यवहृत देवों का पता लगता है। यज्ञ से इनकी तृप्ति कैसे होती है, यह भी विचार करना आवश्यक है। इसका एक स्थूल रूप मनु के श्लोक द्वारा स्पष्ट किया जाता है—
अग्नौ प्रस्ताहुतिः सम्यगादित्यमुपतिष्ठते । आदित्याज्जायते वृष्टिर्वृष्टेपन्नं ततः प्रजाः ।।

अग्नि में डाली हुई आहुति सूर्य किरणों में उपस्थित होती है। उनके संसर्ग से अन्तरिक्ष में इस प्रकार का वातावरण निर्मित हो जाता है, जिससे मेघों का संग्रह होने लगता है, वे समय पाकर पृथ्वी पर बरसते हैं, उस वृष्टि से वहां औषधि, वनस्पति, लता, फल, फूल आदि विविध खाद्य पदार्थ न केवल मानव के, अपितु प्राणिमात्र के लिए उत्पन्न हो जाते हैं। औषधि, वनस्पति, लता, फूल, फल आदि खाद्यों में विविध प्रकार की जीवन शक्तियां (खाद्योज) रहती हैं जो फलादि का उपभोग करने से प्राणियों को जीवन प्रदान करती हैं। वे जीवन शक्तियां इनमें अग्नि, वायु, सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी, जल आदि के प्रभाव से ही उत्पन्न हो पाती हैं। यदि हम यज्ञादि अनुष्ठान करके आज्य एवं अन्य विविध सामग्री को अग्नि के द्वारा उन देवों तक पहुंचाते रहते हैं, तो वे उन जीवनी शक्तियों को अधिक और उत्तम रूप से उत्पन्न करने में समर्थ रहते हैं। यही यज्ञ के द्वारा देवों की तृप्ति का स्वरूप है। यदि हम यज्ञ नहीं करते तो यह विराट् रूप से प्रजापति का जो यज्ञ हो रहा है—सूर्य, चन्द्र किरणों द्वारा रस वर्षा करते हैं, ताप पहुंचाते हैं, वायु प्राण संचार करता है, जल अनुकूल रसों को प्रदान करता है और जो अत्यन्त सूक्ष्म कीटाणुओं के रूप में अनन्त राक्षस या असुर हमारे जीवन को चाट जाने के लिये हमारे चारों ओर मंडराते हैं, ये सब देव मिलकर उन असुरों का ध्वंस करने के लिये बराबर प्रयत्न करते रहते हैं। पर हमारे द्वारा यज्ञादि रूप में उन्हें सहयोग न मिलने पर और हमारे दूसरे मलीनता आदि का प्रसार करने वाले कार्यों से असुरों की संख्या में कल्पनातीत वृद्धि हो जाती है। जिससे प्रजा में रोग आदि महामारी के रूप में फैल जाते हैं। प्रजा नष्ट होने लगती है। पर वह उसके आधारभूत कारणों को नहीं समझ पाती और कष्ट उठाती है। यदि हम यज्ञ का बराबर अनुष्ठान करते हैं तो देवों को उससे पुष्ट बनने में पूरा सहयोग प्राप्त होता है। यज्ञ से वायु की शुद्धि का यही अभिप्राय है, केवल वायु पद तो उपलक्षण मात्र है उसका तात्पर्य सभी देवों की शुद्धि अर्थात् पुष्टि होने से है। समस्त वातावरण की शुद्धि ही यहां अपेक्षित है। इस प्रकार पुष्ट व तृप्त होकर समस्त देव उन असुरों का विनाश करने में पूर्ण समर्थ होते हैं, जिससे हमको दीर्घ जीवन प्राप्त होता है। यह शास्त्रों में स्पष्ट लिखा है कि यज्ञ देवों की खुराक है। शतपथ ब्राह्मण के वाक्य हैं—
प्रजापतिर्देवानब्रवीत् यज्ञो वोऽन्नम् । यज्ञः उ देवानामन्नम् ।।

प्रजापति ने देवों को बताया—यज्ञ आपका अन्न है खाद्य है, यज्ञ ही देवों का अन्न है। अब यदि हम यज्ञ न करके देवों को भूखा मरने देंगे तो निश्चय ही असुर बढ़ जायेंगे। मानव रोगी और क्षीण आयु होगा, जो आज सन्मुख स्पष्ट दीख रहा है। यह बात निश्चय है कि देव यज्ञ के द्वारा ही अपने कार्य सम्पादन करने के लिए शक्ति प्राप्त करते हैं। शतपथ ब्राह्मण में लिखा है— यदु ह किञ्च देवाः कुर्वते स्तोमेनैव त कुर्वते । यज्ञो वै स्तोमो यज्ञेनैव यत्कुर्वते । देव अपना जो कुछ कार्य करते हैं वे स्तोमरूप साधन के द्वारा ही करते हैं। स्तोम यज्ञ का नाम है, इसलिए यज्ञ के द्वारा ही वे अपना कार्य करने में समर्थ होते हैं। प्रत्येक व्यक्ति इसका स्पष्ट अनुभव कर सकता है कि यज्ञ के द्वारा चारों ओर के वातावरण में कुछ अनुकूल प्रभाव पड़ता है या नहीं। जब अग्नि में आज्य अथवा अन्य उपयोगी शाकल्य द्रव्य आहुति किये जाते हैं, उनके दग्ध होने पर दूर अवस्थित व्यक्ति को विशेष प्रकार की सुगन्ध का स्पष्ट अनुभव होता है। आहुत द्रव्यों की जीवनोपयोगी शक्तियां अग्नि के द्वारा अति सूक्ष्म अवस्था में परिवर्तित होकर वायु, अपस्, पृथ्वी, सूर्य रश्मि आदि देवों में निहित उन जीवनी शक्तियों में अनुपम स्फूर्ति प्रदान करती हैं, जो खाद्य के रूप में आकर प्राणिमात्र को जीवन प्रदान करने वाली है। बहुत लोग कह दिया करते हैं कि यज्ञ में जो घृत आदि दग्ध कर दिया जाता है, यदि उसे किसी व्यक्ति को दे दिया जाय और वह उसका उपयोग करले, तो उसका भला हो जाय, उसे व्यर्थ जला देने से क्या लाभ? वस्तुतः ऐसा विचार रखने वाले लोग जान-बूझकर अज्ञानी बनते हैं। एक व्यक्ति के द्वारा प्रयुक्त किया हुआ घृत आदि केवल उसी व्यक्ति को थोड़ा-बहुत लाभ पहुंचायेगा, पर उतने ही घृत का यज्ञाग्नि द्वारा यदि प्रयोग किया जाय, तो वह सहस्रों व्यक्तियों के लिये लाभप्रद होगा। इसीलिये तो यज्ञ त्यागमय व परोपकारमय है। इसमें प्रत्येक व्यक्ति की सेवा की भावना निहित रहती है। यज्ञाग्नि में प्रदत्त एक आहुति सूक्ष्म होकर देवों में अनन्त जीवन शक्तियों को स्फूर्ति प्रदान करती है जिनका लाभ सहस्राधिक व्यक्तियों को पहुंचने वाला होता है। यज्ञ सम्बन्धी इन भावनाओं को लेकर शतपथ ब्राह्मण में कुछ सन्दर्भ लिखे गये हैं, जो इन अर्थों पर सुन्दर प्रकाश डालते हैं—

ततोऽसुरा उभयीरोषधीर्याश्च मनुष्या उपजीवन्ति याश्च पश्वः कृत्ययेव त्वत् विषेणेवं त्वत् प्रतिलिलिपुः उतैव चिद्देवानभि—भवेमेति, ततो न मनुष्या आशुर्न पशव आलिलिशिरे ता हेमाः प्रजा अनाशकेन नोत्परावभृबुः । ....ते देवा होचुर्पन्तद मासामपि जघांसामेति, केनेति? यज्ञेनेवेति । —2।4, 3।2।2

असुरों ने उन समस्त औषधियों को मारक तत्व अथवा विष से मानो लिप्त कर दिया, जिसका उपयोग कर समस्त मानव व पशु अपना जीवन निर्वाह करते हैं, ऐसा करके उन्होंने यह सोचा, कि इस प्रकार हम देवों को परास्त कर लेंगे। पर उन औषधियों को उस अवस्था में पशुओं ने चुना, उनका उपयोग न करने से समस्त प्रजा असुरों के द्वारा पराजित न की जा सकी। इस ब्राह्मण वर्णन में यह ध्यान देने योग्य है कि औषधियों में जब स्वास्थ्यनाशक असुर रूप कीटाणु उत्पन्न हो जाते हैं, उस समय उनका उपयोग न करना ही श्रेयस्कर है। इस प्रकार अन्नादि औषधियों में प्रादुर्भूत असुर उनके उपयोग से प्राणियों के स्वास्थ्य को नष्ट कर देवों के कार्यक्रम को विध्वस्त कर देना चाहते हैं। यह ठीक है, कि ऐसी अवस्था में उन अन्नों का उपयोग न करने से भी तो कार्य नहीं चलता। बिना अशनपान के प्राणी कब तक जीवित रह सकता है? फिर असुर भी ऐसे कपटी व धूर्त हैं, कि वे अपने आपको इतने स्पष्ट रूप में कब आने देते हैं, कि उन्हें कोई भी जान पहचान सके और उनकी मार से अपने आपको बचा सके। इसलिये असुरों को सदा प्रायः छद्मवेशी कहा गया है, ये लुक-छिपकर आते हैं और देवों को चक्कर में डालकर परेशान करते हैं। इसीलिए उनसे सुरक्षित रहने के लिए उपर्युक्त ब्राह्मण सन्दर्भ की अन्तिम पंक्तियों में बताया गया है कि असुरों के इस आक्रमण को देखकर देवों ने आपस में सलाह की कि हमें इन औषधियों में अन्तर्निविष्ट असुरों का हनन करना चाहिए। किसी ने पूछा कि वह किस उपाय से किया जा सकता है? उत्तर मिला, वह यज्ञ से ही किया जा सकता है। इस प्रसंग में यह स्पष्ट है, कि अन्नादि औषधियों में अन्तः प्रादुर्भूत स्वास्थ्य नाशक तत्वों का यज्ञ के द्वारा ही अपावरण किया जा सकता है। जहां पर नियमित रूप से यज्ञों का अनुष्ठान होता है, वहां के विस्तृत वातावरण में उत्पन्न अन्नादि औषधियों में स्वास्थ्यनाशक तत्वों के प्रादुर्भाव की सम्भावना ही नहीं रहती। शतपथ ब्राह्मण में इस प्रसंग का उपसंहार करते हुए आगे लिखा है—
एतेन वै यज्ञेनेष्ट, वोभीनामौषधीनां याश्रच मनुष्या उपजीवित याश्रच पशव कृत्यामिवत्वत् विषतित्रत्वत् अपजघ्नुः तत आश्नन् मनुष्या आलिशत पशवः ।

‘‘इस यज्ञ के द्वारा ही उन समस्त औषधियों के स्वास्थ्य नाशक विष प्रभाव को नष्ट कर दिया गया, जिनका उपयोग मनुष्य अथवा पशु करते हैं, परिणाम स्वरूप मनुष्य उन अन्नादि औषधियों का उपयोग करने लगे और पशु भी चुगने लगे।’’ यज्ञ के द्वारा वायु अथवा वातावरण की शुद्धि के लिए इससे अधिक और किस प्रमाण की आवश्यकता है। ब्राह्मण ग्रन्थों में इस प्रकार के प्रसंग अनेक स्थलों में है। इसके लिये आप गोपथ ब्राह्मण के उत्तर भाग (1।19) और कौषीतकि ब्राह्मण (5।1) को देख सकते हैं। संक्षेप में चाहे काम्य यज्ञ का अनुष्ठान करते हैं अथवा नित्य यज्ञ का और उसका चाहे कोई दूसरा भौतिक फल हो अथवा आध्यात्मिक, पर उन समस्त प्रकार के यज्ञों से वातावरण की शुद्धि, रूप, फल का निराकरण तो किया ही नहीं जा सकता। यज्ञ अनुष्ठान किये जाने पर उनके परिणाम से बचकर हम निकल नहीं सकते। यह यज्ञों का अनिवार्य और अनिर्बाध फल है। यज्ञ के किसी भी दूसरे लक्ष्य पर पहुंचने के लिये हमें इस मार्ग से जाना ही होगा। यह देव और मानवों का अटूट सम्बन्ध है। इस रूप में मानव-समाज की समृद्धि का यह मूल आधार है। यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् । मानव यज्ञ के द्वारा ही देव अपने यज्ञ का अनुष्ठान यथावत कर पाते हैं। ये सर्वश्रेष्ठ धर्म हैं, ये अद्वितीय हैं, उत्तम हैं, इनकी तुलना अन्य किसी से नहीं की जा सकती। यास्क महर्षि वैदिक शब्दों का निर्वाचन करते हुए देव शब्द के विषय में ऐसा लिखते हैं—देवः कस्मात? देवो दानाद् वा दीपनाद् वा द्योतनाद् वा द्युस्थानोभवतीति वा’’ देव क्योंकर देव कहलाता है? देव इसलिए कि वह दान देता है; प्रकाशित करता है, प्रकाशित होता है अथवा द्युस्थान में रहता है। इन यास्क महर्षि के निर्वाचन से हमें यह स्पष्ट रीति से मालूम हुआ कि ‘दा द्योतन’ अर्थात् प्रकाशित होना दीपन-दूसरी वस्तुओं को प्रकाशित करना अथवा आकाश के अन्दर रहना ये गुण जिसमें पाये जायें वह देव व देवता है। इन लक्षणों से देवों को पहचानने में हमें आसानी होगी। परीक्षक लोगों का कहना है कि लोक में किसी वस्तु की सिद्धि करना चाहो तो दो चीजों की आवश्यकता होती है। वह दोनों चीजें कौन हैं? एक है लक्षण, दूसरी है प्रमाण। ‘लक्षण प्रमाणाभ्यां हि वस्तु सिद्धिः’ लक्षण और प्रमाण से ही वस्तु की सिद्धि होती है, यह शास्त्रीय वचन है। उपर्युक्त लक्षण से सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु आदि पदार्थ देव शब्द वाच्य हैं ऐसा सिद्ध होता है। यजुर्वेद में चौदहवें अध्याय के अन्दर एक मन्त्र आता है कि पृथ्वी आदि पदार्थ स्पष्टोक्ति से देवता कहलाते हैं।

अग्निर्देवता, वातो देवता, सूर्योदेवता, चन्द्रमा देवता, रुद्रा देवताऽ आदित्या देवता, मरुतो देवता, विश्वेदेवा देवता, वृहस्पतिर्देवतेन्द्रो देवता, वरुणो देवता ।।

—यजु. अ. 14 म. 20 मन्त्र का अर्थ स्पष्ट है। इसमें कौन-कौन पदार्थ देवता पदवाच्य हैं, पाठक भली-भांति जान सकते हैं। यज्ञ के द्वारा इन देवताओं का सत्कार करने से मनुष्य को विविध शक्तियां प्राप्त होती हैं। यह कैसे हमें जान लेना चाहिए। नित्य अग्निहोत्र को शास्त्रों में देवयज्ञ कहा गया है। देवयज्ञ का अभिप्राय है—देवताओं को उद्देश्य करके किये जाने वाली क्रिया। एक यज्ञकुंड के अन्दर अग्नि को आधार करके और उस अग्नि को प्रदीप्त करने के पश्चात् औषधि आदि से सिद्ध किये हुए हव्य पदार्थों की आहुति नित्य दी जाती है। इस तरह करने से देवता प्रसन्न हो जाते हैं अर्थात शुद्ध हो जाते हैं। ‘अग्नि र्वैदेवानां मुखम्’ अग्नि देवताओं का मुख है। इसलिये अग्नि के अन्दर जो भी कोई पदार्थ डाला जाता है वह सभी देवताओं को प्राप्त हो जाता है। जैसे मुख के अन्दर डाली हुई चीज सारे शरीर के अन्दर पहुंच जाती हैं उसी तरह अग्नि के अन्दर डाली हुई वस्तु जल, वायु, अन्तरिक्ष आदि देवताओं को आसानी से प्राप्त हो जाती है। जब अग्नि, वायु, जल, पृथ्वी आदि पदार्थ जो देव हैं यज्ञ से शुद्ध हो जाते हैं, यही उन देवताओं का सत्कार कहलाता है। इसी यज्ञ क्रिया से इन्द्रियां संस्कृत होती हैं अर्थात् शुद्ध हो जाती हैं। इस तरह प्रसन्न—शुद्ध हुए देवताओं को गृहस्थ प्राणी उपयोग में लाते हैं। उन पदार्थों को सभी प्राणी अपनी इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण करते हैं। इससे हमारी इन्द्रिय शक्तियां बढ़ जाती हैं। इन्द्रियां शुद्ध होती हैं, जीवन पवित्र होता है, निरोग रहता है। शुद्ध और पवित्र अन्न, जल के प्रयोग से जो हमारे शरीर के अंग बनते हैं, वह भी पवित्र होते हैं। ‘यदन्नं तन्मन’ जैसा अन्न वैसा ही मन होता है। इन्द्रियों को शक्ति प्राप्त होना, मन, शुद्ध और पवित्र बनना क्या शक्ति का मिलना नहीं? इससे बढ़कर शक्ति कौन-सी होती है? मनुष्य शुद्ध मन से न जाने क्या-क्या कार्य साध सकता है।
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