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यज्ञों का आश्चर्यजनक प्रभाव, जहां मनुष्य की आत्मा, बुद्धि एवं निरोगिता पर पड़ता है वहां प्रजनन प्रणाली की शुद्धि होती है। याज्ञिकों को सुसन्तति प्राप्त होती है। रज-वीर्य में जो दोष होते हैं उनका निवारण होता है। साधारण औषधियों का सेवन केवल शरीर के ऊपरी भागों तक ही प्रभाव दिखाता है, पर यज्ञ द्वारा सूक्ष्म की हुई औषधियां स्त्री पुरुष के श्वांस तथा रोम कूपों द्वारा शरीर के सूक्ष्म भागों तक पहुंच जाती हैं और उन्हें शुद्ध करती हैं। गर्भाशय एवं वीर्य कोषों की शुद्धि में यज्ञ विशेष रूप से सहायक होता है।
जिन्हें संतति नहीं होतीं, गर्भपात हो जाते हैं, कन्या ही होती है, बालक अल्प जीवी होकर मर जाते हैं, वे यज्ञ भगवान की उपासना करें तो उन्हें अभीष्ट सन्तान सुख मिल सकता है। कई बार कठोर प्रारब्ध सन्तान न होने का प्रधान कारण होता है, वैसी दशा में भी यज्ञ द्वारा उन पूर्व संचित प्रारब्धों का शमन हो सकता है।
गर्भवती स्त्रियों को पेट से बच्चा आने से लेकर जन्म होने तक चार बार यज्ञ संस्कारित करने का विधान है ताकि उदरस्थ बालक के गुण, कर्म, स्वभाव स्वास्थ्य रंग, रूप आदि उत्तम हों। गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्त, जातक यह चार संस्कार यज्ञ द्वारा होते हैं जिनके कारण बालक पर उतनी छाप पहुंचती है जितनी जीवन भर की शिक्षा दीक्षा में नहीं पड़ती। ऋषियों ने षोडश संस्कार पद्धति का आविष्कार इसी दृष्टि से किया था। उस प्रणाली को जब इस देश में अपनाया जाता था तब घर-घर सुसंस्कृत बालक पैदा होता था। आज उस प्रणाली का परित्याग करने का ही परिणाम है कि सर्वत्र अवज्ञाकारी कुसंस्कारी सन्तान उत्पन्न होकर माता-पिता तथा परिवार के सब लोगों को दुःखी करती है।
सन्तानोत्पादन के कार्य में यज्ञ का अत्यन्त ही महत्वपूर्ण स्थान है। जिनके सन्तान होती है, वे अपने भावी बालकों को यज्ञ भगवान के अनुग्रह से सुसंस्कारी, स्वस्थ, बुद्धिमान, सुन्दर और कुल की कीर्ति बढ़ाने वाले बना सकते हैं। जिन्हें सन्तान नहीं होती है वे उन बाधाओं को हटा सकते हैं जिनके कारण वे सन्तान सुख से वञ्चित हैं। प्राचीन काल में अनेक सन्तानहीनों को सन्तान प्राप्त होने के उदाहरण उपलब्ध होते हैं, जिनमें से कुछ नीचे दिये जाते हैं।
अयोध्या नरेश श्री दशरथ जी अपने यज्ञ करने वाले ब्राह्मणों से जो कुछ कहा उनमें से कुछ नीचे दिये जाते हैं।
धर्मार्थसहितं युक्तं श्लक्ष्ण वचनमब्रवीत ।
ममता तप्तमानस्य पुत्रार्थ नास्ति वैसुखम् ।।8।
—वाल्मीकि रामायण,
आ. ख. द्वादश सर्ग
अर्थ—हे विप्रगणो! मैं पुत्र प्राप्ति की कामना से बहुत ही सन्तप्त और व्याकुल हूं। मुझे कहीं जरा भी सुख नहीं मिल रहा है। मैंने पुत्र की प्राप्ति के लिए यज्ञ करने का विचार किया है।
ऋषिपुत्रप्रभावेण कामान्प्राप्स्यामि चाप्यहम् ।।10।।
तद्यथा विधिपूर्वकं मे क्रतुरेव समाप्यते ।
तथा विधान क्रियतां समर्थाः करणेष्विह ।।11।।
अर्थ—ऋषिपुत्र शृंगी ऋषि के यज्ञ क्रिया की निपुणता के प्रभाव से अवश्य ही हमारी पुत्र कमाना पूरी होगी। अतः आप विधिपूर्वक यज्ञ करने−कराने में समर्थ द्विजगण सावधान होकर यज्ञ करावें जिससे यह सांगोपांग विधिपूर्वक पूर्ण हो जाय।
विधिपूर्वक पुत्रेष्टि यज्ञ समाप्त हो जाने पर श्री विष्णु भगवान सभी देवताओं सहित यज्ञ स्थल में पधारे। वहां सभी देवों ने विष्णु भगवान से प्रार्थना की—
विष्णोपुत्रत्वमाच्छ कृत्वात्मान चतुर्विधम् ।
तत्र त्वं मानुषो भूत्वा प्रवृद्धम् लोककण्टकम् ।।
—वा. रा. 15 वां सर्ग 1
श्लोक 21
अर्थ—हे भगवन्! आप पुत्र भाव को प्राप्त होइये। आप अंश सहित चारों भागों में विभक्त होकर उनका (दशरथ जी का) पुत्र होना स्वीकार कीजिए और मनुष्य शरीर धारण कर बढ़े हुए लोक-कण्टक (रावण) का नाश कीजिये।
भगवान् ने देवों की प्रार्थना स्वीकार की और—
पितरं रोचयामास तदा दशरथं नृप ।।8
—वा. रा. 16 सर्ग
अर्थ—राजा दशरथ को पिता भाव में स्वीकार कर, इसे देवों को बता दिया।
सचाप्यपुत्रो नृपतिस्तस्मिन्काले महाद्युतिः ।
अयजत्पुत्रियामिष्टि पत्रेप्सुररिसुदनः ।9।
सकृत्वा निश्चयं विष्णुरामन्त्रय च पितामहम् ।।10।।
—वा. रा. 16
वां सर्ग
अर्थ—जिस समय महाकान्ति वाले राजा दशरथ जी पुत्रेष्टि यज्ञ करने लगे, उसी समय विष्णु भगवान ने पुत्र बनकर उनके यहां अवतार लेने का सुस्थिर निश्चय किया।
कुलस्य वर्धनं तर्त्तुमर्हसि सुव्रत ।
नयेतिचराचराजानमुवाच द्विजसत्तम ।।59
—वा. रा. आदि काण्ड 14 सर्ग
अर्थ—हे सुव्रत! जिससे मेरे वंश की रक्षा हो, आप उसका अनुष्ठान कीजिये। ऋष्य शृंग ने तथास्तु कहकर कहा—
भविष्यन्ति सुताः राजश्चत्वारस्ते कुलोद्वहाः ।
अर्थ—हे राजन्! तुम्हारे चार पुत्र वंश बढ़ाने वाले होंगे।
मेधावीसुततोध्यात्वा स किंचिदिदमुत्तरम् ।
लब्ध संज्ञास्तततं तु वेदज्ञो नृपमब्रवीत् ।1
इष्टिं तेऽहं करिष्यामि पुत्रीयां पुत्र कारणात् ।
अथर्व शिरसि प्रौक्तैर्मन्त्रै सिद्धां विधानतः ।2
—वा. रामायण 65 सर्ग
अर्थ—तदनन्तर मेधावी−वेदज्ञ महर्षि कुछ देर तक चिन्तन करके बोले।।1।। हे राजन्! मैं आपको पुत्र उत्पन्न होने के लिए अथर्वण में कहे हुए मन्त्रों से सिद्धि देने वाला पुत्रेष्टि यज्ञ कराऊंगा।।2।।
राजा अंग के पुत्र नहीं था। उपाय पूछने पर राजा के सभासद कहते हैं—
नरदेवेह भवतो नाघतानूनमनार्क्थितम् ।
अस्त्येकं प्रोक्तमनघ यदि हे प्राक्त्वम् प्रजः ।।31
तथासाधय भद्र ते आत्मानं सुप्रज नृप ।
इष्टस्ते पुत्रकामस्य पुत्र दास्यति यज्ञभुक् ।।32
अर्थ—सभासदों ने कहा—हे नरोत्तम! इस जन्म में तो आपने कोई पाप नहीं किया है, परन्तु अवश्य ही कोई पूर्व जन्म का पाप है, जिससे आप पुत्रहीन हैं। इसलिए आप पुत्र पाने की साधना करें। आप यही कामना लेकर यज्ञ भोक्ता भगवान का यज्ञ द्वारा यजन करें, जिससे वे आपको पुत्र प्रदान करेंगे।।31−32।।
पुत्र कामी राजा अंग को ऋषिगण कह रहे हैं—
तथा स्व भागधेयानि ग्रहीष्यन्ति दिवोकसः ।।
यद्यज्ञ पुरुषः साक्षादपत्याय हरिवृत्ति ।।33
तांस्तान्कामान्हरिर्दद्यान्कामयते जनः ।
आराधितो यथैवैष तथा पुंसां फलोदयः ।।34
इति व्यवसिता विप्रास्तस्य राज्ञः प्रजातये ।
पुरोडाशं निरवपन् शिपि विष्टाय विष्णवे ।।35
तस्मात् पुरुष उत्तस्थौ हेममाल्यामलांवरः ।
हिरण्यमयेन पात्रेण सिद्धमादाय पायसम् ।।36
—भागवत्, च. स्क. 13 अ.
अर्थ—तदुपरान्त देवता भी अपना भाग ग्रहण करेंगे, क्योंकि पुत्र-प्राप्ति की कामना से जब आप यज्ञ पुरुष का यजन करेंगे, तो उस यज्ञ में यज्ञ पुरुष के साथ देवगण भी स्वतः ही आयेंगे।
पुरुष, जिस मनोरथ के लिए यज्ञ द्वारा भगवान यज्ञ पुरुष का यजन करते हैं भगवान उनकी वही आशा पूरी करते हैं, क्योंकि भगवान भावना के अनुसार ही फल प्रदान करते हैं।।34 ।।
विप्रों के द्वारा ऐसा सुनिश्चित विचार प्राप्त कर राजा ने यज्ञ भगवान के प्रसन्नार्थ पुरोडाश का हवन किया है।।35।।
जब पुरोडाश का हवन विष्णु भगवान को मिला, तो उसी कुण्ड से, स्वर्ण हार पहने हुए तथा श्वेत वस्त्र धारण किये, हाथ में स्वर्ण थाल में खीर लिये एक दिव्य पुरुष प्रकट हुआ, जिसका सबों ने दर्शन किया।।36 ।।
स विप्रानुमतो राजा गृहीत्वाञ्जलिनौदनम् ।
अवघ्रायमुदायुक्तः प्रादात्पत्न्या उदारधीः ।।37
सा यत्पुंसवनं राज्ञी प्राश्यवै पत्युराधते ।
गर्भकालं उपावृत्ते कुमारं सूषुवेऽप्रवेजा ।।38
—भागवत
अर्थ—विप्रों की अनुमति से राजा ने उस पुरुष के हाथ से खीर लेकर प्रसन्नता से सूंघा और अपनी पत्नी को खाने के लिये दे दी।।73।।
रानी ने खीर खाकर पति के गर्भ को धारण किया और समय पूरा होने पर पुत्र उत्पन्न किया।।38।।
श्री शुक्रदेव जी कहते हैं—
इत्यर्थितः सः भगवान् कृपालु र्ब्राह्मणः सुतः ।
श्रपयित्वा चरुं त्वाष्ट्रं त्वष्टारमयजद्विभुः ।।27
ज्येष्ठा च श्रेष्ठा या राज्ञो महिर्षीणां च भारत ।
नाम्ना कृतद्युतिस्तस्यै यज्ञोच्छिष्टमदाद्विज ।।28
—भागवत पुराण, छ. स्क. 14 अ.
अर्थ—जब राजा चित्रकेतु ने अंगिरा ऋषि की प्रार्थना की, तो ब्रह्मा के पुत्र परम दयालु अंगिरा ऋषि ने उसी समय त्वाष्ट्र चरु लेकर उसे सिद्ध क्रर त्वष्टा की पूजा करवाई और यज्ञ किया।।27।।
हे भारत! (परीक्षित)! यज्ञ समाप्त होने पर राजा की अनेक रानियों में जो सबसे श्रेष्ठ और बड़ी कृतद्युति थी ब्रह्मर्षि अंगिरा ने उसे यज्ञ का शेष अन्न (यज्ञोच्छिष्ट) दिया।।28।।
सापि तत्प्रशनादेव र्चित्रकेतोरधारयत् ।
गर्भं कृतद्युतिर्देवी कृतिकाऽग्नेरिवात्मजम् ।।30
अथकाल उपावृते कुमारः समजायत ।
जनयञ्छूर सेनानां शृण्वतां परमांमुदम् ।।32
हृष्टो राजा कुमारस्य स्नातः शुचिरलंकृतः ।
वाचयित्वाऽऽशिषो विप्रैः कारयामासजात्तकम् ।।33
अर्थ—यज्ञ शेष (चरु) भोजन करके चित्रकेतु की रानी कृतद्युति ने—जिस भांति कृत्तिका ने अग्नि की आत्मा को धारण किया था, उसी भांति गर्भ धारण किया।।30।।
इसके पीछे जब गर्भ मास पूर्ण हो गये, तब राजकुमार उत्पन्न हुआ। पुत्र का जन्म सुनकर शूरसेन देश निवासियों को अपार आनन्द प्राप्त हुआ।।32।।
राजा चित्रकेतु पुत्र का जन्म श्रवण कर, आनन्द सागर में निमग्न हो गया। शांत चित्त से स्नान−ध्यान कर, पवित्र हो, स्वच्छ वस्त्र धारण किया और विधिपूर्वक ब्राह्मणों से आशीर्वाद प्राप्त कर अपने पुत्र का जातकर्म संस्कार सविधि सम्पन्न किया।।33।।
श्रीशुकदेवजी मुनि, मनु की वंश परंपरा का वर्णन करते हुए कहते हैं—
तस्याविक्षित् सुतो यस्य मरुतश्चक्रवर्त्य भूत ।
सम्वर्त्तोऽयाजद्यज्ञं वै महायोग्यगिरिस्सुतः ।।26
मरुतस्य यथायज्ञो न तथा अन्यश्च कश्चन ।
सर्व हिरण्मयं त्वासीद्यत्किञ्चिच्चास्य शोभनम् ।।27
अमाद्यादिन्द्रः सोमेन दक्षिणाभिर्द्विजातयः ।
मरुतः पविवेष्टारो विश्वेदेवाः संभासदा ।।28
—भागवत, नवां स्क., दू. अ.
अर्थ—करन्धम के पुत्र अवीक्षित, अवीक्षित के मरुत, जो चक्र वर्ती राजा हुए, जिनको अंगिरा के पुत्र सहयोगी सम्वर्त्त ने यज्ञ कराया था।।25।।
इस मरुत के यज्ञ के समान किसी का यज्ञ प्रसिद्ध नहीं है। उनके यज्ञ में सभी पात्र स्वर्ण के थे। इनके यज्ञ में सोमपान करके सुरेन्द्र बहुत प्रसन्न हुए। अधिकतम दक्षिणा पाकर ब्राह्मण हर्षित हो रहे थे। इस महायज्ञ में मरुद्गण परोसने वाले और विश्वेदेवगण सभासद हुए।।27-28।।
कृश्वाश्वात् सोमदत्तोऽभूद्योऽश्वमेधैरिडस्पतिम् ।
इष्ट्वा पुरुषमुपाब्रू यागतिं योगेश्वराश्रित ।।35
—भागवत, नवम स्कन्ध, दूसरा अध्याय
अर्थ—उनमें (मनुवंश में) कृशाश्व का पुत्र सोमदत्त हुआ जिसने अनेक अश्वमेध यज्ञ करके यज्ञपति भगवान की पूजा की और फलस्वरूप उन्होंने योगीश्वरों को प्राप्त होने वाली उत्तम गति को प्राप्त किया।
श्री शुकदेव जी मनुवंश परम्परा का वर्णन करते हैं—
अप्रजस्य मनो पूर्वं वशिष्ठो भगवान्किल ।
मित्रावरुणस्यारिष्टिं प्रजार्थमकरोत्प्रभु ।।13
तत्र श्रद्धा मनोः पत्नी होतारं समयाचत ।
दुहितार्थमुपागम्य प्रणिपत्य पयोव्रता ।।14
—भा., न. स्क.-प्र. अ.
अर्थ—इक्ष्वाकु आदि पुत्रों के पहिले मनुजी निःसन्तान थे, इस लिये महर्षि वशिष्ठ जी ने उनसे मित्रावरुण का यज्ञ कराया।।13।।
मनु की भार्या श्रद्धा ने, जो उस यज्ञ में पयोव्रत धारण किये हुए थी—जो विधिपूर्वक केवल दूध पीकर ही यज्ञ संलग्न थीं, वह होताओं के निकट गई और उन्हें प्रणाम करके प्रार्थना की कि आप ऐसा होम करें, जिससे मुझे कन्या उत्पन्न हो।।14।।
प्रेषिणो अध्वर्युणा होता ध्यायंस्तत् सुसमाहित ।
हविषि व्यचरेत् तेन वष्टकारं गृणाद्विजः ।।15
होतुस्तद्वयभिचारेण कन्येलानाम साऽभवत् ।
तां विलोक्य मनुः प्राह नाति हृष्टमना गुरुम् ।।16
भगवन् किमिदं जातं कर्म वो ब्रह्मवादिनाम् ।
विपर्य्ययमहो कष्टंमैवं स्याद् ब्रह्मविक्रिया ।।17
—भागवत्, न. स्क., प्र. अ.
अर्थ—श्रद्धा की प्रार्थना से ‘आप यज्ञ करें’ इस प्रकार अध्वर्यु ने गृहीत हो, हवि के ग्रहण हो जाने पर, मन में इस प्रकार का ध्यान और मुख से ‘वष्ट’ शब्द उच्चारण करके मनु की पत्नी की प्रार्थना को पूर्ण किया।।15।।
होता के ऐसा आचरण करने के कारण मनु को ‘इला’—नामिका कन्या की प्राप्ति हुई। पुत्र-प्राप्ति की चाहना पूरी नहीं होने के कारण मनु ने असन्तुष्ट भाव से महर्षि वशिष्ठ से कहा—।।16।। हे भगवन्! आप ब्रह्मवादी हैं आप लोगों द्वारा किये यज्ञ का फल विपरीत कैसे हो गया? इस भांति मन्त्र और यज्ञ के उल्टे परिणाम होने से ओह! मुझे कितना कष्ट है? ऐसा तो नहीं होना चाहिये ।।17।।
यूयं मन्त्रविदो युक्तास्तपसा दग्ध किल्विषा ।
कुतः संकल्प वैषम्यमनृतं विबुधेष्विव ।।18
तन्निशम्य वचस्तस्य भगवान् प्रपितामह ।
होतुर्व्यतिक्रमं ज्ञात्वा वभाषे रविनन्दनम् ।।19
—भागवत न. स्क. प्र. अ.
अर्थ—आप मन्त्र ज्ञाता हैं। तप से आपके सभी पाप नष्ट हो गये हैं, देव लोगों के बीच अमृत के समान जो आपका संकल्प है, उसकी सब लोगों के बीच यह विषमता कैसे हुई? मनु की बात सुनकर महर्षि वशिष्ठ जी ने होता के व्यभिचार को जान लिया और मनु से बोले—।।18-19।।
एतत् संकल्प वैषम्यं होतुस्ते व्यभिचारतः ।
तथाऽपि साधयिष्येते सुप्रजस्त्वं स्वतेजसा ।।20
—भागवत, नवम् स्कन्ध प्र. अ.
अर्थ—हे वत्स! यह संकल्प का वैषम्य तुम्हारे होताओं के व्यभिचार के कारण हुआ है, किन्तु (यज्ञफल की अव्यर्थता के लिये) फिर भी मैं तुम्हें पुत्र ही दूंगा।
—*—
युवनाश्व के पुत्र नहीं था—
भार्य्या शतेन निर्विण्ण ऋषयोऽस्य कृपालवः ।
इष्टिं स्मवर्तयांचक्रु रैन्द्री ते सुसमाहितः ।।26
राजा तैदय सदनं प्रविष्टो निशि तर्षितः ।
दृष्ट्या शयानान् विप्रांस्तान् पपौ मन्त्र जल स्वयम् ।।27
उत्थितास्ते विशम्याथ व्युदकं कलशं प्रभो ।
पप्रच्छु कस्य कर्मेदं पीतं पुंसवनं जलम् ।।28
राज्ञा पीतं विदित्वाथ ईश्वर प्रहितेन ते ।
ईश्वराय नमस्चक्रु रहो दैवबलं बलम् ।।29
—भाग., न. स्क. प्र. अ.
अर्थ—युवनाश्व के सौ पत्नियां थीं किन्तु सन्तान के अभाव से वे शोकाकुल ही रहते थे। वनवासी ऋषियों को राजा पर दया आ गई। वे सावधानता पूर्वक राजा से ‘इन्द्रदैवत्य’ यज्ञ कराने लगे। हे राजन्! अब आश्चर्य की बात सुनो। जब यज्ञ हो रहा था, तभी एक रात में राजा युवनाश्व प्यास से आकुल हो यज्ञशाला में गया। उस समय यज्ञ कराने वाले सभी सो रहे थे। प्यास की तीव्रता में राजा ने उठाकर वह जल पी लिया जो जल, राजा की पत्नी के पीने के लिए रक्खा गया था। जब ऋषि गण जागे तो देखा कि कलश में जल नहीं है। विस्मित हो पूछा—यह कर्म किसका है? किसने पुत्र उत्पन्न करने वाला जल पी लिया? जब ज्ञात हुआ कि ईश्वर प्रेरित हो राजा ने ही वह जल पी लिया है, तब सभी भगवान् को प्रणाम करते हुए कहने लगे कि—
भाग्य बड़ा बली है पुरुष का बल उसके सामने तुच्छ है—
ततःकाल उपावृते कुक्षिं निर्भिद्य दक्षिणम् ।
युवनाश्वस्य तनयश्चक्रवर्तीजजान ह ।।30
—भा., न. स्क. प्र. अ.
अर्थ—समय पूरा होने पर युवनाश्व की दक्षिण कुक्षि फाड़कर चक्रवर्ती के लक्षणों से युक्त पुत्र (मान्धाता) उत्पन्न हुआ।
कौशल देश के देवदत्त नामक ब्राह्मण ने तमसा नदी के किनारे बड़े−बड़े ऋषियों को एकत्रित कर पुत्रेष्टि यज्ञ को विधि पूर्वक सम्पन्न किया। यज्ञ पूर्ण होने पर उसे पुत्र की प्राप्ति हुई।
पराशर मुनि कहते हैं—
यतोऽस्य वितथे पुत्र जन्मनि पुत्रार्थिनी मरुत्सोमयाजिनो दीर्घ तपसः पाष्पष्यं पास्तदा बृहस्पति वीर्यादुतथ्यपत्न्या ममतायां समुत्पन्नो भरद्वाजख्यः मरुद्भिर्दत्तः ।।16
—विष्णु पुराण, च. अ. अ. 19
अर्थ—पुत्र जन्म के विफल हो जाने से भारत ने पुत्र की कामना से मरुत्सोम नामक यज्ञ किया। उन यज्ञ के अन्त में मरुद्गण ने उन्हें भरद्वाज नामक पुत्र दिया, जिसकी उत्पत्ति बृहस्पति के वीर्य और ममता के गर्भ से हुई थी।
सर्व समर्थ भगवान भी ऐसा कराके यज्ञ का निश्चित महत्ता का संस्थापन ही करते हैं।
जिनकी सन्तान स्वर्गवासी हो चुकी है, पर जिन्हें अपने स्वर्गीय बालकों से अधिक मोह है, वे यज्ञ के प्रभाव से अपनी सन्तान का स्वप्न आदि में दर्शन और सम्भाषण का अवसर प्राप्त कर सकते हैं तथा अपनी या परिवार की किसी अन्य स्त्री की कुक्षि से उस बालक की आत्मा को पुनः अवतरित कर सकते हैं।
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