gytri yagya vidhan part 2

यज्ञ से आत्म-शान्ति

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महाभारत की लड़ाई के उपरान्त युधिष्ठिर शोकाकुल थे। धृतराष्ट्र के समझाने के उपरान्त श्रीकृष्ण भगवान उनसे कहते हैं—
एवमुक्तस्‍तु राज्ञा धृतराष्ट्रेण धीमता । तूष्णीं बभूव मेधावी तमुवाचाथ केशव ।।1
अतीव मनसा शोकः क्रियमाणो जनाधिप । सन्तापयति चैतस्य पूर्व प्रतान्विता महान् ।।2
यजस्व विविधैर्यज्ञैः बहुभिः स्वाप्तदक्षिणैः । देवांस्तर्पय सोमेन स्वधया च पितरानपि ।।3
—महाभारत, अश्वमेधिक पर्व, दूसरा अ. अर्थ—धृतराष्ट्र के समझाने पर जब मेधावी युधिष्ठिर चुप हो गये तो भगवान् कृष्ण ने कहा—मन ही मन दुःख करने से मृत पूर्वजों को अनुताप होता है, अतः शोक का परित्याग कर आप पूरी दक्षिणा दे विविध महायज्ञों को करके सोमपान द्वारा देवों को एवं स्वधा द्वारा पितरों को तृप्त कीजिए। यह कहने के उपरान्त युधिष्ठिर जी पूछते हैं— मैं पितामह कर्ण आदि को मारकर अशान्त हूं अतः— कर्मंमा तद्विधत्स्वेह येन शुध्यति मे मनः । तमेवं वादिनं पार्थ व्यासः प्रोवाच धर्मवित् ।। —महाभारत, आश्वमे. दूसरा अ. अर्थ—हे भगवान! जिन कर्मों के द्वारा मैं इन सब पापों से छूट जाऊं, मेरा मन पवित्र हो जाय, वह विधान बतलाइये। यह प्रश्न सुनकर श्री व्यास भगवान उनसे श्रेष्ठ वचन कहने लगे— आत्मानं मन्यसे चाथ पाप कर्माणमन्ततः । शृणु तत्र यथा पापमयकृष्येत भारत ।।3 तपोभिः क्रतुभिश्चैव नानेन च युधिष्ठिर । तरन्ति नित्यं पुरुषः ये स्मपापानि कुर्वते ।।4 यज्ञेन तपसा चैव दानेन च नराधिपः । पूयन्ते नरशार्दूल नराः दुष्कृत कारिणः ।।5 —महाभारत, अश्च. तीसरा अ. अर्थ—हे भारत! यदि तुम अपने को निश्चित रूप से पापी मानते हो तो जिस प्रकार पाप से छूट सकते हो, उसका साधन सुनो।3। हे युधिष्ठिर! तप, यज्ञ और दान के द्वारा सदा ही मनुष्यगण पापों से छूट जाया करते हैं।।4।। हे नराधिप! यज्ञ, दान और तप से दुष्कर्म करने वाले व्यक्तियों की (पाप से) शुद्धि होती है।।5।। व्यास जी युधिष्ठिर को पाप से मुक्त होने के साधन के तौर पर यज्ञादि का निर्देश कर रहे हैं।
असुराश्च सुराश्चैव पुण्यहेतौर्मखे क्रियाम् । प्रयतन्ते महात्मानस्तस्माद्यज्ञाः परायणम् ।।6
यज्ञैरैव महात्मानो बभूवुरधिकाः सुरा । ततो देवाः क्रियावन्तो दानवानभ्यधर्षयन् ।।7
राजसूयाश्वमेधौ च सर्वमेधं च भारत । नरमेध च नृपते त्वामाहर युधिष्ठिरः ।।8
—महाभारत, आश्व. तीसरा अध्याय अर्थ—असुर और देवता, दोनों ही पापों के विनाश एवं पुण्य संचय के लिए समधिक यज्ञानुष्ठान ही करते हैं, इसी से यज्ञ श्रेष्ठ माना गया है। देवता लोग यज्ञों के द्वारा ही असुरों से अधिक प्रभावशाली बने। यज्ञानुष्ठान में अधिक क्रियावान होने से ही देवों ने असुरों को पराजित कर पाया। अतः हे युधिष्ठिर! तुम भी राजसूय, अश्वमेध, सर्वमेध, नरमेध आदि यज्ञों का अनुष्ठान करो। राजा जन्मेजय वैशम्पायन जी से कह रहे हैं—
जन्मेजय उवाच— यज्ञे सक्तानृपतयस्तपः सक्ता महर्षयः शान्तिव्यवस्थिताः विप्राः शमे दम इति प्रभो ।।1
तस्मात् यज्ञफलस्तुल्यं न किञ्चिदिह दृश्यते । इति मे वर्तते बुद्धिस्तदा चैतदशंसयम् ।।
यज्ञैरिष्ट्वा तु बहवो राजानो द्विजसत्तमाः । इह कीर्त्ति परां प्राप्य र्स्वगमवाप्नुयुः ।।3
देवराजः सहस्राक्षः ऋतुभिर्भूरि दक्षिणैः । देवराज्यं महातेजाः प्राप्तवातखिलं विभुः ।।4
—महाभारत, आश्वमेधिक पर्व 91 वां
अ. अर्थ—राजा जन्मेजय ने कहा—हे ब्रह्मन्! जब राजा लोग यज्ञ, महर्षिगण तप और विप्रगण शम, दम एवं शान्ति करने में समर्थ हैं, तब मेरी बुद्धि में ऐसा निश्चय होता है कि इस विश्व में यज्ञ-फल से श्रेष्ठ और कुछ भी नहीं है।।1-2।। हे द्विजसत्तम! अनेक राजाओं ने यज्ञ के द्वारा ही इस लोक में परम यश एवं मरणोपरान्त स्वर्ग की प्राप्ति की है ।।3।। महातेजस्वी देवराज इन्द्र ने भी दक्षिणायुत अनेक यज्ञ करके ही सम्पूर्ण देव लोक के राज्य की प्राप्ति की है। स्वर्गापवर्गो मनुष्याः प्राप्नुवन्ति नरामुने । यञ्चाभिस्तचितमभीप्सित स्थानं तद्यान्ति मनजाद्विजः ।।9 —श्री वि. पु. प्र. अंश अध्याय ।।6 अर्थ—यज्ञ के द्वारा मनुष्य इस मनुष्य शरीर से ही स्वर्ग और अपवर्ग प्राप्त कर सकते हैं तथा और भी जिस स्थान की उन्हें इच्छा हो उसको जा सकते हैं। अहन्यहन्यनुष्ठानं यज्ञानां मुनिसत्तम । उपकारकर पुंसां क्रियमाणाध शान्तिदम् ।।8
—श्री वि. पु. अंश अध्याय 6 अर्थ—नित्य-प्रति किये जाने वाला यज्ञानुष्ठान मनुष्यों का परम उपकारक और उनके किये हुए पापों को शान्त करने वाला है।
तामिस्रमन्धतामिस्रं महारौरवरौरवौ । असिपत्रवनं घोरं कालसूत्रमवीचिकम् ।।41
विनिन्दकातां वेदस्य यज्ञव्याघातकारिणाम्। स्थानमेतत्समाख्यातं स्वधर्मत्यागिनश्च ये ।।42
—श्री वि. पु. प्र.
अंश अ. 6 अर्थ—तामिस्र, अन्धतामिस्र, महारौरव, रौरव, असिपत्रवन, घोर कालसूत्र और अवीचिक आदि जो नरक हैं, वे वेदों की निन्दा और यज्ञों का उच्छेद करने वाले तथा स्वधर्म विमुख पुरुषों के स्थान कहे गये हैं। वेद यज्ञमंत्रं रूपमाश्रित्यजगतः स्थितौ । —पद्म पुराण 1-30 जगत की संरक्षा के लिए वेद भगवान को यज्ञरूप धारण करना पड़ा और वेद भगवान यज्ञमय हुए। विष्णुधर्मोत्तर पुराण की कथा है कि इन्द्र वृत्रासुर के मारने से लगी हुई ब्रह्म-हत्या के भय से भयभीत हुआ जब विषतन्तु में छिप गया तो इन्द्रलोक में अराजकता से दुखी देवताओं ने प्रभु त्रैलोकनाथ की प्रार्थना की, तब भगवान ने कहा—
यजतां सोऽश्वमेधेन मामेवसुरसत्तमाः । अहमेव कारिष्यामि विपाप्मान विडौजसम् ।।
तत्कृता ब्रह्महत्यां तु चतुर्वा स करिष्यति । अहमंशेन याष्यामि भूतलं सुरकारणम् ।।
नष्टे च भूयले धर्म स्थापयिष्याम्यहं पुनः । एतत्सर्व यथोदिष्टं देव देवेन शार्ङ्गिणा । चक्रुः सुरगणाः सर्वे राज्यं चावाप वृत्रहा ।।
—वि. धर्मोत्तर पु .अ. 24 श्लोक. 25, 26, 29, 30
अर्थ—हे सुरश्रेष्ठ देवताओं! वह इन्द्र मुझको ही यज्ञ द्वारा यजन करे, मैं ही इन्द्र को ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त करूंगा। उस अश्वमेध यज्ञ के करने से इन्द्र ब्रह्महत्या को चार जगह बांट देगा। मैं अंशों सहित देवताओं के कारण पृथ्वी पर जाऊंगा, और धर्म के नष्ट हो जाने पर मैं फिर धर्म की स्थापना करूंगा। देवाधिदेव शार्ङ्गपाणि भगवान ने ये सब वृत्तान्त जैसा कहा, वैसा देवताओं ने किया और इन्द्र ने ब्रह्महत्या के पाप से छुटकारा प्राप्त किया। श्री नारदजी उग्रसेन से यज्ञ का महत्व कह रहे हैं—
द्विजहा विश्वहागोघ्नो वाजिमेधेन शुध्यति । तस्मादूरञ्च यज्ञानां हयमेधं वदन्ति हि ।16
निष्कारणं नृपश्रेष्ठ वाजिमेधं करोति यः । ब्रजेत्सुपर्णकेतोः स सदनं सिद्ध दुर्लभम् ।।17
—गर्ग. सं. अ. ख. 10 अ.7
अर्थ—द्विज हत्यारा, विश्व-वधकर्त्ता एवं गौओं को मारने वाला भी अश्वमेध यज्ञ करने से परिशुद्ध हो जाता है। हे नृपश्रेष्ठ! वह यज्ञ निष्कामभाव से जो करते हैं, वे गरुड़ध्वज विष्णु भगवान का लोक प्राप्त करते हैं, जो सिद्धों के लिए भी दुर्लभ है। तस्माद् आप्यनुभावेन स्वेनैवावाप्रराधसे । धर्म एव मतिं दत्त्वाभिवशास्ते दिवं ययु ।।57 —भागवत चौथा स्कन्ध अष्टम अध्याय अर्थ—दक्ष को निज यज्ञादि कर्मों के प्रभाव से स्वतः सब सिद्धियां प्राप्त हो गयी थीं, फिर भी भगवान का यज्ञ समाप्त होने पर ‘‘धर्म में तुम्हारी बुद्धि लगी रहे’’ यह वरदान देकर पुनः अपने लोक को चले गये। जब परशुरामजी ने भूमि को क्षत्रीय विहीन कर दिया, तो पाप से मुक्ति के लिए यज्ञ सम्पादित किया गया— अश्वमेध महायज्ञः चकार विभिवद्द्विजः । प्रददौ विप्रमुख्येभ्यः सप्तद्वीपवती महीम् ।। —पा. पु., उ. ख. स. अ. 242।78 अर्थ—ब्राह्मण ने महायज्ञ अश्वमेध किया और मुख्य 2 विप्रों के लिए सप्तद्वीप वाली पृथ्वी का दान किया। *** यज्ञ का स्वास्थ्य पर प्रभाव ******* अथर्ववेद 1।2।31, 32,4, 37, 5।23, 29 में अनेक प्रकार के रोगोत्पादक कृमियों का वर्णन आता है। वहां इन्हें यातुधान, क्रव्यात, पिशाच, रक्षः आदि नामों से स्मरण किया गया है। ये श्वांसवायु, भोजन, जल आदि द्वारा मनुष्य के शरीर में प्रविष्ट होकर या मनुष्य को काटकर उसके शरीर में रोग उत्पन्न करके उसे यातना पहुंचाते हैं, अतः ये ‘यातुधान’ हैं। शरीर के मांस को खा जाने के कारण ये ‘क्रव्यात्’ या ‘पिशाच’ कहलाते हैं। इनसे मनुष्य को अपनी रक्षा करना आवश्यक होता है, इसलिये ये ‘रक्षः’ या राक्षस हैं। यज्ञ द्वारा अग्नि में कृमि-विनाशक औषधियों की आहुति देकर इन रोग-कृमियों को विनष्ट कर रोगों से बचाया जा सकता है। अथर्व 1।8 में कहा गया है— इदं हविर्यातुधानान् नदी येनामिवावहत् । य इदं स्त्री पुतानकः इह स स्तुवतां जनः ।।1 यजैषामग्ने जनिमानि वेत्थ गुहा सतामन्त्रिणां जातवेदः । तांस्त्वं ब्राह्मणा वावधानो जह्येषां शतमहमग्ने ।।4 ‘‘अग्नि में डाली हुई यह हवि रोग-कृमियों को उसी प्रकार दूर बहा ले जाती है, जिस प्रकार नदी पानी के झागों को। जो कोई स्त्री या पुरुष इस यज्ञ को करे उसे चाहिए कि वह हवि डालने के साथ मन्त्रोच्चारण द्वारा अग्नि का स्तवन भी करे। हे प्रकाश अग्ने! गुप्त से गुप्त स्थानों में छिपे बैठे हुए भक्षक रोग-कृमियों के जन्मों को तू जानता है। वेदमन्त्रों के साथ बढ़ता हुआ तू उन रोग-कृमियों को सैकड़ों बन्धों का पात्र बना।’’ इस वर्णन से स्पष्ट है कि मकान के अन्धकार पूर्ण कोनों में, सन्दूक पीपे आदि सामान के पीछे, दीवार की दरारों में एवं गुप्त से गुप्त स्थानों में जो रोग कृमि छिपे बैठे रहते हैं, वे कृमि हर औषधियों के यज्ञीय धूम्र से विनष्ट हो जाते हैं। अथर्व—5।29 में इस विषय पर और भी अच्छा प्रकाश पड़ता है। अक्ष्यौ निविध्य हृदयं निविध्य जिह्वां निछिन्द्धि प्रदशाता मृणीही । पिशाचो अस्य यतमो जधास— अग्ने यविष्ठ प्रयि तं शृणीही ।।4 ‘‘हे यज्ञाग्ने! जिस मांस भक्षक रोग कृमि ने इस मनुष्य को अपना ग्रास बनाया है, उसे विशिष्ट करदे। उसकी आंखें फोड़ दे, हृदय चीर दे, जीभ काट दे।’’ आमे सुपक्वे शबले विपक्क्वे, या मा पिशाचो अशने ददम्भ । तदात्मना प्रजया पिशाचा, वियातयन्तामगदो ऽ यमस्तु ।। क्षीरे मा मन्थे यतमो ददम्भ- अकृष्टपच्चे अशने धान्ये यः- अपां मा पाने यतमो ददम्भः कृव्याद् यातूनां शयने शयानम् ।। दिवा मा नक्तं यतमो ददम्भ- क्रव्याद् यातूनां शयने शयानम् । तदात्मना प्रजया पिशाचा, वियातयन्तामगदाऽयमस्तु ।। ‘‘कच्चे, पक्के, अधपके या तले हुए भोजन में प्रविष्ट होकर जिन मांस भक्षक रोग-कृमियों ने इस मनुष्य को हानि पहुंचाई है, वे सब रोग-कृमि, हे यज्ञाग्नि! तेरे द्वारा सन्तति सहित विनष्ट हो जायें, जिससे कि यह निरोग हो। दूध में, मठे में, बिना खेती के पैदा हुए जंगली धान्य में, कृषिजन्य धान्य में, पानी में, बिस्तर पर सोते हुए, दिन में या रात में जिन रोग-कृमियों ने इसे हानि पहुंचाई है, वे सब, हे यज्ञाग्ने! तेरे द्वारा सन्तति सहित विनष्ट हो जायें, जिससे कि यह हमारा साथी निरोग हो।’’ न तं यक्ष्मा अरुन्धते नन शपथो अश्नुते । य भेषजस्य गुग्गुलोः सुरभिगन्धो अश्नुते ।। अर्थात् ‘‘जिस मनुष्य को गूगल औषधि की उत्तम गन्ध की प्राप्ति होती है, उसे रोग पीड़ित नहीं करते और अभिशाप या आक्रोश उसे नहीं घेरता।’’ यज्ञ द्वारा रोग निवारण शास्त्रकारों की कोरी कल्पना या उड़ान मात्र नहीं है। प्राचीनकाल में रोग फैलने के समय में बड़े-बड़े यज्ञ किये जाते थे और जनता उनसे आरोग्य लाभ करती थी। उन्हें भैषज्य-यज्ञ कहते थे। गोपथ ब्राह्मण में लिखा है— भैषज्ययज्ञाः वा एते यच्चातुर्मास्यानि । तस्माद् ऋतुसन्धिषु प्रयुज्यत्ते । ऋतुसन्धिषु वै र्व्याधिर्जायते । —गो. ब्रा.। उ. 1।19 ‘‘जो चातुर्मास्य यज्ञ हैं वे भैषज्य यज्ञ कहलाते हैं, क्योंकि वे रोगों को दूर करने के लिए होते हैं। ये ऋतु-सन्धियों में किये जाते हैं, क्योंकि ऋतु-सन्धियों में ही रोग फैलते हैं।’’ पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने रोग-कीटाणुओं के नाश करने के लिए दो पदार्थ खोज निकाले हैं—(1) एन्टी सेप्टिक (विष विरोधी) और (2) डिस इन्फैक्टैन्स (छूत के प्रभाव को रोकने वाले) प्रथम श्रेणी के पदार्थ रोग-कीटाणुओं से मनुष्य की रक्षा करते हैं, मारते नहीं। इस श्रेणी में फिनायल, क्रियोजोट, हाइड्रोजन पर ऑक्साइड आदि की गणना की जाती है। दूसरी श्रेणी के पदार्थ रोगाणुओं को सीधे मार देते हैं। कुछ पदार्थों में दोनों गुण उसकी सघनता और विरलता की स्थिति के अनुसार पाये जाते हैं। पर इन तत्वों का सही प्रयोग एक कुशल वैज्ञानिक ही कर सकने के कारण लोग लाभ स्थान पर हानि ही उठा सकते हैं और यह हानि तीव्र घातक होती है। हवन-गैस इस दोष से रहित है। कदाचित कुछ विषैला अंश रहे भी तो घृत का वाष्पीय प्रभाव उसे नष्ट करके लाभकारी बना देता है। इसमें स्थिति क्रियाजोट, एल्डीहाइड, फिनायल और दूसरे उड्डयनशील सुरभित पदार्थ वैसा ही लाभ देते हैं। जिससे सभी निर्विघ्न रूप से लाभ उठा सकते हैं। वायु शुद्धि के अतिरिक्त हवन-गैस से स्थान, जल आदि अनेक तत्वों की शुद्धि भी हो जाती है, जिससे पर्जन्य के द्वारा अन्न और औषधियां भी निर्मल और परिपुष्ट हो जाती हैं। इससे मानव-शरीर, रोगाणु निरोधक और अणुओं से भरपूर हो जाता है। फिर उस पर रोगों का आक्रमण हो जाय और कदाचित् सफल भी हो जाय तो उसके शरीर में स्थित शक्तिशाली रोग विध्वंसक अणु उसे अधिक समय तक जीवित रहने नहीं देते। उसका शीघ्र ही विनाश कर देता है। खरगोशों और चूहों पर ये परीक्षण करके हवन-गैस की रोग-निरोधक और रोग-विनाशक शक्तियां सिद्ध करली गयी हैं। परीक्षण के लिये रोग-कीटाणुओं का घोल तैयार किया गया है। उसे सबल-स्वस्थ जानवरों के देह में प्रवेश कराने से वह उस रोग से आक्रान्त हो जाता है। उसी के या दूसरे स्वस्थ जानवरों के शरीर में जब उस घोल में हवन-गैस मिश्रित कर प्रवेश कराया जाता है, तब वह रोगी नहीं होता। बारम्बार यह प्रयोग सफल सिद्ध हुआ है। कृषि में भी हवन-गैस की लाभदायकता सिद्ध हो चुकी है। मिट्टी में दो तरह के कीटाणु होते हैं—एक तो उर्वरा शक्ति बढ़ाने वाले तथा दूसरे उसे नष्ट करने वाले। पाश्चात्य विज्ञान ने उर्वरा शक्ति नष्ट करने वाले कीटाणुओं को नष्ट करने के लिए जो घातक द्रव्य तैयार किया है उसे मिट्टी में मिला देने से उर्वरा शक्ति विनाशक कीटाणु नष्ट हो जाते हैं, जिससे पोषक कीटाणुओं की प्रवृद्धि होकर उसकी उर्वरा शक्ति बढ़ जाती है। पर उनमें दोष यह है कि उसे शीघ्र ही मिट्टी से अलग नहीं करने पर वह उर्वरा शक्ति वर्धक कीटाणुओं का विनाश कर डालती है। हवन गैस को कुछ समय तक मिट्टी पर डालकर देखा गया है कि इससे उसकी उर्वरा शक्ति बहुत बढ़ जाती है और पोषक अणुओं को बढ़ाने वाले आवश्यक तत्व उसमें भर जाते हैं। इसी तत्वों के कारण यज्ञीय-गैसों से पूरित पर्जन्य और बादल अन्न और औषधियों को निर्मलता और पुष्टि प्रदान करते हैं। बादलों को सात्विक गुणों वाले एवं निर्मल पुष्ट बनाने में यज्ञ-धूम्र के अणुओं का उसमें प्रविष्ट करना सर्वश्रेष्ठ है। इसलिए जिस देश में अधिक अग्निहोत्र और यज्ञ कर्म होते हैं, वहां की वृष्टि सत्वगुणों से भरी होने के कारण अन्न और औषधियों में भी वे गुण ओत-प्रोत हो जाते हैं। अन्न का सूक्ष्म अंश ही मन की पुष्टि करता है अतः यज्ञीय देशों के निवासियों का मन भी सात्विक निर्मलता से अनुप्राणित होता रहता है। वहां के निवासियों के जीवन और गति में सात्विक तत्व संचारित होता है। आज सारे संसार में ही अग्निहोत्र करने की विशेष आवश्यकता है। गत महायुद्ध में भिन्न-भिन्न विषैली गैसों के कारण आकाश, वायु, बादल आदि सभी में वह विष भर रहा है। इसी से सर्वत्र विषैली राजसी-तामसी भावनाओं ने ही अन्न, वनस्पति, सभी प्राणी और मनुष्यों में अपना आधिपत्य जमा रखा है। फलतः सर्वत्र रोग, पीड़ा, अशान्ति और संघर्ष फैला हुआ है। इसके निवारण का एक ही हल है। वह है, सभी देशों और स्थानों में शास्त्रीय विधि से किया गया विभिन्न अग्निहोत्र। अग्निहोत्र से जो वायु-मण्डल में घी और हवन सामग्रियों के धुंए के अणु फैलते हैं, उसमें नेगेटिव चार्ज के विद्युत प्रवेश कर जाते हैं। यह आज के भौतिक विज्ञान द्वारा प्रयोग सिद्ध हो चुका है कि यह नेगेटिव चार्ज के विद्युत अणु वायु मण्डल में से नमी को खींच लेते हैं और धीरे धीरे इसके आस-पास बादल के खण्ड बन जाते हैं। ये बादल यज्ञीय धूम्र अणुओं से ओत-प्रोत रहते हैं। इसका विषैला अंश विनष्ट हो जाता है। ऐसी वृष्टि से भी केवल मनुष्य में ही नहीं प्राणी मात्र, वनस्पति और मिट्टी में भी सात्विक भावों का संचार हो जाता है। जिस क्षय चिकित्सा में आधुनिक विज्ञान इतनी विवशता प्रकट करता है उसी की चिकित्सा का वेद भगवान कितने आशापूर्ण शब्दों में आदेश देता हैं, यह आगे पढ़ें— 1—मुञ्चामि त्वा हविषा जीवनाय कर्मज्ञात मक्ष्मादुत् राजयक्ष्मात् । ग्राहिर्जग्राह यद्येतदेन तस्या इन्द्राग्नि प्रभुमुक्तमेनम् ।। —अथर्व का. 3 सू. 10 म. 1।। अर्थ—हे व्याधिग्रस्त! तुमको सुख के साथ चिरकाल तक जीने के लिए गुप्त यक्ष्मा रोग ओर सम्पूर्ण प्रकट राज यक्ष्मा रोग से आहुति द्वारा छुड़ाता हूं। जो इस समय में इस प्राणी को पीड़ा ने या पुराने रोग ने ग्रहण किया है, उससे वायु तथा अग्नि देवता इसको अवश्य छुड़ावे। इससे अगला मंत्र इस प्रकार है— यदि यदि क्षितायुयदि वा परे तो यदि सृत्योरन्तिकं नीत एवं । तमा हरामि निऋतेरुपस्थादस्पार्शमेनंशतशारदाय ।। —अथर्व का. 3 सूक्त 11 मन्त्र 2।। अर्थ—यदि रोग के कारण न्यून आयु वाला हो, अथवा इस संसार के सुखों से दूर हो, चाहे मृत्यु के निकट आ चुका हो, ऐसे रोगी को भी महारोग के पाश से छुड़ाता हूं। इस रोगी को सौ शरद ऋतुओं तक जीने के लिए प्रबल किया है। और देखिये— विसवैते जायान्य जानं यतो जायान्य जायसे । कथह तत्र त्व हनो यस्य कृणमो हविर्गृहे ।। —अथर्व का. 7 वर्ग 76 मं. 5 ।। —अर्थ—हे छय रोग! तेरे उत्पन्न होने के विषय में हम निश्चय से जानते हैं कि तू जहां से उत्पन्न होता है वहां किस प्रकार हानि कर सकता है? जिसके घर में हम विद्वान नाना औषधियों से या रोग नाशक हवि, या चरु को बनाकर उससे अग्नि-होत्र करते हैं अर्थात् रोग-नाशक हवि, चरु या अन्य द्वारा क्षय-रोग को निकाल देते हैं, वहां से सब प्रकार से क्षय-रोग दूर हो जाता है। तर्क और वैज्ञानिक परीक्षणों से यह वेद वाक्य कैसे पूर्णतया सत्य सिद्ध होते हैं, यह आगे बताया जाता है— 1—सब विद्वान जानते हैं कि स्थूल की अपेक्षा सूक्ष्म अधिक शक्तिशाली होता है तथा सूक्ष्म स्थूल में प्रवेश कर सकता है। आटे में मिले हुए बूरे के सूक्ष्म परिमाणु पृथक् करने को मनुष्य की स्थूल उंगलियां असमर्थ हैं पर चींटी का सूक्ष्म मुंह उसे सुगमता से पृथक् कर सकता है। सोने का एक छोटा टुकड़ा मनुष्य खाले तो उस पर कोई प्रभाव न होगा पर उसी टुकड़े को सूक्ष्म करके वर्क बनाकर खावें तो प्रथम दिन से ही उसकी गर्मी अनुभव होगी और कुछ समय में चेहरे पर लाली और शरीर में शक्ति आ जावेगी। होम्योपैथिक चिकित्सा विधि से इसी नियम के आधार पर औषधियों की प्रोटेन्सी तैयार की जाती है और औषधि का भाग जितना सूक्ष्म होता जाता है उतनी ही उसकी शक्ति बढ़ती जाती है, यहां तक कि जो औषधि स्थूल रूप में दिन में बार-बार खाने से साधारण रोग दूर कर सकती है, वही औषधि बहुत सूक्ष्म रूप में केवल एक मात्रा खाने से बड़े-बड़े रोगों को दूर कर देती है। इस नियम पर दृष्टि रखते हुए विचार कीजिए कि क्षय कीटाणु, की लम्बाई 1।15000 इंच और चौड़ाई 1।15000 इंच होती है। इतनी सूक्ष्म कीटाणुओं पर बड़े कण वाली औषधियों की पहुंच जब न हुई तब वैज्ञानिकों ने उनका सूक्ष्म रूप करने को इन्जेक्शन की प्रथा चलाई, पर यह सब जानते हैं कि अग्नि से अधिक पदार्थों को सूक्ष्म और कोई ढंग नहीं कर सकता। हम नित्य ही देखते हैं कि एक लाल मिर्च को जिसे स्थूल रूप में एक आदमी सुगमता से खा सकता है, यदि खरल में घोटने लगें तो पास बैठे अनेकों लोगों को खांसी आने लगेगी। अब यदि उसी मिर्च को आग में डाल दें तो उसकी धांस का प्रभाव दूर-दूर तक बैठे मनुष्यों पर हो जावेगा। इसी प्रकार हवन यज्ञ में डाली औषधियों के परमाणु बहुत बारीक होकर श्वांस द्वारा सीधे फेफड़ों में जाकर रोग-कृमियों को मारते और क्षतों को भरते हैं और रोम-छिद्रों द्वारा सीधे रक्त में प्रवेश करके रक्त को शुद्ध कर देंगे। इसके वैज्ञानिक परीक्षण किये गये तो ज्ञात हुआ कि लौंग, जायफल इत्यादि जलाने पर गैस में तेलों के परमाणु 1।10000 से 1।100000000 तक सेन्टीमीटर व्यास वाले पाये गये। अतः रोग-कृमि से अधिक सूक्ष्म होने के कारण सुगमता से उनके भीतर प्रवेश कर सकते हैं और अपने वैज्ञानिक गुण के कारण उनको मार सकते हैं। 2—यह पदार्थ विद्या से सिद्ध हो चुका है कि किसी पदार्थ का नाश नहीं होता केवल रूप बदल जाता है। अतः अग्नि में हवि जलाने से उसके परमाणु भी सूक्ष्म हो जाते हैं, उनका नाश नहीं होता। गूगल, घी, कपूर इत्यादि क्षत भरने वाले है। स्थूल रूप में हम उनसे फेफड़ों के क्षत भरने का कार्य नहीं ले सकते पर अग्नि में जलाकर उनके सूक्ष्म परमाणु सुगमता और सरलता से फेफड़ों में पहुंचा सकते हैं। 3—यजुर्वेद के 40 वें अध्याय के प्रथम मन्त्र में संसार को ‘जगत्यां जगत्’ बताकर इस सिद्धान्त का ज्ञान प्रभु ने कराया है कि जगत् का प्रत्येक परमाणु गतिशील है। आज के वैज्ञानिक भी परीक्षण के पश्चात् इस सिद्धान्त को सत्य स्वीकार करते हैं और साथ ही यह भी बताते हैं कि यह गति ऊट-पटांग नहीं, किंतु किसी नियम में बंधी हुई है। प्रत्येक परमाणु की गति एक सी नहीं होती। किन्तु कई की गति एक समान होती है और कई की एक दूसरे के विपरीत। दो समान वस्तुयें एक दूसरे को अपनी ओर खींचती हैं और दो विरुद्ध वस्तुयें एक दूसरे को भगाती हैं, अतः जिन दो वस्तुओं के परमाणु एक-सी गति करते हैं उनमें परस्पर आकर्षण होता है और विरुद्ध गति वाले परस्पर एक दूसरे को भगाते हैं। इस नियम के आधार पर जो लोग शरीर में सड़न उत्पन्न करने वाले पदार्थ, मांस, तम्बाकू इत्यादि प्रयोग करते हैं उनके निकट जब क्षय कीटाणु पहुंचते हैं तो समानता के कारण उनका शरीर अपनी ओर उन्हें खींच लेता है। पर जो लोग गूगल, लौंग, घी इत्यादि क्षयनाशक पदार्थों से हवन यज्ञ करके उनके सूक्ष्म परमाणु अपने शरीर में रखते हैं तो क्षय-कीटाणु उनके निकट आते हैं तब विरुद्ध गति होने के कारण वह दूर भाग जाते हैं। इसी कारण नित्यप्रति नियमपूर्वक यज्ञ करने वाले को कभी क्षय रोग नहीं हो सकता। 4—क्षय के सब विशेषज्ञ डॉक्टर इस बात को स्वीकार करते हैं की क्षयरोगी को अधिक मात्रा में ओक्सीजनयुक्त वायु की आवश्यकता होती है। इसी कारण असाध्य रोगी को भी पहाड़ पर जाने की सम्मति दी जाती है और बहुत असाध्य दीखने वाले रोगी भी इस प्राकृतिक ढंग से अच्छे भी हो जाते हैं क्योंकि ऑक्सीजन फेफड़ों के ओर आंतों के क्षतों को शीघ्र सुखाने की शक्ति रखता है। साथ ही ऑक्सीजन की रगड़ से शरीर में अग्नि उत्पन्न होकर पाचन शक्ति को बढ़ाती है, जो क्षयरोगी में न्यून हो जाती है। इस ऑक्सीजन का एक और सूक्ष्म भाग ओजोन होता है, जो बहुत धीमी सुगन्ध से शरीर में प्राण-शक्ति का संचार करता है। जिस पहाड़ पर चीड़ के वृक्ष अधिक होते हैं उस पर ओजोन का यह भाग अधिक पाया जाता है। वैज्ञानिक ढंग से परीक्षण करके देख लिया गया है कि हवन-गैस में ओजोन का यह भाग बड़ी मात्रा में पाया जाता है। संसार के समस्त वैज्ञानिकों के पास कोई ऐसी औषधि नहीं है कि जो क्षय रोगी को पौष्टिक पदार्थ अधिक मात्रा में पचा दे, पर हवन यज्ञ में हलवा, लड्डू, खीर, मेवा घी इत्यादि सभी पदार्थ बड़ी मात्रा में जलाकर उनके सूक्ष्म परमाणु रोगी के रक्त में पहुंचा सकते हैं जो नाश न होने वाले वैज्ञानिक सिद्धान्त से शरीर में पहुंचकर उसकी प्राणशक्ति को बढ़ावेंगे और अग्नि को मन्द करने के स्थान में अपने ऑक्सीजन के गुण से और तीव्र करेंगे। अनुभव से देखा गया है कि जो रात दिन सुस्त पड़े रहकर मौत की प्रतीक्षा करते थे वही यज्ञ चिकित्सा करने पर कुछ दिनों में उत्साह और शक्ति का प्रदर्शन करने लगे। इसके पक्ष में अनेक युक्तियां दी जा सकती है पर विस्तार में न जाकर हम अब वैज्ञानिकों के कुछ परीक्षण लिखते हैं—
1—मद्रास के अंग्रेजी राज्य के सिनेटरी कमिश्नर डॉ. कर्नल किंग आर.एम.एस. ने वहां प्लेग फैलने पर कालेज के विद्यार्थियों को उपदेश दिया कि घी, चावल और केशर मिलाकर जलाने से तुम रोग से सुरक्षित रहोगे।
2—फ्रांस के विज्ञानवेत्ता प्रोफेसर टिगवर्ट साहब कहते हैं कि जलती हुई खांड (शक्कर) के धुंए में वायु शुद्ध करने की बड़ी शक्ति है। इससे हैजा, तपेदिक, चेचक, इत्यादि का विष शीघ्र नष्ट हो जाता है।
3—डॉ. टाटलिट साहब ने मुनक्का, किशमिश इत्यादि सूखे फलों को जलाकर देखा है और मालूम किया है कि इनके धुंए से टाइफ़ाइड ज्वर के कीटाणु केवल आधा घण्टे में और दूसरे रोगों के कीटाणु घण्टे-दो-घण्टे में समाप्त हो जाते हैं।
4—फ्रांस के हेफकिन साहब, जिन्होंने चेचक के टीका का आविष्कार किया है, कहते हैं कि घी जलाने से रोग-कृमि का नाश हो जाता है।
5—कविराज पं. सीताराम शास्त्री अपनी पुस्तक में लिखते हैं—‘‘मैंने कई वर्षों की चिकित्सा के अनुभव से निश्चय किया है कि जो महारोग औषधि-भक्षण करने से दूर नहीं होते, यह वेदोक्त यज्ञों द्वारा (अर्थात् यज्ञ-चिकित्सा से) दूर हो जाते हैं।
6—बरेली निवासी डा. कुन्दनलाल जी अग्निहोत्री ने लिखा है ‘‘मैं प्रथम 25 वर्ष तक खोज और परीक्षण के पश्चात् अब 26 वर्ष से क्षय-रोग की यज्ञ द्वारा चिकित्सा सैकड़ों रोगियों की कर चुका हूं। उनमें ऐसे भी रोगी थे, जिनके क्षत (केविटी) कई-कई इंच लम्बे थे और जिनको वर्षों सेनीटोरियम और पहाड़ पर रहने पर भी अन्त में डाक्टरों ने असाध्य बता दिया। पर वह यज्ञ-चिकित्सा से पूर्ण नीरोग होकर अब अपना कारबार कर रहे हैं।’’
7—6 अप्रैल सन् 1955 ई. के अंग्रेजी पत्र लीडर में ‘‘न्यूक्योर फार टी.बी. आफ लंग्स’’ शीर्षक समाचार छपा है, जिसका सारांश यह है— ‘‘बम्बई में एक अमेरिकन डॉक्टर ने यह बताया है कि वैज्ञानिक लोग कई शताब्दी से इस बात की खोज में लगे थे कि सूंघने की गैस से फेफड़े की टी.बी को अच्छा किया जाये। अब हम लोग उस खोज में सफल हो गये हैं और अमरीका में इसका परिणाम सब ही चिकित्साओं की अपेक्षा असाधारण तौर पर अच्छा रहा। गैस सूंघने से धीरे-धीरे रोगी बिलकुल अच्छा होता है। इसका अर्थ यह है कि आज अमरीका भी इस यज्ञ की साइन्स को सब चिकित्साओं से बेहतर मानने लगा है, पर अभी उसे यह पता नहीं कि सूंघने में कौन औषधि और कौन ढंग सबसे उत्तम है। इस विषय में आयुर्वेद का मत— प्रयुक्तया यथा चेष्ट्या राजयक्ष्मा पुराजितां । तां वेद विहितामिष्टामारोग्यार्थी प्रायोजयेत् ।। —चरक चि. स्थान अ. 8 श्लोक 12 ‘‘जिस यज्ञ प्रयोग से प्राचीन काल में राजयक्ष्मा रोग नष्ट किया जाता था, आरोग्य चाहने वाले मनुष्य को उसी वेद-विहित यज्ञ का अनुष्ठान करना चाहिए।’’ प्राकृतिक नियमों के साथ नित्य-प्रति नियमपूर्वक हवन करने वाला कदापि रोगी नहीं हो सकता, यह हमारा दृढ़ मत है और क्षय रोग तो उसके घर के निकट आने से घबरायेगा, क्योंकि श्रुति का आदेश है— न त यक्ष्मा अरुन्धते नैनं शपथ का अश्नुते । य मेषजस्य गुग्गुलो, सुरभिर्गन्धो अश्नुते ।। विष्यञ्चस्तस्माद् यक्ष्मा मृगाद्रश्ला द्रवेरते॥ आदि —अथर्व. का. 19 सू. 38 मं. 12 अर्थ—जिसके शरीर को रोग-नाशक गूगुल का उत्तम गन्ध व्यापता है उसको राजयक्ष्मा की रोग पीड़ा नहीं होती। दूसरे का शपथ भी नहीं लगता। उससे सब प्रकार के यक्ष्मा-रोग शीघ्रगामी हरिणों के समान कांपते हैं, डरकर भागते हैं। यज्ञ द्वारा किस रोग में, किस विधान से किस मन्त्र का उपयोग किया जाय, इसकी रहस्यमयी विद्या आज ठीक प्रकार उपलब्ध नहीं है। जब उस विद्या की जानकारी फिर से प्राप्त करली जायगी तो आज तो अनेक प्राचीन महान् विद्याओं की भांति यह विद्या भी लुप्त प्रायः है। यज्ञ चिकित्सा का पूर्ण शास्त्रोक्त विधान अज्ञात होते हुए भी कुछ साधारण प्रयोग अनुभव में ऐसे आते रहते हैं, जिनके द्वारा रोग-निवारण का कार्य साधारण दवा दारू की अपेक्षा अधिक सरलता एवं सफलतापूर्वक हो सकता है। रोगियों की शारीरिक स्थिति अलग प्रकार की होती है। जिन्हें कई साधारण मन्द रोग होते है। उन्हें चलने-फिरने, स्नान करने आदि साधारण कार्यों में कुछ कठिनाई नहीं होती। वे हवन पर स्वयं बैठ सकते हैं। जिनको चलने-फिरने स्नान करने आदि में असुविधा है उन्हें आहुति आदि स्वयं तो नहीं देनी चाहिए, पर हवन स्थान के निकट ही आराम के साथ बैठ जाना चाहिए। जो रोगी बिलकुल असमर्थ हैं उनकी रोग शैय्या के समीप ही हवन किया जा सकता है। वे रोगी हवन की ओर मुख किये हों ताकि हवन में होमी हुई आहुतियों की गन्ध उनके मुख और नासिका तक पहुंचती रहे। यदि वायु अथवा मौसम प्रतिकूल न हो तो रोगी के शरीर को जितना सम्भव हो उतना खुला रहकर भी उस यज्ञ वायु को शरीर से स्पर्श करने का प्रयत्न करना चाहिए। ऐसे हवन देवाह्वान के लिए नहीं, चिकित्सा प्रयोजन के लिए होते हैं, इसलिए उनको देव पूजन आदि की सर्वांगपूर्ण प्रक्रियायें न बन पड़ें तो चिन्ता की बात नहीं है। तांबे के हवन कुण्ड में अथवा भूमि पर 12 अंगुल चौड़ी, 12 अंगुल लम्बी, 3 अंगुल ऊंची, पीली मिट्टी या बालू की वेदी बना लेनी चाहिए। हवन करने वाले उसके आस-पास बैठें। यदि रोगी भी हवन पर बैठ सकता हो तो उसे पूर्व की ओर मुख कराके बिठाना चाहिए। शरीर शुद्धि, मार्जन, शिखाबन्धन, आचमन, प्राणायाम, न्यास आदि गायत्री मन्त्र से करके कोई ईश्वर प्रार्थना हिन्दी या संस्कृत की करनी चाहिए। वेदी और यज्ञ का जल अक्षत आदि से पूजन करके गायत्री मन्त्र के साथ हवन आरम्भ कर देना चाहिए। यदि कोई जानकार यज्ञकर्ता हो तो उन पद्धतियों में से जितना अधिक सम्भव हो विधि-विधान प्रयोग करले। यदि रोगी के निकटवर्ती लोगों को उतनी जानकारी न हो तो एक लोटे में तथा कटोरी में रखकर हवन सामग्री से आहुतियां देनी आरम्भ कर देनी चाहिए। जिन रोगों में रोगी को लंघन हो रहे हों, उन में तिल जौ तथा चावल स्वल्प मात्रा में ही डालना चाहिए। ऐसी स्थिति में जो घी हवन सामग्री में मिलाया गया है उतना ही पर्याप्त है। यदि रोगी खाता पीता है तो हवन सामग्री में मिलाकर अथवा अलग से आहुति देकर घी का समुचित उपयोग किया जाना ठीक है। कुछ औषधियां तथा सामग्री का प्रत्येक रोग में प्रयुक्त होती हैं। उनके साथ-साथ उस विशेष रोग में उपयुक्त विशेष औषधियां भी मिला लेना चाहिए। औषधियां पुरानी, सड़ी, घुनी, हीनवीर्य न हों जितनी ताजी और अच्छी हवन औषधियां होंगी उतना ही वे अधिक लाभ करेंगी। कम से कम २४ आहुतियां अवश्य देनी चाहिए। आवश्यकतानुसार पीछे भी दिन में तीन बार और रात को एक दो बार किसी पात्र में अग्नि रखकर थोड़ी-सी औषधियां थोड़ी देर के लिये रोगी के निकट धूप की भांति जलाई जा सकती हैं। सभी रोगों में प्रयोग होने वाली हवन सामग्री— अगर, तगर, देवदारु, चन्दन, रक्तचन्दन, गूगुल, जायफल, लौंग, चिरायता, असगन्ध, यह दसों चीजें समान भाग में लेनी चाहिए। इसके साथ में विशेष रोग की विशेष औषधियां भी मिला लेनी चाहिए। तैयार औषधियों का दसवां भाग शर्करा और दसवां भाग घृत मिला लेना चाहिए। विशेष रोगों की विशेष हवन सामग्री—
शीत ज्वर —
(1) पटोल पत्र,
(2) नगर मोथा
(3) कुटकी,
(4) नीम की छाल,
(5) गिलोय,
(6) कुडे की छाल,
(7) करञ्जा, (
8) नीम के पुष्प।
उष्ण ज्वर — इन्द्र जौ, पटोल पत्र, नीम की गुठली, नेत्र वाला, त्रायमाण, काला जीरा, चौलाई की जड़, बड़ी इलायची। खांसी — मुलहटी, पान, हल्दी, अनार, कटेरी, बहेड़ा, उन्नाव, अञ्जीर की छाल। दस्त — सफेद जीरा, दालचीनी, अजमोद, बेलगिरी, चित्रक, अतीस, सोंठ, चव्य। अपच — तालीसपत्र, तेजपात, पोदीना की जड़, हरड, अमल तास की छाल, नाग केशर, काला जीरा, सफेद जीरा। वमन — बाय विडंग, पीपल, पीपला मूल, ढाक के बीज, निशोथ नीबू की जड़, आम की गुठली, प्रियंगु। अर्श — नाग केशर, झाऊ बेर, धमासा, दारुहल्दी, नीम की गुठली का गूदा, मूली के बीज, जावित्री, कमल-केशर, गूलर के फूल। उष्णता की अधिकता — धनियां, कासनी, सौंप, बनफसा, गुलाब के फूल, आंवला, पोस्त के बीज। जिगर तिल्ली — राई, पीपरा मूल, पुनर्नवा, करेले की जड़, मकोय, सेमर के फूल, जामुन की छाल, अपामार्ग। चेचक — मेहदी की जड़, नीम की छाल, हल्दी, कलोंजी, जावित्री, बांस की लकड़ी, खैर की छाल, श्योनाक। जुकाम — दूब, पोस्त, कासनी, अञ्जीर, सोंफ, उन्नाव, बहेडे की गुठली का गूदा, धनियां। प्रमेह — तालमखाना, मूसली सफेद, गोखरू बड़ा, कोंच के बीज, सुपाड़ी, बबूल के बीजों का गूदा, शतावर, इलायची छोटी। प्रदर — कमल गट्टा, गूलर के फूल, अशोक की छाल, लोंग, कमल केशर, माजूफल, सुगन्ध वाला, अर्जुन की छाल। वात व्याधि — ग्वारपाठे की जड़, रास्ना, बालछड़, सहजन की छाल, मेंथी के बीज, पुनर्नवा, तेजपत्र। मन्दबुद्धि — शतावरि, ब्राह्मी, ब्रह्मदण्डी गोरखमुण्डी, शंखपुष्पी, मंडूकपर्णी, वच, माल कांगनी। विष निवारण — बन तुलसी के बीज, अपामार्ग इन्द्रायण की जड़, करंजा की गिरी, दारुहल्दी, चौलाई के पत्ते, बिनोले की गिरी, लाल चन्दन। रक्तविकार — धमासा सारवा, सारवा, कुड़े की छाल, अडूसा, सरफोंका, मजीठ, कुटकी, रास्ना। चर्मरोग — शीतल चीनी, चोपचीनी, नीम के फूल, चमेली के पत्ते, दारुहल्दी, कपूर, मेंथी के बीज, पदमाख। मस्तिष्क रोग — बेर की गुठली का गूदा, मौलसिरी की छाल पीपल की कोंपलें, इमली के बीजों का गूदा, काकजंघा, बरगद के फूल, सिरैटी गिलोय। बच्चों की अस्वस्थता — अतीस, काकड़ासिङ्गी, नागरमोथा, पीपल छोटी, धनियां, धाय के फूल, मुलहटी। गर्भ पुष्टि — सोंफ, कासनी, धनियां, गुलाब के फूल, खस, पोस्त के बीज, लाख, इन्द्र जौ। क्षय — मकोय, जीवन्ती, जटामासी, गिलोय, जावित्री, शालपर्णी, आंवला। ऊपर की पंक्तियों में कुछ किस्मों के रोगों की हवन करने योग्य औषधियों के अष्ट वर्ग लिखे हुए हैं। यह सभी प्रायः समान मात्रा में लेनी चाहिए। इनमें से कोई वस्तु न मिले तो दूसरी औषधियां अधिक मात्रा में लेकर उसकी पूर्ति की जा सकती है। कोई वस्तु अधिक महंगी हो और उतना खर्च करने की अपनी सामर्थ्य न हो तो उसे कम लेकर उसके स्थान पर दूसरी औषधियां बढ़ा देनी चाहिए। हवन के अन्त में समीप रखे हुए जल पात्र में कुश, दूर्वा या पुष्प डुबो-डुबोकर गायत्री मन्त्र पढ़ते हुए रोगी पर उस का मार्जन करे, यज्ञ की भस्म रोगी के मस्तक, हृदय, कण्ठ, पेट, नाभि तथा दोनों भुजाओं से लगावे। घृत पात्र में जो घृत बच जावे उसमें से कुछ बूंद लेकर रोगी के मस्तक तथा हृदय पर लगावे। इन सरल प्रयोगों को अनेक बार प्रयोग करके देखा गया है। साधारण औषधि चिकित्सा की अपेक्षा इसका लाभ अधिक ही रहा है। इस पद्धति को अपनाकर चिकित्सक लोग रोगियों को अधिक लाभ पहुंचा सकते हैं और रोगी भी आत्मिक तथा शारीरिक दोनों ही प्रकार के लाभों से लाभान्वित हो सकते हैं।
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