gytri yagya vidhan part 2

यज्ञ शब्द का अर्थ

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******* यह शब्द ‘यज्’ धातु से बना है जिसका अर्थ है देव शक्तियों की पूजा, संगतिकरण तथा दान। परमात्मा अपने आपको सर्वप्रथम दिव्य शक्तियों के रूप में प्रकट करता है यह शक्तियां ही संसार के नियम नियंत्रण पालन-पोषण और विकास में सहायक होती हैं। उनकी पूजा द्वारा उन्हें प्रसन्न करना उनको उपासना अर्थात् उनके समीप बैठकर उन दिव्य शक्तियों से ओत-प्रोत होना तथा अपनी प्रिय वस्तुयें उन्हें समर्पित करना जिससे कि उनकी भी शक्ति का विस्तार हो और वे विश्व के कल्याण का कार्य निरन्तर करती रहें। मनुष्य की शक्ति और उसकी पहुंच बहुत सीमित है, स्थूल रूप से वह इन दिव्य शक्तियों से सम्पर्क स्थापित नहीं कर सकता। सूर्य के पास जाकर कोई बैठना चाहे तो उसका अस्तित्व ही न रह पायेगा। अग्नि, इन्द्र, वरुण यह सभी शक्तियां हैं। शक्तियों से स्थूल सम्पर्क नहीं साधा जा सकता इसलिये तत्त्ववेत्ताओं ने उसके लिये एक विज्ञान की खोज की। वेद मन्त्रों के उच्चारण के साथ अग्नि के मुख में आहुतियां डालते हैं। शब्द शक्ति भावनाओं के साथ पदार्थ को सूक्ष्म बनाकर ऊर्ध्व लोकों तक पहुंचाती है। अग्नि को ‘‘हुत वाह’’ हुत को वहन करने वाला और देवताओं का पुरोहित कहा। मन्त्र से जिस शक्ति की प्रेरणा होती है अग्नि उस आहुति को उस देवता तक पहुंचा देता है। इस विज्ञान को अपनी सूक्ष्म दृष्टि से ऋषियों ने खोजकर मानव जाति की कठिनाई दूर करदी और किसी भी देव शक्ति से सम्पर्क स्थापित कर लाभान्वित होने का मार्ग प्रशस्त कर दिया। आहुतियों से देवता प्रसन्न होते हैं उनका आदर होता है। स्तुति होती है। यही उनकी पूजा है। प्रत्युपकार में वे अपनी शक्ति देते हैं। अग्नि का गुण है गर्मी, तेजस्विता और सक्रियता। अग्नि की उपासना का अर्थ है अपने में इन गुणों और शक्तियों का विकास। मरुत का गुण है हलकापन, सर्वगमन की शक्ति, प्राण संवर्धन। मरुतों की उपासना से प्राणों पर नियन्त्रण, दूर श्रवण, दूर दर्शन आदि की शक्ति का विकास आदि होता है। सभी देवता विभिन्न शक्तियों सामर्थ्यों वाले हैं। जब उन गुणों का अपने में प्रस्तुतीकरण होता है तो वह गुण अपने भीतर खिंचे चले आते हैं। यह शक्तियां ही सिद्धि और चमत्कार के नाम से जानी जाती हैं। वस्तुतः उसमें मनुष्य का कुछ नहीं होता, सब शक्तियां ही होती हैं जो चमत्कार के रूप में प्रकट होती हैं। यह मनुष्य को देवताओं की संगति से मिलती हैं यह यज्ञ का दूसरा चरण है। व्यक्ति के पात्रत्व, समय और परिस्थितियों के अनुरूप किसी की आवश्यकता को पूरा करना, दान देना भी यज्ञ है। दिया किस को जाये यह एक जटिल पहेली है। तथापि उसका उचित हल भी ऋषियों ने प्रस्तुत किया कि अपनी प्रिय वस्तुयें देवताओं को दी जावें चूंकि देवता किसी वस्तु का संचय नहीं करते वरन् पाई हुई वस्तु का हजारों गुना विस्तार करके लौटा देते हैं। इसलिये देवताओं को दी हुई वस्तुयें स्वतः सैकड़ों लोगों तक पहुंच जाती हैं। इसलिये सर्वप्रथम देवताओं को दिया जाये, भगवान को समर्पित किया जाये यह यज्ञ है। इन तीनों अर्थों का विचार करने से आज की परिस्थितियों में जो निष्कर्ष निकलते हैं वे इस प्रकार हैं।
(1) संसार में जो दैवी और आसुरी शक्तियां काम कर रही हैं, उनमें से देवत्व की, सतोगुण की, न्याय और धर्म पक्ष की पूजा उपासना एवं सहायता की जाय, उसी में श्रद्धा रखी जाय और अपना प्रत्येक कदम उसी दिशा में अग्रसर किया जाय। असुरता को हटाने, उससे लड़ने और उसका विरोध करने के लिये सदैव तत्पर रहना चाहिये। यदि मजबूरी के कारण बुराई की परिस्थिति में रहना पड़े, तो भी उसको मानसिक रूप से कभी स्वीकार न करना चाहिए। वरन् कम से कम उससे मानसिक घृणा तो रखनी ही चाहिए और उस परिस्थिति से छुटकारा पाने के लिए प्रभु-प्रार्थना तथा प्रयत्न भी करते रहना चाहिए। असुरता का पक्ष ग्रहण करना और उसी में तल्लीन हो जाना असुर-पूजा है। यज्ञ में श्रद्धा रखने वालों को इससे बचना चाहिए।
(2) संसार में फूट, द्वेष, विलगाव, घृणा के भाव पहले से ही बहुत ज्यादा हैं, उनको बढ़ाया न देकर ऐसा प्रयत्न करना चाहिए कि एकता, मेल, प्रेम, संगठन, सहयोग तथा पारस्परिक आत्मीयता का वातावरण बढ़े। एक दूसरे के साथ उदारता तथा सेवा सहायता का व्यवहार करें। जाति-जाति में, राष्ट्र-राष्ट्र में, प्रान्त–प्रान्त में, धर्म-धर्म में, वर्ग-वर्ग में, जो विद्वेष, छीन-झपट, आपा-धापी, फूट-फिसाद, चढ़ा-उतरी फैली हुई हैं उसे बढ़ाने का नहीं घटाने का प्रयत्न करना चाहिए और अनेकता को एकता में, मतभेद को समन्वय में परिवर्तित करना चाहिए। हिन्दू धर्म सहिष्णुता एवं अनेकता में एकता देखने का धर्म है, इसमें अनेकों संस्कृतियां, विचारधारायें, मान्यतायें, मौजूद हैं, कई तो परस्पर विरोधी भी हैं, इतने पर भी सबकी एकता कायम है। अनेक दर्शन, अनेकवाद, अनेक सिद्धान्त, अनेक मत, रहते हुए भी मनुष्य सद्भाव और सहिष्णुता पूर्वक आपस में रह सकते हैं और लड़ने-झगड़ने की अपेक्षा प्रेम पूर्वक विचार-विनिमय द्वारा, संगतिकरण द्वारा, परम लक्ष्य तक पहुंच सकते हैं। इस संगतिकरण को दृष्टि में रखना यज्ञ का आवश्यक अंग है।
(3) परमात्मा ने जो कुछ हमें दिया है वह हमारे ही भोगने या संचय करने के लिए नहीं है। कुंए, नदी, वृक्ष, पुष्प, गाय, घोड़ा आदि तक अपनी सम्पत्ति को दूसरों को देते हैं फिर हम मनुष्य होकर उनसे भी पीछे रहें, यह यज्ञ-भावना के विपरीत है। हमारे पास जो कुछ बल, बुद्धि, विद्या, धन, वैभव, ऐश्वर्य प्रभाव आदि है उसे अपने से छोटों को ऊपर उठाने में और अपने से बड़ों को आगे बढ़ाने में लगाना चाहिए। अपनी निजी आवश्यकतायें कम से कम रखें, पूर्ण श्रम एवं लगन के साथ अपनी सांसारिक, मानसिक, शारीरिक, बौद्धिक एवं आत्मिक शक्तियों को बढ़ावें, पर उस बढ़ोत्तरी का उद्देश्य—‘‘सौ हाथ से कमा हजार हाथ से दान कर’’ होना चाहिए। बेटे पोतों को जायदादें खड़ी करके उन्हें हरामखोर बना जाने की अपेक्षा, अपनी कमाई को संसार में सद्गुण, सद्विचार, सद्भाव एवं सुख-शान्ति बढ़ाने में लगाना चाहिए। आज दान का दुरुपयोग खूब होता है, अनधिकारी लोग दूसरों को उल्लू बनाकर मुफ्त का माल उड़ाने में बहुत प्रवीण होते हैं, इनसे बचना उचित है, परन्तु अपनी शक्तियों को सत्कर्मों के लिए दिल खोलकर खर्च करने में भी कंजूसी न करना उचित है। उपरोक्त तीनों भावनाओं—देव-पूजा, संगतिकरण और दान को हृदयंगम करना, अपनाना, कार्यरूप में लाना ही यज्ञ का सन्देश शिक्षण एवं वास्तविक अर्थ है।
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