gytri yagya vidhan part 2

पुराणों में यज्ञ माहात्म्य के कुछ प्रसंग

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प्राचीन काल में भारत-भूमि में घर-घर यज्ञ होते थे। नित्य यज्ञ के अतिरिक्त कुछ उत्सव, पर्व, त्यौहार आदि विभिन्न अवसरों पर बड़े-बड़े यज्ञ होते थे। इसके अतिरिक्त किसी बड़ी विपत्ति को निवारण करने के लिये अथवा किसी बड़े प्रयोजन की सफलता के लिये भी अनेक विधि-विधानों से सुसम्बद्ध यज्ञ किये जाते थे। इस प्रकार के यज्ञों तथा उनके सत्परिमाणों से भारतीय इतिहास पुराणों का पन्ना-पन्ना भरा पड़ा है। उनमें से कुछ वृत्तान्त यहां लिखे जा रहे हैं—
ततः कालेन बलिवैरोचनिः सर्वगम् । यज्ञैर्यज्ञेश्वर विष्णुमर्च्चयामास सर्वगम् ।।46
ब्राह्मणान् पूजयामास दत्त्वा बहुतरं धनम् । ब्रह्मर्षयः समाजग्मुर्यज्ञ वाहं महात्मनः ।।47
विज्ञाय विष्णुभगवान् भरद्वाजप्रचोदितः । आस्थाय वामनं रूपं यज्ञदशमधागमत् ।।48
—कूर्म पुराण पूर्वार्ध अ. 17
अर्थ—स्वयं दैत्यराज बलि ने यज्ञ से यज्ञ रूप विष्णु की पूजा की। पुष्कल धनादि से ब्राह्मण पूजन किया व अनेक ब्रह्मर्षि महात्मादि यज्ञ में गये। स्वयं भगवान विष्णु भारद्वाज के कहने से वामन रूप धारण कर यज्ञ देश में गये। इस प्रकार यज्ञ की महिमा अकथनीय है, जिसके कारण जगत्पिता विष्णु को भी अभ्यागत रूप में दैत्यराज बलि के द्वार पर जाना पड़ा। त्रिपुरासुर तथा उसकी सन्तान शिवजी की अर्चना करके उनकी कृपा से, देवों के लिये अजेय हो गये। उन असुरों ने यज्ञ की हवि भी देवों से छीन स्वयं भोग करना प्रारम्भ किया दुःखी पराजित देवताओं ने शिवजी से कष्ट-विनाश के लिये प्रार्थना की। शिव ने कहा कि त्रिपुरासुर की संतति तो मेरी भक्त है, मैं अपने भक्तजनों का विनाश कैसे कर सकता हूं? शिवजी ने देवगणों को विष्णु के पास भेज दिया। विष्णु भगवान ने देवताओं की आर्त विनय सुनकर कहा—
विष्णु उवाच— अनेनैव समादेवा यजध्वं परमेश्वरम् । पुरत्रय विनाशाय जगत्त्रय विभूतये ।।15 —शिव महापुराण द्वि. रुद्र संहिता युद्ध खंड द्वि. अ. अर्थ—विष्णु भगवान ने कहा—ऐसे अवसर पर सदा ही देवों ने यज्ञ द्वारा परमेश्वर की आराधना की है, बिना यज्ञ किये त्रैलोक्य की विभूति स्वरूप त्रिपुरासुर के तीनों पुरों का विनाश नहीं हो सकता। सनत्कुमार उवाच—
अच्युतस्य वच श्रुत्वा देव देवस्य धीमतः । प्रेम्णा ते प्रणतिं कृत्वा यज्ञेशं तेऽस्तुवन्नराः ।।26
एवं स्तुत्वा ततो देवा अयजन्यज्ञपूरुषम् । यज्ञोक्तेन विधानेन सम्पूर्ण विधयो मुने ।।27
ततस्तस्माद्यज्ञकुण्डात्समुत्पेतुस्सहस्रशः । भूतसंघा महाकायाः शूलशक्ति गदायुधा ।।28
ददृशुस्ते सुरास्तान वभूब संधान सहस्रशः । शूलशक्ति गदा हस्तान्दण्डचाप शिलायुधान् ।।29
नानाप्रहरणोपेतान् नाना वेष धरांस्तथा । कालाग्नि रुद्र सदृशान् कालसूर्योपमांस्तदा ।।30 दृष्ट्वातानब्रबीद्विष्णुः प्रणिपत्य पुरः स्थितान् । भूतान्यज्ञपतिः श्रीमात्रद्राक्षाप्रतिपालकः ।।31
विष्णु उवाच— भूता श्रृणुत मद्वाक्यं देव कारयार्थमुद्यता । गच्छन्तु त्रिपुरं सद्यर्स्वे हि बलवत्तराः ।।32 गत्वा दग्ध्वा च भित्वा च भङ्त्वा दैत्यपुरत्रयम् । पुनर्यथागता भूता गतुमर्हथ भूतये ।।34 —शिव महापुराण द्वितीय रुद्र संहिता छठा खण्ड दू. अ. अर्थ—यज्ञ पुरुष भगवान विष्णु की बात सुनकर बुद्धिमान देव एवं देवेन्द्र ने उनको प्रणाम करके कहा कि हे यज्ञेश्वर! हम ऐसा ही करेंगे। ऐसी स्तुति करके सभी देवों ने यज्ञ के द्वारा यज्ञपुरुष का यजन किया। यज्ञ कि जो−जो विधान हैं सभी को सांगोपांग सम्पन्न किया।।26−27।। इसके उपरान्त यज्ञ कुंड से बड़े भयंकर विशाल शरीर धारण किये हजारों भूतों के संघ उत्पन्न हो गये, जिनके हाथ युद्ध करने के लिये शूल, गदा आदि अस्त्र-शस्त्र धारण किये हुए थे।।28।। देवताओं ने देखा कि यज्ञ कुण्ड से हजारों भूतों के समूह हाथ में शूल, शक्ति, गदा, चाप, शिला आदि प्रहार करने वाले विभिन्न शास्त्र धारण कर विभिन्न रंग रूप, वेष धारण किये, कोई कालाग्नि रुद्र के समान, कोई सूर्य के समान यज्ञपति विष्णु भगवान को प्रणिपात (नमस्कार) करते हुए खड़े हैं। उन्हें देखकर विष्णु भगवान बोले—हे देव—कार्य करने के लिये उद्यत (तैयार) भूतगणो! मेरी बात सुनो—तुम लोग शीघ्र ही त्रिपुर जाओ और वहां जाकर दैत्यों के तीनों पुरों को जलाकर, विध्वंस कर, तोड़-फोड़कर, फिर तुम लोग जहां से आये थे, वहीं चले जाओ।।29-31।। वासुदेव स्वमात्मानमश्वमेधैरथायजत् । सर्वदानापददौ पालयामासवै प्रजाः ।। पुत्रवद्धर्म कामादीन्दुष्ट निग्रहणे रतः । सर्वाधर्मपरोलोकः सर्वशस्योचमेदिनी। नाकाल मरणश्चसीद्रामे राज्ये प्रसासति ।। —आग्नेय, पु. अ. 10 श्लोक 33-34 अर्थ—राज्याभिषेक होने के बाद भगवान राजा रामचन्द्र जी ने अपने आत्मा स्वरूप वासुदेव भगवान का अश्वमेध यज्ञों द्वारा यजन किया। रामचन्द्र जी ने सर्व प्रकार के दान दिये, प्रजा का पुत्र के समान पालन किया, दुष्टों का निग्रहण किया। इससे भगवान् राम के राज्य में सब लोग धर्म में तत्पर रहते थे। पृथ्वी सम्पूर्ण शस्यों में युक्त रहती थी। न किसी की अकाल मृत्यु होती थी। बलि ने संग्राम में इन्द्रादि देवताओं को जीत लिया। उसके उपरान्त— बुभजेऽव्याहतैश्वर्यं प्रवृद्ध श्रीमहाबलः । इयाज चाश्वमेधैः स प्रीणान् तत्परः ।। —नारद पु. अ. 10 श्लोक 31 अर्थ—विश्वजित यज्ञ करके (इन्द्र के राज्य को जीतकर) बलि अव्याहत ऐश्वर्य बढ़ी हुई लक्ष्मी और महान बल से सम्पन्न हो त्रिभुवन का राज्य भोगने लगे फिर उन्होंने भगवान् की प्रीति के लिये तत्पर होकर अनेक अश्वमेध−यज्ञ किये। महाराज बाहु ने सातों द्वीपों में सात अश्वमेध-यज्ञ किये। उन्होंने चोर डाकुओं को यथेष्ट दण्ड देकर शासन में रक्खा और दूसरों का सन्ताप दूर करके अपने को कृतार्थ माना। उसके राज्य काल में यज्ञों की महिमा से पृथ्वी पर बिना जोते-बोये अन्न पैदा होता था और वह फल-फूलों से भरी रहती थी। देवराज इन्द्र उनके राज्य की भूमि पर समयानुसार वर्षा करते और पापाचारियों का अन्त हो जाने के कारण वहां की प्रजा धर्म से सुरक्षित रहती थी। च्यवन ऋषि ने आश्विनी कुमारों का यज्ञ किया, जिसके प्रभाव से उन्होंने देव-लोक में सुर दुर्लभ ऐश्वर्य प्राप्त किया, इसका वर्णन भविष्य पुराण में इस प्रकार मिलता है— यज्ञभागे प्रवर्त्तेतु शास्त्रोक्ते तु विधानतः । आगतावश्विनौतत्र आहूतौ च्यवनेनतु ।। —भवि. पु. ब्रा. प. अ. 19 श्लोक 66 अर्थ—शास्त्रोक्त विधि-विधान से यज्ञ में भाग देने पर, च्यवन ऋषि के द्वारा बुलाये गये अश्विनीकुमार अपना यज्ञ भाग लेने के लिये, वहां यज्ञ स्थली में आये। जब च्यवन ऋषि का यज्ञ पूर्ण हो गया, देवता अपना-अपना भाग ग्रहण कर स्वर्ग कर स्वर्ग में अनन्त सुख−साधन प्राप्त हुए। अथापश्यद्विमानाभ भवनं देव निर्मितम् । शैय्यासनवरैर्जुष्टं सर्व काम समृद्धिमान् ।।
उद्यानवापिभिर्जुष्टं देवेन्द्रेण समाहृतम् । गोखण्ड सान्निभंरेजे गृह तद्भाव दुर्लभम् ।।
दृष्ट्वा तत्सर्वमखिलं सहपत्न्या महामुनिः । मुडं परमिकालेभे इन्द्रञ्च प्रशंशसहः ।।
बाली यज्ञ सहस्राणां यज्वा परम दुर्जयः ।
—भवि. पु. ब्रा. प. अ. 19 श्लोक 80,81,83
अर्थ—‘‘यज्ञ के पूर्ण होने पर’’ च्यवन ऋषि ने शय्यासनों से युक्त सब समृद्धियों से विराजमान, देवताओं से निर्मित विमान के समान शोभा वाले, बाग वापी इत्यादि से युक्त, इन्द्र के द्वारा लाये गये, गोखण्ड के समान आभा से रञ्जित भवन को देखा, जो पृथ्वी पर दुर्लभ हैं।’’ पत्नी के सहित सब दृश्यों को देखकर मुनि च्यवन ने परम आनन्द पाया और इन्द्र की प्रशंसा की। शुक्राचार्य ने बलि से यज्ञ कराना आरम्भ किया। उस विश्वजित यज्ञ के सम्पूर्ण होने पर, सन्तुष्ट हुए अग्नि ने प्रगट होकर बलि को घोड़ों से जुता हुआ रथ, दिव्य धनुष, त्रोण एवं अमेद्य कवच प्रदान किये। आचार्य की आज्ञा से उनको प्रणाम करके बलि उस रथ पर सवार हुए और उन्होंने स्वर्ग पर चढ़ाई कर दी। इस बार उनका तेज असह्य था। देवगुरु बृहस्पति के आदेश से देवता बिना युद्ध किये ही स्वर्ग छोड़ कर भाग गये। सूतजी वानर वंश का वर्णन करते हुए कहते हैं— बाली यज्ञ सहस्राणां यज्वा परम दुर्जयः । —ब्र. पुराण उपा. पा. 3 अ. 7 अर्थ—बाली ने सहस्रों यज्ञों का यजन किया ,इससे वह परम दुर्जय बन गया। सूत जी ऋषियों से कथा कहते जा रहे हैं—
नहुषस्य महत्मानः पितरं यं प्रचक्षते । प तेष्ववभृथेष्वेव धर्मशीलो महीपतिः ।।24
आयुरायभवायागयस्मिन सत्रे नरोत्तमः । शान्तयित्वा तु राजानं तदा ब्रह्मविदस्तथा ।।25
सत्रमारेभिरे कर्त्तु पृथ्वीवत्सात्ममूर्त्तयाः । बभूव सत्रे तेषां तु ब्रह्मचर्य्या महात्मनाम् ।।26
—ब्रह्माण्ड पु. पू. भा. प्र. पा. 1
अ. 2 अर्थ—राजा नहुष ने अपने पूर्वजों का अनुसरण कर अनेकों यज्ञ करके अवभृथ (यज्ञान्त) स्नान किया। यज्ञ करने से राजा में श्रेष्ठ नहुष, और ब्रह्मविद हो गया। उनकी आयु भी बढ़ गयी। ब्रह्मचर्य पालन सहित किये हुए उनके यज्ञों से, पृथ्वी वैसी ही वात्सल्य मयी बन गयी जैसे बच्चों के लिये माता होती है। मार्कण्डेय पुराण में यज्ञों सम्बन्धी अनेक विवरण और वर्णन प्राप्त होते हैं। राजा इन्द्रद्युम्न के पास इन्द्रनीलमणि द्वारा निर्मित एक बड़ी ही मूल्यवान् प्रतिमा थी। इसके खो जाने पर राजा को बड़ा दुःख हुआ। दुखी होकर वह मृत्यु की गोद में जाने लगा तो विद्वानों ने इस दुःख से निवृत्ति पाने के लिए एक बड़ा यज्ञ करने की सलाह दी। यज्ञ के फलस्वरूप राजा को वह खोई हुई मणि अनायास ही प्राप्त हो गई। एक समय असुर प्रबल हो गये। पूर्ण विश्व को जीतकर स्वर्ग पर भी उन्होंने अपना अधिकार जमा लिया। दैत्यराज ने अपना राज्य स्थायी रखने की इच्छा की और इस हेतु वह इन्द्र के पास गया तथा पूछा—‘हमारा राज्य स्थिर कैसे रहे?’ इन्द्र ने सरल भाव से उन्हें यज्ञ करने का आदेश दिया। असुर यज्ञ परायण हो गये। वे यज्ञ करके शक्ति के अधिकारी बन बैठे और अजेय हो गए। विश्व में असुरों का ही राज्य दिखाई देने लगा। देवता लोग निर्बल पड़ गये। स्वर्ग का राज्य उनसे छीन लिया गया। देवों ने भगवान से प्रार्थना की। भगवान ने असुरों के पास ऐसे-ऐसे दूत भेजे जो असुरों को यज्ञ न करने की सलाह दें। उन छद्म दूतों ने बड़ा प्रभावशाली वेश बनाकर असुरों से कहा—‘हरे-हरे, तुम यह पाप क्यों करते हो, यज्ञ में हिंसा होती है। दैत्यों को यह मत उचित लगा और उन्होंने अपना जीवन अयज्ञमय बना लिया, जिससे वे तेजहीन हो गये। देवों ने उन यज्ञहीन दैत्यों को पराजित करके स्वर्ग का राज्य वापिस ले लिया। स्वायम्भुव मन्वन्तर कल्प के प्रथम मन्वन्तर में देवता अनाहार से क्षीण हो रहे थे। देवों के दुर्बल होने से जगत भी नष्ट होने लगा। तीन लोक, चौदह भुवन इस अवस्था में व्याकुलता को प्राप्त हो रहे थे। देवों ने कृपासिन्धु से पुकार की। भगवान तो सदैव से दीनों की पुकार सुनने वाले हैं। महर्षि रुचि की पत्नी आकूति से प्रकट हुए। उन्होंने अग्निहोत्र की स्थापना की। उन्हीं के नाम से अग्निहोत्र यज्ञ कहा जाने लगा। यज्ञ से देवों को भोजन प्राप्त हुआ। उन्हें शक्ति प्राप्त हुई और वे विजय प्राप्त करके संसार का कल्याण करने में समर्थ हो गये। तृणावर्त्त राक्षस के निधन के उपरान्त उसके शरीर के संग श्रीकृष्ण भी मूर्च्छित पड़े थे। उसे लाकर नन्द यशोदा शिशु के प्राण रक्षार्थ यज्ञ करना आवश्यक मानकर यज्ञकर्ता को बुला लाते हैं। वे आकर आश्वासन देते हैं—
माशोक कुरु हे नन्द हे यशोदे ब्रजेश्वरी । करिष्यामि शिशो रक्षांचिरजीवी भवेदयम् ।।50
—गर्ग संहिता गो. ख. 1 अ.14 श्लोक 50
अर्थ—हे नन्द! हे ब्रजेश्वरी यशोदे! शोक मत करो, मैं शिशु की रक्षा (यज्ञ द्वारा) करूंगा, ये चिरंजीवी होंगे। इत्युक्त्याद्विजमुख्यास्ते कुशाग्रेनवपल्लवैः ।। पवित्रकलशैस्तोयैस्ऋग्यजुः सामाजैः स्तवैः ।।51।।
परेः स्वास्त्ययनैर्यज्ञं कारयित्वा विधानतः । अग्निसंपूज्यविधिवद्रक्षां विदधिरेशिशोः ।।52।।
—गर्ग संहिता गो. ख. 1
अ. 141 श्लोक 51−52 अर्थ—ऐसा कहकर द्विज श्रेष्ठ ने कुछ पल्लव, पवित्र जल सहित कलशादि यज्ञ पूजन सामग्री मंगाई और ऋक् यजुः एवं साम के मन्त्रों से हवन किया, स्वस्ति वाचन किया, इसके उपरान्त विधि पूर्वक यज्ञ कर्म सम्पन्न करके शिशु का प्राण-रक्षण किया। बहुलाश्व के पूछने पर नारद जी सूर्यवंश के परिविख्यात राजा मरुत के सुप्रसिद्ध यज्ञ का वर्णन करते हैं— ब्रह्मारुद्रादयोदेवाः सगणास्तत्रागता । ऋषयो मुनयः सर्वे तस्य यज्ञे समाययौ ।।13 —गर्ग. सं. वि. अ. 1 अर्थ—ब्रह्म, रुद्रादि देवता गण समेत उस यज्ञ में पधारे थे, ऋषि-मुनि सभी उस यज्ञ में आये थे। केऽपिजीवास्त्रिलोक्यांतु न बभूवुवुर्भुक्षिताः । सर्वे देवास्तु सोमेनह्यजीर्णमुपागता ।।18 अर्थ—मरुत के उस महायज्ञ में तीनों लोकों के कोई भी प्राणी भूखे नहीं रहे। देवगणों को तो सोमरस पीते−पीते अजीर्ण हो गया। उग्रसेन जी के पूछने पर व्यास मुनि बताते हैं कि किस कर्म के करने से क्या गति मिलती है। यज्ञकर्त्ता शक्रलोके वसते शाश्वतीः समाः । दानी चान्द्रमसं लोकं व्रती सौरं व्रजत्यलम् ।।10 —गर्ग संहिता वि. ख. 9 आ. 1 श्लोक 10 अर्थ—यज्ञ करने वाला इन्द्रलोक में शाश्वत काल तक निवास करता है, दानी चन्द्रलोक और व्रती सूर्यलोक को जाता है। अश्वमेध यज्ञ की प्रशंसा सुनकर उग्रसेन जी श्रीकृष्ण भगवान् के निकट जाकर कहते हैं— देवदेव जगन्नाथं जगदीश जगन्मय । वासुदेव त्रिलोकेश शृणुश्व वचन मम ।।20 मत्पुत्रेण च कंसेनबाल कांश्च सहस्रशः । विनापराधेन हरे मारिताश्चमहासुरः ।।21 तस्यमुक्तिश्च गोविन्द कथं भवति पापिनः । कस्मिंल्लोके गतः कंसो बालघाती वदस्व माम् ।।22 तस्यपापेनाहमपि भीतोऽस्मिजगदीश्वर । पुत्रस्य पापेनपिता नरके पतति ध्रुवम् ।।23 कथिता नारदेनाद्यतच्छृणुष्व जगत्पते । विप्रहाविश्वहामोघ्नो हयमेधेन शुध्यति ।। —गर्ग संहिता अश्व खं. 10 अ. 7 अर्थ—उग्रसेन ने श्रीकृष्ण जी से कहा—हे देवों के देव! हे जगन्नाथ! हे जगदीश! हे जगन्मय! हे त्रिलोकेश! हे वासुदेव! मेरी बात सुनिये।।20।। मेरे पुत्र महासुर कंस ने हजारों बालकों की बिना अपराध के ही हत्या की है।। हे गोविंद उसकी मुक्ति कैसे होगी, यह मुझे कहिये और अभी बालघाती कंस मरकर किस लोक में गया है।।21-22।। हे जगदीश्वर! उसके किये पापों से मैं बड़ा भयभीत हूं, क्योंकि पुत्र के पाप से पिता को अवश्य नरक की यातना भुगतनी पड़ती है।।23।। हे जगत्पते! नारद ने मुझसे कहा है सो सुनिये—उन्होंने कहा है कि अश्वमेध यज्ञ करने से विप्र हत्यारा, गौ-हत्यारा तथा विश्व को बध करने वाला भी शुद्ध हो जाता है। कृष्ण के आदेश से राजा उग्रसेन ने महायज्ञ किया। गंगाजी के जाह्नवी कहलाने की कथा बड़ी मनोरंजक है। पूर्व काल में कोशिनी के गर्भ में उत्पन्न सुहोत्र पुत्र ‘जह्नु’ ने सर्वमेध नामक महायज्ञ का आयोजन किया। अपना सर्वस्व उन्होंने यज्ञ में होम किया। इस महायज्ञ के पुण्य प्रताप को देखकर सभी देवता बड़े प्रभावित हुए। गंगाजी तो उन्हें पति रूप में वरण करने के लिए अधीर हो गईं। ‘जह्नु’ ने गंगाजी का प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया। इस पर जह्नु और गंगा जी में मनोमालिन्य पैदा हो गया। देवताओं ने इस मनोमालिन्य को अशोभनीय समझकर दोनों में यह समझौता करा दिया कि गंगाजी जह्नु के घर में पुत्री के रूप में जन्म लें। ऐसा ही हुआ। जिस प्रकार सीताजी की प्राप्ति जनक द्वारा यज्ञ के लिये भूमि शोधन करते समय हुई थी, उसी प्रकार बृषभानु को भी राधिका पुत्री की प्राप्ति यज्ञ के लिए भूमि शोधन करते समय हुई। यह कथा पद्म पुराण में आती है। वृषभानोर्यज्ञभूमौजातासाराधिकादिवा । यज्ञार्थशोधितायांचदृष्टासादिव्यरूपिणी ।। —पद्म पुराण चतुर्थ खंड 41 यज्ञ के लिए शोधन की हुई भूमि से वृषभानु को राधिका की प्राप्ति हुई। बलि ने जब शुक्राचार्य जी से पूछा कि इन्द्र को किस प्रकार जीता जाय। तेनोक्तं बलये राजञ्जत स्पन्दन लब्धये । महायज्ञ कुरुष्वाद्य तेन ते विजयो भवेत् ।। —स्क. पु. महे. खं. अ. 17 श्लोक 280 अर्थ—तो शुक्राचार्य जी ने बलि से कहा—विजयी रथ की प्राप्ति के लिए आज महायज्ञ करो। उस महायज्ञ के करने से तुम्हारी विजय होगी। इन्द्रद्युम्न ने सहस्र यज्ञ किये और वह इन यज्ञों के साथ−साथ परम पुनीत दिव्यता को प्राप्त करता गया। ततः साहस्रिके यज्ञे वाजिमेधे महीपतिः । दिने-दिने दिव्य गति बभूव नृपतिस्तदा ।। —स्क. पु. वै. खं. 1, प्र. म. 2 अ. 17 श्लोक 101 अर्थ—जब राजा का अन्तिम सहस्रवां यज्ञ पूर्ण हुआ तो राजा इन्द्रद्युम्न दिन−दिन दिव्यावस्था को प्राप्त होने लगे। पराशर मुनि ध्रुव भक्त की कथा कहते जा रहे हैं, उसी क्रम में पुलह मुनि ध्रुव को उपदेश करते हैं। यो यज्ञ पुरुषो यज्ञो योगेशः परमः पुमान् । तस्मिन्तुष्टे यदप्राप्यं र्कि वदास्ति जनार्दने ।।48 अर्थ—जो परमपुरुष यज्ञपुरुष यज्ञ और यज्ञेश्वर हैं उन जनार्दन के सन्तुष्ट होने पर ऐसी कौन सी वस्तु है, जो प्राप्त न हो सकती हो। ऋषिगण राजा वेणु को यज्ञ करने के लिए समझा रहे हैं। उसने अहंकारवश अपने को ही यज्ञ-पुरुष घोषित कर यज्ञादि कर्म बन्द करा दिया है। दीर्घ सत्रेण देवेश सर्वयज्ञेश्वरं हरिम् । पूजयिष्यामोभद्रन्ते तस्यांशस्ते भविष्यति ।।17 —वि. पु. प्र. अंश. अध्याय 13 अर्थ—तुम्हारा कल्याण हो, देखो हम बड़े यज्ञों द्वारा जो सर्वयज्ञेश्वर देवाधिपति भगवान् हरि का पूजन करेंगे उसके फल में से तुमको भी (छठा) भाग मिलेगा। ऋषियों ने राजा वेन से कहा— देह्यनुज्ञां महाराज मा धर्मोयातु सङ्क्षयम् । हविषां परिणामोऽयं यदेतदखिलं जगत् ।।25 —श्री वि. पु. प्र. अं. अ. 13 हे महाराज! आप ऐसी आज्ञा दीजिए जिससे धर्म का क्षय न हो। देखिये, यह सारा जगत हवि (यज्ञो में की हुई सामग्री) का ही परिणाम है। पराशर जी मैत्रेय से कथा कहते जा रहे हैं। प्राचीनबर्हिर्भगवान्महानासीत्प्रजापतिः ।।3 हविर्धानाद्महामान येन संवर्धिताः प्रजाः ।।3 —श्री वि. पु. अंश अ. 14 अर्थ—हे महभाग! हविर्धान से उत्पन्न हुए भगवान् प्राचीन वर्हि एक महान् प्रजापति थे, जिन्होंने यज्ञ के द्वारा अपनी प्रजा की बहुत वृद्धि की। राजा सगर ने और्व मुनि से विष्णु भगवान की उपासना का उपाय और फल पूछा था, उत्तर में और्व मुनि कहते हैं। और्व उवाच— यजन्यज्ञान्यजत्येनं जपत्येनं जपन्नृप । निघ्नन्नन्यान्हिनस्त्येन सर्वमूतोयतोहरिः ।। —श्री वि. पु. तृ. अं. अ. 8 अर्थ—हे नृप! यज्ञों का यजन करने वाला पुरुष उन (विष्णु) ही का यजन करता है, जप करने वाला उन्हीं का जप करता है और (दूसरों की हिंसा करने वाला उन्हीं की हिंसा करता है, क्योंकि भगवान हरि सर्वभूतमय हैं— इन्द्र पूजा की तैयारी होते देख कृष्ण भगवान अपने बड़े बूढ़ों से पूछते हैं, उत्तर में नन्द जी कहते हैं। भौममेतत्पयो दुग्धं गोभिः सूर्यस्य वारिदे । पर्जन्यस्सर्व लोकस्योद्भवाय भुवि वर्षति ।।23 तस्मात्प्रावृड्च राजानस्सर्वे शक्रं मुमायुताः । मखस्सुरेशमर्चन्ति वयमन्ये च मानवाः ।।24 —श्री वि. पु. पं. अं. अ. 10 अर्थ—यह पर्जन्यदेव (इन्द्र) पृथिवी के जल को सूर्य किरणों द्वारा खींच कर सम्पूर्ण प्राणियों की वृद्धि के लिये उसे मेघों द्वारा पृथ्वी पर बरसाते हैं। इसलिए वर्षा ऋतु में समस्त राजा लोग, हम और अन्य मनुष्य गण देवराज इन्द्र की, यज्ञों द्वारा प्रसन्नतापूर्वक पूजा किया करते हैं। पराशर जी केशिध्वज और खाण्डिक्य की कथा कहते जा रहे हैं, उसी क्रम में— इयाजसोऽपि सुवहून्यज्ञान्ज्ञान व्यपाश्रयः । ब्रह्मविद्यामधिष्ठाय तर्तु मृत्युमविद्यया ।।12 —श्री वि. पु. षष्ठ. खं. षष्ठ. अ. अर्थ—केशिध्वज ज्ञाननिष्ठ था, तो भी अविद्या (कर्म) द्वारा मृत्यु को पार करने के लिए ज्ञान-दृष्टि रखते हुए उसने अनेकों यज्ञों का अनुष्ठान किया। स्कन्द पुराण में यज्ञ भगवान के अवतार का वर्णन है। जिस प्रकार भगवान ने राम, कृष्ण, नरसिंह, वाराह, कच्छ, मच्छ आदि के अवतार लिए हैं, उसी प्रकार एक अवतार ‘यज्ञ पुरुष’ का भी लिया है। स्वायम्भुव मन्वन्तर में जब देवताओं की शक्ति क्षीण हो गई और संसार में सर्वत्र घोर अव्यवस्था फैल गई उस अव्यवस्था के फलस्वरूप, सब लोग नाना प्रकार के कष्ट पाने लगे। इस विपन्नता को दूर करने के लिए भगवान ने यज्ञ पुरुष के रूप में अवतार लेने का निश्चय किया, क्योंकि देवताओं की शक्ति वृद्धि करने के लिये यज्ञ के अतिरिक्त और कोई उपाय या मार्ग नहीं है। महर्षि रुचि की पत्नी आकूति के गर्भ से भगवान ने जन्म लिया और उन्होंने संसार भर में अग्निहोत्र की लुप्तप्राय प्रथा को पुनर्जीवित किया। सर्वत्र यज्ञ होने लगे। फलस्वरूप देवताओं की शक्ति बढ़ी और संसार का समस्त संकट निवारण हो गया। आज भी ऐसे अवतार की आवश्यकता प्रतीत होती है, जिससे विश्व आकाश पर छाई हुए घोर अशान्ति की अंधियारी को हटाकर पुनः धर्म-सूर्य का सुख-शान्तिदायक प्रकाश उत्पन्न हो सके। ***
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