gytri yagya vidhan part 2

वेद-उपनिषदों में यज्ञ-रहस्य का वर्णन

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वेद उपनिषदों के पन्ने-पन्ने यज्ञ की महिमा से भरे हैं। प्राचं यज्ञं प्रणतया सस्वायः । ऋग्वेद 10।10।12

प्रत्येक शुभ कार्य को यज्ञ के साथ आरम्भ करो।
भद्रो नो अग्निराहुतः । —यजुर्वेद 15।30

यज्ञ में हुई आहुतियां कल्याणकारक होती हैं।
अयज्ञियो पतबर्चः । —अथर्व ईजानाः स्वर्ग यान्ति लोकम् । —अथर्व 18।4।2
यज्ञ न करने वाले का तेज नष्ट हो जाता है। यज्ञ करने वाले को स्वर्ग सुख प्राप्त होता है। यज्ञोदय सर्व कामधुक । —
अङ्गिरा यह यज्ञ सब कामनायें पूर्ण करने वाला है। असंस्थितो वा एष यज्ञः । —तै0 ब्रा 14।9

यज्ञ का पुण्य-फल कभी नष्ट नहीं होता। कठोपनिषद् प्रथम अध्याय, प्रथम बल्ली में यम और नचिकेता सम्वाद में यज्ञों को स्वर्ग-प्राप्ति का साधन बताया गया है—
नचिकेता ने यमराज से पूछा— सत्वमग्निं स्वर्गमध्येषिं मृत्यो प्रब्रू हि त्वं श्रद्धानाय मह्यम् स्वर्गलोका अमृतत्व भजन्त एतद्द्वितीयेन वृणे वरेण ।।13

अर्थ—हे मृत्युदेव! स्वर्ग की प्राप्ति के साधन रूप अग्नि को (यज्ञ प्रक्रिया को) आप भली-भांति जानते हैं, अतः उस अग्नि विद्या को मुझ श्रद्धालु को अच्छी तरह समझाकर कहिए, जिसे जानकर लोग स्वर्गलोक में रहकर अमृतत्व को प्राप्त होते हैं यह मैं आपसे दूसरा वर मांगता हूं ।।13।।
प्र ते प्रबीमि तदु मे निबोध स्वर्ग्यमग्निं नचिकेतः प्रजानन । अनन्त लोकाप्ति प्रथमो प्रतिष्ठां विद्धित्वमेतं निहितं गुहायाम् ।14
अर्थ—हे नचिकेता! स्वर्गदायिनी अग्नि विद्या (यज्ञ-विधि) का भलीभांति जानने वाला मैं तुम्हारे लिये उसे अच्छी तरह बतलाता हूं। उसे मुझसे भली-भांति जान लो। तुम इस विद्या को अनन्त लोक को प्राप्ति कराने वाली, उसकी आधार स्वरूप तथा बुद्धि रूपी गुहा में निहित (छिपी हुई) जानो। अग्नि विद्या यानी यज्ञ-प्रकरण की सारी विधियां बताने के उपरान्त उस अग्नि विद्या का फल यमराज बताते हैं। त्रिणाचिकेतस्त्रिभिरेत्य सर्धि त्रि कर्मकृत्तरति जन्ममृत्यू ।
ब्रह्मजज्ञं देव मीड्यं विदित्या निचाय्येमां शान्तिमत्यन्तमेति ।।17।।
अर्थ—इस अग्नि का शास्त्रोक्त रीति से तीन बार अनुष्ठान करने वाला पुरुष ऋक्, यजु, साम—तीनों वेदों के साथ सम्बध जोड़कर, यज्ञ, दान, तप रूप तीनों कर्मों को करता रहने वाला मनुष्य जन्म-मृत्यु से तर जाता है। ब्रह्मा से उत्पन्न सृष्टि को जानने वाले स्तवनीय इस अग्नि को भली भांति जानकर, इसका ठीक रीति से चयन करके उस अनन्त शक्ति को प्राप्त कर लेता है जो मुझको प्राप्त है।।17।।
एतेषु यश्चरते भ्राजमानेषु यथाकलं चाहुतयो ह्य ददायन् तं नयन्त्येता, सूर्यस्य रश्मियो यत्र देवानां परिरेकोऽधिवासः ।।5।।
—मुण्डकोपनिषद् द्वितीय खण्ड श्लोक 4 अर्थ—जो कोई भी अग्निहोत्री इन देदीप्यमान ज्वालाओं में ठीक समय पर अग्निहोत्र करता है, उस अग्निहोत्र को निश्चय ही अपने साथ लेकर ये आहुतियां, सूर्य की किरणें बनकर उस स्वर्गलोक में पहुंचा देती हैं, जहां देवताओं का एक मात्र पति निवास करता है।
एह्येहीति तमाहुतयः सुवर्चसः सूर्यस्य रश्मिभिर्यजमान वहन्ति । प्रियां वाचमभिवदन्त्योऽचयन्त्य एष वः पुण्य सुकृतो ब्रह्मलाकः ।।6।।

अर्थ—उस प्रदीपत ज्वालाओं में दी हुई आहुतियां, आओ, आओ, यह तुम्हारे शुभ कर्मों से प्राप्त पवित्र ब्रह्मलोक है, इस प्रकार की प्रिय वाणी बारम्बार कहती, उसका आदर सत्कार करती हुई उस (यज्ञकर्त्ता) यजमान को सूर्य की रश्मियों द्वारा ब्रह्मलोक में ले जाती है। सरस्वती उपनिषद् 24 में— ‘‘यज्ञ’’ वष्टु धिया वसु’’ वचन है, जिसका तात्पर्य है—यज्ञ से ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। आगे चलकर मन्त्र 27 में ‘यज्ञ’ दधे ‘‘सरस्वती’’ वचन है। जिससे प्रकट होता है कि यज्ञ से ही सरस्वती प्रसन्न होती है। छान्दोग्योपनिषद् द्वितीय अध्याय, तृतीय खण्ड के श्लोक 1 और 2 में यज्ञ द्वारा वर्षा कराने की विद्या का संकेत किया गया है। ‘‘वृष्टि में पांच प्रकार के साम की उपासना करे। पूर्व वायु हितकर है, मेघ, यह प्रस्ताव है, बरसता है, यह उद्गीथ है, चमकता और गर्जन करता है, यह प्रतिहार है, जल ग्रहण करता है यह निधन है। इस प्रकार जानने वाला पुरुष वृष्टि में पांच प्रकार से साम की उपासना करता है, उसके लिये वर्षा होती है और वह स्वयं भी वर्षा करा लेता है। छान्दोग्योपनिषद्, चतुर्थ अध्याय, दसम खण्ड में उपकौशल को अग्नियों द्वारा ब्रह्मविद्या का उपदेश देने तथा यज्ञाग्नि की महानता पर प्रकाश डालने वाला बड़ा ही सारगर्भित उपाख्यान है जो इस प्रकार है— ‘उपकौशल नाम से प्रसिद्ध कमल का पुत्र सत्यकाम जाबाल के यहां ब्रह्मचर्य ग्रहण करके रहता था। उसने बारह वर्ष तक उस आचार्य के अग्नियों की सेवा की, किन्तु आचार्य ने अन्य ब्रह्मचारियों का तो समापवर्तन संस्कार कर दिया, किन्तु केवल इसी का नहीं किया। आचार्य से उसकी भार्या ने कहा—‘यह ब्रह्मचारी खूब तपस्या कर चुका है, इसने अच्छी तरह अग्नियों की सेवा की है। देखिये, अग्नियां आपकी निन्दा न करें, अतः इसे विद्या का उपदेश कर दीजिये।’ किंतु वह उसे उपदेश किये बिना ही बाहर चला गया। उस उपकोशल ने मानसिक खेद से अनशन करने का निश्चय किया। उस आचार्य की पत्नी ने कहा—अरे ब्रह्मचारिन्! तू भोजन कर, क्यों नहीं भोजन करता? वह बोला—इस मनुष्य में अनेक ओर जाने वाली कामनायें रहती हैं। मैं व्याधियों से परिपूर्ण हूं इसलिये भोजन नहीं करूंगा। फिर अग्नियों ने एकत्रित होकर कहा—यह ब्रह्मचारी तपस्या कर चुका है, इसने हमारी अच्छी तरह सेवा की है। अच्छा, हम इसे उपदेश करेंगे। गार्हपत्याग्नि ने उपकौशल को अपना स्वरूप बताते हुए कहा—पृथ्वी, अग्नि, अन्न और आदित्य—ये मेरे चार शरीर हैं। आदित्य के अंतर्गत जो यह पुरुष दिखाई देता है वही मैं हूं। वह पुरुष जो इसे प्रकार जानकर इसकी उपासना करता है, पापकर्मों को नष्ट कर देता है, अग्नि-लोकवान होता है, पूर्ण आयु को प्राप्त होता है, उज्ज्वल जीवन व्यतीत करता है तथा जो इस प्रकार जानकर इसकी उपासना करता है, उसका हम इस लोक और परलोक में भी पालन करते हैं। फिर उसे अन्वाहार्यपचन ने शिक्षा दी—‘जल, दिशा, नक्षत्र और चंद्रमा—ये मेरे चार शरीर हैं। वह जो विद्युत में पुरुष दिखाई देता है, वह मैं हूं, वही मैं हूं। पुरुष, जो इसे इस प्रकार जानकर इस (चार भागों में विभक्त अग्नि) की उपासना करता है, पाप कर्म को नष्ट कर देता है, लोकवान होता है, पूर्ण आयु को प्राप्त करता है, उज्ज्वल जीवन व्यतीत करता है इसके पीछे होने वाले पुरुष क्षीण नहीं होते तथा जो इस प्रकार जानकर इसकी उपासना करते हैं, हम इसका इस लोक और परलोक में भी पालन करते हैं। त्रयोदशखण्ड— तदन्तर उसे आहवनीय−अग्नि ने उपदेश किया—प्राण, आकाश, भूलोक और विद्युत—ये मेरे चार शरीर हैं। यह जो विद्युत में पुरुष दिखाई देता है वह मैं हूं, वही मैं हूं। वह पुरुष जो इसे इस प्रकार जानकर इसकी उपासना करता है, (वह) पापकर्म को नष्ट कर देता है, लोकवान होता है, पूर्ण आयु को प्राप्त करता है और उज्ज्वल जीवन व्यतीत करता है। इसके पश्चात होने वाले पुरुष क्षीण नहीं होते तथा जो इस प्रकार जानकर इसकी उपासना करता है उसका हम इस लोक और परलोक में भी पालन करते हैं। इसी प्रकार अग्नियों द्वारा भी उपकौशल को अपना स्वरूप बताया है। अन्यान्य उपनिषदों में भी यज्ञ अग्नि की अनिर्वचनीय महत्ता पर बहुत कुछ प्रकाश डाला है। प्राचीनकाल में ऋषिगण इस यज्ञाग्नि को इंद्र लोक का सर्वोपरि तत्व मानते थे और उसके द्वारा समस्त प्रयोजनों को पूर्ण करने में समर्थ होते थे। इस विद्या का रहस्य जानने वाले के लिए संसार में कोई भी वस्तु दुर्लभ नहीं रहती।
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