gytri yagya vidhan part 2

श्रीमद्भागवत में यज्ञ माहात्म्य

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श्रीमद्भागवत में यज्ञ की महत्ता का विस्तारपूर्वक प्रतिपादन किया है। अनेकों ऐसे प्रसंगों का भागवत में वर्णन है जिससे यज्ञ की महाशक्ति का पूरा परिचय मिलता है। सृष्टि का आरम्भ यज्ञ से ही हुआ, इसका वर्णन इस प्रकार किया गया है। जिज्ञासा के अनुसार उत्तर रूप में ब्रह्माजी विराट भगवान् के स्वरूप का वर्णन करते हैं।
यदास्य नाभ्यां न्नलिनादृसास महात्मनः । नाविदं यज्ञ संभारांत्पुरुषा वयवादृते ।।
तेषु यज्ञस्य पशवः सवनस्पतयः कुशा । इदं च देवयजनं कालञ्चो संगुणान्वितः ।।
वस्तून्योषधयः स्नेहारसलोह मृदोजलम् । ऋचोयजूंषि सामानि चतुर्होत्रं च सत्तम ।।
—भागवत, स्क. 2, अ.6 श्लोक 22, 23, 24
अर्थ—जिस समय व्यापक ब्रह्मा की नाभि से मैं उत्पन्न हुआ, तब पुरुष के अवयव को छोड़कर यज्ञ की कुछ भी सामग्री नहीं देखी। उनने यज्ञ के पशु, वनस्पति, कुशा और देवताओं के यज्ञ करने योग्य भूमि और जिसमें बहुत से गुण भरे हों, ऐसे समय की रचना की। सब पात्रादि रचे। औषधि, घृतादिक, मधुरादिक, स्वर्णादि धातु, मृतिका, जल, ऋक, यजु, साम एवं अथर्ववेद, चार ब्राह्मण और जिससे हवन किया जाय, ऐसे ऐसे कर्मों की भी सृष्टि की।
गतयोमतयोः श्रद्धा प्रायश्चितम् समर्पणम् । पुरुषावयवैरेते सस्भाराः संभृता मया ।।26।।
इति सम्भृतसंभार पुरुषावयवैरहम् । तमेव पुरुषं यज्ञं तेनैवायजमीश्वरम् ।।27।।
ततश्च मनव काले ईजिरे ऋषयोऽपरे । पितरो विबुधा दैत्या मनुष्याः क्रतुभिर्विभुम् ।।29।।
अर्थ—विष्णु क्रमादि गति, देवताओं का ध्यानादि मति, प्रायश्चित, उसे भगवदार्पण करना, आदि पुरुष अव्ययों से ही मैंने रचना की। पुरुष के अवयवों की ऐसी सब सामग्री से पूजनीय परमात्मा ने पुरुष का यज्ञ किया। उसके पीछे अपने-अपने समय में सभी मनुष्य, ऋषि, पितर, देवगण तथा दैत्यादिकों ने भी यज्ञ के द्वारा यज्ञेश्वर और यज्ञ स्वरूप भगवान् का पूजन किया। राजा दक्ष ने अपने यज्ञ का विध्वंस होते तथा सुपुत्री सती के निधन के उपरान्त बहुत दुःख माना और शिवजी से क्षमा मांगने के पश्चात् अपनी भूल के प्रायश्चित रूप में ही विशद यज्ञ को पूरा किया। उसका वर्णन भागवत चतुर्थ के सातवें अध्याय में इस प्रकार है—
क्षमाप्यैवं स मीदवांसं ब्रह्मणा चानु मन्त्रितः । कर्मं सन्तानयामास सोपाध्यायर्त्विगदिभिः ।।
वैष्णवं यज्ञ संतत्यै त्रिकपालं द्विजोत्तमाः । पुरोडाश निखवपन् संसर्ग शुद्धये ।।
अध्वर्युगुणाऽऽत्त हविषा यजमानो विशाम्पते । धिया विशुद्धया दध्यौ तथा प्रादुरभूद्धरिः ।
—भागवत्, स्क. 4, अ. 7, श्लोक 16, 17, 18
अर्थ—इस भांति दक्ष ने अपना अपराध क्षमा कराया और ब्रह्माजी से सम्मति लेकर उपाध्याय, ऋत्विज, अग्नि सहित यज्ञ कर्म आदि का सुन्दरता सहित विस्तार किया। तीन कपाल का पुरोडाश, विष्णु के निमित्त, यज्ञ सम्पूर्ण करने के हेतु प्रणमादिक वीरों की शुद्धि के लिये श्रेष्ठ ब्राह्मणों को दिया। अध्वर्यु ने जब हवि हाथ में लेकर, यजमान सहित विशुद्ध बुद्धि पूर्वक हवन कर भगवान् वासुदेव का ध्यान किया—उसी समय भगवान् साक्षात रूप से प्रकट हो गये।
दक्षो गृहीतार्हणसादनोत्तमं यज्ञेश्वरं विश्वसृजां परं गुरुम् । सुनन्द नन्दाद्यनुगैर्वृतं मुदा गृणन् प्रपेदे प्रयतः कृताञ्जलि ।25।
—भागवत, स्कन्ध चौथा, अ. 7 अर्थ—यज्ञेश्वर विश्वस्रष्टा परम गुरु भगवान् जो नन्दसुनन्दादिक पार्षदों सहित थे, उनके निकट जाकर, प्रजापति दक्ष ने उनकी पूजा की, सामग्री अर्पण की, जिसे भगवान ने अपने हाथों से ग्रहण किया। पुनः दक्ष ने करबद्ध हो भगवान् की प्रार्थना की। इसके उपरान्त अग्निदेव ने प्रत्यक्ष होकर भगवान से कहा—
यत्तैजसाहं सुसमिद्धतेजा हव्यंवहे स्वध्वर आज्य सिक्तम् । यं यज्ञियं पंचविधं च पञ्चभिः स्विष्टं यजुर्भिः प्रणतोस्मि यज्ञमृ ।

—भागवत स्क. 4 अ. 7 अर्थ—आपके तेज से जो प्रकाश मुझ में है, इसी के द्वारा टपकते हुए घृत का हव्य मैं धारण करता हूं और उसे सब देवताओं को पहुंचाता हूं। जिन यज्ञ स्वरूप भगवान का पांच प्रकार के यजुर्मन्त्र से यज्ञ किया जाता है, उन्हें मैं प्रणाम करता हूं। राजा वेन ने अपने राज्य में यज्ञादि करने की मनाही कर दी। उसने कहा—राजा में सर्व देवों का निवास होता है, अतः केवल मेरा ही भजन और पूजन करो। इस पर ऋषिगण राजा वेन को विविध भांति से समझाते हैं—
तं सर्व लोकामरयज्ञ संग्रहं त्रयीमयं द्रव्यमयं तपोमयम् । यज्ञैर्विचित्रैर्यजतो भवाय ते राजन स्वदेशाननुरोद्धु मर्हसि ।21।
यज्ञेन युष्मद्विषयेद्विजातिभिर्वताय मानेनसुराः कला हरेः । स्विष्टः सुतुष्टा प्रादिशांति वाञ्छितं तद्धेहनंनार्हसिं वीर चेष्टितुम ।।
—भागवत चौथा स्क.,

अ. 14 अर्थ—हे राजन्! सर्व लोक और देवता यज्ञ में निवास करते हैं। उन वेदत्रयीमय, द्रव्यमय, एवं तपोमय ईश्वर को, विप्रगण आपके कल्याण तथा प्रजा की समृद्धि के लिए नाना विधि-विधानों से चित्र-विचित्र यज्ञो द्वारा, यजन करते हैं और आप तो ऐसे यज्ञों में सहायता देने योग्य हैं। हे वीर! आपके राज्य में द्विज लोगों के यज्ञ करने से श्री नारायण के कला रूप सभी देवगण सन्तुष्ट होकर सभी को मनोवांछित फल देंगे। इसीलिए आपको इन यज्ञों की अवहेलना नहीं करनी चाहिए। जब उसने बहुत समझाने पर भी नहीं माना और यज्ञ बन्द करने के दुराग्रह पर अड़ा ही रहा तो ऋषियों ने श्राप देकर राजा वेन को मार डाला। पुन उनकी भुजाओं का मन्थन किया, जिससे राजा पृथु का जन्म हुआ और— अथादीक्षत राजा तु हयमेध शतेन सः ब्रह्मावर्त्तेमनोः क्षेत्रे यत्र प्राची सरस्वती ।1। —भागवत, चौथा स्क. अ. 29 फिर पृथु ने एक सौ अश्वमेध यज्ञ करने का संकल्प किया। जहां पश्चिमवाहिनी सरस्वती है—ब्रह्मा और मनु का ब्रह्मावर्त्त क्षेत्र है। यह यज्ञ बड़े ही विधि-विधान के साथ किया गया था, इससे वह अत्यन्त प्रभावशाली सिद्ध हो रहा था। इस यज्ञ के महान प्रभाव की कल्पना करने से इन्द्र का मन विचलित हो गया। वह अपने इन्द्रपद के छिन जाने की आशंका करने लगा।
तदभिप्रेत्य भगवान्कर्मातिशयमात्मनः । शतक्रतुन ममृषे पृथोर्यज्ञ महोत्सवम् ।2।
यत्र यज्ञपति साक्षाद्भगवान हरिरीश्वरः । अन्य भूयत सर्वात्मा सर्वलोक गुरु प्रभु ।3।
अन्वितो ब्रह्म शर्वाभ्यं लोकः पालैः सहानुगैः । उपगीयमानो गन्धर्वैमुनिश्चाप्सरो गणैः ।4।
सिद्ध विद्याधरा दैत्या दानवाः गुह्यकादयः । सुनन्द नन्द प्रमुखा पार्षद प्रवरा हरेः ।5।
कपिलो नारदो दत्तो योगेशः सनकादयः । तमन्वीयु र्भागवता ये च तत्सेवनोत्सुकाः
।6। अर्थ—ऐसी आशंका धारण कर ऐश्वर्यवान इन्द्र ने सोचा कि जब राजा पृथु का एक सौ यज्ञ पूरा हो जायगा तो मेरा देवराजत्व—स्वर्ग का राज्य छीन लेगा। यही सोचकर वह इस धर्म-महोत्सव को सहन नहीं कर सका। उस यज्ञ में साक्षात यज्ञपति भगवान् विष्णु जो सबके आत्मा और गुरु हैं, प्रगट हो गये थे, जिसके साथ ब्रह्मा, शिव, सर्वलोकपाल तथा उनके अनुचर भी थे। गंधर्व, मुनि, अप्सरा गण सब उनका यश गा रहे थे। सिद्ध, विद्याधर, दैत्य, दानव, गुह्यक तथा विष्णु के पार्षद नन्द−सुनन्द, कपिलदेव, नारद, दत्तात्रेय, सनकादिक योगेश्वर और जिनका मन भागवत सेवन में उत्सुक था, वे सभी वहां आकर उपस्थित हो गये।
यत्र धर्म दुधा भूमिः सर्वकाम दुधा सती । दोग्धि स्माभीप्सितानर्थान्यजमानस्य भारत ।7।
ऊहुः सर्व रसान्नद्यः क्षीर दध्यक्ष गो रसान् । तरवो भूरि वर्ष्माणः प्रासूयन्त मधुच्युतः ।8।
सिन्धवो रत्ननिकरान्गिर योऽन्नं चतुर्विवम् । उपायनमुपाजह्रुः सर्वेलोकास्सपालकाः ।9।
इतिचाधोक्षजेशस्य पृथोस्तु परमोदयम् । असूयन्भगवानिन्द्रः प्रतीघातमचीकरत् ।10। अर्थ—हे भारत! जहां सर्व मनोवांछित वस्तुओं को देने वाली पृथ्वी गो रूप धारण कर राजा पृथु यजमान को इच्छित अर्थों को देने के लिए सदा तत्पर है, वहां अभाव ही क्‍या हो सकता है? क्षीर, दधि, गोरस तथा अन्य रसों की उनके राज्य में सरितायें बह चलीं। विशालकाय तरुवरों में मधुस्रावि असंख्य फल फले ही रहते। सिन्धुओं ने अपार रत्न राशि प्रदान की, पर्वतों ने चार प्रकार की भोजन सामग्रियां प्रदान कीं (भक्ष्य, भोज्य, चोष्य और लेह्य)। लोकपाल सहित सबों ने अपने-अपने सुन्दर प्रकार के उपहार दिये। भला स्वयं, भगवान ही जिनके रक्षक हों उनके परम उदय—भाग्योत्कर्ष का वर्णन ही क्या हो सकता है? पृथु के इस उत्कर्ष को देखकर ईर्ष्यालु इन्द्र ने बिना अपराध के ही उनके महायज्ञ में विघ्न करने का निश्चय करके प्रतिघात करना प्रारम्भ किया। राजा पृथु के सौवे अश्वमेध यज्ञ में, इन्द्र ने वेष परिवर्तन करके माया के प्रपंच द्वारा घोड़े का अपहरण कर लिया, किन्तु पृथु के पुत्र ने बल पूर्वक घोड़ा छुड़ा लाया। माया और छल के द्वारा इन्द्र ने अपना प्राण बचाया। इस भांति दो बार इन्द्र ने घोड़ा चुराया और पृथु के पुत्र ने उसे बलपूर्वक छुड़ा लिया। दूसरी बार इन्द्र की इस नीच वृद्धि से पृथु को बड़ा क्रोध हुआ, उसने धनुष पर भयंकर बाण चढ़ाकर इन्द्र का नाश कर देने की इच्छा की, इस पर ऋषियों ने राजा पृथु से कहा— वयं मरुत्वन्तमिहार्थनाशनं हृयामहेत्वच्छ्वसा हतत्विषम् । अयातयामोपहबैरवन्तरं प्रसह्य राजञ्जुहवाम ते अहितम् ।28। —भागवत चौ. स्क., अ. 19 अर्थ—हे नृपेन्द्र! यदि आपकी इच्छा इन्द्र को मारने की ही है तो हे राजन्! आपके इस भयंकर बाण से तो इन्द्र सहित सारे देवलोक का ही नाश हो जायगा। अतः हम लोग उन अनर्थकारी, आपके यश-श्रवण से जलन वाले, आप के मंगल मनोरथ के नाश में लगे, अभिमानी इन्द्र को यज्ञ के सारे पूर्ण मन्त्रों द्वारा आवाहन करके इसी यज्ञ-अग्नि में होम कर देंगे। वस्तुतः वेदमन्त्रों की यज्ञीय मन्त्रों की तथा यज्ञ की शक्ति ही ऐसी है कि जिसके द्वारा इन्द्र सरीखे शक्तिशाली, देवों के राजा को भी खींचकर बुला लेना—या उसे अपने सारे समाज सहित बुला लेना और यज्ञाग्नि में भस्म कर देना असम्भव नहीं है। पृथु के समक्ष उनके ऋत्विजों ने कोई शेखी नहीं मारी थी, वरन् एक ध्रुव सत्य का संकेत किया था। वस्तुतः हुआ भी वैसा ही, इन्द्र को इस महाशक्ति के सामने झुकना ही नहीं पड़ा वरन् विवशता से सही रास्ते पर आना पड़ा। इत्यामन्त्र क्रतुपतिं विदुरास्यर्त्विजो रुषा । स्रु ग्धस्ताञ्जुहृतोऽर्भ्यत्य स्वयंभू प्रत्यषेधत ।9। —भागवत, चतुर्थ स्कन्ध अ. 19 अर्थ—ऋषियों की वाणी सुनकर राजा पृथु ने कहा—जब तक आप लोगों के द्वारा यज्ञीय मन्त्रों से खिंचकर अधर्मी इन्द्र मेरे सामने अग्नि-कुंड में जल नहीं जाता, तब तक मैं हाथ से धनुष नहीं त्यागूंगा, क्योंकि इस दुष्ट ने अकारण ही मेरे यज्ञ में विघ्न डाला है। इसके उपरान्त पृथु की इच्छा पूर्ण करने के लिये ऋषि अपने हाथ में स्रुवा उठा कर इन्द्र का उद्देश्य कर यज्ञ कुण्ड (अग्नि-कुण्ड) में आहुति देने लगे। जब यज्ञीय मन्त्रों से खिंचकर इन्द्र अग्निकुंड में गिरने ही वाले थे कि सहसा स्वयम्भू ब्रह्माजी ने उपस्थित हो ऋषियों से निवेदन कर इन्द्र को जलने से बचा लिया। यज्ञ पूर्ण हो जाने के पश्चात्— दत्ताशीर्वचनाः सर्वे पूजिता पृथुना च ते । स्व स्व स्थानं ययुहृष्टाः शंसतो यज्ञमुत्तमम् । 43। —भागवत च. स्क. 19 वां अध्याय अर्थ—राजा पृथु से पूजित हुए सर्व देवगण राजा को आशीष देते हुए—यज्ञ की उत्तमता की प्रशंसा करते हुए अपने−अपने स्थान को चले गये। भगवानपि बैकुण्ठः साकं मघवता विभुः । यज्ञैर्यज्ञपतिस्तुष्टो यज्ञभुक्तमभाषत ।1। एषतेऽकारषीद् भंग हयमेध शतस्य ह ।। क्षमापयतमात्मानममुष्य क्षन्तुमर्हसि ।। भा., च. स्क, अ. 20 अर्थ—यज्ञ पति और यज्ञ−भोक्ता भगवान विष्णु यज्ञों से प्रसन्न हो इन्द्र को साथ लिये आये और कहने लगे— भगवान बोले—इस इन्द्र ने आपका सौवां अश्वमेध यज्ञ भंग करना चाहा था, सो अब यह आपकी शरण में आया है, इसे क्षमा कर दीजिये। भगवान की बात सुनकर पृथु ने इन्द्र को क्षमा कर दिया। ऋषभदेव जी भगवान के अवतार माने जाते हैं। उन्हीं के पुत्र भरत के नाम पर इस देश का नाम भारतवर्ष हुआ है। भरत ने यज्ञों द्वारा ही इस देश को तपोभूमि बनाया था। द्रव्य देश कालवयश्शुद्धत्विविविग्वघोविद्देशोपचितैः । सर्वैरपि क्रतुभिर्यथोपदेशं शतकृत्व इयाज ।16। भगवतर्षभेण परिरक्ष्यमाण एतस्मिन्वर्षे न कश्चन पुरुषो वाछन्त्य विद्यमान विभात्मनो— न्यस्माष्कथंचन किमपि कर्हिचिदवेक्षते भर्तर्यनु सवनं विजृम्भित स्नेहातिशयमन्तरेण ।17। —भाग. पंचम स्क. अ. 4 अर्थ—भरत ने सब भांति पूर्ण विधि के साथ सौ−सौ बार अश्वमेध यज्ञ किये। उनके वे सब यज्ञ साधारण नहीं हुए। द्रव्य, देश काल, यौवन, श्रद्धा, ऋत्विक अनेक देवताओं के अर्थ इत्यादिक द्वारा, अतिशय बढ़−चढ़ कर सम्पन्न हुए थे। उस समय किसी पुरुष की दूसरे पुरुष से अपने लिये आकाश पुष्पवत् कुछ भी प्रार्थना करने की इच्छा नहीं हुई और कोई दूसरे की वस्तु पर लोभ दृष्टि नहीं करता था। सबों में सदा स्नेह और शील का उद्रेक होता रहता था। ऐसी स्थिति यज्ञों के द्वारा ही परिनिर्मित हुई थी। भरतस्तु महा भागवतो यदा भगवताऽवनितल परिपालनाय सचिन्तितः तदनुशासन परः पंचजनीं विश्वरूप दुहितरमुपयेमे । —भा. प. स्कं. अर्थ—महा भागवत भरत जी, भगवान् ऋषभदेव जी—अपने पिता के आदेश को स्वीकार कर पृथ्वी की रक्षा और प्रजा के पालन में प्रवृत्त हुए और पिता के आदेशानुसार ही उन्होंने विश्वरूप की कन्या पञ्चजनी का पाणिग्रहण किया। अजनाभ नामैतदवर्ष भारतमिति ततो आरभ्य व्यपदिशिति । —भाग., पंचम स्कन्ध अर्थ—हे राजन्! इस खण्ड का नाम पहले अजनाभ-वर्ष था परन्तु भरत के राजा होने के बाद ही इसका नाम भारतवर्ष प्रसिद्ध हुआ। भरत ने यज्ञों द्वारा इस देश की भूमि को पवित्र कर इसे विश्व ब्रह्माण्ड का सर्वश्रेष्ठ भाग बना दिया। स बहुविन्महीपतिः पितृ पितामहवदुरूवत्सलतया स्वे-स्वे कर्मणि वर्तमानाः प्रजाः स्वधर्ममनुवर्तमानः पर्यपालयत् ।4। ईजे च भगवन्तं यज्ञक्रतुरूपं क्रतुभिरुच्चावचैः श्रद्धयाहताग्नि होत्र दशपूर्णमास चातुर्मास्‍य यत्र क्रिया फलं धर्माख्यं परे ब्रह्माणि यज्ञ पुरुषे सर्व देवता लिंगानां मन्त्रानार्थं नियामकतया साक्षात्कर्तार पर देवतायां भगवति वासुदेव एवं भावयमान अतमनैपण्य मृदितकषायो हवि ।। अवध्वयुर्भिगृह्यमाणेषु स यजमानो यज्ञ भाजो देवास्ता न्पुरुषावयेवष्वभ्यध्यायत।।6।। —भा., पं. स्क., अ. 7 अर्थ—राजा भरत सर्वज्ञ थे। पृथ्वीपति होकर अभिमान रहित चित्त से अपने बाप-दादों की भांति प्रजा के ऊपर वात्सल्य भाव का प्रकाश करते रहे। अपने-अपने कर्मों में रत प्रजागणों का पालन करते हुए सदा श्रद्धा सहित अनेक छोटे तथा बड़े यज्ञ करके उनके द्वारा यज्ञ मूर्ति और क्रतुस्वरूप विष्णु भगवान् की पूजा करते रहते थे। उनको जिस−जिस अग्निहोत्र, दर्श, पौर्णमास, चातुर्मास, पशुयाग और सोमयज्ञ आदि में रुचि थी, उन सबों के द्वारा उन्होंने यज्ञपुरुष का यजन किया। ऐसे किसी यज्ञ को उन्होंने नहीं छोड़ा। कभी सर्वांगयुक्त, कभी विकलांग करके दोनों भांति से भगवान् की पूजा करते थे। चतुर्होत्र विधि से उपासना करते थे। जिनकी अंग क्रिया नित्य ही करने में आती है, ऐसे यज्ञों का सदा ही अनुष्ठान करते रहते थे और सभी यज्ञ कर्म के फल को भगवान् वासुदेव को समर्पित कर देते थे। यज्ञ में भाग लेने वाले सभी देवताओं को ये भगवान का ही एक अंग और विभूति मानकर सर्व भाव से यज्ञ फलादि को यज्ञ पुरुष भगवान को समर्पण कर देते थे। फलस्वरूप वे शीघ्र ही राग-द्वेषादि मलों से निवृत्त होकर परिशुद्ध बन गये। विश्वरूप को इन्द्र ने ऋत्विज् वरण किया था। किन्तु मातृ-कुल के कारण वे छिपकर असुरों को भी यज्ञ का कुछ भाग दे देते थे। यह जानने पर इन्द्र ने उसका सिर काट लिया। इस पर विश्वरूप पिता त्वष्टा अति क्रुद्ध हुए और— हतपुत्रस्ततस्त्वष्टा जुहावेन्द्राय शत्रवे । इन्द्र शत्रो विवर्धस्व मा चिरं जहि विदिषम् ।। अथान्वाहार्य पचनादुत्थितो धोर दर्शनः । कृतान्त इव लोकानां युगान्त समये यथा ।। अर्थ—विश्वरूप के मारे जाने पर उनके पिता त्वष्टा क्रोध पूर्वक इन्द्र को मारने वाला पुत्र उत्पन्न करने की कामना से यज्ञ करने लगे। किन्तु आहुति देते समय जब उसने शब्दों का उच्चारण किया कि हे इन्द्र शत्रो-शत्रो! तू वृद्धि को प्राप्त हो और शीघ्र शत्रु का विनाश कर। तब इन्द्र के सौभाग्य से इसका आदि शब्द उदात्त स्वर में उच्चारण होने से इन्द्र का शत्रु, यह अर्थ न होकर उसका अर्थ हो गया—हे इन्द्र हे शत्रु। थोड़ी सी आहुति डालने पर यज्ञ की दक्षिणाग्नि से युगान्तर कालीन कृतान्त के समान एक भयंकर असुर उत्पन्न हुआ। उपरोक्त कथा से प्रगट है कि यज्ञ क्रिया अवश्य ही परिणाम उत्पन्न करती है, किन्तु मन्त्रों का शुद्ध अर्थ बोधक उच्चारण ही होना चाहिए। अशुद्ध उच्चारण होने से उसी अर्थ के अनुरूप ही यज्ञ का परिणाम उत्पन्न होता है। राजर्षि अम्बरीष का यज्ञाराधन— ईजेऽश्वमेधैरधियज्ञमीश्वरम् महाविभूत्यो पचितांग दक्षिणैः । ततैर्वशिष्ठासित गौतमादिभिर्धन्वन्यमिस्रोतमसौ सरस्वतीम् ।। यस्य क्रतुषु गीर्वाणैः सदस्या ऋत्विजो जनाः । तुल्य रूपाश्‍च निमिषा व्यदृश्यन्त सुवाससः ।। स्वर्गो न प्रार्थितो यस्य मनुजैरमरप्रियः । श्रुण्वद्भिरूपगायद्भिरुत्तमश्लोक चेष्टितम् । —भा., स्क. 9, अ. 4, श्लो. 22, 23, 24 अर्थ—राजर्षि और प्रसिद्ध भक्त अम्बरीष अनेक अश्वमेधादि महायज्ञों द्वारा यज्ञपति भगवान् की आराधना किया करते थे। यज्ञ, एवं यज्ञ के अंग और दक्षिणा आदि में पर्याप्त सम्पत्ति व्यय करते थे। इनके यज्ञ के प्रधान ऋत्विज, वशिष्ठ, असित, गौतम आदि महर्षिगण थे। धन्य देश, जहां सरस्वती की धारा बहती थी, उसी पुण्य क्षेत्र में अम्बरीष यज्ञ किया करते थे। उनके यज्ञ में ऋत्विज् और सदस्यों की कान्ति देवताओं के समान ही दिव्य होती थी। यज्ञाराधन में तल्लीन रहने के कारण उनके पलक भी नहीं गिरते थे। यज्ञ द्वारा उत्पादित पवित्रता के प्रवाह से अम्बरीष की प्रजा में भी स्वर्ग-सुख-भोग की वासना नहीं रह गई थी। सभी केवल निष्काम भाव से यज्ञ द्वारा यज्ञेश्वर भगवान् की अर्चना, पूजा, भक्ति का गान एवं ध्यान में प्रवृत्त रहते थे। श्रीशुकदेव मुनि राजा परीक्षित से कहते हैं—
तं ब्राह्मणा भृगवः प्रीयमाणा अयाजयन्विश्वजितात्रिनाकम् । जिगीषमाणं विधिनाभिषिच्च महाभिषेकेण महानुभावा ।।4।।
ततो रथः कांचनपट्टनद्धो हयाश्चहर्यश्वतुरंगवर्णाः । ध्वजश्च सिंहेन विराजमानो हुताशनादास हविभिरिष्टान् ।।5।।
—भाग., अ. स्क., अ.15 अर्थ—राजा बलि की सेवा से शीघ्र ही भृगु वंशी ब्राह्मण (शुक्राचार्यादि) प्रसन्न हो गये। राजा बलि स्वर्ग जीतने की इच्छा करते हैं यह जानकर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। श्रेष्ठ ब्राह्मणगणों में सुप्रसिद्ध अभिषेक द्वारा राजा बलि का यथाविधि महाभिषेक कर उनसे विश्वजित यज्ञ विधान कराने लगे। जब उस यज्ञ की अग्नि में उचित आहुति दे दी गई, तब अति शीघ्र उस अग्नि में से स्वर्ण के पट से बंधा हुआ एक रथ, इन्द्र के घोड़ों के समान हरित वर्ण के घोड़े तथा सिंह मूर्ति अंकिता, एक ध्वजा की उत्पत्ति हुई। धनुश्च दिव्यं पुरटोपनद्धं तूणावरिक्तौ कवचं च दिव्यम् । पितामहस्तस्य ददौ च मालामम्लान पुष्पां जलजं च शुक्रः ।।6।। अर्थ—स्वर्ण के बन्दों से बंधा हुआ दिव्य धनुष, अक्षय बाणों से पूर्ण दो तूणीर और दिव्य कवच, ये वस्तुयें निकलीं। जब राजा बलि ने यज्ञ से इन सामग्रियों की प्राप्ति की तो उनके पितामह भक्त प्रहलाद ने नहीं कुम्हलाने वाले पुष्पों की माला तथा शुक्राचार्य जी ने एक शंख दिया। यज्ञ से बलान्वित हो, उस रथ पर बैठकर, दिव्य अस्त्र−शस्त्रादि एवं सैन्य लेकर राजा बलि ने इन्द्रलोक पर आक्रमण किया। देवगण इस साहस पूर्ण आक्रमण को अचानक उपस्थित पाकर घबड़ा उठे। सभी गुरु बृहस्पति के पास गये। बृहस्पति जी ने बताया कि अभी यज्ञ के कारण राजा बलि देवों से अधिक शक्तिशाली है, अतः बिना लड़ाई किये हट जाने में ही भलाई है। गुरुदेव के परामर्शानुकूल सभी देव, बिना युद्ध किये ही स्वर्ग छोड़कर अन्य आश्रम में चले गये।

देवेष्वथ निलीनेषु बलिर्वैरौचनः पुरीम् । देवधानीमधिष्ठाय वशं निन्ये जगत्त्रयम् ।।
तं विश्वजयिनं शिष्यं भृगवः शिष्यवत्सका । शतेन हयमेधानामनुव्रत मयाजयन् ।।
भा. स्क. 8, अ. 15,
श्लो. 33−34 अर्थ—यज्ञोत्पन्न तेज से युक्त राजा बलि को देख जब सभी देव अन्तर्ध्यान हो गये या पलायन कर गये तब विरोचन पुत्र राजा बलि स्वर्ग के सिंहासन पर विराजमान हुए। तीनों लोक उनके अधीन हो गये। इसके उपरान्त शिष्यों पर अति स्नेह करने वाले भृगुवंशी ब्राह्मणों ने विश्ववविजयी राजा बलि के इन्द्रत्व को चिरस्थायी बनाने के लिये, उनसे एक सौ अश्वमेध कराये। गार्हस्थ्य धर्म में यज्ञ का कितना महत्वपूर्ण स्थान है वह निम्न प्रकरणों से जानने में आता है— यज्ञों से जहां आत्म-कल्याण करने वाली महाशक्ति उत्पन्न होती है, वहां शत्रुओं को नष्ट करने वाली विकराल−प्रचंड शक्ति का भी आविर्भाव होता है। पौण्ड्रक जब भगवान् श्रीकृष्ण से लड़ रहा था तो काशी नरेश ने मित्रता के नाते उसे सहायता दी थी और वे भगवान् के हाथों मारे गये। पिता की मृत्यु से काशी नरेश के पुत्र सुदक्षिण को श्रीकृष्णचन्द्र जी पर बड़ा ही क्रोध हुआ। उसने पिता की हत्या का बदला लेने के विचार से तपस्यापूर्वक शिव की आराधना की। भोले बाबा ने साक्षात् दर्शन देकर उससे वरदान मांगने को कहा। उसने पितृ हत्यारे से बदला लेने का वरदान मांगा। शिव जी ने सारी विधियों सहित मारण यज्ञ विधि बताते हुए कहा— दक्षिणाग्निं परिचर ब्राह्मणैः सममृत्विजम् । अभिचार विधानेन सचाग्नि प्रथमैर्वृतः ।।30।। भागवत, दशम स्कन्ध, अध्याय 66 अर्थ—तुम ब्राह्मणों के साथ आज्ञाकारी ऋत्विज् सदृश्य दक्षिणाग्नि का यज्ञ द्वारा यजन करो। वह अपने गणों के साथ तेरे मनोरथों को पूरा करने का पूरा प्रयत्न करेगा। पर इसका प्रयोग ब्रह्मज्ञानियों की सेवा-भक्ति करने वाले पर न करना। शिवजी की बताई विधि के अनुसार सुदक्षिण ने दक्षिणाग्नि का यजन किया। विधि पूर्वक उसमें आहुति डाली—उपरान्त— ततोऽग्नि रुत्थितः कुंडान्मूर्त्तिमानति भीषणः । तप्त ताम्रशिखाश्मश्रुरंगारोद्गारिलोचनः ।।32।। दंप्ट्रोग्र भ्रकुटि दण्ड कठोरास्यः स्वजिह्वा । आलिहन सृव्किणी नग्नो विधुन्वंस्त्रिशिखं ज्वलन् ।।33।। पदभ्‍यां ताल प्रमाणाभ्याम् कम्पयन्नवनीतलम् । सोभ्यधावद् वृतो भूतैद्वरिकां प्रदहन्दिशः ।। 34।। अर्थ—आहुति डालते ही यज्ञाग्नि कुंड से अत्यन्त भयानक आकृति वाला अग्नि निकला, जिसकी जलते हुए ताम्बे के सदृश शिखा, दाढ़ी और मूंछें थीं। मुख और आंखों से अंगारे निकल रहे थे। बड़े−बड़े नुकीले दांतों वाला, लपलपाती जीभ एवं भयंकर भृकुटी सहित कठोर दण्डों के समान भयावना था। इस भांति लपलपाती जीभ से अपने होठों को चाटता हुआ, जलते हुए त्रिशूल को घुमाता, नंग−धड़ंग, ताड़ से लम्बे पावों द्वारा धरती को कंपाता दसों दिशाओं को जलाता हुआ, भयंकर भूत-प्रेत के संग द्वारका जा पहुंचा और उसे सभी ओर से जलाने लगा। नैमिषारण्य क्षेत्र, सृष्टि के आदि काल में स्वयं स्रष्टा के दीर्घकालीन यज्ञों द्वारा परम पावन हुआ था, उसके उपरान्त— नैमिषेऽनिमिषक्षेत्रे ऋषयः शौनकादयः । सत्रं स्वर्गाय लोकाय सहस्रं समसासत ।।4।। —भाग. प्रथम स्कन्ध, प्रथम अध्याय अर्थ—एक बार शौनक आदि 88000 अठासी हजार ऋषियों ने स्वर्ग-प्राप्ति करने के हेतु से नैमिषारण्य के पवित्र क्षेत्र में दस हजार वर्ष तक लगातार दीर्घ महायज्ञ करने का संकल्प किया। उन्हीं यज्ञादि के पवित्र प्रभावों से आज भी नैमिषारण्य पवित्र क्षेत्र बना हुआ है। गौ रूप धारिणी और वृषभ आकार धारण किए हुए धर्म को जिस समय कलियुग पार्थिव आकार ग्रहण कर उत्पीड़न दे रहा था, उसी समय राजा परीक्षित वहां पहुंच गए थे और उन्होंने इस सताने वाले दुष्ट का सिर तलवार से काट लेना चाहा। इस परिस्थिति को भांप कर दुष्ट, पर परीक्षित के सामने कमजोर, कलियुग उनके पांवों पर गिर पड़ा और प्राण भिक्षा मांगने लगा। इस पर राजा परीक्षित उसे कहते हैं— न वर्तितव्यं तद्धर्मबन्धो धर्मेण सत्येन च वर्तितव्ये । ब्रह्मावर्ते यत्र यजंति यज्ञैर्यज्ञेश्वरं यज्ञ वितान विज्ञा ।। यस्मिन्हरिर्भगवानिज्यमानः इज्या मूर्तिर्यजतां शंतनोति । कामान्मोघान्स्थिर जंगमानामन्तर्वहिर्वायुरिवैष आत्मा ।। —भा., प्र. स्कन्ध, प्र. अ. अर्थ—हे कलियुग! तू यहां मत रहो और सत्य, व्रत एवं धर्ममय आचरण करो तो रहो। यह ब्रह्मावर्त्त देश यज्ञ-भूमि है। यहां के ज्ञानी जन यज्ञ के विस्तार के लिये प्रयत्न करते रहते हैं और सदैव एवं सर्वत्र यज्ञेश्वर भगवान का यज्ञों द्वारा पूजन करते हैं। यज्ञ में सदैव भगवान का ही पूजन होता है एवं यज्ञरूप भगवान सदा ही यज्ञ-कर्त्ताओं के कल्याण का विधान करते रहते हैं और अमोघ रूपेण उनकी मनोकामना पूर्ण कर देते हैं। जिस भांति यह वायु, सर्वेव्यापी है, उसी भांति यज्ञेश्वर भगवान भी स्थावर-जंगम एवं सर्वत्र सब में ही निवास करते हैं। इस भांति श्रीमद्भागवत में अनेकों स्थानों पर यज्ञों की चर्चा है और उनका महत्व पग−पग पर प्रतिपादित किया गया है। ***
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