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सृष्टि-सञ्चालन करने वाली ईश्वर की शक्तियों का नाम देवता है। यह अनेक शक्तियां अनेक देवताओं के नाम से कही जाती हैं। इसका समस्त संसार की विभिन्न समस्याओं से तथा मनुष्य के व्यक्तिगत जीवन की सुख-समृद्धि, उन्नति-अवनति, हानि-लाभ, रोग, शोक आदि से अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध है। इन देव शक्तियों की अनुकूलता प्राप्त करके मनुष्य बड़ी सरलतापूर्वक अपनी उन्नति का द्वार खोल सकता है और यदि ये देव प्रतिकूल हों तो मनुष्य का कठोर परिश्रम भी निष्फल चला जाता है। देव शक्तियों को अनुकूल बनाने के लिए जितने भी साधन आदि याज्ञिक क्षेत्र में गिनाये गये हैं इनमें यज्ञ सर्वश्रेष्ठ है। यज्ञ से देवता प्रसन्न होते हैं और अभीष्ट परिणाम प्रदान करते हैं, इसके अनेक प्रमाण उपलब्ध होते हैं। उनमें से कुछ नीचे दिये जाते हैं—
मत्स्य उवाच—
प्रीयतां पुण्डरीकाक्षः सर्वयज्ञेश्वरो हरिः ।
तस्मिन्स्तुष्टे जगत् तुष्टं प्रीणिते प्रीणितं भवेत् ।।38।।
—अध्याय 239
श्लोक 38
अर्थ—कमलनयन भगवान विष्णु यज्ञ से प्रसन्न होते हैं। उनके संतोष में जगत् संतुष्ट है, उनकी प्रसन्नता में जगत् प्रसन्न होता है।
दैत्यराज बलि के यज्ञ में स्वयं वामन रूप धारण कर भगवान जनार्दन को आना पड़ा। अतिथि रूप में नहीं अपितु अभ्यागत रूप में।
व्रतोपवासैर्विविधैः प्रतिसंग्राह्यतेहरिः ।
स चेद्वक्ष्यति देहीति गोविन्द, किमतोऽधिकम् ।।20।।
—अध्याय 246 श्लोक 20
जो प्रभु नाना प्रकार के व्रत उपवास करने पर दुर्लभता से प्राप्त होता है, वही गोविन्द यदि दान देवे के लिये कहे, इससे अधिक और क्या हो सकता है। वह सब बलि के यज्ञ का ही प्रभाव है।
किन कर्मों से किन फलों की प्राप्ति होती है ऐसा ऋषियों के पूछने पर हंस ने कहा—
यज्ञेनलोकानाप्नोति पाप नाशं हुतेन च ।
जप्येन कामानाप्नोति सत्येन च परां गतिम् ।।
—विष्णु धर्मोत्तर पुराण, अध्याय 137 श्लोक 3
अर्थ—मनुष्य यज्ञ करने से विष्णु इत्यादि लोकों को प्राप्त करते हैं, हवन करने से पापों का नाश होता है, जप करने से कामादि भोगों को प्राप्त करते हैं और सत्य बोलने से परम पद की प्राप्ति होती है।
हंस यज्ञ की प्रशंसा वर्णन कर रहे हैं—
यज्ञेनदेवा जीवन्ति यतेन पितरस्तथा ।
देवाधीनाः प्रजासर्वा यज्ञधीनाश्चदेवताः ।1।
यज्ञोहि भगवान्विष्णुर्यत्र सर्व प्रतिष्ठिम् ।
यज्ञार्थ पशवः स्रष्टा देवास्त्वौषधयस्तथा ।2।
यज्ञार्थ पुरुषाः स्रष्टा स्वयमेव स्वयं भुवा ।
यज्ञश्च भूत्यै सर्वस्य तस्माद्यज्ञ परो भवेत् ।3।
यज्ञाशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्विषैः ।
धनयज्ञलाभांदेवंस्वं तद्विदुर्बुधा ।4।
यज्ञेन सम्यक्पुरुषस्तु नाके सम्पूज्यमानास्त्रिदशैर्महात्मा ।
प्राप्नोति सौख्यानि महानुभावास्तस्मात्प्रयत्नेन यजेत यज्ञैः ।।7।।
—विष्णु धर्मोत्तर पुराण, अध्याय 162
अर्थ—यज्ञ देवता जीते हैं तथा पितृगण जीते हैं। देवताओं के आधीन सब प्रजा है और यज्ञ के आधीन सब देवता हैं। यज्ञ ही भगवान विष्णु हैं, जिन विष्णु भगवान् में सब प्रतिष्ठित हैं। यज्ञ के लिये देवता तथा औषधियों की सृष्टि की गई है।
स्वयम्भूजी ने यज्ञ के लिये ही मनुष्यों की सृष्टि की और कहा—यज्ञ सबका कल्याणकारी है, इसलिये यज्ञ में तत्पर रहो। यज्ञावशिष्ट का भोजन करने वाले सब पापों से मुक्त हो जाते हैं, यज्ञ शीलों के धन को पण्डितों ने देवस्य, ‘दिव्य’ माना है।
यज्ञ के द्वारा महात्मा पुरुष स्वर्ग में जाकर देवताओं द्वारा अच्छी तरह पूजित होते हैं। हंस ऋषियों से कह रहे हैं, हे महानुभाव ऋषियो! यज्ञकर्त्ता महात्मा पुरुष स्वर्ग में जाकर अनेक सौख्यों को प्राप्त करते हैं, इसीलिये प्रयत्न पूर्वक यज्ञों द्वारा भगवान् का यजन करें।
हंस जी हवन-विधि का ऋषियों से वर्णन कर रहे हैं—
अग्निर्मुख देवतानां सर्वभूत परायणम् ।
तस्यशुश्रूणादेव सर्वान्कामान्समश्नुते ।।
सा मुर्तिपरमाविष्णोस्तदत्त प्राप्नुते रविः ।
सूर्याद् वृष्टिस्ततस्त्वन्नात्प्रभवेत जगत् ।।
अधप्रवर्षिणोदेवा सोमास्तूर्ध्वं प्रवर्षिणः ।
ऊर्ध्व प्रवर्षिणं मुख्य भौमदत्तं हुताशने ।।
वह्निदत्तेन हविषा तृप्ति मायन्ति देवता ।
तास्तृप्तास्तर्पयन्त्येन नरकाप्तसमृद्धिभिः ।।
होमेन पापं पुरुषो जहाति होमेन नाक च तथा प्रयाति ।
होमस्तु लोके दुरितं समग्रं विनाश यत्वेव न संशयोऽत्र ।।
—विष्णु धर्मोत्तर पु. अ. 287 श्लोक 3,4,5,7,15
अर्थ—सर्वभूतपरायण देवताओं का मुख अग्नि है, देवताओं की शुश्रूषा करने से ही सब कामों की प्राप्ति होती है। यज्ञाग्नि ही विष्णु की परम मूर्ति है उसी अग्नि में आहुति देने से सर्व हव्य को सूर्य प्राप्त करता है। सूर्य से वृष्टि होती है, वृष्टि से अन्न और अन्न से जगत् की उत्पत्ति होती है।।3,4।।
देवता नीचे की तरफ वर्षा करते हैं और मनुष्य लोग ऊपर की तरफ वर्षा करते हैं, अग्नि में ‘‘भूमि से उत्पन्न’’ हव्यों का हवन करना मुख्य ऊर्ध्व प्रवर्षण है।।5।।
अग्नि में हवि का हवन करने से देवताओं की तृप्ति होती है। वे देवता तृप्त होकर उस मनुष्य को इच्छित समृद्धि के द्वारा सन्तुष्ट करते हैं।।6।।
यज्ञ करने से आत्मा का मल दूर होता है और यज्ञ करने से स्वर्ग की प्राप्ति होती है, यज्ञ से लोक के समस्त दुष्कर्म नाश होते हैं, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं।।15।।
दैवेकर्मणियुक्तोहि विभर्तीदं चराचरम् ।।75।।
अग्नौ प्रास्याहुतिः समगादित्यमुपतिष्ठते ।
आदित्याज्जायते वृष्टिर्वृष्टेरन्नं ततः प्रजाः ।।76।।
—मनुस्मृति, तीसरा अध्याय
अर्थ—जो देव होम कर्म में युक्त हैं, वह चराचर का पोषण करता है, क्योंकि अग्नि में डाली आहुति आदित्य को पहुंचती है और सूर्य से वृष्टि होती है और वृष्टि से अन्न, अन्न से प्रजा होती है। इसलिये जो यज्ञ करता है, वह सम्पूर्ण प्रजा का पालन करता है।
यज्ञैराप्यायिता देवा वृष्ट्युत्सर्गेणवैप्रजाः ।
आप्याययन्तेधर्मज्ञ यज्ञाः कल्याण हेतवः ।।8।।
—श्री विष्णु पुराण प्र. अंश अध्याय 6
अर्थ—हे धर्मराज! यज्ञ से तृप्त होकर देवगण जल बरसाकर प्रजा को तृप्त करते हैं। यज्ञ सर्वथा कल्याण का हेतु है।
भरद्वाज उवाच—
या यज्ञैरिज्यते देवो वासुदेवः सनातनः ।
ससर्वदैवत तनुः पूज्यते परमेश्वर ।।
—कूर्मपुराण पूर्वार्ध अ. 20 श्लोक 40
अर्थ—जो यज्ञों में सनातन वासुदेव का भजन करते हैं वह सब देवों के शरीर रूप परमेश्वर का पूजन करते हैं, अर्थात् सनातन वासुदेव का यज्ञों में यजन करने से सर्व देवताओं का यजन हो जाता है।
ब्रह्माजी ऋषियों को भगवान शिव के प्रसन्न करने का साधन बताते हैं।
तस्मादीश प्रसादार्थऽयूयं गत्वा भुवद्विजाः ।
दीर्घसत्रं समाकृध्वं यूयं वर्ष सहस्रकम् ।।1।।
—शिवपुराण वि. स. 1 अ. 4
अर्थ—(यज्ञ ही शिव को प्रसन्न करने का श्रेष्ठ साधन है) इसलिये हे ऋषिगणो! तुम सभी पृथ्वी पर जाकर एक सहस्र वर्ष तक दीर्घकालीन विशाल यज्ञ करो।
श्रीनारदीय महापुराण से ये वाक्य लिये गये हैं—
ये विष्णुभक्ता निष्कामा यंजंति परमेश्वरम् ।
त्रिसप्ताकुला संयुक्तास्ते याति हरिमन्दिरम् ।।
—वृहद नारदपुराण अ. 39 श्लोक 61
इसका भाव आशयः ऐसा है—
‘‘जो निष्काम भाव से यज्ञ के द्वारा परमात्मा का पूजन करता है, वह अपने इक्कीस पीढ़ियों को हरिमन्दिर पहुंचाता है।’’
ये यजंति स्पृहा शून्य हरिभक्तान् हरिस्तथा ।
त एव भुवनं सं पुनाति स्वांध्रिपांशुना ।।1।।
—वा. पु. अ. 39 श्लोक 64
सूतजी ऋषियों से कहते हैं—
‘‘जो ममता के बिना ईश्वर तथा ईश्वर भक्तों को यज्ञ के द्वारा पूजते हैं, वही अपने चरण-रज से सारे संसार को पवित्र बनाते हैं।’’
देव देव पतिः साक्षाद्विष्णुर्वामनरूप धृक् ।।
तुष्टाव यज्ञं वह्निं च यजमानमथर्त्विजः ।।
यज्ञ कर्माधिकार स्थान्सदस्यान्द्रव्ययसंपदः ।।
—वामन पुराण (37।46)
अर्थ—देवाधिदेव साक्षात् विष्णु भगवान वामन रूपधारी ने यज्ञ तथा अग्निदेव को सन्तुष्ट किया, जैसे ऋत्विज् यजमान को करता है।
शिवजी कहते हैं—
इज्यया चैव मन्त्रेण मामेव हिं यजन्ति ये ।
न तेषां भयमस्तीति भव रुद्र यजन्ति यत् ।43।
—मत्स्य पुराण अध्याय 183।1 श्लो. 43
अर्थ—यज्ञ व मन्त्र से जो मेरा ही पूजन करते हैं, जो रुद्र का यजन करते हैं, वे भय रहित हो जाते हैं।
अविमुक्ते यजन्ते तु मद्भक्ताः कृतश्चियाः
तेषां पुनरावृत्तिः कल्प कोटिशतैरपि ।24।
—अध्याय 183।1 श्लो. 24
अर्थ—दृढ़ निश्चययुक्त मेरे भक्त मुक्ति के लिये यदि यज्ञ से मेरा यजन करें तो सैकड़ों, करोड़ों कल्पों तक उनकी संसार में पुनरावृत्ति नहीं होती।
यज्ञाद् देवाः प्रजाश्चैव यज्ञादन्नानि योगिनः ।
सर्वयज्ञात्सदाभाविस् सर्वंयज्ञमयञ्जगत ।140।
—कालिका पुराण अध्याय 31
अर्थ—यज्ञ से देवता व प्रजा सन्तुष्ट होते हैं। यज्ञ से अन्न की उत्पत्ति होती है। यज्ञ करने से ही संसार हमेशा शोभा पाता है। यह सारा संसार यज्ञ रूप ही है।
यज्ञेषु देवास्तुष्यन्ति यज्ञे सर्वम्प्रतिष्ठितम् ।
यज्ञेन ध्रियते पृथ्वी यज्ञस्तारयति प्रजा ।।7
—कालिका पुराण (अध्याय 32)
अर्थ—यज्ञों से देवता सन्तुष्ट होते हैं। यज्ञों में सारा संसार प्रतिष्ठित है। पृथ्वी माता यज्ञ से धारण की हुई हैं। यज्ञ ही प्रजा को तारता है।
भोक्ता स सर्व यज्ञानां शंकरः परमार्थतः ।
—सौर पुराण अ. 7 श्लोक 14
अर्थ—भगवान् शंकर यज्ञ के भोक्ता हैं अर्थात् भगवान शंकर यज्ञ से प्रसन्न होते हैं।
इज्यते सर्व यज्ञेषु ।
—(सौ. पु. 7।36)
अर्थ—यज्ञ से भगवान शंकर की पूजा होती है।
यज्ञश्चान्येयजन्त्येव तर्पयन्ति जनार्दनम् ।
तेनचान्नेनदेवेश तृप्तिं गच्छन्ति देवता ।।38
—पद्म पुराण 5 वां खण्ड
‘‘सत्पुरुष यज्ञ द्वारा भगवान् का पूजन करते हैं जिसके द्वारा देवता तृप्त होते हैं।’’
यज्ञ के द्वारा उत्पन्न हुई शक्ति देवताओं को सबल बनाती है और उसी के द्वारा परिपुष्ट होकर वे सृष्टि रचना से लेकर विश्वकल्याण के समस्त कर्मों का आयोजन करते हैं।
मैत्रेयजी ब्रह्माजी की सृष्टि एवं वर्ण, गुण, कर्म सम्बन्धी जिज्ञासा के उत्तर में पराशरजी से कह रहे हैं।
यज्ञ निष्पर्त्तये सर्वमेतद् ब्रह्मा चकार वै ।
चातुर्वर्ण्य महाभाग यज्ञ साधनमुत्तमम् ।।7
अर्थ—हे महाभाग! ब्रह्मा जी ने यज्ञानुष्ठान के लिये ही यज्ञ के उत्तम साधन रूप इस सम्पूर्ण चातुर्वण्य की रचना की थी।
भगवान ने यज्ञ को मानव का साक्षात धर्म बतलाया है क्योंकि यज्ञ ने सारा संसार धारण किया है। इसका प्रतिपादन यजुर्वेद ने किया है—
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतं सम्भृतं पृषदाज्यम् ।
पशूस्ताश्चक्रे वायंव्यानारण्या ग्राम्याश्च ये ।।
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतंऽऋचः सामनि जज्ञिरे ।
छन्दां सि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजा यात ।
—(यजु. 11-6-7)
अर्थ—परमात्मा ने यज्ञ से संसार के सब पशुओं को और ऋचाओं अर्थात् वेद ज्ञान ऋग, यजु, साम, अथर्व से ही रचा और प्रकट किया और यज्ञ से ही इनको धारण कर रक्खा है।
यज्ञ द्वारा देवताओं को जब उनका भाग प्राप्त नहीं होता, वे दुर्बल हो जाते हैं, फलस्वरूप संसार पर नाना प्रकार की आपत्तियां आती हैं यथा—
मार्कण्डेय उवाच—
यज्ञाभावात्तु देवानामन्नं सर्वक्षयंगतम् ।
पर्जन्याश्च ततोनष्टास्ततो वृष्टिर्न्नचाभवत् ।।112
वृष्ट्यभावेतु लोकानामाहाराः क्षीणतांगता ।
दुर्भिक्षे व्यसनोपेते सर्वलोके द्विजोत्तमा ।।।113।।
—कालिका पुराण अध्याय 20
अर्थ—मार्कण्डेयजी कहते हैं कि यज्ञ के अभाव से देवों के अन्न का क्षय होता है। फिर बादलों के नष्ट होने से वर्षा का होना बन्द हो जाता है। वृष्टि के अभाव होने से मनुष्यों को भोजन की कमी हो जाती है और सब लोक अकाल−दुर्भिक्ष से ग्रस्त हो जाते हैं।
यज्ञे विनष्टे सकलाः प्रजाः क्षुद्भयकातराः ।
वृष्ट्यभावान्महद्दुः खम्प्राप्यनेन्टाश्चात्मनं ।।16।।
—कालिका पुराण अ. 20
‘‘यज्ञों के बन्द होने पर सारी प्रजा भय से दुःखी हो जाती है और वर्षा के अभाव से प्रजा बहुत कष्ट पाकर नष्ट हो जाती है।’’
न यज्ञा सम्प्रवर्त्तन्ते न तपस्तपन्ति तापसाः ।
आहार दुःखानि श्री काः प्रजा क्षीणाभयातुराः ।।
‘‘यज्ञों और तपस्या के न करने से प्रजा आहार की कमी से उत्पन्न दुःख से, धन की कमी से तथा भय से व्याकुल हो जाती है।’’
यज्ञ की महिमा अपार है। उसको विश्व क्षेत्र में विचरण करने वाला एक निर्द्वन्द सांड़ कहा गया है। इसकी शक्ति की सर्वत्र विजयघोष हो रहा है। यह यज्ञ रूपी सांड़ अपनी दहाड़ से संसार को कम्पायमान करता रहता है।
चत्वारि श्रृंगा त्रयो अस्य पादा द्वे शीर्षे सप्तहस्ता सो अस्य ।
त्रिधा वद्धो वृषभो रोरवीति महोदेवो मर्त्या अविशेषे ।।
—गो. ब्रा. 3।7
अर्थ—ऋग् यजुः, साम एवं अथर्व चारों वेद इसके सींग हैं। प्रातः मध्याह्न और सायं सवन-ये इनके तीन तीन पैर हैं। ब्रह्मौदन, प्रवर्ग्य दो मस्तक हैं। मन्त्र, कल्प, ब्राह्मण इन तीनों से मर्यादित है। इसके सात हाथ गायत्री आदि सातों छन्द हैं। ऐसा यज्ञ−वृषभ संसार में रोर कर रहा है।
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