gytri yagya vidhan part 2

यज्ञ द्वारा तीर्थों की स्थापना

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यज्ञ का महत्व—
सृष्टि के आरम्भ काल में ही स्रष्टा ने सहस्र वर्ष का यज्ञ किया था।
सिसृक्षमाणो विश्वं हि यजतेविस्रजतपुरा ।
सत्रं हि ते अतिपुण्यं च सहस्रं परिवत्सरान् ।।6।।
तर्पो गृहपतेयत्रं ब्रह्मा चैवाभवत्स्वयम् । ड
ठाया यत्र पत्नीत्वं शामित्रं यत्र बुद्धिमान ।।7।
। —ब्र. पु. पूर्व प्रक्रिया पद अ. 1
श्लोक 5।6।7 अर्थ—कल्प के आरम्भ काल में जिस समय सृष्टि की रचना की जा रही थी उस समय अति पुण्यमय महायज्ञ का अनुष्ठान सहस संवत्सर के लिए हुआ था। इस महायज्ञ के अनुष्ठाता स्वयं ब्रह्मा जी थे और उनकी पत्नी इडा जहां उपस्थित थी और बुद्धिमान शामित्र भी उपस्थित था। यज्ञ से सृष्टि की रचना का ब्रह्म पुराण में इस प्रकार वर्णन है:— विष्णु की नाभि से निकले हुए कमल से ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश पांच तत्व पहले ही उत्पन्न हो चुके थे। उस समय अन्य कोई वस्तु प्रकट नहीं हुई थी। ब्रह्मा मौन बैठे हुए थे। वह किंकर्तव्य विमूढ़ की अवस्था में थे। कारण उनको कुछ भी सूझ नहीं पड़ रहा था, आकाशवाणी हुई, जगत की सृष्टि करो। यह सुनकर ब्रह्मा ने कहा—मैं कैसे, कहां और किस साधन से सृष्टि की रचना करूं। उत्तर मिला—यज्ञ करो, इससे तुम्हें शक्ति प्राप्ति होगी। यज्ञ ही विष्णु है, यह सनातन सत्य है। ऐसा सोचकर यज्ञ करो। इसके करने से कोई भी वस्तु दुर्लभ नहीं है। ब्रह्माजी ने पुनः प्रश्न किया—कहां और किस वस्तु का यज्ञ करूं? आकाशवाणी ने ब्रह्मा को रहस्य समझाया। ब्रह्माजी ने रहस्य को समझा और उसके आदेशानुसार यज्ञ का संकल्प किया। यज्ञ का संकल्प करते ही इतिहास, पुराण आदि सब शास्त्रों का उन्हें ज्ञान हो गया। तत्काल ही सम्पूर्ण वेद उन्हें ज्ञात हो गये, सब आवश्यक सामग्रियां स्वयं ही उपस्थित हो गईं। इस प्रकार भगवान ब्रह्मा ने यज्ञ प्रारम्भ किया। इस पुरुष से अनेक वस्तुयें प्रकट हुईं। मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, मुख से इन्द्र और अग्नि, जांघों से वैश्य, पद से शूद्र, प्राण से वायु, कान से दिशायें मस्तक से सम्पूर्ण स्वर्गलोक, मन से चन्द्र, नेत्र से सूर्य, नाभि से अन्तरिक्ष तथा पृथ्वी की उत्पत्ति, रोमकूपों से ऋषि, केशों से औषधियां, नखों से पशु (जंगली) आदि प्रकट हुए। इन सबके अतिरिक्त सब कुछ स्थावर, जंगम तथा दृश्य−अदृश्य जगत उस ब्रह्मा से उत्पन्न हुआ। इतना होने पर पुनः पुनीत वाणी सुनाई दी, ब्रह्मन्! सब पूर्ण हो गया। अब सब पापों की अग्नि में आहुति करदो। यूप, प्रणीता, कुश, ऋत्विज, यज्ञ, स्रुवा पुरुषों को और पाश सबका विसर्जन कर दो। इस प्रकार भगवान के आदेशानुसार ब्रह्मा ने यज्ञ से समस्त सृष्टि की रचना की। ब्रह्माजी के प्रणीता का जो जल था वह प्रणीता नदी के रूप में परिवर्तित हो गया। फिर प्रणीता कान कुशों से मार्जन करके विसर्जन किया। मार्जन के समय प्रणीता के जल की बूंदें इधर−उधर अनेक स्थानों पर गिरीं, जहां-जहां इस जल की बूंदें पड़ीं, वहीं उत्तम गुण वाले तीर्थों की उत्पत्ति हो गई। उन तीर्थों की यात्रा, ध्यान, स्नान आदि यज्ञ फल देने वाले हैं। भगवान विष्णु का जिसमें सदैव निवास है यह सर्वगुण सम्पन्न गौमती−प्रणीता स्वर्ग को देने वाली है। सम्मार्जन करने के बाद जिस स्थान पर कुश गिरे थे, वह स्थान कुश तर्पण तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध हो गया। यज्ञ करते समय, विन्ध्या पर्वत के उत्तर में, जहां यूप खड़ा किया, वह स्थान भगवान विष्णु का प्यारा क्षेत्र बन गया। वह स्थान जहां पर यज्ञ किया गया था, वहां तीन कुण्ड हैं, जो यज्ञेश्वर स्वरूप हैं। वह स्थान देव यजन के नाम से लोकों में प्रसिद्ध हो गया। दण्डकारण्य ब्रह्मा के यज्ञ का मुख्य स्थान है। इसी प्रकार उस महायज्ञ द्वारा अनेक तीर्थों की उत्पत्ति हुई। मार्कण्डेय पुराण में गोवर्धन पर्वत का महात्म्य करते हुए बताया गया है कि उस स्थान पर नान्दी जी के आदेशानुसार एक बड़ा यज्ञ हुआ। इस यज्ञ के फलस्वरूप गोवर्धन पर्वत प्रमुख तीर्थ बन गया और भगवान ने उसे अंगुली पर उठाकर बहुत बड़ा श्रेय प्रदान किया। ब्रह्म पुराण अध्याय 18 श्लोक 21, 22, 23 में यज्ञों द्वारा जम्बूद्वीप की महानता का प्रतिपादन है—
तपस्तप्यन्ति यतयो जुह्वते चात्र याज्विन । दानामपि चात्र दीयन्ते परलोकार्थमादरात् ।।21।।
पुरुषैर्यज्ञ पुरुषो जम्बूद्वीपे सदेज्यते । यज्ञार्यज्ञमयोविष्णु रम्य द्वीपेसु चान्यथा ।।22।।
अत्रापि भारतश्रेष्ठ जम्बूद्वीपे महामुने । यतो कर्म भूरेषा ययोऽन्या भोग भूमयः ।।23।।
अर्थ—भारत भूमि में यति लोग तपश्चर्या करते हैं, यज्ञ करने वाले हवन करते हैं तथा परलोक के लिए आदर पूर्वक दान भी देते हैं जम्बूद्वीप में सत्पुरुषों के द्वारा यज्ञ भगवान का यजन हुआ करता है। यज्ञों के कारण यज्ञ पुरुष भगवान जम्बूद्वीप में ही निवास करते हैं। इस जम्बूद्वीप में भारतवर्ष श्रेष्ठ है यज्ञों की प्रधानता के कारण इसे (भारत को) कर्म भूमि तथा और अन्य द्वीपों को भोग-भूमि कहते हैं। तीर्थों की स्थापना वहां−वहां ही हुई, जहां−जहां बड़े यज्ञ हुए। ‘प्रयाग’ शब्द में ‘प्र’ उपसर्ग को हटा देने पर ‘‘याग’’ शब्द रह जाता है। याग-यज्ञ की प्रचुरता रहने के कारण ही वह स्थान तीर्थराज प्रयाग बना। काशी-वाराणसी के दशाश्वमेध घाट इस बात के साक्षी हैं कि इन स्थानों पर दश बड़े-बड़े यज्ञ हुए हैं और उन्हीं के प्रभाव से इन स्थानों को इतना प्रमुख स्थान मिला। कुरुक्षेत्र, नैमिषारण्य आदि सभी क्षेत्रों में तीर्थों को उद्भव यज्ञों से हुआ है। जिस स्थान पर यज्ञ होते हैं वह स्थान तीर्थ बन जाता है। इसके कुछ विवरण देखिए—
असीम कृष्णे विक्रान्ते राजन्येऽनुपमत्विषी । प्रशासतीमां धर्मेण भूमिं भूमिपसत्तमे ।।12
ऋषयः संशितात्मानः सत्यव्रत परायणः । ऋजवो तष्ट रजसः शान्ता दान्ताः जितेन्द्रियाः ।।13
धर्मक्षेत्रे दीर्घसत्रं तु ईजिरो । नद्यास्तीरे दृषद्वत्याः पुण्य द्याः शुचि रोधसः ।।14
—वायु पु. प्रक्रिया पाद, प्रथम अ. अर्थ—जिस समय अनुपम कान्तिवान्, विक्रमशाली नरपति श्रेष्ठ राजा असीम कृष्ण धर्म पूर्वक इस पृथ्वी पर शासन करते थे, उस समय पवित्र पुलिना दृषद्वती नदी के तीर पर धर्मक्षेत्र, कुरुक्षेत्र, में सरल, शान्त, दान्त, जितेन्द्रिय, रजोगुण विहीन, सत्यपरायण, ऋषियों ने दीर्घसत्र (बहुत दिनों तक निरन्तर होते रहने वाला महायज्ञ) किया था। ऋषियों ने सूतजी से प्रारम्भिक महायज्ञ के स्थान, समय, प्रकार आदि के सम्बन्ध में प्रश्न किया। उसके उत्तर में सूत जी कहते हैं। सिसृक्षमाणा विश्वं हि यत्र विश्वसृजः पुरा । सत्रं हि ईजिरे पुण्यं सहस्र परिवत्सरान् ।।
तपोगृहपतिर्यत्र ब्रह्माऽभवत्ध्रुवम् । इलाया यत्र पत्तीत्वं शामित्रं यत्र बुद्धिमान् ।।6
मुत्युश्चक्रे महातेजास्तस्मिन्सत्रे महात्मनाम् । विविधा ईजिरेतत्र सहस्रं प्रतिवत्सरान् ।।7
भूमतो धर्मचक्रस्य यत्र नेमिशीर्यत् । कर्मणातेन विख्यात नैमिषं मुनि पूजितम् ।।9
—वायु पुराण प्र. पा. द्वि. अ.
अर्थ—जहां विश्व की सृष्टि की इच्छा से सृष्टि के आदि काल में (ब्रह्मा) श्रष्टा ने हजारों वर्ष पर्यन्त पवित्र यज्ञ किया था, जिस यज्ञ में स्वयं तप ही यजमान और स्वयं ब्रह्मा ही ब्रह्मा बने थे, जहां इडा ने पत्नीत्व तथा शामित्र का काम स्वयं बुद्धिमान, तेजस्वी मृत्यु देव ने किया था। महान आत्माओं के इस दीर्घ एवं विशाल यज्ञ में धर्म की नेमि घूमते-घूमते विशीर्ण हो गयी थी—(यानी धर्म की अति अधिकता से सब कुछ धर्माप्लुत गया था) इसलिये ऋषि मुनि पूजित उस प्रदेश का नाम नैमिषारण्य पड़ गया। स्कन्द पुराण महेश्वर खण्ड में उल्लेख है कि वृत्रासुर ने इन्द्र को ऐरावत हाथी समेत निगल लिया। इससे देवताओं में हा-हाकार मच गया। तब आकाशवाणी हुई। आकाशवाणी के अनुसार देवताओं ने आशुतोष शंकर का मन्त्र जपा तथा उसका दशांश हवन किया। इस यज्ञ प्रभाव से इन्द्र वृत्रासुर का पेट फाड़कर निकल आये। उदार बुद्धि वाले विरोचन पुत्र बलि ने शुक्राचार्य से पूछा— भगवन् इन्द्र किस प्रकार हमारे अधीन हो सकते हैं? शुक्राचार्य ने उत्तर दिया— हे दैत्यराज! तुम विश्वजित नामक यज्ञ करो। यज्ञ बिना यह कार्य सिद्ध नहीं हो सकेगा। शुक्राचार्य ने बलि से यज्ञ प्रारम्भ कराया। विधिपूर्वक जब यज्ञ में आहुति दी जा रही थी, उसी समय अग्नि से एक बड़ा ही अद्भुत रथ उत्पन्न हुआ। वह कान्तिवान रथ भांति-भांति के शस्त्रों से संयुक्त एवं अस्त्रों से सुसज्जित था। यज्ञ पूर्ण करने के उपरान्त राजा बलि उसी रथ पर सवार होकर सेना सहित स्वर्ग पहुंच गये। देवगण इन्द्रपुरी को राक्षसों से घिरा देख गुरु बृहस्पति के पास गये और बोले इस समय हम क्या करें। बृहस्पति ने देवताओं से कहा—ये दैत्य लोग अभी यज्ञ समाप्त करके आए हैं। इस यज्ञ के बल से वे अजेय हैं। गुरु की बात सुन सभी देव व्याकुल होकर बिना लड़ाई किये ही, स्वर्ग छोड़ कश्यपजी के पवित्र आश्रम पर चले गये। नारदजी के पूछने पर ब्रह्माजी कहते हैं— वेदों के आधार ब्राह्मण हैं तथा ब्राह्मण के देवता अग्नि हैं। अग्नि में आहुति डालने वाला ब्राह्मण, यज्ञ में भगवान का भजन करता हुआ सम्पूर्ण जगत को धारण करता है। स्कन्द पुराण में वर्णन है कि धर्मात्मा राजा दिवोदास का वचन सुनकर ब्रह्माजी बड़े सन्तुष्ट हुए, उन्होंने यज्ञ सामग्रियों का संग्रह किया और राजर्षि दिवोदास की सहायता पाकर काशी में दस अश्वमेध नामक महायज्ञ द्वारा भगवान का यजन किया। तभी से वहां वाराणसी पुरी में मंगलदायक दशाश्वमेध नामक तीर्थ प्रकट हुआ। पहले उसका नाम रुद्र सरोवर था। इसी प्रकार अयोध्या के सम्बन्ध में उल्लेख है कि अयोध्यापुरी में सूर्यवंशी राजा वैवस्वत मनु, चक्रवर्ती नरेश के पद पर प्रतिष्ठित थे। वे सदा यज्ञ और दान में लगे रहते थे। इससे उनके शासन काल में अयोध्यापुरी के भीतर मृत्यु, रोग, और वृद्धावस्था का कष्ट किसी को भी नहीं होता था। सूर्यवंश में चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त प्रसिद्ध है। उन्होंने नर्मदा और वागु के संगम में एक श्रेष्ठ यज्ञ किया था, जिसमें ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, गणेश तथा महादेव जी ने प्रत्यक्ष होकर अपना भाग ग्रहण किया। ब्रह्मदत्त के यज्ञों से प्रेतों को भी बड़ी तृप्ति हुई, ब्रह्मदत्त के उस यज्ञ में आकर वे सभी पाप मुक्त हो गये और ब्रह्माजी के लोक को गये। यज्ञ के प्रभाव से वह नर्मदा वागु संगम भी एक पवित्र तीर्थ बन गया। जब रामचन्द्र जी धर्मारण्य गये और वहां इस स्थान की प्रतिष्ठा बढ़ाने का उपाय वशिष्ठजी से पूछा तो उन्होंने उत्तर दिया— यज्ञं कुरु महाभाग धर्मारण्ये त्वमुत्तमम् । दिने-दिने कोटि गुणं यावद्वर्ष शतं भवेत् ।। अर्थ—हे महाभाग रामचन्द्रजी! आप इस धर्मारण्य में उत्तम यज्ञानुष्ठान कीजिये। इस यज्ञ के प्रभाव से इस स्थल की पवित्रता की शक्ति एक सौ वर्ष तक बढ़ती चली जायगी, जो (पवित्रता-तीर्थ-रूपता) मनुष्यों में कोटि-कोटि शत् गुणों का विकास और वृद्धि करती रहेगी। काशीराज दिवोदास ने ब्रह्माजी के कथनानुसार यज्ञ सामग्री एकत्रित की। उसके द्वारा ब्रह्माजी ने दश अश्वमेध नामक यज्ञों से महायज्ञेश्वर भगवान् का यजन किया और—
तीर्थं दशाश्वमेधाख्यं प्रथितं जगतीतले । तदा प्रभृति तत्रासीद्वाराणस्यां शुभप्रदम् ।।68
पुरा रुद्रसरौ नाम तीर्थः कलाशोद्भवः । दशाश्वमेधकं पश्चाज्जातं विधि परिग्रहात् ।।69
—स्क. पु., ख. 4 उ. स. अ. 52
अर्थ—उस दिन से दशाश्वमेध नाम से वह तीर्थ प्रख्यात हुआ। पहले उसका नाम रुद्र सरोवर था। दश अश्वमेध यज्ञ करने से ही उसका नाम दशाश्वमेध तीर्थ हुआ। ***
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