gytri yagya vidhan part 2

यज्ञ की अनिर्वचनीय महत्ता

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ॐ आदित्य रास्नासि विष्णोर्वेष्योऽस्यूर्जेत्वाऽदब्धेन त्वा चक्षुषावपश्‍यामि । अग्नेर्जिह्वासि सुहूर्देवेम्यो धाम्ने धाम्ने मे भव यजुषे यजुषे ।
—यजुर्वेद 1।30

अर्थात्—जिस प्रकार परमात्मा वेद के प्रत्येक मन्त्र से प्रतिपादित है तथा सर्वव्यापी एवं उपासना करने योग्य है। उसी प्रकार यज्ञ भी वेद के प्रत्येक मन्त्र से प्रतिपादित, सब प्राणियों को बल तथा सुख साधन पहुंचाने वाला है।

यो यज्ञे यज्ञ परमैरिज्यते यज्ञसंज्ञितः ।
तं यज्ञं पुरुषं विष्णुं नमाभि प्रभुमीश्वरम् ।।

‘‘जो यज्ञ द्वारा पूजे जाते हैं, यज्ञमय है, यज्ञ रूप हैं उन यज्ञ रूप परमेश्वर को नमस्कार है।’’
भारतीय धर्म शास्त्रों में यज्ञ को ईश्वर रूप माना गया है। सब वेदों में ज्येष्ठ ऋग्वेद के सर्व प्रथम मन्त्र ‘‘अग्निमीड़े पुरोहित’’ में अग्नि रूप परमात्म की वन्दना एवं प्रार्थना की गई है। इससे प्रतीत होता है कि वेद के अवतरण से भी पूर्व अग्नि रूप भगवान की महिमा प्रकट थी।
वैदिक काल सृष्टि का आरम्भिक काल माना जाता है। सृष्टि के आदि में हमें भगवान का ज्ञान वेद समाधिगत तत्व दृष्टि वाले ऋषियों द्वारा प्राप्त हुआ। वेद हमारी जाति का प्राण है, हमारे धर्म का सिर है। उसका प्रभाव क्या देश विदेश सब स्थानों में छा रहा है। उस वेद का प्रादुर्भाव यज्ञ के लिये ही हुआ है।
प्रसिद्ध ज्योतिष ग्रन्थ ‘सिद्धान्त शिरोमणि’ में कहा है—‘वेदास्तावेद् यज्ञ कर्मप्रवृताः’ (गणिताध्याय मध्यमाधिकारस्य काल, मानाध्याय 9 श्लोक) यहां पर वेदों की प्रवृत्ति यज्ञकर्मार्थ बताई गई है। यही बात ‘लग्न ज्योतिष’ में भी आई है। वेदाहि यज्ञार्थमभिप्रवृत्ताः’ (7 खण्ड) वेद का ब्राह्मण भाग भी यही बताता है—‘चत्वारों वैवेदा,’ तैर्यज्ञैस्तायते (गोपथ ब्राह्मण 1।4।24) केवल यही नहीं, अन्यत्र भी यही बताया है—‘यज्ञो वेदेषु प्रतिष्ठितः’ (गोपथ 1।1।28) प्रसिद्ध तार्किक दर्शन न्याय वात्स्यायन भाष्य में भी यही सूचना मिलती है—‘यज्ञयोमन्त्रः ब्राह्मणस्य (वेदस्य) विषय’ (4।162) प्रसिद्ध स्मृति ‘मनुस्मृति’ भी यही कहती है—दुदोह यज्ञसिध्यर्थमृग्यगुःसामलक्षणम् (1।23) प्रसिद्ध भगवद्गीता भी यही मानती है—
एवं बहुविधायज्ञा वितता ब्रह्मणो वेदस्य मुखे’ (4।37)

प्रसिद्ध इतिहास ग्रन्थ महाभारत में भी यही सूचित किया हैं—‘देवैर्यज्ञा समुत्पन्ना’ (वन पर्व 150।28) प्रसिद्ध ग्रन्थ निरुक्त में भी लिखा है—
यज्ञस्य चत्वारि श्रृंगा इति वेदा वा एते उल्कः। त्रिधा बद्ध मन्त्र ब्राह्मणकल्पैः। (13।7।1)
प्रसिद्ध व्याकरण ग्रन्थ पातंजलि महाभाष्य में कहा है—‘
न सर्वैलिंगैर्न च सर्वाभिर्विभक्तिभिर्वेद, मन्त्रा निगदिताः । ते चावश्यमेव यज्ञगतेन पुरुषेण यथायथं विपरिनमयितव्याः,

पस्पशाह्निक) इन सब प्रमाणों से सिद्ध हो रहा है कि वेद का विषय यज्ञ है।

स्वयं वेद का मन्त्र भाग भी यही बनाता हैं—‘एदमगन्य देव यजनं............ ऋक्सामाभ्या संतरन्त यजुर्भिः’ (यजुः वा. सं0 4-1)
‘ब्रह्म (वेदः) यज्ञेन कल्पताम् (यजुः वा. सं. 18।29) अन्य उसकी बड़ी साक्षी यही है कि वेद के अधिकार के प्राप्त्यर्थ यज्ञोपवीत धारण करना पड़ता है और वह यज्ञोपवीत यज्ञ के वस्त्र होने से ही उस नाम को धारण करता है। इससे स्पष्ट हुआ कि वेदों का आविर्भाव ही यज्ञ करने कराने के लिए हुआ है। तब वेद की भांति यज्ञ की भी महत्ता स्वतः सिद्ध हुई।
यज्ञ भारतीय संस्कृति का आदि प्रतीक है। हमारे धर्म में जितनी महानता यज्ञ को दी गई है उतनी और किसी को नहीं दी गई। हमारा कोई भी शुभ अशुभ धर्म-कृत्य यज्ञ के बिना पूर्ण नहीं होता। जन्म से लेकर अन्त्येष्टि तक 16 संस्कार होते हैं इनमें अग्निहोत्र आवश्यक है। जब बालक का जन्म होता है तो उसकी रक्षार्थ सूतक निवृत्ति तक घरों में अखंड अग्नि स्थापित रखी जाती है। नामकरण, यज्ञोपवीत, विवाह आदि संस्कारों में भी हवन आवश्यक होता है। अन्त में जब शरीर छूटता है तो उसे अग्नि को ही सौंपते हैं। अब लोग मृत्यु के समय चिता जलाकर यों ही लाश को भस्म कर देते हैं पर शास्त्रों में देखा जाय तो वह भी एक यज्ञ है। इसमें वेद मन्त्रों से विधि पूर्वक आहुतियां चढ़ाई जाती हैं और शरीर को यज्ञ भगवान के अर्पण किया जाता है।
यज्ञ भारतीय धर्म का मूल है। आत्म-साक्षात्कार, स्वर्ग, सुख, बन्धन मुक्ति, मनःशुद्धि, पाप-प्रायश्चित, आत्म-बल वृद्धि और ऋद्धि सिद्धियों के केन्द्र भी यज्ञ ही थे। यज्ञों द्वारा मनुष्य को अनेक आध्यात्मिक एवं भौतिक शुभ परिणाम प्राप्त होते हैं। वेद मन्त्रों के साथ-साथ शास्त्रोक्त हवियों के द्वारा जो विधिवत् हवन किया जाता है उससे एक दिव्य वातावरण की उत्पत्ति होती है। उस वातावरण में बैठने मात्र से रोगी मनुष्य निरोग हो सकते हैं। चरक ऋषि ने लिखा है कि—‘‘आरोग्य प्राप्त करने की इच्छा करने वालों को विधिवत् हवन करना चाहिए।’’ बुद्धि शुद्ध करने की यज्ञ में अपूर्व शक्ति है। जिनके मस्तिष्क दुर्बल हैं या बुद्धि मलीन है वे यदि यज्ञ करें तो उनकी अनेकों मानसिक दुर्बलतायें शीघ्र ही दूर हो सकती हैं। यज्ञ से प्रसन्न हुए देवता मनुष्य को धन, सौभाग्य वैभव तथा सुख साधन प्रदान करते हैं। यज्ञ करने वाला कभी दरिद्री नहीं रह सकता। यज्ञ करने वाले स्त्री-पुरुषों की सन्तान बलवान, बुद्धिवान, सुन्दर और दीर्घजीवी होती है। राजा दशरथ को यज्ञ द्वारा ही चार पुत्र प्राप्त हुए थे। गीता आदि शास्त्रों में यज्ञ को आवश्यक धर्मकृत्य बताया गया और कहा गया है कि यज्ञ न करने वाले को यह लोक और परलोक कुछ भी प्राप्त नहीं होता। यजुर्वेद में कहा गया है कि जो यज्ञ को त्यागता है उसे परमात्मा त्याग देता है। यज्ञ के द्वारा ही साधारण मनुष्य देव योनि को प्राप्त करते हैं और स्वर्ग के अधिकारी बनते हैं। यज्ञ का सर्व कामना पूर्ण करने वाली कामधेनु और स्वर्ग की सीढ़ी कहा गया है। याज्ञिकों की आत्मा में ईश्वरीय प्रकाश उत्पन्न होता है और इससे स्वल्प प्रयत्न द्वारा ही सद्गति का द्वार खुल जाता है। आत्म साक्षात्कार और ईश्वर प्राप्ति का तो यज्ञ अमोघ साधन है। यज्ञ से अमृतमयी वर्षा होती है, उससे अन्न, पशु, वनस्पति, दूध, धातु, खनिज पदार्थ आदि की प्रचुर मात्रा में उत्पत्ति होती है और प्राणियों का पालन होता है। यज्ञ से आकाश में अदृश्य रूप से ऐसा सद्भावनापूर्ण सूक्ष्म वातावरण पैदा होता है जिससे संसार में फैले हुए अनेक प्रकार के रोग, शोक, भय, क्लेश, द्वेष, अन्याय, अत्याचार नष्ट हो सकते हैं और सब लोग प्रेम और सुख-शान्तिपूर्वक रह सकते हैं।
प्राचीन काल में ऋषियों ने यज्ञ के इन लाभों को भली प्रकार समझा था इसलिए वे उसे लोक-कल्याण का अतीव आवश्यक कार्य समझकर अपने जीवन का एक तिहाई समय यज्ञों के आयोजनों में ही लगाते थे। स्वयं यज्ञ करना और दूसरों से यज्ञ कराना उनका प्रधान कर्म था। जब घर-घर में यज्ञ की प्रतिष्ठा थी तब यह भारत भूमि स्वर्ण सम्पदाओं की स्वामिनी थी, आज यज्ञ को त्यागने से ही हमारी दुर्गति हो रही है।
वेदों में यज्ञाग्नि की पग-पग पर प्रशंसा और प्रार्थना है। इस प्रशंसा और प्रार्थना में यज्ञ में सन्निहित शक्तियों और लाभों का वर्णन है। इन पर थोड़ा ध्यान देने से यह सहज ही जाना जा सकता है कि यज्ञ की अग्नि कितनी उपयोगिताओं और महानताओं से परिपूर्ण है। नीचे कुछ ऐसी ही प्रार्थनायें दी जाती हैं—

शिवो नामासि स्वधितिस्ते पिता नमस्तेऽअस्तु मा मा हिं सीः नि वर्त्तयाम्यायुषेऽन्नाद्याय प्रजननाय रायस्पोषाय सुप्रजासत्वाय सुवीर्याय ।
—यजु. 3।63

अर्थ—हे यज्ञ! तू निश्चय से कल्याणकारी है। स्वयंभू परमेश्वर तेरा पिता है। तेरे लिये नमस्कार है। तु हमारी रक्षा कर। दीर्घ आयु, उत्तम अन्न, प्रजनन शक्ति, ऐश्वर्य, समृद्धि, श्रेष्ठ सन्तति एवं मंगलोन्मुखी बल, पराक्रम के लिये हम श्रद्धा-विश्वास पूर्वक तेरा सेवन करते हैं।

त्वामग्ने यजमानाऽअनुद्यून विश्वावसु दधिरे वीर्याणि त्वया सह द्रविणमिच्छमाना व्रजं गोमंत मुशिजो विवब्रुः ।
—यजु. 12।28

अर्थ—‘‘हे देव अग्ने! जो सदा यज्ञ करते रहते हैं ऐसे सद्गृहस्थ सदा ही श्रेष्ठ सम्पत्तियों के स्वामी होते हैं, उन्हें इस यज्ञ के पुण्य प्रभाव से सदैव ज्ञानियों की सत्संगति के साथ ही धन की प्राप्ति भी होती रहती है।’’

पुनस्त्वादित्या रुद्रा वसवः समिन्धतां पुनर्ब्राह्माणो वसुनीथ यज्ञैः । घृतेन त्व तन्वं वर्धयस्व सत्याः सन्तु यजमानस्य कामाः ।।
—यजु. 12।44

अर्थ—‘‘हे ऐश्वर्य को प्राप्त कराने वाले यज्ञाग्ने तुझे ये यज्ञकर्ता आदित्य यज्ञ वसु एवं यज्ञ रुद्रयज्ञ के द्वारा बारम्बार प्रदीप्त करें। इन यज्ञों से तुम अपने तेज की अभिवृद्धि करके यज्ञ कर्ताओं की कामना पूर्ण करो या पूर्ण करने में समर्थ होओ।’’

अयमग्निः पुरीष्यो रयिमान् पुष्टिवर्द्धनः ।
अग्ने पुरीष्याभि द्युम्नमभिसहआ यच्छस्व ।।
—यजु. 3।40

अर्थ—यह यज्ञाग्नि वृष्टि कराने वाली, धन देने वाली तथा पुष्टि और शक्ति को बढ़ाने वाली है। हे पुरीष्य अग्नि! तू हमारे सब ओर बल और यश का विस्तार करो।
विशुद्धाम विराजति वाक् पतंगाय धीयते ।
प्रतिवस्तोरह द्युभि ।।

‘‘यह यज्ञ जो प्रतिदिन किया जाता है वह अपनी प्रदीप्त ज्वालाओं से युक्त निरन्तर यज्ञ कर्ता के अन्तर में विराजता रहता है, फिर ऐसी दशा में किसी अन्धकार असुर, अज्ञान को ठहराने का यहां अवकाश ही कैसे हो सकता है? सच्चे यज्ञकर्ता एक दिन सम्पूर्ण अन्धकार और अज्ञान से मुक्त होकर दिव्य परमात्मा के चरणों में पहुंच जाते हैं।’’
शर्मास्यवधूतं रक्षोऽवधूताआरातयोऽदित्यास्त्वगसि प्रति त्वादितिर्वेत्तु । अद्रिरसि वानस्पत्यो ग्रावाऽसि पृथुबुध्नः प्रति त्वाऽदित्यास्त्वग्वेत्तु ।।
—यजुर्वेद 1।14

‘‘हे यज्ञ! तुम सुख कारक एवं आश्रय लेने योग्य हो, तुम से रोग विनष्ट होते हैं तथा रोग के कीटाणु भी ध्वस्त होते हैं। तुम पृथ्वी के लिये त्वचा की भांति रक्षक हो। तुम हरीतिमा पूरित वनस्पतियों से आच्छादित पर्वत के सदृश्य, सुन्दर, सुहावने और हितकारी हो, इस सुविस्तृत आकाश में जल से लबालब भरे वर्षाभिमुख बादलों के सदृश हो।

धान्यमसि धिंनुहि देवान् प्राणाय त्वोदानाय त्वा व्यानाय त्वा ।
दीर्घामनु प्रसितिमायुषे धां देवो वः सविता हिरण्यपाणिः प्रतिगृभ्णात्वच्छिद्रेण पाणिना चक्षुषेत्वा महीनां पयोऽसि ।।
—यजुर्वेद 1।20

‘‘हे यज्ञ! तुम देवों का धान्य (भोजन) हो, अतः इस हवि के द्वारा तुम उसे प्रसन्न करो, जिससे वे प्रसन्न होकर यज्ञकर्ता को सुख और कल्याण प्रदान करें। हम तुम्हें प्राण, उदान, व्यान आदि प्राणों में, आयु में तथा जीवन की व्यापक उन्नति करने के लिए धारण करते हैं, आपके अनुग्रह से यह सब वस्तुयें हम प्राप्त करेंगे।’’
अदित्यै व्युन्दनमसि विष्णो स्तुपोऽस्यूर्णम्रदसं त्वा स्तृणामि स्वासस्थां देवेभ्यो भुवपतये स्वाहा भुवन पतये स्वाहा भूतानां पतये स्वाहा ।।
‘‘हे यज्ञ! तुम पृथ्वी को सींचने वाला है, अर्थात् पृथ्वी निवासियों को सर्वांगीण अभ्युन्नति और कल्याण के अमृत से अभिसिंचित करते हो। हे देवों को सुखद स्थिति देने एवं सभी भांति रक्षा करने वाले यज्ञ! हम तुम्हें सुविस्तृत और सूक्ष्म से सूक्ष्मतर बनाना चाहते हैं।’’
अग्ने बाजजिद्वाजं त्वां सरिष्यन्तं वाजजित सम्मार्ज्मि ।
नमो देवेभ्यः स्वधा पितृभ्यः सुयने मे भूयास्तम् ।
—यजु. 2।7

‘‘हे बलप्रापक और बल के विजेता यज्ञाग्नि! मैं तुझे प्रदीप्त करता हूं। देवों के लिये तुम संस्कार एवं पितरों के लिए शक्ति स्वरूप हो। ये दोनों मुझे संयम से चलाने वाले हों।’’
अस्कन्नमद्यदेवेभ्यऽआज्य सभ्रियासमङ्घ्रिणा विष्णो मा त्वावक्रमिषं वसुमतीमग्ने तेछायामुपस्थेषं विष्णो स्थानम्सीतऽइन्द्रो वीर्य्यमकृणोदूर्ध्‍वोऽ ध्वरऽआस्थात् ।
—यजु. 2।8

‘‘—आज मैं दिव्य गुणों के लिये, अविचलित आज्य को गति के साधक अग्नि के द्वारा अच्छे प्रकार धारण करता हूं। हे यज्ञ! मैं धन-धान्य से युक्त तुम्हारे आश्रय को प्राप्त होऊं।’’

अन्तश्चरति रोचनास्य प्राणादपानती ।
व्यख्यन् महिषो दिवम् ।
—यजु. 3।7
‘‘यज्ञाग्नि की दीप्ति प्राण से अपान तक अन्तर में विचरण करती है। यह महान् अग्नि द्यौलोक को प्रकाशित करता है। यह यज्ञ, अपने प्रभाव को भौतिक लाभ देने तक में ही सीमित नहीं करता। इसका प्रभाव यज्ञकर्ता के अन्तर में भी संक्रमित होता है जिससे प्राण और अपान को अलग करने वाले कपाट जल जाते हैं और जहां प्राण और अपान एकीभूत हुए कि दिव्यलोक में जाने का पथ और शक्ति एवं प्रकाश एक साथ ही मिल जाता है।’’

अयमग्निगृर्हपतिर्गार्हपत्यः प्रजाया वसुवित्तमः ।
अग्ने गृहपतेऽभिद्मुम्नभि सह आयच्छस्व ।।
—यजु. 3।39

अर्थ—यह पोषण करने वाली गार्हपत्य अग्नि, प्रजा के लिये अतिशय ऐश्वर्य देने वाली है। [इसलिए यज्ञकर्त्ता प्रार्थना करते हैं] हे गृहपति अग्ने! आप हमारे लिये सब ओर ऐश्वर्य, यश एवं बल का विस्तार करें।

अग्निर्मूर्धा दिवः ककुत्पतिः पृथ्व्याअयम् अपा रेता सिजिन्वति ।
—यजु. 312

‘‘यह महान् यज्ञाग्नि, पृथ्वी में व्याप्त होकर इसका पोषक और संचालक बन जाता है, अन्तरिक्ष लोक में यह पर्जन्य से एकीभूत होकर वृष्टि [जल] का रूप धारण कर लेता है और यही एक यज्ञाग्नि द्युलोक में व्याप्त और सामंज्यसित होकर सूर्य रूप को प्राप्त होता है। अतः यज्ञ के द्वारा मनुष्य प्रत्येक लोक की ऊंची से ऊंची स्थिति को प्राप्त कर लेता है।’’
गृहा मा बिभीत मा वेपध्वमूर्ज विभ्रतएमसि।
ऊर्ज विभ्रद्वः सुमनाः सुमेधा गृहानैमि मनसा मोदमानः ।।
—यजु. 3।41
‘‘यज्ञ भगवान, यज्ञ कर्ताओं को आश्वासन देते हैं—‘हे गृहस्थो! डरो मत, घबराओ मत, बल-वीर्य को धारण करने वाले हम तुम्हारे पास आये हैं। ओज को धारण करते हुए, हम शुद्ध मन और बुद्धि वाले, हृदय में प्रसन्न होते हुए हम तुम्हें कल्याण के लिए प्राप्त होते हैं।’’
कुक्कुटोऽसि मधुजिह्वऽइषमूर्जमावद त्वया वय सं घात संघात जेष्म वर्षवृद्धमसि प्रति त्वा वर्षवृर्द्धवेत्तु परापूत रक्षः परापूता अरातयोऽपहत रक्षो वायुर्वो विविनक्तु दवो वः सविता हिरण्यपाणिः प्रतिगृभ्णात्वच्छिद्रेणपाणिना ।।
—यजु. 1।16
‘‘हे यज्ञ! तुम जल के मालिन्य आदि दोष तथा उसमें रहे अभाव की परिपूर्ति करने वाले हो, मधु जिह्वा वाले हो अर्थात् माधुर्य तत्त्व से तुम ओत-प्रोत हो, तुम वृष्टि के वर्द्धक हो, मनुष्यों को यह जानना चाहिये कि यज्ञ वृष्टि वर्द्धक है। तुम हमारे लिये अन्न और रस को सिद्ध करो, जिससे उसे भक्षण कर हम अन्तर और बाह्य दोनों संग्रामों में विजयशील हो सकें। तुम्हारे द्वारा हमारे बाहरी विघ्न नष्ट हो जायें और हमारी अदानशीलता के भाव विचार भी विनष्ट होवें। तुम आहुति में दिये गये पदार्थों को सूक्ष्म से सूक्ष्मतर बनाकर उसे परिव्यापक सूर्य किरणों के सहारे सर्वत्र फैला दो।’’

देव सवितः प्रसुव यज्ञं प्रसुव यज्ञपतिं भगाय ।
दिव्यो गर्न्धवः केतपूः केतं नः पुनातु वाचस्पतिर्वाचं नः स्वदतु ।।
—यजु. 11।7

‘‘हे सर्व तत्त्वों के उत्पादक यज्ञ! हमें सुख एवं ऐश्वर्य को देने वाले श्रेष्ठतम कर्म यज्ञानुष्ठान में प्रवृत्त करो और यज्ञ का अनुष्ठान करने वालों को अपने दिव्य गुणों की उपलब्धि के लिये उत्प्रेरित करो, जिससे हम लोग दिव्य वाणी और दिव्य वाणी के अधिष्ठाता की पवित्रता से अपने ज्ञान और वाणी के साधनों को पवित्र करें, जिससे हमारा ज्ञान अमृत से और हमारी वाणी आस्वाद से परिपूर्ण हो जाय।
इन्द्रस्य स्यूरसोन्द्रस्यध्रुवोऽसि ।
ऐन्द्रमसि वैश्वदेवमसि ।
—यजु. 5।30
‘‘हे यज्ञ! तू ऐश्वर्यवान इन्द्र या परमेश्वर के लिये सुनिश्चित रूप से आकर्षण के साधन हो, क्योंकि तुम्हारे द्वारा आह्वान होने पर परमेश्वर से आये बिना रहा ही नहीं जाता। इन्द्र के इन्द्रत्व और विश्व देव के विश्वदेवत्व सभी तुम पर ही अवलम्बित हैं यानी तुम्हारे द्वारा ही इन दिव्य गुणों की अभिप्राप्ति सबों को होती है।’’
घुवोसि पृथ्वीं ह हा ध्रु वक्षिदस्यन्तरिक्षम् ।
ह हाच्युतक्षिदसि दिव ह हाग्नेः पुरीषमसि ।।
—यजु. 5।13

‘‘हे यज्ञ! तू अच्युत स्थान में वास करने वाला है, तू स्वयं ध्रुव है यानी तेरी क्रिया का फल अत्यन्त ही सुनिश्चित है, इसीलिए प्रार्थना है कि तू पृथ्वी लोक को शुभ में दृढ़ कर, अन्तरिक्ष लोक को मंगलमयता में स्थिर करो और द्युलोक को कल्याण में चिर प्रतिष्ठित कर।’’

अत्र पितरो मादयध्वं यथाभागमावृषायध्वम् ।
अमीमदन्त पितरो यथा भागमावृषायिषत्  ।।
—यजु. 2।31
‘‘हे यज्ञ के द्वारा आहुत देवताओ और पितृगणो! आप लोग इस यज्ञ में आकर आनन्द और पुष्टि को प्राप्त कीजिये और हमें भी आनन्द और पुष्टि दीजिये। जिस भांति सवितादेव निष्काम भाव से विश्व को सुख पहुंचाते हैं उसी भांति हम सब भी आपके समान ही विश्व सेवा में संलग्न रहें।’’
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