gytri yagya vidhan part 2

शत्रु-संहार में यज्ञ का उपयोग

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यज्ञों द्वारा सदा सात्विक शक्ति तो उत्पन्न होती ही है, मनुष्य का कल्याण और उत्कर्ष करने वाला सतोमुखी वातावरण तो बनता ही है, साथ ही ऐसे तत्व भी यज्ञ द्वारा उत्पन्न होते हैं, जो शत्रुता, संकट और विरोध का सामना करने में पर्याप्त रूप से समर्थ होते हैं। विपत्ति में पड़ा हुआ मनुष्य, विपत्ति निवारण के लिए उग्र, प्रचण्ड एवं महाघोर शक्ति को भी उत्पन्न कर सकता है। इसके कुछ उदाहरण नीचे देखिए। परीक्षित को जब तक्षक नाग ने डस (डशन) कर स्वर्गवासी बना दिया तो उसके पुत्र जन्मेजय ने सर्प (नाग) यज्ञ करके समस्त सर्पों को नष्ट कराने—प्रतिशोध लेने की ठानी। यज्ञीय मन्त्रों में वह शक्ति है, जो किसी बलवान से बलवान को भी खींच ला सकती है। सर्प यज्ञ का उद्देश्य यही था कि मन्त्रों द्वारा खींच-खींचकर सर्पों को यज्ञ कुण्ड की अग्नि में भस्म कर दिया जाय। इस यज्ञ का वर्णन महाभारत आदि पर्व में इस प्रकार आता है—
प्रावृत्य कृष्ण वासांसि धूम्र संरक्त लोचनाः । जुहुवुयन्त्रवच्चैव समिद्धिं जातवेदसम् ।।2
कम्पयन्तश्च सर्वेषामुरगाणाम् मनांसि च । सर्पानां जुहुवुस्तत्रसर्वाग्नि मुखैस्तदा ।।3
—महाभारत, आ. प., 52 वां अ.
अर्थ—वे ऋत्विक् काले वस्त्र पहनकर और धूम्र से लाल−लाल आंखें वाले होकर, प्रज्वलित अग्नि में मन्त्रों के साथ हवन करने लगे। इस घोर यज्ञ क्रिया से सब सर्पों के मनों को कम्पायमान करते हुए ऋत्विक गण, उनका अग्नि में आवाहन करने लगे।
क्रोश योजन मात्राहि गोकर्णस्य प्रमाणतः । पतन्त्यजस्रं वेगेन बह्वाग्निमतांवर ।।7
एवं शत सहस्राणि प्रयुतान्यर्बुदानि च । अवशानि विनिष्टानि पन्नगानां तु तत्र वै ।।8
अर्थ—कोई कोस भर के कोई चार कोस के तथा कोई गोकर्ण के सदृश आकार वाले सर्प आ−आकर, लगातार उस अग्नि में वेग से गिरने लगे। इस भांति, शत, सहस्र, दस सहस्र, लाख, अरब संख्या में सर्पगण अवश होकर उस प्रचंड यज्ञाग्नि में नष्ट हो गये। तक्षकस्तु स नागेन्द्रः पुरन्दर निबेशनम् । गतः श्रुत्वैव राजान दीक्षित जन्मेजयम् ।।14 —महा. भा. आदि पर्व, 53 वां अ. अर्थ—तक्षक ने ज्यों ही सुना कि राजा जन्मेजय सर्प यज्ञ में दीक्षित हुए हैं, त्यों ही वह शीघ्रता पूर्वक भागकर इन्द्र के लोक में चला गया। इन्द्र ने उसे अपनी शरण में रख लिया। जन्मेजय उवाच— यथा चेदं कर्म समाप्यते मे यथा च व तक्षक एत्य शीघ्रम् भस्मभवन्तुः प्रियतन्तु सर्वे परे शगत्या स हि में विद्विषाणः ।।4 ऋत्विज् उवाच— यथा शास्त्राणि नः प्राहुर्यथा शंसति पावकः । इन्द्रस्य भवने राजंस्तक्षको भय पीडितः ।।5 पुराणआगम्य ततो ब्रवीम्यहं दत्तं तस्मै वरमिन्द्रेण राजन् वसेहं त्वंमत्सकाशे सुगुप्तो न पात्रकस्त्वां प्रदहिष्यतीति ।।7 अर्थ—जन्मेजय ऋत्विजों से कहने लगे—जिस प्रकार मेरा सिद्धि के साथ समाप्त हो और तक्षक आकर शीघ्र भस्म हो जाय आप लोग सभी यही घनीभूत प्रयत्न करें, क्योंकि मेरा परम शक्तिशाली शत्रु तो तक्षक ही है। ऋत्विजों ने उत्तर दिया— है राजन्! जो यह अग्नि सूचित कर रहे हैं, वही हमारे शास्त्र भी कह रहे हैं कि भयभीत तक्षक इन्द्र के भवन में जाकर छिप गया है। हे राजन्! मैं पुराण का गम्भीरता से मनन कर आपसे कहता हूं कि इन्द्र ने उसे यह वरदान भी दे दिया है कि तू मेरे पास में निवास कर, अग्नि तुझे जला न सकेगी।
एतच्छुत्वा दीक्षितसः तप्यमान आस्ते होतार चोदयर्त्कम काले । होता च यत्तो स्याऽऽजुहैवाऽथ मन्त्रैरथा । महेन्द्रः स्वयमाजगाम ।।8।।
विमानमारुह्य महानुभावः सर्वैर्देवैः परिसंस्तूयमानः वलाहकैश्चाप्यनुगम्यमानो विद्याधरैरपसरसां गणैश्च ।।
—महाभारत आदि पर्व,
56 वां अध्याय अर्थ—यह सुनकर यज्ञ दीक्षा में स्थित राजा तापित होकर होताओं को तक्षक के आवाहन के लिये प्रेरणा करने लगे। होतागण भी बड़ी सावधानता और प्रयत्न के साथ मन्त्रों से हवन करने लगे, जिससे मेघ, विद्याधर और अप्सराओं से अनुगम्यमान स्वयं इन्द्र विमान पर बैठकर यज्ञ कुण्ड में गिरने के लिए आकाश में आ खड़ा हुआ। जन्मेजय उवाच—
इन्द्रस्य भवने विप्रा यदि नागः स तक्षकः । तमिन्द्रेणैव सहितं पातयध्वं विभावसौ ।।11।।
हूयमाने तथा चैव तक्षकः सपुरन्दरः । आकाशे ददृशे चैव क्षणेन व्यवस्थिततदा ।।13।।
—महाभारत, आ. प., अ. 56
अर्थ—जन्मेजय बोला कि हे ब्राह्मणो! यदि इन्द्र की शरण में भी तक्षक पहुंच गया है, तो इन्द्र के साथ−साथ इस यज्ञ की अग्नि में उसकी आहुति दे डालो।।11।। जिस क्षण इन्द्र सहित तक्षक के नाम मन्त्र पढ़कर अग्नि में आहुति दी गई, उसी क्षण इन्द्र सहित तक्षक व्याकुल हुआ आकाश में दिखाई देने लगा।।16।। इस विपन्न अवस्था के बीच ऋषिकुमार आस्तीक ने बहुत ही महत्वपूर्ण काम किया। उसने जन्मेजय को प्रसन्न कर सर्प यज्ञ बन्द करने का वरदान लिया। इससे यज्ञ और यज्ञीय मन्त्रों की शक्ति की प्रत्यक्ष बलवत्ता के दर्शन के संग इन्द्र तथा अवशिष्ट सर्पों सहित तक्षक के प्राणों की भी रक्षा हो गई। ‘लोह’ नामक राक्षस का विनाश भगवान् विष्णु ने किस प्रकार किया। इस सम्बन्ध में कहा गया है—
पुरा सुमेरु शिखरे काञ्चन रत्न वर्तते । स्वर्गङ्गायास्तटे ब्रह्मा यज्ञ यजात भाव ।।
तस्मिनयज्ञे स ददृशे विघ्नं खे लोह दानवम् । विघ्नस्य शमनं तस्य चिन्त्यामास तत्ववित् ।।
तदा चिन्तयततस्य पुरुषः पावकाद्बभौ । नीलोत्पल दल श्यामः स्वरुचा वाञ्चितेक्षण ।।
अभ्यनन्दन्त जातेन येनदेवास्समासवाः । तस्मात्स नन्दको नामः खडगरत्नमभूत्तदा ।।
तदृष्ट्वा भगवान् ब्रह्मा केशवम् वाक्यमब्रवीत् । खड्गं गृह्णीष्व गोप्तातं धर्मस्यजगतां पते ।।
यज्ञ विध्नकरं हत्वा खङ्गेनानेन केशव । निपातय महाबाहो बलिनं लोह दानवम् ।।
खङ्गेन तस्य गात्रणि चिच्छेद मधुहारणे । खङ्गच्छिन्नानि गात्राणि नाना देशेषु भूतले ।।
निपेतुस्तस्य धर्मज्ञ शतशोऽथ सहस्रः । नन्दकस्य तु संस्पर्शात्तान यात्राणि भार्गव ।।
—विष्णु धर्मोत्तर पुराण अ. 17 श्लोक 1,2,3,4,5,6,7,14,15
अर्थ—प्रथम कञ्चन सुमेरु पर्वत के शिखर पर, स्वर्ग गंगा के किनारे ब्रह्माजी ने यज्ञ किया। उस यज्ञ में ब्रह्माजी ने विघ्न करने वाले लोह नामक राक्षस को आकाश में देखा। तब ब्रह्माजी विघ्न शान्त करने का उपाय सोचने लगे। ब्रह्माजी के चिन्ता करते ही उस यज्ञाग्नि से नील कमल के सदृश श्याम शरीर वाला एक पुरुष उत्पन्न हुआ। प्रकट होने वाले पुरुष ने देवताओं सहित ब्रह्माजी की वन्दना की तब नन्दन नामक खंग प्रकट हुआ। खंग को देखकर ब्रह्माजी ने केशव भगवान् से कहा—हे जगत्पते! आप धर्म की रक्षा करने वाले खंग को ग्रहण कीजिये, हे केशव! इस खंग से यज्ञ के विघ्न करने वाले बलवान लोह दानव को मार गिराओ। इतना कहने पर भगवान् मधुसूदन ने युद्ध में खंग से उस लोह दानव के अंगों को काट डाला। खंग से कटे लोह दानव के अंग सैकड़ों, हजारों टुकड़े होकर विभिन्न देशों में गिरे। असुरों से परास्त होने पर देवताओं की आत्म-रक्षा करने के जब-जब प्रसंग आये हैं, तब-तब यज्ञरूपी ब्रह्मास्त्र का ही सहारा लेना पड़ा है। देवताओं की विपत्ति निवारण करने में सदा यज्ञ ही सहायक हुआ है।

*** यज्ञ द्वारा पापों का प्रायश्चित *******

मनुष्य बहुधा अनेक भूल और त्रुटियां जान एवं अनजान में करता ही रहता है। अनेक बार उससे भयंकर पाप भी बन पड़ते हैं। पापों के फलस्वरूप निश्चित रूप से मनुष्य को नाना प्रकार की नारकीय पीड़ायें चिरकाल तक सहनी पड़ती हैं। पातकी मनुष्य की भूलों का सुधार और प्रायश्चित भी उसी प्रकार सम्भव है, जिस प्रकार दुःख होता है, तो औषधि चिकित्सा आदि से उस रोग का निवारण भी किया जा सकता है। पाप का प्रायश्चित्त करने पर उसके दुष्परिणामों के भार में कमी हो जाती है और कई बार तो पूर्णतः निवृत्ति भी हो जाती है। पाप के प्रायश्चितों में यज्ञ को सर्वोत्तम प्रायश्चित्त शास्त्रकारों ने कहा है—
गार्भैर्होमैर्जातकर्म चौड मौञ्ची निबन्धनैः ।
बैर्जिकं गार्भिकं चानो द्विजानामपमृज्यते ।।27 —मनुस्मृति,
दूसरा अध्याय अर्थ—गर्भाधान, जातकर्म, चूड़ाकर्म और मौंजी-बन्धन संस्कार करने के समय हवन करने से वीर्य और गर्भ की त्रुटियों और दोषों की परिशुद्धि हो जाती है। महायज्ञैश्च यज्ञैश्व ब्राह्मीयं क्रियते तनुः ।।28 —मनुस्मृति दूसरा अध्याय
अर्थ—महायज्ञ और यज्ञ करने से ही यह शरीर ब्राह्मी या ब्राह्मण बनता है। शेष जी, भगवान् रामचन्द्र से कहते हैं— सर्व समापातरतियोऽश्वमेधंयजेत वै । तस्मात्वं यज विश्वात्मन्वाजिमेधेन शोभिना ।। —पद्म महा पु. पा. ख. श्लोक 21 अर्थ—शेष भगवान श्री रामचन्द्र जी से कहते हैं कि सब पापों में रमा व्यक्ति भी यज्ञ करने से पाप मुक्त हो जाता है। अतः हे राम! आप भी सुन्दर अश्वमेध (यज्ञ) करें। सवाजिमेधो विप्राणां हत्यायाः पापनोदनः । कृतवान्य महाराजो दिलीपस्तव पूर्वजः ।। —पमा., महा पु. पा खंड 8 श्लोक 33 अर्थ—शेष जी कहते हैं कि हे राम! ब्रह्म हत्या जैसे पापों को नष्ट करने वाला महायज्ञ कीजिये, जिसे आपके पूर्वज महाराज दिलीप कर चुके हैं। हयमेध चरित्वा स लोकान्ववैपायिष्यति । यन्नामब्रह्महत्यायाः प्रायश्चितं प्रदिश्यते ।। —पद्म. महा पु. पा. ख., अ. 23, श्लोक 58 अर्थ—सुमति कहती है कि महायज्ञ करने से लोक पवित्र हो जाते हैं, यह ब्रह्महत्या का प्रायश्चित है। इससे ब्रह्म-हत्या का पाप भी नष्ट हो जाता है। ब्रह्महत्या सहस्राणि भ्रूणहत्या अर्बुदानि च । कोटि होमेन नश्यन्ति यथावच्छिव भाषितम् ।। —मत्स्य पु., अ. 93 श्लोक 139 अर्थ—शिवजी का वचन है कि सहस्रों ब्रह्महत्यायें, अरबों भ्रूण इत्यादि पाप, कोटि आहुतियों का हवन करने से नष्ट हो जाते हैं। —कलि भागवत साज्ञार्थ कृतमनेसै आदि पुराण 2।22 अर्थ—कलि के दुर्गुणों से बचने के लिए यज्ञ की अभिलाषा की गई। जब महाभारत समाप्त हो गया तो, पाण्डवों को व्यास जी ने यज्ञ करके अपने पापों का प्रायश्चित्त करने के लिए प्रेरणा दी— ततोऽभिः क्रतुश्चैव दानेन युधिष्ठिर । तरन्ति नित्यं पुरुषाये स्म पापानि कुर्वते ।। यज्ञेन तपसा चैव दानेन च नराधिपः । पूयन्ते नरशार्दूल नरादुष्कृति कारिणा ।। असुराश्व सुराश्चैव पुण्यहेतोर्मखक्रियाम् । प्रयतन्ते महात्मानास्माद्यज्ञाः परायणम् ।। यज्ञैरेव महात्मानो बभूवु रधिकाः सुराः । ततो देवाः क्रियावन्तो दानवानभ्यघर्षयन् ।। राजसूयाश्चमेधो च सर्व मेधं च भारत । नरमेध च नृपते त्वमाहर युधिष्ठिर ।। —महा. अ. 3 अर्थ—हे युधिष्ठिर! मनुष्य गण सदैव बहुत से पाप कर्म कर यज्ञ, तप, दान आदि के द्वारा उन पापों से छूट जाया करते हैं। हे महाराज! पापियों की शुद्धि, यज्ञादि से हो जाती है। यज्ञ के द्वारा ही देवता असुरों से अधिक प्रभावशाली बने। क्या देवता, क्या असुर सभी अपने-अपने पुण्य-प्राप्ति और पाप निवृत्ति के लिए यज्ञ करते हैं। अतः उपरोक्त कारणों से हे कौन्तेय! तुम भी दशरथ नन्दन भगवान् श्रीरामचन्द्र जी के समान राजसूय, अश्वमेधादि यज्ञ करो। ***
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