आज फिर नये सिरे से हमें उसकी चर्चा जारी करनी होगी, सोई हुई शक्ति को फिर से जगाना होगा, अहंकार को दबा कर रखना होगा। हम दिव्य लोक के जीव हैं, यह ज्ञान हमें फिर से पाना होगा, यही सतयुग की स्थापना करेगा, इसीलिए हमें साधना और तपस्या करनी है। यदि इस प्रयत्न से एक बार भी हम लोग उस स्थान तक पहुँच गये तो पीड़ाओं तथा वेदनाओं से छुटकारा पाकर सिद्ध बनकर सत्य और आनन्द की लीला में प्रविष्ट होकर इस मृत्युलोक को ही स्वर्ग में बदल देंगे। सतयुग के लोग स्वर्गलोक का पता लगाकर इस भूलोक को छोड़ कर वहाँ उस महत् लोक में पहुँचते थे। लेकिन हम लोग स्वर्गलोक के अधिकारी बनकर इस पृथ्वी को नहीं त्यागेंगे हम इस मृत्युलोक में ही स्वर्ग की लीला का आनन्द लेंगे।
जब तक माया के फंदे से जीव नहीं छूटता है और भेद-भाव के विचार मन में भरे रहते हैं तब तक उसे वास्तविक ज्ञान नहीं होता है। माया के फंदे से छूटकर और भेदभाव के विचारों को भावनाओं को निकालने पर ही उसे ज्ञान होता है, तब दिव्य दृष्टि से देखने लगता है। उसमें तथा ब्रह्म में किसी प्रकार का अन्तर नहीं रह जाता, वास्तव में समस्त ब्रह्माण्ड, यह संसार, हमारा शरीर सभी कुछ ब्रह्ममय है इसलिए इस तरह का ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर मृत्युलोक में विचरण करते हुए एक बार फिर से सतयुग की स्थापना करने का भार हम लोगों के ऊपर है जिसे पूरा करना है। नूतन समाज के निर्माण की-नये युग के निर्माण की-जिम्मेदारी हमें उठानी ही होगी। -वाङ्मय ६६-२-४५