हम आत्म-कल्याण और युग-निर्माण इन दो कार्यक्रमों को लेकर आगे बढ़ रहे हैं। गाड़ी के दो पहियों की तरह हमारे जीवन के दो पहलू हैं-एक भीतरी दूसरा बाहरी। दोनों के सन्तुलन से ही हमारी सुख-शान्ति स्थिर रह सकती है और इसी स्थिति में प्रगति सम्भव है। मनुष्य आत्मिक दृष्टि से पतित हो, दुर्मति-दुर्गणी और दुष्कर्मी हो तो बाहरी जीवन में कितनी ही सुविधाएँ क्यों न उपलब्ध हों वह दुःखी ही रहेगा। इस प्रगति की यदि बाह्य परिस्थितियाँ दूषित हैं तो आन्तरिक श्रेष्ठता भी देर तक टिक न सकेगी। असुरों के प्रभुता काल में बेचारे सन्त महात्मा जो किसी का कुछ नहीं बिगाड़ते थे अनीति के शिकार होते रहते थे। भगवान राम जब वनवास में थे तब उन्होंने असुरों द्वारा मारे गये सन्त महात्माओं की अस्थिओं के ढेर लगे देखकर बहुत द़ुःख मनाया। जिस समाज में दुष्टता और दुर्बुद्धि बढ़ जाती है उसमें सत्पुरुष भी न तो अपनी सज्जनता की और न अपनी ही रक्षा कर पाते हैं। इसलिए जीवन के दोनों पहलू ही रथ से जुते हुए दो घोड़ों की तरह संभालने पड़ते हैं। दोनों में ताल-मेल बिठाना पड़ता है। रथ का एक घोड़ा आगे की ओर चले और दूसरा पीछे की तरफ लौटे तो प्रगति अवरूद्ध हो जाती है। इसी प्रकार हमारा बाह्य जीवन और आन्तरिक स्थिति दोनों का समान रूप से प्रगतिशील होना आवश्यक माना गया है।-वाङ्मय ६६-२-५३, ५४