हमें नव-निर्माण के लिए इसी मनोभूमि की निष्ठा तथा दृष्टि को विकसित करने की चेष्टा करनी चाहिए। नव-निर्माण की अपनी योजना इसी पृष्ठभूमि पर बनाई जा रही है। हम मानकर चलते हैं कि शासन तथा व्यवस्था की दृष्टि से प्रजातन्त्री शासन पद्धति अन्य सब पद्धतियों से अच्छी है। हम यह मानकर चलते हैं कि मनुष्य केवल भौतिक साधनों की सुव्यवस्था से ही सन्तुष्ट नहीं रह सकता, उसे आत्मिक प्रगति की भी आवश्यकता है। इसके लिए, धर्म, संस्कृति और अध्यात्म को जीवित रहना चाहिए। हम नहीं चाहते कि शासन इन तत्वों को नष्ट करके मनुष्य को मात्र मशीन बना दे। हम यह मानकर चलते हैं कि हर मनुष्य के भीतर पशुता की तरह देवत्व भी विद्यमान है और उसे विश्वास है कि मनुष्य की सर्वोपरि शक्ति ‘विचारणा’ है उसे यदि उत्कृष्टता की दिशा में मोड़ा जा सके तो धरती पर स्वर्ग अवतरण और मनुष्य में देवत्व के उदय की सम्भावानाएँ मूर्तिमान हो सकती हैं। जन-सहयोग के द्वारा एकत्रित अनुदानों को हम पहाड़ों से ऊँचा और समुद्र से विशाल मानते हैं और यह विश्वास करते हैं कि यदि इस स्वेच्छा-सहयोग को लोक-मंगल के लिए मोड़ा जा सके तो नव-निर्माण के लिए जितने साधनों की आवश्यकता है उससे अधिक ही मिल सकते हैं। हम जानते हैं कि विश्व का नैतिक पुनरुत्थान करने की सर्वतोमुखी क्षमता से सम्पन्न भारत जैसे महान परम्पराओं वाले देश के लिए प्रजातन्त्र प्रणाली ही उपयुक्त हो सकती है, बशर्ते कि इस पद्धति को पश्चिम की नकलची न रहने देकर अपने देश की परिस्थिति के अनुरूप ढाल लिया जाय।
-वाङ्मय ६६-४-९