अमर वाणी - १

महान अतीत को वापस लाने का पुण्य-प्रयत्न

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 मनुष्य का अन्तःकरण बदलते ही उसकी दुनिया भी बदल जाती है। अब संसार की परिस्थितियाँ जैसी विकृत हो उठी हैं उनका परिवर्तन होना अनिवार्य है अन्यथा हम दिन-प्रति दिन पतन और कष्ट के खड्डे में गिरते जाएँगे। यह परिवर्तन बाहरी हेर-फेर से संभव नहीं हो सकता वरन् उसके लिए मनुष्य की अन्तः चेतना को ही प्रभावित किया जाना चाहिए। इस प्रकार के बदलाव से हम सब रोग-शोक, क्लेश-कलह, पाप-ताप, आधि-व्याधि से छुटकारा पाने में समर्थ हो सकेंगे। इसके अतिरिक्त अन्य कोई ऐसा उपाय नहीं है। जिससे संसार भर में फैली अशान्ति मिटकर लोगों को सुख-शान्ति का दर्शन हो सके।

    युग निर्माण योजना इसी को लेकर कार्यक्षेत्र में उतरी है। इस माध्यम से जनता को सच्चे अर्थों में अध्यात्मवादी बनाने का एक ठोस प्रयत्न किया जा रहा है। इसके द्वारा अनेक कष्ट, संताप तो मिट ही सकेंगे, पर सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि भारत की महान् निधि ‘अध्यात्म’ का सच्चा स्वरूप समझने और उसे अपने व्यवहारिक जीवन में स्थान देने का अलभ्य अवसर सर्व-साधारण को प्राप्त हो सकेगा।

    भारतवर्ष यदि अपनी समस्त कठिनाईयों को हल करके संसार का मार्गदर्शन करना चाहे तो उसका एक मात्र आधार अध्यात्म ही है। इसी के द्वारा हमारा भूतकाल महान बन सका था और इसी से भविष्य के उज्जवल बनने की आशा भी की जा सकती है। आवश्यकता केवल इस बात की है कि हम व्यावहारिक अध्यात्म का स्वरूप सर्व-साधारण को समझा सकें और उसके प्रत्यक्ष लाभों से लोगों को अवगत करा दें।

    अशान्ति के दावानल में जलता हुआ समस्त संसार आज अध्यात्म के अमृत के लिए तरस रहा है। हमें आगे बढ़कर इसी महान तत्व ज्ञान का सच्चा स्वरूप प्रकट करने में अपनी शक्ति को लगाना है। युग-निर्माण योजना अध्यात्मवाद को जन-जन के जीवन में प्रविष्ट करने की व्यावहारिक विधि है। जितनी गहराई तक इसकी संभावनाओं पर विचार किया जाता है उतनी ही अधिक आशा बँधती है और लगता है कि यदि हम इस मार्ग पर दृढ़तापूर्वक चल सके तो प्राचीन काल की तरह भारत पुनः ‘स्वर्ग’ कहलाने का गौरव प्राप्त कर सकेगा और संसार के अन्य भागों के निवासी यहाँ से सन्मार्ग पर चलने की शिक्षा प्राप्त करके पुनः जगद्गुरु का सम्मान प्रदान करेंगे। खोये हुए अतीत को पुनः वापिस लाने का यह अध्यात्मिक प्रयत्न हमारे लिए आशा की किरण बनकर आया है और उसमें हमें अपना योगदान प्रस्तुत करना ही चाहिए।

-वाङ्मय ६६-२-६३

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