बुराई और भलाई की परस्पर विरोधी वृत्तियाँ आरम्भ में बहुत छोटे रूप में होती हैं पर उनका परिपोषण होते रहने से धीरे-धीरे बड़ा विशाल रूप बन जाता है। व्यभिचार का आरम्भ हँसी-दिल्लगी या छोटी उच्छ्रंखलता से होता है, इस मार्ग पर बढ़ते हुए कदम किसी नारी को वेश्या बना सकते हैं। इसके विपरीत यदि सदाचार के प्रति थोड़ी दृढ़ता रहे तो वही वृत्ति उसे आदर्श पतिव्रता के रूप में अजर-अमर बना सकती है। कामचोरी और आलस्य की वृत्ति आरम्भ में छोटी-छोटी उपेक्षा या टालमटोल के रूप में दिखाई पड़ती है पर अन्त में वही व्यक्ति आलस्य, प्रमाद और लापरवाही में अपना सब कुछ गँवा कर दर-दर की ठोकरें खाते-फिरने की स्थिति में पहुंच जाता है। एक-दूसरा व्यक्ति जिसे परिश्रम में अपना गौरव और चमकता भविष्य दीखता है, निरन्तर हँसी-खुशी के साथ परिश्रम करता रहता है और इसी पुरुषार्थ के बल पर वह उन्नति के उच्च शिखर पर पहुंचता है।
-वाङ्मय ६६-२-८, ९