सामन्तवादी युग में यह विद्या पैसे से खरीदी जाती रही। उनकी विलासी दुष्प्रवृत्तियों के पोषण में कविता साहित्य, गीत, नाटक आदि बड़ी मात्रा में सृजे जाते रहे। मन्दिरों में पाई जाने वाली मूर्तिकला तक में पशु-प्रवृत्तियों की भरमार मौजूद है। वैसे ही चित्र चित्रित किये जाते रहे। यह सब विद्या बुद्धि का दुरुपयोग है। हमारे क्रमिक अधःपतन में यही दुष्प्रवृत्तियाँ प्रधान रूप से कारण बनती चली आई हैं। आततायियों और आक्रमणकारियों ने भी क्षति पहुँचाई पर इस बौद्धिक क्षति ने तो समाज का मेरुदण्ड ही तोड़कर रख दिया।
आज जबकि घायल समाज को राहत देने वाले साहित्य की जरूरत थी, उद्बोधन आवश्यक थे, तब भी वह ढर्रा बदला नहीं है, वरन् स्वतन्त्रता मिलने के बाद विनाश की स्वतन्त्रता का भरपूर उपयोग किया जा रहा है। धर्म मंच से जो प्रवचन किए जाते रहते हैं उनमें गढे मुर्दे उखाड़ने के अतिरिक्त जीवन संचार और प्रगति के लिये उद्बोधन की दिशा दे सकने वाले तथ्य कहीं ढूँढे नहीं मिलते। व्यक्ति और समाज के युग निर्माण के आधारभूत सिद्धान्तों की कहीं चर्चा तक सुनाई नहीं देती। विद्या से सजी वाणी द्वारा लोकमानस को उद्बोधन मिलना चाहिए था, वह एक प्रकार से मौन ही हो गया है। साहित्य की दशा और भी दयनीय है। पशु प्रवृत्तियों को भड़काने वाला साहित्य लिखा जा रहा है छप रहा है, बिक रहा है। उसी की बाढ़ आई हुई है। लगता है इस बाढ़ में जो कुछ श्रेयस्कर कहीं जीवित रहा होगा वह भी मर-खप जायेगा।
बहेलियों के पास शिकारी कुत्ते होते हैं। खरगोश, लोमड़ी, हिरण आदि जानवरों के पीछे वे उन्हें दौड़ाते हैं। कुत्ते कई मील दौड़कर भारी परिश्रम के उपरान्त शिकार दबोचे हुए मुँह में दबाये घसीट लाते हैं। बहेलिये उससे अपनी झोली भरते हैं और कुत्तों को एक टुकड़ा देकर सन्तुष्ट कर देते हैं। यही क्रम आज विद्या बुद्धि के क्षेत्र में चल रहा है। पुस्तक-प्रकाशक बहेलिए-तथाकथित साहित्यकारों से चटपटा लिखाते रहते हैं। गन्दे, अश्लील, कामुक, पशु प्रवृत्तियाँ भड़काने वाले चोरी, डकैती, ठगी की कला सिखाने वाले उपन्यास यदि इकट्ठ किए जाएँ तो वे एवरेस्ट की चोटी जितने ऊँचे हो जाएँगे। दिशाविहीन पाठक उन्हीं विष मिश्रित गोलियों को गले निगलता रहता है। चूहों को मारने की दवा आटे में मिलाकर गोलियाँ बनाकर बिखेर दी जाती है, उन्हें खाते ही चूहा तड़प -तड़प कर मर जाता है। यह साहित्य ठीक इसी प्रकार का है। इसे पढ़ने के बाद कोई अपरिपक्व बुद्धि पाठक वैसा ही अनुकरण करने के लिए विवश होता है। अनेक साहित्यकार बहेलियों के कुत्तों की भूमिका प्रस्तुत कर रहे हैं। अनेक प्रकाशक और विक्रेता मालामाल हो रहे हैं। कुछ टुकड़े खाकर यह साहित्यकार पाठकों का माँस इन आततायियों के पेट में पहुँचाने में अपनी विद्या बुद्धि, कला-कौशल का परिचय दे रहे हैं। विद्या माता को व्यभिचारिणी वेश्या के रूप में जिस तरह प्रस्तुत किया जा रहा है, उसे देखकर यही कहना पड़ता है-‘‘हे भगवान इस संसार से विद्या का अस्तित्व मिटा दो, इससे तो हमारी निरक्षरता ही अच्छी है।’’
- वाङ्मय ६६-१-३५