अब युग की रचना के लिए ऐसे व्यक्तित्वों की ही आवश्यकता है जो वाचालता और प्रचार-प्रसार से दूर रह कर अपने जीवनों को प्रखर एवं तेजस्वी बनाकर अनुकरणीय आदर्श उपस्थित करें और जिस तरह चन्दन का वृक्ष आस-पास के पेड़ों को सुगन्धित कर देता है उसी प्रकार अपनी उत्कृष्टता से अपना समीपवर्ती वातावरण भी सुरभित कर सकें। अपने प्रकाश से अनेकों को प्रकाशवान कर सकें।
धर्म को आचरण में लाने के लिए निस्सन्देह बड़े साहस और बड़े विवेक की आवश्यकता होती है। कठिनाईयों का मुकाबला करते हुए सदुद्देश्य की ओर धैर्य और निष्ठापूर्वक बढ़ते चलना मनस्वी लोगों का काम है। ओछे और कायर मनुष्य दस-पाँच कदम चलकर ही लड़खड़ा जाते है। किसी के द्वारा आवेश या उत्साह उत्पन्न किये जाने पर थोड़े समय श्रेष्ठता के मार्ग पर चलते हैं पर जैसे ही आलस्य, प्रलोभन या कठिनाई का छोटा-मोटा अवसर आया कि बालू की भीत की तरह औंधे मुँह गिर पड़ते हैं। आदर्शवाद पर चलने का मनोभाव देखते देखते अस्त-व्यस्त हो जाता है। ऐसे ओछे लोग अपने को न तो विकसित कर सकते हैं और न शान्तिपूर्ण सज्जनता की जिन्दगी ही जी सकते हैं फिर इनसे युग-निर्माण के उपयुक्त उत्कृष्ट चरित्र उत्पन्न करने की आशा कैसे की जाए? आदर्श व्यक्तित्वों के बिना दिव्य समाज की भव्य रचना का स्वप्न साकार कैसे होगा। गाल बजाने वाले, पर उपदेश कुशल लोगों द्वारा यह कर्म सम्भव होता सो वह अब से बहुत पहले ही सम्पन्न हो चुका होता। जरूरत उन लोगों की है जो आध्यात्मिक आदर्शों की प्राप्ति को जीवन की सब से बड़ी सफलता अनुभव करें और अपनी आस्था की सच्चाई प्रमाणित करने के लिये बड़ी से बड़ी परीक्षा का उत्साहपूर्ण स्वागत करें।
आदर्श व्यक्तित्व ही किसी देश या समाज की सच्ची समृद्धि माने जाते हैं। जमीन में गड़े धन की चौकसी करने वाले साँपों की तरह तिजारी में जमा नोटों की रखवाली करने वाले कंजूस तो गली- कूँचों में भरे पड़े हैं। ऐसे लोगों से कोई प्रगति की अपेक्षा नहीं की जा सकती। प्रगति के एकमात्र उपकरण प्रतिभाशाली चरित्रवान व्यक्तित्व ही होते हैं। हमें युग-निर्माण के लिए ऐसा ही आत्माएँ चाहिए। इनके अभाव में सब सुविधा-साधन होते हुए भी अभीष्ट लक्ष्य की प्राप्ति में तनिक भी प्रगति न हो सकेगी।
-वाङ्मय ६६-२-७६