युग परिवर्तन की घड़ियों में भगवान अपने विशेष पार्षदों को महत्त्वपूर्ण भूमिकाएँ सम्पादित करने के लिए भेजता है। युग-निर्माण परिवार के परिजन निश्चित रूप से उसी शृंखला की अविच्छिन्न कड़ी है। उस देव ने उन्हें अत्यन्त पैनी सूक्ष्म-दृष्टि से ढूँढा और स्नेह सूत्र में पिरोया है। यह कारण नहीं है। यो सभी आत्माएँ ईश्वर की सन्तान हैं, पर जिन्होंने अपने को तपाया निखारा है उन्हें ईश्वर का विशेष प्यार-अनुग्रह उपलब्ध रहता है। यह उपलब्धि भौतिक सुख-सुविधाओं के रूप में नहीं है यह लाभ की प्रवीणता और कर्मपरायणता के आधार पर कोई भी आस्तिक-नास्तिक प्राप्त कर सकता है। भगवान जिसे प्यार करते हैं उसे परमार्थ प्रयोजन के लिए स्फुरणा एवं साहसिकता प्रदान करते हैं। सुरक्षित पुलिस एवं सेना आड़े वक्त पर विशेष प्रयोजनों की पूर्ति के लिए भेजी जाती है। युग-निर्माण परिवार के सदस्य अपने को इसी स्तर के समझें और अनुभव करें कि युगान्तर के अति महत्त्वपूर्ण अवसर पर उन्हें हनुमान अंगद जैसी भूमिका सम्पादित करने को यह जन्म मिला है। इस देवसंघ में इसलिए प्रवेश हुआ है। युग-परिवर्तन के क्रिया-कलाप में असाधारण आकर्षण और कुछ कर गुजरने के लिए सतत अन्तःस्फुरण का और कुछ कारण हो ही नहीं सकता। हमें तथ्य को समझना चाहिए। अपने स्वरूप और लक्ष्य को पहचानना चाहिए और आलस्य प्रमाद में बिना एक क्षण गँवाये अपने अवतरण का प्रयोजन पूरा करने के लिए अविलम्ब कटिबद्ध हो जाना चाहिए। इस से कम में युग-निर्माण परिवार के किसी सदस्य को शान्ति नहीं मिल सकती। अन्तर्रात्मा की अवज्ञा उपेक्षा करके जो लोभ-मोह के दलदल में घुसकर कुछ लाभ उपार्जन करना चाहेंगे तो भी अन्तर्द्वन्द्व उन्हें उस दिशा में कोई बड़ी सफलता मिलने न देगा। माया मिली न राम वाली द्विविधा में पड़े रहने की अपेक्षा यही उचित है दुनियादारी के जाल-जंजाल में घुसते चले जाने वाले अन्धानुयायियों में से अलग छिटक कर अपना पथ स्वयं निर्धारित किया जाय। अग्रगामी पंक्ति में आने वालों को ही श्रेय भाजन बनने का अवसर मिलता है महान प्रयोजनों के लिए भीड़े तो पीछे भी आती रहती हैं और अनुगामियों से कम नहीं कुछ अधिक ही काम करती हैं परन्तु श्रेय-सौभाग्य का अवसर बीत गया होता है। मिशन के सूत्र संचालकों की इच्छा है कि युग निर्माण परिवार की आत्मबल सम्पन्न आत्मायें इन्हीं दिनों आगे आयें और अग्रिम पंक्ति में खड़े होने वाले युग-निर्माताओं की ऐतिहासिक भूमिकायें निबाहें। इन पंक्तियों का प्रत्येक अक्षर इसी संदर्भ से ओत-प्रोत समझा जाना चाहिए।
-वाङ्मय६६-३-४१