बच्चा आरम्भ में एक पैसा चुराने की आदत सीखता है, बड़ा होने पर वह कुछ बढ़ी-चढ़ी गड़बड़ी करने लगता है, समयानुसार बड़े हाथ मारने की क्षमता प्राप्त करता है और परिस्थितियाँ अनुकूल रहें तो एक दिन नामी चोर होकर जेलखाने पहुंचता है। सभी उसे घृणा की दृष्टि से देखते हैं, कोई अपना नहीं रह जाता। सर्वत्र निन्दा, असहयोग, घृणा ही उसे प्राप्त होती है और कठिनाइयों से पार निकलने का कोई रास्ता दिखाई नहीं देता। एक दूसरा बच्चा उसी का साथी ईमानदारी पर दृढ़ आस्था जमाता है। माँ-बाप उस पर भरोसा करते हैं, अध्यापक उस पर प्रेम और गर्व करते हैं, बड़ा होने पर जहाँ वह कारोबार करता है, वहाँ उसका सम्मान देवता की तरह होता है और अपने कृपालुओं की सहायता से वह बहुत ऊँची स्थिति तक जा पहुँचता है। आरम्भ में इन बालकों के स्वभाव में थोड़ा-सा अन्तर था। एक-दो पैसा चुराने न चुराने या उससे खरीदी जा सकने वाली वस्तु के मिलने न मिलने का कोई बड़ा महत्त्व न था पर इसी भिन्नता ने जब अपनी परिपक्वता प्राप्त की तो दोनों में इतना अन्तर आ गया कि उसका कोई अन्दाजा नहीं।
-वाङ्मय ६६-२-८