कुण्डलिनी शक्ति और उसके दो अग्नितत्त्व

August 1998

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ब्रह्माण्ड के प्रतिनिधि इस पिण्ड में सभी अतएव और सभी क्रिया−कलाप अनोखे हैं, पर ध्रुव केन्द्रों की सत्ता और महत्ता का जितना बखान किया जाये उतना ही कम है। पृथ्वी को जो भी सामर्थ्य मिलती है, उसका आधार सूर्य है। सूर्य का शक्तिप्रवाह धरती के जिस मर्मकेन्द्र में होकर प्रवेश करता है, उस स्थान नाम उत्तरी ध्रुव है। जिस तरह भोजन मुँह में होकर किया जाता है उसी तरह धरती का मुँह उत्तरी ध्रुव है। चिड़ियाँ अपने छोटे बच्चे को मुँह में पिसा हुआ चारा उगलकर खिलाती रहती है उसी तरह सूर्य रूपी चिड़िया अपने छोटे बच्चे इस भूपिण्ड को यह सब वैभव प्रदान करती रहती है, जिससे उसका जड़ चेतन परिवार इतना सुरम्य बना हुआ है।

वह मुँह जहाँ होकर यह भूलोक सामर्थ्य ग्रहण करता है, उस मुख गह्वर को उत्तरी ध्रुव ही कहना चाहिए। मनुष्य कायारूपी धरती का मुँह ब्रह्मरन्ध्र हैं। इसके चुम्बकीय केंद्र बिन्दू को सहस्रारचक्र कहते हैं। धरती पर अनायास ही प्रकृति क्रम से सूर्य की सामर्थ्य बरसती और प्रविष्ट होती है, उसी प्रकार ब्रह्मरन्ध्र रूप सूर्य अपनी सामान्य क्षमता धरती के प्रतिनिधि मूलाधार चक्र को प्रदान करता रहता है। मानव जीवन की अगणित प्रकट और अप्रकट क्षमताएँ इसी कारण प्रकाश से आती है, और मनुष्य को विभूतिमयी प्रतिभा, अपनी गरिमा प्रदर्शित करती है। कुण्डलिनी शक्ति को दीप्तिमान अग्नि कहा गया है, पर उसका मूलस्रोत सहस्रारचक्र ही है। उसे भी कालाग्नि कहा गया है।

कायगत यह दो अग्नियाँ ही शरीर मन के माध्यम से विविध-विधि क्रिया−कलाप उत्पन्न करती है। यह अग्नि संतुलन यदि अस्त-व्यस्त असंतुलित, असम्बद्ध या शिथिल हो जाये तो मनुष्य हारा हुआ, टूटा हुआ, निराश, हताश, और हतवीर्य दिखाई पड़ता है। वह जीवित भले ही रहे पर उसमें से आशा और स्फूर्ति की चमक इस प्रकार से पलायन ही कर चुकी होगी। ओजस्, तेजस, मनोबल, आत्मबल, ब्रह्मवर्चस की जो दीप्तिमान चिनगारियाँ मनुष्य के भावनाक्षेत्र और क्रियाक्षेत्र में उठती हुई दिखाई पड़ती है, उन्हें इन्हीं दो दिव्य अग्नियों का प्रकाश परिचय कहा जायेगा। अध्यात्मिक भाषा में इसे कुण्डलिनी शक्ति की प्रस्फुटित आभा कहकर सम्बोधित किया जाता है।

ध्रुवीय चुम्बकत्व पृथ्वी की मौलिक सम्पदा नहीं है। कुछ दिन पूर्व तक वैज्ञानिक यह समझते थे कि अपनी कक्षा में घूमने से तथा सूर्यताप सम्मिश्रण से यह चुम्बकत्व उत्पन्न होता है। पर अब सेनडियागो (कैलीफोर्निया) में खगोल विज्ञानी डॉ. डब्ल्यू. एक्सफर्ड ने अपनी दीर्घकालीन शोध के उपरान्त उसे सूर्य से प्रवाहित हो रहे एक निर्झर के रूप में प्रतिपादित किया है। उन्होंने वाशिंगटन की इंटरनेशनल मैग्नेटोस्फियर कांफ्रेंस में अपना शोध निबन्ध पड़ते हुए कहा कि सूर्य का शक्ति प्रवाह समस्त धरती पर नहीं वरन् उत्तरी ध्रुव के एक विशेष स्थल पर बरसना है, जो ध्रुवप्रभा के रूप में खुली आँखों से भी देखा जा सकता है। वहाँ से वह प्रकाश फिर पृथ्वी से वायुमण्डल तथा अन्तर्गर्भ में प्रवेश करके धरती में जीवन उत्पन्न करता है। यह शक्ति प्रवाह इतना तीव्र होता है कि यदि धरती उसे अपने व्यापक क्षेत्र में तत्काल वितरित कर दे तो वह क्षण भर में जल-बल कर भस्म हो जाए।

मानवी काया की ठीक यही स्थिति है- ख्तना के प्राण सूर्य ‘सविता’ से उसकी दिव्य किरणें ब्रह्मरन्ध्र में प्रवेश करती हैं। जहाँ से वह प्रपात दक्षिण ध्रुव तक बहता चला आता है और वहाँ नियंत्रित, परिष्कृत होकर विभिन्न दिव्य नाड़ियों द्वारा शरीर और मन के विभिन्न क्रिया–कलापों का संचालन करने के लिए वितरित हो जाता है। कुण्डलिनी का वही प्रत्यक्ष जननेन्द्रिय मूल में अवस्थित अग्नि गह्वर कामबीज ही है। इसी को संग्रह भण्डार कहना चाहिए। जिस प्रकार बड़ी नदियों पर बाँध बनाकर उनका पानी एक विशाल जलाशय में रोक लिया जाता है और फिर वहाँ से नहरें निकाल कर सुविस्तृत भूमिखण्ड की सिंचाई होती है, उसी प्रकार सूर्यरूपी हिमालय से निकलने वाली प्राण-प्रवाह की सरिता का जल ब्रह्मरन्ध्र से अवतरित होता है। उसे उद्गम स्थल कह सकते हैं। यहाँ से यह प्रवाह मेरुदण्ड में होकर बहता हुआ कामबीज के बाँध में जमा होता है। इस विशाल जलाशय पर नियंत्रण करने वाले जितना जल जहाँ जिस नहर में भेजकर भूखण्ड को सींचना चाहते हैं, उसकी व्यवस्था बना देते हैं। मूलाधार के शक्ति गह्वर में अनन्त भण्डार पड़ा है। यही समय कामोत्तेजना के रूप में उछलता, उफनता, लहराता, गरजता दिखाई पड़ता है। यदि उस जल का कोई उपयोग न किया जाये और ऐसे ही जमा रहने दिया जाये तो वह तोड़-फोड़कर अपना रास्ता बनाता है। नहरों में काट देने से सिंचाई होने लगती है और बाँध टूटने का खतरा भी चला जाता है। कुण्डलिनी विद्या को इस बाँध जलाशय के उपयोग का उपयुक्त मार्ग ही कहना चाहिए। जो उसे मानते हैं, अपरिचित रहते हैं उन्हें ऐसे खतरों का सामना करना पड़ता है, जिसके लिए पीछे पश्चात ही हाथ रह जाए।

दक्षिण ध्रुव को वितरक संस्थान माना गया है। उत्तर ध्रुव से लेकर दक्षिण ध्रुव तक एक ऐसी विद्युत पट्टी है, जिसमें असह्य उष्मा भरी रहती है। सूर्य से आने वाला शक्तिप्रवाह ध्रुव पर अवतरित होता है। वहाँ टकराकर उसमें उछाल आता है। जैसे रबड़ की गेंद पूरे वेग से वहाँ टकराने पर उछल जाती है, उसी प्रकार यह शक्तिप्रवाह भी उछलकर उस स्थान पर गिरता है, जिसे दक्षिण ध्रुव कहते हैं। उछाल के आकाशमार्ग को हम चाहें तो अपने काय-विश्व में मेरुदण्ड कह सकते हैं। ब्रह्मरन्ध्र से टकराकर सविता का दिव्यप्राण उछलकर जिस मार्ग से संचय-भण्डार में स्थिर होता है, उसे मेरुदंड कह सकते हैं। मस्तिष्कीय ऊष्मा को योनि गह्वर तक पहुँचाना मेरुदण्ड का काम है। इस मार्ग की प्रवाह धारा को इड़ा कह सकते हैं। कुण्डलिनी समस्त शरीर को पोषण भेजती है, मस्तिष्क को विशेष रूप से इस विशेष संचार मार्ग को पिंगला कहा गया है।

उत्तरी ध्रुव में एक विशेष प्रभामण्डल संव्याप्त रहता है। सूर्य न रहने पर भी वहाँ दीप्तिमान प्रकाश बना रहता है। सूर्य चन्द्र आदि न होने पर भी यह प्रकाश अस्तित्व बहुत अचम्भे जैसा जगाता है। यह चुम्बकीय विद्युत कणों की प्रकीर्णता ही है। यह प्रकाश जैसा दीखने वाला विद्युतीय परिमंडल एक लंबी रज्जुमाला जैसा होता है। उसकी कई रंग की ज्योतियाँ झिलमिलाती-सी दिखती हैं। यह रंग तेजी से परिवर्तित -उद्भूत और तिरोहित होते रहते हैं। अलास्का विश्वविद्यालय के ध्रुव शोध केन्द्र संस्थान ने इस रंग भरी झिलमिल के जो चित्र खींचे, वे अपरिचित लोगों के लिए बहुत ही कौतुकवर्धक थे।

कुण्डलिनी साधना के संदर्भ में जब नादबिन्दु साधना के शिक्षण का समय आयेगा तब बताएँगे कि इस दिव्य साधना के क्रम विस्तार में जब आज्ञा-चक्र में ध्यान एकत्रित किया जाता है, तो किस प्रकार रंग-बिरंगी झिलमिल उपजाती, उड़ती और विलीन होती दीखती है। यह दिव्य शक्ति संस्थान के पुनर्जागरण का चिन्ह माना जाता है। यह झिलमिल उत्तरी ध्रुव की तरह साधक के ब्रह्मरन्ध्र में चुम्बकीय प्रवाह की हलचल को ही प्रमाणित करती है।

सूर्य इन दोनों ध्रुवों को अपनी अत्याधिक शक्ति प्रदान करता है। फिर भी वे इस लिए ठण्डे हैं कि वहाँ सूर्य की रोशनी तथा गर्मी फैलकर नष्ट हो जाती है। लगभग ५...... वर्ग मील क्षेत्र उत्तरी ध्रुव और ३...... वर्ग मील क्षेत्र दक्षिणी ध्रुव एक प्रकार का दर्पण क्षेत्र है, जहाँ से सूर्यकिरणें परिवर्तित होकर लौट आती हैं, सूर्य की ९. प्रतिशत शक्ति इन ध्रुवप्रदेशों में नष्ट हो जाती है। या यों कहना चाहिए कि वहाँ की बर्फ और नम वायुमण्डल में ऊर्जा जब्त हो जाती है, इसलिए यह क्षेत्र जहाँ अत्याधिक शीत वाला है वहाँ अन्दर शक्ति की मात्रा भी बहुत अधिक है।

भगवान मनुष्य को जो भी अनुदान - वरदान और अनुग्रह प्रदान करते हैं, उनका ७. प्रतिशत भाग इन दोनों ध्रुवों को सूर्यचक्र और अग्निचक्र को ही प्राप्त होते हैं। पर इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि हमारी ठण्डक - उपेक्षा, अकर्मण्यता, मोहग्रस्तता- में वह सारे दिव्य अनुदान - वरदान निरर्थक चले जाते हैं। उस अनुदान का सदुपयोग कैसे किया जा सकता है और उस माध्यम से सर्वतोमुखी प्रगति के पथ पर कैसे आगे बढ़ा जा सकता है, यह विज्ञान कुण्डलिनी योग में भरा पड़ा है।

जब पहली बार वह अन्वेषक लकड़ी के जहाज इन प्रदेशों में पहुँचे तो वे देखकर आश्चर्यचकित रह गये कि यहाँ एक मील दूर बैठे आदमी से भी उसी तरह बातचीत की जा सकती है मानो वह बिलकुल पास ही बैठा है मानो वह बिलकुल पास ही बैठा हो ट्रैक्टर और विद्युत जनरेटर की आवाजें दसियों मील दूर से सुनी जा सकती हैं। चलते समय बर्फ में चरमराते जूतों तक की चरमराहट की आवाज़ एक मील दूर तक सुनाई पड़ती है। लेकिन यह यह सब होता तभी है जब तापमान शून्य से नीचा होता है। कभी - कभी हवा की परत आकाश में इतनी सघन हो जाती है कि आकाश में उड़ते वायुयान की आवाज भी नीचे नहीं आ पाती। खामोशी और आवाज की परस्पर विरोधी परिस्थितियाँ इन ध्रुवों में देखकर प्रकृति का यह निरालापन देखकर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है।

अपना मनःक्षेत्र आदि सांसारिक विषयविकारों की ज्वलनशील आग से विरत करके शून्य तापमान तक ले जाया जा सके तो इस संसार में कहाँ क्या हो रहा है। - कौन क्या कर या सोच रहा है, इसकी सूक्ष्म ध्वनि बहुत स्पष्ट से सुनाई पड़ सकती है और भूतकाल एवं वर्तमान की घटनाओं, परिस्थितियों को ही नहीं भविष्य की संभावनाओं को भी जाना जा सकता है। यदि अपना मन तपश्चर्या की योगाग्नि की गरम पट्टी को आकाश से आच्छादित कर ले तो फिर संसार के आकर्षण, प्रलोभन, कुतूहल, भय, मनोविकार के ढोल ही क्यों न बजते रहें, उनका एक भी शब्द कान में नहीं आता और घोर कोलाहल भरे वातावरण में रहते हुए भी चित्त को समाधिस्थ जैसा बनाकर रखा जा सकता है। यह ध्रुवों जैसी परिस्थितियाँ कुण्डलिनी साधना द्वारा उपलब्ध की जा सकती है, क्योंकि वस्तुतः शरीरगत ध्रुवों का ज्यों-का त्यों लेखा - जोखा ही कुण्डलिनी विज्ञान में सन्निहित है।

साधना शास्त्रों में पवित्र जीवन अग्नि के रूप में कुण्डलिनी शक्ति का वर्णन किया गया है। प्रदीप्त अग्नि जिस प्रकार अपने क्षेत्र को ऊष्ण एवं बना देती है, वैसा ही प्रकाश कुण्डलिनी जागरण का भी होता हैं

चन्द्राग्निविसंयुक्ता आद्या कुण्डलिनी मता। हृत्प्रदेशे तु सा ज्ञेया अंकुराकारसंस्थिता॥ - अग्निपुराण

चन्द्र और सूर्य की शक्ति से भरी हुई कुण्डलिनी शक्ति हृदय प्रवेश में रहती है, उसकी ज्योति अंकुर के आकार की है।

मूलाधरादारभ्य ब्रह्मरन्ध्रपर्यन्तं सुषुम्ना सूर्याभा। तन्मध्ये तटित्कोटि समा तमोनिवृत्तिः। तर्द्दशनार्त्सवपापनिवृत्तिः॥ मण्डल ब्राह्मणोपनिषद्

मूलाधार से लेकर ब्रह्मरन्ध्र तक सूर्य के प्रकाश जैसी सुषुम्ना नाड़ी फैली हुई है। उसकी के साथ कमलतन्तु से सूक्ष्म कुण्डलिनी शक्ति बंधी हुई है। उसी के प्रकाश से अन्धकार दूर होता है और पापों से निवृत्ति होती है।


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