युगपरिवर्तन एक सुनिश्चित भवितव्यता

August 1998

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अमेरिका का प्रसिद्ध पत्र ‘न्यूयार्क टाइम्स’ ने अन्तरिक्षविज्ञानी स्वर्गीय रॉबर्ट गोगार्ड से अपनी उस टिप्पणी के लिए माफी माँगी, जो उसने सन् १९२. में छापी थी।

गोगार्ड उन दिनों अन्तरिक्षविज्ञान की शोध कर रहे थे। उन्होंने प्रतिपादित किया था कि शून्य आकाश में राकेटों का चलाया जाना सम्भव है। और इस आधार पर अन्तर्ग्रही यात्राएँ की जा सकेंगी।

इस प्रतिपादन पर व्यंग्य करते हुए ‘न्यूयार्क टाइम्स’ ने लिखा था “गोगार्ड महाशय विज्ञान की लम्बी चौड़ी बातें करते हैं, पर वे जानते उतना भी नहीं। जितनी कि स्कूली बच्चे पढ़ते हैं। जिन्हें पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति का ज्ञान होगा, वह कैसे कह सकता है कि राकेट उस आवरण को बेधकर ऊपर निकल जायेंगे और अन्य ग्रहों की यात्रा करेंगे।”

उस टिप्पणी के ४९ वर्ष बाद गोगार्ड का प्रतिपादन सही सिद्ध हुआ। केप कैनेडी राकेट में सवार होकर नील आर्मस्ट्रांग और उसके साथ ही चन्द्रमा पर पहुँचे। पर ‘न्यूयार्क टाइम्स’ ने अपनी ४९ वर्ष पूर्व की टिप्पणी के लिए स्वर्गीय गोगार्ड से क्षमा माँगी कि उन्हीं का प्रतिपादन सही था और टिप्पणी कर्ता गलती पर।

नया युग बढ़ता हुआ चला आ रहा है। मनुष्य को दुष्प्रवृत्तियाँ छोड़नी पड़ेगी। और उसे अपने सोचने और करने की रीति-नीति से परिवर्तन करना पड़ेगा। यह बात असंभव लगती है। मर्यादाओं के बन्धन जिस बुरी तरह टूटते चले जा रहे हैं। एक आदमी दूसरे को ठगने के लिए जिस बेहयाई के साथ उतारू है। सुधार का बाना ओढ़ने वाले भी उस आवरण के भीतर क्या-क्या कुकृत्य कर रहें हैं, इसकी तह में जाने से सहज ही आँखों के आगे अंधेरा छाने लगता है और प्रतीत होता है कि अभी दिल्ली दूर है, विकृतियाँ पूरी प्रौढ़ता पर है और उन्हें देने के लिए उपयुक्त मोर्चा बन नहीं रहे हैं। जो सुधार और निर्माण की बातें करते हैं। उनकी कथनी और करनी में भारी अन्तर है। ऐसी दशा में यह प्रतीत नहीं होता कि परिस्थितियाँ जल्दी ही बदल जायेंगी।

पर वर्तमान स्थिति को देखकर भविष्य का सुनिश्चित निर्णय नहीं किया जा सकता। उसे दूरदर्शी देखते हैं- जिनकी आँखें निकट का ही देख पाती है उनके लिए उस परिवर्तनों की कल्पना कठिन ही लगती है। जो आज की स्थिति से तालमेल नहीं खाते। गोगार्ड का प्रतिपादन ‘न्यूयार्क टाइम्स’ को ऐसा ही भौंड़ा लगा था, पर समय ने बताया कि आज जो बात असंभव लगती है, कल सम्भव भी हो सकती है।

जलयानों की सम्भावना भी किसी समय अवास्तविक लगती थी। नैपोलियन बोनापार्ट इंग्लैण्ड पर हमले की तैयारी कर रहा था। इसी समय एक इंजीनियर रॉबर्ट फुल्टन यह योजना लेकर पहुँचा कि किस प्रकार भाप से चलने वाले जलयान बन सकते हैं और उनसे शत्रु जहाजों के दाँत कैसे खट्टे किये जा सकते हैं।

नैपोलियन झल्ला पड़ा क्या बकवास कर रहें है आप? आग पर पानी गरम करके उससे अलाव के रुख और पानी की धार काटते हुए जहाज चल सकते हैं। ऐसी बेतुकी सनक सुनने की मुझे फुरसत नहीं है। बेचारा इंजीनियर चला गया, जलयान बनने और चलने लगे तो भी बुद्धिमान कहलाने वालों ने इस प्रयास का उपहास ही उड़ाया। डवलिन रॉयल सोसाइटी के सामने अपना अभिमत प्रस्तुत करते हुए प्रो. लाडेस्कर ने कहा-ये मामूली मनोरंजन कर सकते हैं, पर इन जलयानों से अटलांटिक पार करने की कल्पना बेहूदा है।

वह बेहूदी कल्पना आज कितनी सार्थक और साकार सिद्ध हो रही है। इसे हर कोई देख सकता है। पानी के जहाज परिवहन, यातायात और युद्धों में कैसे भूमिका प्रस्तुत कर रहें हैं। इसे समझने में नैपोलियन जैसे समझदार असफल रहे। साधन सम्पन्न इंजीनियरों को यह कल्पना निरर्थक लग रही थी, पर आखिर वह साकार ही हो गयी।

मनुष्य की पशु संस्कारों से ग्रसित बुद्धि और आदत को मर्यादा में चलने के लिए सधाया जा सकेगा। ध्वंस और विघटन में लगे हुए तत्व अपनी प्रतिभा सृजन में नियोजित करेंगे। स्वार्थों के पीछे अन्धा बना जमाना परमार्थ को प्रधानता देने की प्रवृत्ति अपनायेगा। यह बात असम्भव लगती है, पर किसी इंजीनियर को इन परिस्थितियों में भी पक्का विश्वास है कि यह परिवर्तन भले ही आज असम्भव लगता हो पर कल सम्भव होकर रहेगा।

आविष्कारों के क्षेत्र में सदा यही होता रहा है कि आरम्भ में उस कल्पना और चेष्टा को सनक बताया गया और असंभाव्य कहा गया। टैंक बनाने की योजना जब सामने लाई गयी तो इंग्लैण्ड के सेनापति ने कहा -लोहे की गाड़ियाँ घुड़सवारों के स्थान ग्रहण कर सकती है यह कल्पना नितान्त मूर्खतापूर्ण है।

रूस के जब प्रथम-प्रथम अंतरिक्ष यान स्पूतनिक आकाश में भेजा तो अमेरिका के तत्कालीन सेनापति और पीछे के राष्ट्रपति आइजन होवर ने उसका मजाक उड़ाया और कहा- रूसियों द्वारा आसमान में उछाली गयी एक छोटी-सी गेंद युद्ध समस्या को किस प्रकार प्रभावित कर सकती है? इसका कोई महत्व मेरी समझ में नहीं आता।

उस समय वे बातें बेकार मालूम पड़ती थीं, पर आज टैंकों का अपना स्थान है और उन्होंने घुड़सवार सेना को निरर्थक सिद्ध कर दिया है। अन्तरिक्ष यान आज अन्तिम युद्ध में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत करते दिखते हैं और उसी प्रतिद्वन्दता में अरबों रुपया खर्च हो रहा है।

विचारक्रान्ति की बात सुनकर आज भी हँसी उड़ाई जा सकती है। सोचने भर से दुनिया की परिस्थितियाँ और आदमी की आदतें कैसे बदली जा सकती है, यह समझ सकना समझदारों के लिए कठिन पड़ रहा है। विचार दिमाग तक ही सीमित है। क्रिया परिस्थितियों से संबंध रखती है। विचार परिस्थितियों को कैसे बदल सकते हैं और बिना मजबूरी सामने आये कोई सच्चाई के कष्ट साध्य रास्ते पर क्यों कर सकता है। निहित स्वार्थों को विचारों की प्रेरणा भर से कैसे अपने स्वार्थ छोड़ने के लिए सहमत किया जा सकता है, यह बात जटिल और पेचीदा प्रतीत होती है, पर वह दिन दूर नहीं जब यह स्वीकार करने के लिए विवश होना पड़ेगा कि संसार में मानव-जीवन की सबसे बड़ी शक्ति विचार ही है और उनके बरताव से व्यक्ति और समाज का सारा ढाँचा ही बदला जा सकता है।

युद्ध उपकरणों की खोज को जारी रखने को निरर्थक बताते हुए रोम के बड़े सैनिक इंजीनियर जुलियस फोन्टिनस ने कहा था- अब इन प्रयत्नों को बन्द कर देना चाहिए, क्योंकि युद्ध उपकरणों के संबंध में जितने आविष्कार संभव थे, वे चरमसीमा पर पहुँच गए हैं। इसी प्रकार सन् १८९९ में अमेरिकी आविष्कार पेटेंट विभाग के डायरेक्टर ने तत्कालीन राष्ट्रपति मैककिकल्ले को सलाह दी थी कि अब इस विभाग को बन्द कर दिया जाये। क्योंकि जितने आविष्कार अब तक हो चुके हैं उनसे आगे और कोई आविष्कार होने की गुँजाइश नहीं रही। पर हम देखते हैं कि इसके बाद पिछले शताब्दी में कितने अधिक आविष्कार हुए और पेटेंट डायरेक्टर का अनुमान कितना गलत निकला।

अब तक कितने धर्म-सम्प्रदाय निकल चुके, आचार-संहिताएँ बन चुकीं योग और अध्यात्म की खोज हो चुकी, अब इससे आगे कुछ सोचने को बाकी नहीं रह गया, यह आज भले ही माना जाता हो, पर कल बतायेगा कि प्रगति की संभावना अभी और भी बहुत कुछ विद्यमान है। समस्त विश्व का एक धर्म एक आचार, एक शास्त्र, एक राष्ट्र, एक भाषा, एक लक्ष्य होना आज भले ही समझ में न आये, पर कल यह नया आविष्कार होने ही वाला है और वसुधैव कुटुम्बकम्- कृण्वन्तोविश्व-आर्यम् की प्राचीन कल्पना को अगले दिनों साकार होना है, आज असम्भव दीखने वाला यह भविष्य प्रत्यक्ष हो चले, तो किसी को आश्चर्य नहीं करना चाहिए, इस दुनिया में न कुछ असम्भव है न कुछ आश्चर्य।

अब से डेढ़ सौ वर्ष पूर्व विज्ञानी यह मानते थे कि हवा से भारी वजन की चीजों का आसमान में उड़ सकना कभी भी सम्भव न होगा। जब पहला हवाई-जहाज बना और उसके आसमान में उड़ने की सूचना अखबारों में दी गयी तो उन्होंने उसे ‘गप्प’ कहकर छापने से इंकार कर दिया। पहली बार बिना आदमी बिठाये जहाज उड़ा, दूसरे बार आदमी बिठाकर उसने उड़ान की। तब पापुलर साइंस अख़बार ने बड़ी बेरुखी के साथ सिर्फ इतना छापा- यह खोज तमाशे जैसे छुट-पुट काम ही कर सकेगा। किसी बड़े प्रयोजन में इसके आ सकने की आशा नहीं करनी चाहिए।

जब हवाई-जहाज अपनी प्रौढ़ावस्था में आ गये, भारी बोझ लेकर वे द्रुतगति से बढ़ने लगे तो वैज्ञानिकों ने भावी महत्त्वाकाँक्षाओं का निषेध किया। शब्द की गति से अधिक तीव्रता लाया जाना सर्वथा अशक्य है, एक स्वर से वैज्ञानिक ने यही कहा। शब्द की गति प्रतिघण्टा ६६. मील है। इससे अधिक गति वायु की हो सकती है, इसे मानने के लिए कोई तैयार नहीं था। पर प्रगति होती रही। बोइंग ७.७ की चाल ५५. मील हुई। इसके बाद बोइंग ७७७ सारे विश्व में उड़ रहे हैं। जब यह प्रतिघण्टा ६७. मील की चाल से उड़ा उसने शब्द की गति का अतिक्रमण कर लिया। तो वैज्ञानिकों को पिछली भूल सुधारनी पड़ी और कहना पड़ा गति को कितना ही अधिक बढ़ाया जा सकता है। कॉन्कार्ड वायुयान १३.. मील प्रति घण्टे की चाल से उड़ते हैं। तथा लंदन व न्यूयार्क के बीच की दूरी मात्र तीन-साढ़े तीन घण्टे में पूरी कर लेते हैं। अंतरिक्षयान अभी २५ हजार मील की चाल से उड़ रहे हैं। भविष्य में उनकी चाल ५. हजार मील हो जायेगी। योजना तो ६ लाख मील प्रति घण्टे चलने वाले अंतरिक्ष यानों की है।

चिरकाल से एक ढर्रे पर मन्थर गति से लुढ़कती चली आ रही समाज व्यवस्था में अब कोई परिवर्तन नहीं हो सकता, उसे द्रुतगामी नहीं बनाया जा सकता, यह सोचना ठीक नहीं है। नये समाज के आधार और सिद्धान्त अधिक प्रगतिशील हो सकते हैं। मनुष्य के सोचने और करने का प्रतिगामी ढर्रा बदल सकता है। स्वार्थ भरी संकीर्णता एवं अवांछनीय ध्वंसात्मक प्रवृत्ति का परिशोधन करके उन्हें सुरुचिसमपन्न बनाया जा सकता है।

असुरता अवैद्य है। शैतान का पंजा फौलादी है। उसे सब तक नहीं तोड़ा जा सका, यह सोचकर निराश होने की आवश्यकता नहीं है। मानवीय प्रकृति और संसार की परिस्थितियों में परिवर्तन हो सकता है। मनुष्य में देवत्व का उदय और धरती पर स्वर्ग का अवतरण हो सकता है। इस मान्यता एवं चेष्टा को असंभाव्य मानने की आवश्यकता नहीं है।


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