सिद्धार्थ गणराजा थे। उनकी पत्नी त्रिशला जितनी रूपवती थी उतनी ही विदुषी भी। जब से वह क्षत्रिय कुण्डग्राम में आयी, सिद्धार्थ का जीवन प्रफुल्लित हो उठा। वैशाली उस समय एक विशाल नगर था। लिच्छवियों की इस राजरानी के सौंदर्य से एकतंत्रो राजरानियाँ भी पराभूत सी रहती। कुण्डग्राम उसी वैशाली के क्षत्रिय का एक उपनगर था। सिद्धार्थ वहाँ के शासक थे। कुण्डग्राम में व्यापारी भी रहते हैं। व्यापारियों की बढ़ती हुई शक्ति ने उन दिनों यह प्रभाव डाला था कि कुछ लोग कुण्डग्राम को वाणिज्यग्राम भी कहने लगे थे।
वैशाली उन दिनों अपने पूर्ण वैभव पर पहुँच चुकी थी। गण के क्षत्रियों की वहाँ बड़ी शक्ति थी और वे सब विचारशील दार्शनिक थे। जहाँ एक ओर वे शत्रुओं से लोहा लेने में रणकौशल एवं बहादुर थे, वहीं दूसरी ओर उनकी दूरदर्शी विवेकशीलता की सब ओर सराहना होती थी। अपने जातीय गौरव को सुरक्षित रखने के लिए सबके सब प्राण-पण से सचेष्ट रहते थे।
वैशाली नगर लगभग १२ मील लम्बा था। उस समय इसमें तीन विभाग थे। सिद्धार्थ राजा के समय इसके वैभव का पार नहीं था। क्षत्रिय कुण्डग्राम नगर में अ स्थित था। ब्राह्मण कुण्डग्राम दक्षिण में था और इसी बीच का प्रमुख भाग वैशाली कहलाता था। प्रायः बाहर के लोग इस प्रकार का भेद नहीं करते थे। तभी उन्हें प्रकार राजा सिद्धार्थ वैशालक के नाम से भी पुकारा जाता था।
कुण्डग्राम के पूर्व और उत्तर का उपभाग कोल्लंगी कहलाता था। उसमें ज्ञातवंश-नागवंश के कुलीन क्षत्रिय रहते थे। कोल्लंगी अपने पास के पलाशवन के कारण अत्यन्त सुन्दर दिखाई देता था। इसके अद्भुत सौंदर्य के कारण लोग इस नगर को दूर-दूर से देखने आते थे।
सिद्धार्थ के पास पर्याप्त धन था, भूमि थी, दास-दासी थे। नागरिकों में उनका बड़ा सम्मान था। वह दुईपलास के देवमन्दिर में जाकर सिर झुकाते और सिर उठाते तो कुण्डग्राम के ७... घरों के सुंदर कलशों पर दृष्टि पड़ती। जिनमें से ज्यादातर सुवर्ण थे। दुईपलास के मन्दिर से वैशाली के घरों के ऊपर रजतकलश और ताम्रकलश भी दिखाई देते। उन्हें देखकर दृष्टि चौंधिया जाती। जो यवन और यवनियाँ उत्तर पश्चिम के दास बनाकर यहाँ बेचे जाते थे, वे तो इस वैभव को देखकर पराभूत हो जाते। मिश्र से यहाँ दास-दासी लाये जाते। पारसीक देश के नये विशाल साम्राज्य से जो व्यापारी यहाँ आते थे, वे स्वीकार करते कि उनके देश में इतनी विशाल राजधानी नहीं थी। अग्निपूजक ईरानी सम्राट भी इतने वैभव का स्वामी नहीं था। यद्यपि उसके पास अमित धन बताया जाता था।
वैशाली के व्यापारियों की नावें सहलाती तक जातीं, उधर मिश्र तक। उन दिनों जबकि मिनाओन तथा फीनिशियन सभ्यताओं का ग्रीस के आर्यों पर प्रभाव पड़ रहा था और वे होमर के नये काल्यों को गाने लगे थे। भारतीय व्यापारियों का वे सब भारी सम्मान करते थे। फिलिस्तीन में उस समय यहूदियों के दाऊद और सुलेमान के साम्राज्य समाप्त हो चुके थे। और उत्तर-पश्चिम में अनेक आर्य जातियाँ इधर बढ़ती -घटती घूम रही थी।
वैशाली का यह सारा ऐश्वर्य गणराजा सिद्धार्थ के इर्द-गिर्द घूमता था। उनकी पत्नी त्रिशला अधिपति चेटक की पुत्री थी। चेटक स्वयं भी एक धनी गणराजा था। उनका जामाता होने के कारण सिद्धार्थ का मान पहले से भी बढ़ गया था। चेटक स्वयं ईश्वर परायण एवं धर्मनिष्ठ व्यक्ति थे। उनकी दूसरी पुत्री चेलना मगध की एकतंत्रीय राजा विम्बसार श्रेणिक की पत्नी थी। चेलना का ईश्वर विश्वास उसके साथ मगध में भी पहुँच गया था। उसके पास सदैव ऋषि, मनीषी, मुनि, यति आते रहते थे।
वशिष्ठ गौत्रीय चेटक की पत्नी सुभद्रा के गर्भ से जब त्रिशला का जन्म हुआ था, तो लोगों ने उसे प्रियकारिणी कहा था। कुछ लोगों ने उसे विदेहदिन्ना कहा था। काश्यप गौत्रीय सिद्धार्थ से विवाह होने पर उसने पहले नन्दिवर्धन को जन्म दिया, फिर कन्या सुदर्शना को। इस बार त्रिशला पुनः गर्भवती थी। दैवज्ञ, ज्योतिषी कालचक्र के ज्ञाता गर्भस्थ शिशु के बारे में आश्चर्यजनक भविष्यवाणी कर रहे थे। वैशाली का प्रताप भी अनुदान बढ़ रहा था। सभी यही कह रहे थे कि यह सब रानी त्रिशला के गर्भ में आयी जीवात्मा के अमित पुण्यों का फल है।
स्वयं रानी त्रिशला को भी इस अलौकिक अद्भुत लग रहा था। माँ वे पहले भी बनीं थी। उन्होंने पुत्र एवं कन्या दोनों को ही एक एक बार गर्भ में धारण किया था। परन्तु इस बार की अनुभूति विचित्र और विलक्षण थी। पल-पल उन्हें लगता था कि उनकी कोख में ईश्वर की दिव्य-ज्योति समा गयी है। अनजानी प्रसन्नता एवं अनचाहे उल्लास की लहरें हर क्षण उनकी अन्तर्चेतना से फूटती झरती रहती। हर समय उन्हें यही लगता रहता, मानो वे किसी दिव्यधाम की निवासिनी हो गयी हैं। जाग्रति की अलौकिक आभा सोते समय भी अपना प्रकाश बिखेरती रहती। उन्हें अद्भुत एवं दिव्य स्वप्न दिखाई देते। एक रात तो जैसे इन दिव्य स्वप्नों की बाढ़-सी आ गयी।
प्रातः जगकर उन्होंने अपने पति से कहा- आर्य पुत्र! रात मैंने बड़े अद्भुत स्वप्न देखे थे।
वह क्या थे? गणराजा सिद्धार्थ ने बड़े ही कुतूहल से पूछा।
देव पहले मैंने एक श्वेत गजराज देखा।
अत्यन्त शुभ है वह तो ..............................।
दूसरी बार मैंने देखा, कि एक वृषभ उस हाथी के सामने होकर निकला।
वृषभ?
तीसरी बार मैंने एक सिंह देखा।
सिद्धार्थ ने सिर हिलाया।
चौथी बार लक्ष्मी को देखा।
लक्ष्मी उस समय आर्यों में पूज्य हो चुकीं थी। सिद्धार्थ ने त्रिशला की ओर देखा जो अपनी बहुमूल्य शैया पर एक हाथ की कुहनी उठाये हथेली को सिरहाने के तकिये पर टिकाकर कुछ भूली हुई सी कुछ विमुग्ध सी बोलती जा रही थीं। उनके रेशम वस्त्र अत्यन्त स्वच्छ थे। पर्यटक से फूलों के हारों की गंध आ रही थी। रक्तचन्दन से लिप्त वस्त्र पहने सिद्धार्थ अपने स्वर्णमुकुट को सिर पर ठीक करके अपनी अँगूठियों में जड़े हीरे को देखते हुए बोले, किस रूप में.........।
आर्यपुत्र, देवी रूप में।
जाज्वल्यमान............
मनोहरा
स्मितमयी...........
ममलासना
दिव्य
परमशान्तिमयी
सिद्धार्थ ने कहा- साधु।
त्रिशला ने फिर कहा, फिर मैंने देखी सुगन्धित और खिले हुए पुष्पों की माला और उसके बाद ही मैंने चन्द्रमा देखा उसके बाद मुझे सूर्य दिखाई दिया।
चन्द्र भी, सूर्य भी?
हाँ, आर्यपुत्र।
पर उसके अनन्तर मैंने वायु के वेग में फहराती हुई ध्वजा देखी। ऊपर, सबसे ऊपर। उसे देखकर मुझे उत्साह हुआ।
सिद्धार्थ चुप रहा। त्रिशला ने कहा। फिर मुझे कलश दिखाई पड़ा। उसके पश्चात मैंने अपने को प्रफुल्ल कमलों से भरे हुए सरोवर में रमणीक तट पर पाया। वह बहुत सुंदर था। कमलों के माँसल दल खिले हुए थे। भ्रमर उन पर गुँजार कर रहे थे। दूर दूर तक श्वेत दलों का स्वच्छ स्वरूप दिखता था। नीचे जल पर बिछे पुरइनों पर जल की बूँदें मोतियों की भाँति दिखाई देती। वे सुघर मृणाल अत्यन्त मृदुल और स्निग्ध-सी अपने ही पराग से सुरभित मंद मंद पवन के सीकरों से आन्दोलित-सी धीमे-धीमे झूम उठती थी और निर्मल जल पर पराग की फुही सी कमल गर्भ में से भर जाती।
देव! दृश्य बदल गया। मैंने देखा मैं एक विस्तृत तीर भूमि पर खड़ी। मेरे सामने एक भव्य श्वेत राशि आन्दोलित हो रही थी। वह क्षीर समुद्र था। कितना श्वेत था वह, मैं कैसे बताऊँ? वहाँ कलुष की एक बूँद भी नहीं थी। फेन उठते थे, फिर उर्मियाँ गति लय पर संगीत सा उठाती और दूर जाकर लय हो जाती। जहाँ से दृष्टि क्षितिज तक फैल जाती और उसका अन्त कहीं नहीं दिखाई देता। किन्तु देव उस क्षीर सिंधु के भीतर से मुझे हाहाकार और गर्जन सुनाई नहीं दिया। वहाँ की वायु स्निग्ध थी, उसमें चिकनापन नहीं था। चारों ओर संगीत की लहरियाँ ही जैसे प्रतिध्वनित हो रही थी।
मैं आगे बढ़ी। अनन्त आकाश में उड़ता हुआ मुझे एक देदीप्यमान दिव्य विमान दिखाई पड़ा। उसमें हँसी के आकार की मणि जड़ित मूर्तियाँ बनी हुई थी और छोटी-छोटी घंटियाँ मधुर-मधुर स्वर से बज रही थी। उनके हीरक और नीलमणि जब मरकतों और मुक्ताओं की किरणों से प्रतिच्छादित होते तो उस विमान से मनोहर संगीत सुनाई देता। मैं विभोर-सी देखती रही, जब तक वह दृष्टि से लुप्त न हो गया। मैंने मुड़कर नीचे देखा तो बहुत ऊँचे पर ही मेरी दृष्टि चकित-सी ठहर गयी। मैं सोचने लगी वह क्या था। उस पर प्रकाश लकलक कर रहा था।
महाराज सिद्धार्थ के नेत्र कुछ फैल गये। पास खड़ी दासी के हाथ में हिलता चँवर अब मन्द हो गया। वातायन पर झूलती अमिट, धूपलहरी को फिर पवन प्रकोष्ठ लौटा आया और प्रकाश आँचल पकड़कर प्रभात वहाँ स्निग्धता से चपल चरणों को रोक कर खड़ा हो गया। आस्तरणों की सिलवटों में रात की खुमारी दुबकने लगी। विशाल दीवारों पर बने सुंदर चित्रों के पात्र जैसे त्रिशूल का वह अद्भुत स्वप्न सुनने लगे।
त्रिशला ने फिर कहा मेरी दृष्टि क्षण भर नहीं ठहरी, तब मैंने देखा कि वह एक नीलमणि था, बहुत बड़ा। उसके चारों ओर लाल रंग के रत्न जड़े थे। कितने थे वे रत्न के ढेर। जैसे-जैसे दृष्टि उतरती, उनका फैलाव बढ़ता जाता। वे असंख्य विभिन्न रंगों के चमकते रत्न मेरे सामने राशि-राशि रखे थे। मैं सोचने लगी थी कि समस्त लोकों का वैभव यहाँ आकर एकत्र हो गया है, उन पर जब प्रकाश चमकता तो इन्द्रधनुषों की भीड़ उमगने लगती। और फिर प्रकाश जाकर उन रत्नों के पक्ष पर मुस्कराने लगता।
दासी का हाथ फिर चलने लगा। उसने देखा महाराज सिद्धार्थ स्तब्ध थे। त्रिशला जैसे किसी सुदूर के भव्य स्वप्न को फिर समेट लेने का यत्न कर रही थी। और उसके बाद त्रिशला कहा मैंने निर्धूम जाज्वल्यमान अग्निशिखा देखी। बस केवल शिखा। अनन्त नील पर अपने ही आलोक से प्रज्वलित-सी पवित्र, जिसमें कोई कम्प नहीं था, किन्तु अकम्प दीप्ति थी। मैं उसे देखती ही रह गयी।
सिद्धार्थ ने कहा- फिर?
फिर मेरी आँख खुल गयी, स्वामी।
सिद्धार्थ उठ खड़ा हुआ।
व्यायाम करके जब उन्होंने जब उन्होंने शरीर पर तैल मर्दन कराके स्नान किया और दासियों ने उन्हें सुन्दर वस्तु आभूषण पहना दिये, तब वे गण के सभा स्थल में रथ पर बैठकर पहुँच गये। स्वप्न शास्त्रज्ञ वृद्धों को उन्होंने बुलवाकर त्रिशला के सारे स्वप्न सुनाकर उनका फल पूछा।
वृद्ध शास्त्रज्ञ सुप्रतीक ने अपने सफेद वालों पर बाँधे सफेद उष्णीश को हाथ से छूकर कहा महाराज, स्वप्न आने के नौ कारण होते हैं।
सिद्धार्थ ने कहा- आर्य स्पष्ट करें।
वृद्ध ने कहा- देव स्वप्न अनुभव से आते हैं। किसी बात को सुनकर मन में धारण कर लेने से स्वप्न आते हैं। गहराई से देखने और चित्त में उसकी स्मृति बनाये रखने से उससे सम्बन्धित सपने दिखाई देते हैं। प्रकृति का विकारमयी होना भी स्वप्न दिखाई देने का एक कारण है। स्वप्न सहज भी आ जाते हैं। स्वप्नों का जंजाल चिन्ताओं के कारण बढ़ता है। दैवी उपद्रवों से भी स्वप्न आते हैं। धर्मरतों को पवित्र स्वप्न दिखते हैं। पापी को अनिष्टकर व पापमय स्वप्न दिखाते हैं। पहले ६ कारणों से दिखे स्वप्न निरर्थक होते हैं, बाकी तीन फलदायक। वे यदि प्रथम प्रहर रात में देखे गये हो तो देखने वाले को बारह मास में फल मिलता है। दूसरे पहर में देखने पर ६ मास में और तीसरी पहर में देखने पर एक मास में फल दिखाई दे जाता है।
राजा सिद्धार्थ सुनते रहे।
वृद्ध शास्त्री सुप्रतीक ने कहा- त्रिशला देवी की बुद्धि धर्मरता है। सतत् साधना एवं तपश्चर्या से उन्होंने अपने को पवित्र बना लिया है। उनका मस्तिष्क महानताओं की कल्पना करता है। वे जीवन के सुदूर और श्रेष्ठ रूपों की ही कल्पना करती हैं। उनके स्वप्नों में ईश्वरीय चेतना के दिव्य संकेत की झलक मिलती है। उनके गर्भ से इसलिए एक अतिमहान एवं विशिष्ट पुत्र का जन्म होगा। उनके कुक्षि से जन्म लेने वाला पुत्र समस्त लोकों पर छा जायेगा आर्य।
कुछ और अधिक बतायें आचार्य! राजा सिद्धार्थ ने अपनी जिज्ञासा प्रकट की।
ऐसे लक्षणों के स्वप्नों से तो आभास होता है कि ऐसी माता का पुत्र तीर्थंकर बनेगा।
तीर्थंकर! महाराज सिद्धार्थ के नेत्र आश्चर्य और आनन्द से फट गये। वह विह्वल हो उठे।
वृद्ध सुप्रतीक कह रहे थे- स्वप्नों से स्पष्ट होता है कि त्रिशला देवी उच्चस्तरीय चेतना के संपर्क में है। ऐसी माता के पुत्र लोकमंगल के लिए जन्म लेते हैं राजन! आप यह निश्चित जाने कि उनके पराक्रम से नीच विनष्ट हो जायेंगे।
सुवर्ण के सिक्कों से झोलियाँ भरकर स्वप्नशास्त्र के मर्मज्ञ आचार्य सुप्रतीक तो चले गये। किंतु समस्त नागकूल के क्षत्रियों में सिद्धार्थ के तीर्थंकर होने वाले पुत्र की कल्पना फैल गयी। त्रिशला ने सुना तो उनका हृदय और भी उदात्त हो गया और उनके मन में यह बात जम गयी कि पुत्र की किसी भी प्रकार छोटी बातें नहीं सिखाई जायेगी, क्योंकि वह महान बनने के लिए पैदा होगा।
नौ महीने साढ़े सात दिन पूर्ण होने पर चैत्र सुदी त्रयोदशी के दिन हस्तोत्तरा नक्षत्र के योग में महारानी त्रिशला देवी ने एक दिव्य पुत्र को जन्म दिया। बालक का नाम वर्धमान रखा गया। ज्योतिषियों ने जन्म-कुण्डली बनाकर कहा कि कुण्डली परम श्रेष्ठ है। उन्होंने भवनपति और व्यंतर ज्योतिषी, दिक्कुमारियों, शक, बारह देवलोकों बाठा व्यंतर आदि के क्रमशः दस-बीस और बत्तीस इन्द्र सूर्य और चन्द्र की उपस्थिति की ओर इंगित किया।
नागकूल में पारस्परिक उपहारों की धूम मच गयी। पूरे दस दिन का महोत्सव मनाया गया। बीस प्रकार के कर से उस वर्ष सभी को मुक्त कर दिया गया। प्रजा में जय-जयकार हुआ। तीसरे दिन पुत्र को चन्द्र और सूर्य के दर्शन कराये गये। छठे दिन नगर की परमसुन्दरी कुलीन रमणियाँ प्रासाद में मंगलगीत गाने आयीं। कुमकुम, अंगराग धारण किये एवं सुगंधित बहुमूल्य वस्त्रों और स्वर्णाभरणों से वे देवलोक की निवासिनी प्रतीत होती।
महारानी त्रिशला ने भी आनन्द से रात्रि जागरण किया। जागरण के अन्त में कुलीनों को भेंट दी गयी। ग्यारहवें दिन जातकर्मोत्सव बड़ी धूमधाम से मनाया गया। बारहवें दिन समस्त कूल एकत्र हुआ और प्रीतिभोज के उपरान्त बालक वर्धमान को आशीष दी। उन आशीर्वादों से प्रासाद की वैभवमयी भीति प्रतिध्वनित होने लगी। छोटे-सुडौल माँसल एवं सौंदर्य की साकार मूर्ति बालक वर्धमान को कूललनाएँ बार-बार गोद में लेतीं और तब बालक वर्धमान बड़ा होने लगा। बड़े होने के साथ साथ ही उसमें अपूर्व आध्यात्मिक तेज साकार होने लगा। उनके बचपन में ही सभी को महारानी त्रिशला के देखे गये स्वप्नों की सार्थकता नजर आने लगी और काल प्रवाह में एक घड़ी वह भी आयी, जब सभी को स्वीकार करना पड़ा कि सचमुच स्वप्नों के भी अर्थ होते हैं। माता द्वारा देखे गये सपनों को सार्थकता प्रदान करते हुए बालक वर्धमान सचमुच में एक दिन तीर्थंकर महावीर बन गये।