धर्मः एक आध्यात्मिक भूख

August 1998

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वैयक्तिक हो, चाहे सामाजिक सुव्यवस्था, दोनों के लिए धर्म-धारण अर्थात् अध्यात्म से बढ़कर और कोई साधना नहीं हो सकता। व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन में संव्याप्त अवांछनीयता पर बलपूर्वक नियंत्रण करने में शासन की अधिकांश क्षमताएँ नष्ट होती रहती हैं, फिर भी कुछ कहने लायक समाधान नहीं मिलता। यदि धर्म-धारणा को प्रखर और समुन्नत बना सकने योग्य वातावरण उत्पन्न किया जा सके, उचित साधना जुटाये जा सके, तो निःसंदेह सामाजिक सुव्यवस्था और राष्ट्रीय समर्पण का प्रयोजन सहज ही पूरा हो सकता है। सार्वभौम और सर्वकालीन सुख शान्ति की स्थापना धर्म-धारणा को सुदृढ़ और समुन्नत बना कर ही की जा सकती है।

यों तो आज सुख-शान्ति के लिए अधिक सुविधाजनक साधनों की खोज में विज्ञान और शासन के प्रयास निरन्तर चले आ रहें है। दोनों अपने-अपने ढंग से अपनी-अपनी क्षमताओं को मनुष्य को समुन्नत बनाये में खपा रहें हैं और उसकी फलश्रुतियाँ भी सामने हैं, इतने पर भी इस तथ्य को भूला दिया जाता है कि मनुष्य एक चेतनात्मक परिपूर्ण सत्ता है आनन्द का उद्गम उसके भीतर है। वहीं अन्तर्ज्योति जब बाह्य जगत पर प्रतिबिम्बित होती है तो सौंदर्य, संतोष एवं सुखानुभूति का अनुभव होता है। अतः उत्कर्ष चेतना का भी होना चाहिए। चेतना का परिष्कार किये बिना, विचारणा का स्तर ऊँचा उठाये बिना विपुल साधना सम्पत्ति होने पर भी न आनन्द मिल सकेगा और न उल्लास व संतोष। विचारणा को उत्कृष्टता के स्तर तक उठाने और सुदृढ़ बनाने में धर्म का तत्त्वज्ञान ही समर्थ हो सकता है। भौतिक विज्ञान इस प्रयोजन की पूर्ति में बहुत अधिक सहायता नहीं कर सकता।

इस संदर्भ में प्रख्यात मनोवेत्ता जुँग ने अपनी कृति ‘माॅर्ड्रन मैन इन सर्च ऑफ सोल’ में कहा है कि जब विज्ञान में भी किसी वस्तु का ज्ञान प्राप्त करने के लिए विशिष्ट यंत्र ही आवश्यक ही उपयोगी होते हैं। इसमें न तो माइक्रोस्कोप द्वारा दूरस्थ तारे को देखा जा सकता है, वरन् शक्तिशाली टेलिस्कोप की जरूरत पड़ती है और न ही सर्जन की छुरी कैंची से मलेरिया के अत्यन्त सूक्ष्म जीवाणु-विषाणु देखे जा सकते हैं। उपयुक्त यंत्र उपकरण से ही तत्संबंधित वस्तुओं की, बीमारियों की जाँच परख की जा सकती है। इसी प्रकार बुद्धि के द्वारा अध्यात्मिक सत्य का परीक्षण नहीं किया जा सकता, भले ही वह कितनी ही तीक्ष्ण क्यों न हो।

पदार्थ से सुख मिलता है, यह सिद्धान्त भी अपने स्थान पर ठीक है, पर गलत यह भी नहीं कि उत्कृष्ट चिन्तन उपलब्ध साधनाओं की मात्रा अधिक न होने पर भी जो हस्तगत है, उससे इतना आनन्द उठाया जा सकता है, जो परिपूर्ण संतोष प्रदान कर सके। इसी तरह भौतिक विज्ञान द्वारा सुविधा साधनाओं की दिशा में निरंतर किये जा रहे अभिवृद्धि के प्रयासों से भी समुचित लाभ तभी उठाया जा सकेगा, जब भावना एवं दृष्टिकोण को ऊँचा उठा सकने में समर्थ धर्म तत्वों को समझने के लिए भी समानान्तर प्रयास किया जाये। आज जहाँ विज्ञान ने शक्ति को पदार्थ के रूप में और पदार्थ को शक्ति के रूप में परिवर्तित करके यह सिद्ध किया है कि सूक्ष्म को स्थूल में और स्थूल को सूक्ष्म में परिवर्तित किया जा सकता है, वही दर्शन और अध्यात्म हजारों वर्षों पूर्व से यह सिद्ध करता आ रहा है कि विचार को घटना के रूप में विकसित किया जा सकता है और घटनाएँ विचारों का निर्माण कर सकने में समर्थ हैं।

वस्तुतः मानव जीवन उतना जटिल नहीं है जितना कि बन गया है या बना दिया गया है, हँसी-खुशी की संभावनाओं से वह भरा-पूरा है। शरीर और की मन की संरचना इस प्रकार हुई है कि वह बाहर के तनिक से साधनों की सुविधा प्राप्त हो जाने पर सहज की स्वस्थ और सुखी रह सकता है। अतिस्वल्प साधनों से अन्य जीवधारी अपना संतोषपूर्ण व्यवस्थाक्रम चलाते रहते है, न उन्हें रुग्णता सताती है और न ही खिन्नता। यदि उन्हें सताया न जाये तो शरीरयात्रा की प्रचुर परिमाण में उपलब्ध साधन- सामग्री से ही अपना काम चला लेते हैं और हंसी-खुशी के दिन काटते हैं।

मनुष्य को यह सुविधा तो और भी अधिक मात्रा में उपलब्ध है। उसका अस्तित्व एवं व्यक्तित्व इतना समर्थ है कि न केवल शारीरिक सुविधा की सामग्री, वरन् मानसिक प्रसन्नता की परिस्थिति भी स्वल्प प्रयत्न से प्रचुर मात्रा में प्राप्त कर सकता है। इतने पर भी देखा यह जाता है कि मनुष्य खिन्नता और अतृप्ति से ही घिरा रहता है। भौतिक सम्पदा व विज्ञानजन्य विपुल साधन-सुविधा उपलब्ध होने पर भी असंतोष व आधि-व्याधियों की घटाएँ उस पर सदा छायी ही रहती है।

तमाम सुविधाएँ एवं सौभाग्य जैसे समस्त साधना प्राप्त होने पर भी दुर्भाग्य की जलन में झुलसते रहने के पीछे एक ही कारण ढूँढ़ा जा सकता है। कि सहज रीति -नीति को छोड़कर हम जाल-जंजाल भरी विद्रूप विडम्बनाओं में उलझ गये और अपना मार्ग स्वयं कंटकाकीर्ण बना लिया। सहज स्वाभाविकता का नाम है- ‘धर्म’ और इसके विपरीत आचरण को अधर्म कहते हैं। वैयक्तिक और सामाजिक कर्तव्यों को जो सही तरह समझता है और सही तरह पालन करता है, उसे स्वल्प साधनों में भी तुष्ट, पुष्ट और प्रगतिशील देखा जा सकेगा। धर्म की धारणा निश्चित रूप से सुख-शान्ति के प्रतिफल प्रदान करती है।

मूर्धन्य मनीषी एलिस ने कहा है कि मनुष्य के मन और शरीर को आधि-व्याधियों ने इसलिए घेरा है कि उसे धर्म का समुचित संरक्षण नहीं मिला। यदि आहार-निद्रा की तरह धर्म को भी जीवन की अनिवार्य आवश्यकता माना गया होता तो हम आज जिन शोक संतापों की विविध ज्वालाओं में घिर कर जल भून रहे हैं, उन व्यथाओं को सहने से सहज ही बच सकते थे।

सन्त आंगस्टाइन ने मानव की, मानव के प्रति कर्तव्य घोषणा को माना है जबकि सेन्टपाल का कथन है कि पतन के गर्त के उत्थान के शिखर पर चढ़ने की सीढ़ी को धर्म कहना उपयुक्त होगा। हेम्रोज ने भी अपना मन्तव्य कुछ इसी तरह से व्यक्त किया है। उन्होंने धर्म को दो धाराओं में विभक्त किया है- एक आस्थामूलक और दूसरी व्यवहारपरक। आस्था की स्थापना आध्यात्म के आधार पर होती है और आचरण व्यवहार का समीकरण धर्माचरण पक्ष पक्ष द्वारा किया जाता है। दोनों के समन्वय को धर्म कह सकते है। ईश्वरवाद के सहारे धर्म-सिद्धान्तों की व्याख्या और पुष्टि की जा सकती है। दार्शनिक विलियम बैंक ने धर्म को आत्मा का कवित्व कहा है। वे कहते हैं कि पुराणों के अलंकार में परियों की गाथाएँ और जादुई किम्वदन्तियाँ भरी पड़ी हैं। इन सब का सार निष्कर्ष यह है कि आत्मा की भावसरिता यदि उत्कृष्टता की दिशा में बह निकले तो उसका प्रतिफल व्यक्ति और समाज के लिए उतना ही सहज और आकर्षक हो सकता है, जैसा की देवताओं का सौंदर्य, वैभव और कर्तृत्व। इसी तरह ल्यूवा ने धर्म को एक सनातन राजमार्ग बताया जिस पर धीरे धीरे चलते हुए मनुष्य जाति विकास के वर्तमान स्तर तक पहुँचने में समर्थ हुई है और भविष्य में और कुछ अधिक पाने की आशा कर सकती है।

इस संबन्ध में फ्रेजर का अपना अलग मत है। वे धर्म को ईश्वरीय आदेश और आत्मतृप्ति का आधार मानते हैं। कोमटे की मान्यता है कि अन्तरात्मा के मृदुल रस का बाह्य संसार के समन्वित करके कैसे बहुमुखी सरसता उत्पन्न की जा सकती है, इस आवश्यकता की पूर्ति कर सकने वाली कला का नाम ही धर्म है।

धर्म-धारण के सम्बन्ध में वस्तुतः अलग-अलग मनीषियों, दार्शनिकों के अपने अलग-अलग मत हैं, इतने पर भी सब ने उसे कर्तव्यनिष्ठा से जुड़ा हुआ बताया है। संत डाइनाइसिअस का निरूपण यह था कि अपने और अदृश्य जगत और अदृश्य जगत के परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाली धाराओं का एकात्म बना देने वाले महासमुद्र का नाम धर्म है। उसके आधार पर ही विरोध को सहयोग में एवं पृथकता को एकता में बदला जा सकता है। वर्तमान समय की तो यह एक अनिवार्य आवश्यकता ही बन गयी है। जब एक देश दूसरे देश से, एक धर्मावलम्बी दूसरे धर्मावलम्बी से ही नहीं, वरन् मानव समाज का प्रत्येक वर्ग, प्रत्येक घटक एक दूसरे से आगे बढ़ने की होड़ में सम्मिलित है ओर एक दूसरे को रौंदकर आगे बढ़ने की कोशिश कर रहा है, ऐसी स्थिति में धर्मधारणा ही एकमात्र वह कारगर उपाय रह जाता है, जो भूले हुए को सही मार्ग पर ला सकता है। और कर्तव्यबोध करा सकता है।

प्रख्यात जर्मन दार्शनिक मैक्समूलर ने अपनी कृति ‘ऐन इन्ट्रोडक्सन टू द् साइन्स ऑफ रिलीजन’ में धर्म की विवेचना करते हुए लिखा है कि धर्म अन्तरात्मा की पुकार है, जो तर्क और जानकारियों को प्रभावित तो करती है, पर उससे प्रभावित नहीं होती। उसका आधार अतीन्द्रिय है। दिव्य चेतना ही हमें धर्मनिष्ठा अपनाने के लिए प्रेरित करती है। इसी संदर्भ में विलियम जेम्स ने लिखा है कि धर्म एक दूरगामी चिन्तन है, जिससे व्यक्ति की सामयिक परिस्थितियों की अपेक्षा समष्टि की सर्वांगीण और सर्वकालीन आवश्यकताओं का ध्यान रखा जाता है। मनीषी अलबर्ट का कहना है कि धर्म हमारे भौतिक जीवन को सुखी बनाने में सहायक हो सकता है, पर भौतिक सुखों के लिए धर्म का उपयोग करना न तो उचित होगा और न संभव। धर्म एक आध्यात्मिक भूख है, जिसे तृप्ति करने के लिए भौतिक कष्ट भी सहने पड़ सकते हैं।

धर्म वस्तुतः एक नैतिक भावनात्मक एवं परिष्कार की नियोजित प्रक्रिया है। इसका लाभ परलोक में मिलेगा, इसकी प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती। धर्म-धारण जहाँ भी होगी, वहाँ आत्मसंतोष और आत्म उल्लास की ऐसी शक्ति विद्यमान रहेगी, जिसके सामने भौतिक दृष्टि से अभाव ग्रस्त समझा जाने वाला जीवन भी शांति और धैर्यपूर्वक सरल एवं सुरम्य बनाया जा सके।

धर्म मस्तिष्क नहीं अपितु अन्तः करण की देन है। इस संबंध में दार्शनिक पास्कल का कहना है कि हृदय के विवेक से धर्म का उदय होता है। उसे मात्र तर्कों की बैसाखी लगाकर नहीं खड़ा किया जा सकता। कान्ट ने भी धर्म की परिभाषा करते हुए उसे ऐसी मानवीय कर्तव्यनिष्ठा बताया है, जो मस्तिष्क तक सीमित न रहकर अंतःकरण के निष्ठा में घनीभूत हो गयी।

तत्त्वदर्शियों के उपर्युक्त अभिवचनों में धर्म शब्द के अंतर्गत जिस आधार की चर्चा की गयी है, उसे उत्कृष्टतावादी चिन्तन और आदर्शवादी कर्तव्य के अंतर्गत ही गिना-समझा जाना चाहिए। कर्तव्य परायण का ही दूसरा नाम धर्म है। शारीरिक मानसिक पारिवारिक सामाजिक और सार्वभौमिक जिम्मेदारियों से मनुष्य की उच्छृंखलता का मर्यादित किया गया है, उसे अपने स्तर के अनुरूप सृष्टि संतुलन के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ भी निबाहनी होती हैं। धर्म का प्रयोजन इसी मानवोचित शालीनता और कर्तव्यनिष्ठा को अक्षुण्ण बनाये रखना है। संस्कृति और सम्प्रदायों में क्षेत्रीय और सामयिक परिस्थितियों के अनुसार आचार-व्यवहार की व्यवस्था रहती है। इसलिए परिस्थिति के अनुसार इनमें बार बार सुधार परिवर्तन करना पड़ता है, पर धर्म के बारे में ऐसी बात नहीं है। वह शाश्वत और सनातन है। उसका स्वरूप सदाचार मर्यादा और लोकहित के रूप में चिर अतीत से ही निर्धारित किया जा चुका है। उसमें परिवर्तन की आवश्यकता कभी भी किसी को नहीं पड़ सकती। आवश्यकता है तो मात्र इतनी की हम उसे अपने जीवन में धारण करें, गुण, कर्म, स्वभाव का अंग बनायें, चिन्तन चरित्र व्यवहार में उतारें। स्थायी सुख शान्ति तभी मिल सकती है।


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