स्नेहमयी माँ एवं उनका रक्षा-कवच

August 1998

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आपकी माता अब शय्या से उठ नहीं पाती। बड़ी उत्कंठा थीं, कोई समाचर मिले घर का और अब समाचर मिला तो यह- उनकी बड़ी इच्छा है, आते समय आँखों में आँसू भरकर उन्होंने कहा है- बलवन्त का मुँह देख पाती मरने से पहले। वैद्यों की जा राय है, वह अच्छी नहीं है उनके सम्बन्ध में।

माँ अभी हैं तो? बलवंतसिंह के नेत्र भर आए। होना तो चाहिए। सन्देश देने वाले ने उलटे घबराहट अधिक बढ़ा दी- मैं। झूठ नहीं बोलूँगा। जब मैं चला उनको तीव्र ज्वर था और दुर्बलता तो बढ़ती ही जा रही थी। वृद्ध शरीर है और पूरे डेढ़ महीने से चारपाई पकड़ रखी है। मुझे किशनगढ़ छोड़े पन्द्रह दिन हो रहे हैं।

हे प्रभु! बलवंत सिंह ने दोनों हाथ जोड़कर किसी अदृश्य को मस्तक झुकाया। माता डेढ़ - दो महीने से रुग्ण हैं और उन्हें अब समाचार मिल रहा है, लेकिन इसमें दोष किसका है? किसे पता है कि वह यहाँ है। यदि बीकानेर से वह कोलायत के मेले के समय ने आया होता, तो यह पता भी उसे नहीं लगता।

घर पर किसके झगड़ा नहीं होता? बड़े भाई ने कुछ कह दिया तो क्या हो गया था? अन्ततः स्नेहवश ही तो उन्होंने डाँटा था। आज बलवन्त सिंह को ढाई वर्ष पुरानी बातें अभी सामने हुई जान पड़ती हैं। चार भाइयों में सबसे छोटा होने के कारण सबका स्नेहपात्र था। वहाँ राजपूत सरदारों का उसका घराना था। किन्तु बड़ा ही पवित्र घर था उसका। उसके पिता की कीर्ति न्याय, सदाचार और पीड़ितों की रक्षा के लिए किशनगढ़ (रैनिवाल) में अब तक गायी जाती है। बड़े भाई ने पिता के स्वर्गवासी होते ही उनका उत्तराधिकार - उनके सद्गुण भी अपना लिए। गुण-दोष संग से भी आते हैं। राजपूत कुमारों का साथ, उसका आचार-व्यवहार अमर्यादित हो गया। अब छोटा भाई प्रजा पर कुदृष्टि करे, जिनकी रक्षा कर्तव्य है, उनकी ही बहू - बेटियों पर व्यंग कसे, यह वे कैसे सह सकते थे?

तू कलंक उत्पन्न हुआ इस कूल में। बड़े भाई ने सामने आते ही आग्नेय नेत्रों से देखा और तड़प उठे थे। किसी न उनसे कह दिया होगा। झूठ भी तो नहीं कहा था। वे ठीक ही तो डाँट रहे थे- यह किसका घर है यह तुझे पता नहीं। पिता की कीर्ति को कलंकित करके यहाँ आते तुझे लज्जा नहीं आयी?

बात कुछ नहीं थी। पिता के समान स्नेह करने वाले बड़े भाई थे वे। क्षमा माँग लेने वे ही काम चल जाता। क्षमा न भी माँगी जाती तो भी दो घण्टे में स्वयं स्नेहपूर्वक समझाते, किन्तु बलवंत का राजपूत उक्त उबल पड़ा- मैं तब ताक इस घर में पाँव नहीं रखूँगा, जब तक मेरे आने से पिता की कीर्ति उज्ज्वल न होती हो। वह उल्टे पैरों लौट पड़ा था। बड़े भाई न सोचा था कि वह थोड़ी देर में लौट आएगा या घूमकर सीधे माता के पास चला आएगा। जब दोपहरी में भी वह घर नहीं पहुँचा’- सब लोग व्याकुल हो गए। लेकिन घर की सबसे अच्छी साँड़िनी (ऊँटनी) घर पर नहीं थी। भाइयों ने, मित्रों ने सप्ताह और महीने बिता दिये पता लगाने में, माता ने रो-रोकर आँखों की ज्योति खो दी, किन्तु बलवंत का पता नहीं लगा, सो नहीं लगा।

तुम कोलायत जा रहे हो? उसकी रुग्ना माता ने कितनी उत्कंठा से कहा था राम प्रताप से- संभव है मेरा बलवंत वहाँ आवे। उससे कहना तेरी वृद्धा माँ मर रही है। अब तो उसे क्षमा कर दे।

बलवंत रो पड़ा फूटकर - माँ! माँ! क्षमा करो मुझे।

भाई की बात लग गयी थी उस समय और जब मनुष्य को बात लग जाती है, यदि वह मनुष्य है तो देवता हो जाता है। बात लगने पर जो पिशाच हो जाते हैं, वे तो मनुष्य पहले भी नहीं थे। बीकानेर में लोग कहते हैं, सरदार बलवंतसिंह तो देवता हैं। ढाई वर्ष पूर्व साँड़नी की पीठ पर चढ़ा बलवंत अकेला बीकानेर पहुँचा था। उसके पास सामान के नाम पर केवल राजपूत की नित्यसंगिनी तलवार थी। सेना में स्थान मिलना कठिन नहीं था तब राजपूत के लिए। ढाई वर्ष में बलवंत सिंह सरदार हो गया है। उसकी तत्परता, परिश्रम, राजभक्ति और इन सब बातों से बढ़कर यह कि एकमात्र वही सेना में ऐसा है, जो समय पाते ही नगर में यह ढूँढ़ने निकलता है, कौन बीमार है? कौन दुखी है? किसी क्या सेवा की जा सकती है?

बीकानेर और वहाँ का गोस्वामी चौंक-काँकरोली के महाराज का यह आत्मीय परिवार, इसकी सेवा-श्रद्धा ने बलवंत सिंह को गायत्री माता की भक्ति का प्रसाद दे दिया है। वह गायत्री साधक हो गया है। गायत्री जप किये बिना जल पी लेना उसके लिए अकल्पनीय बात हो गयी है। आज कोलायत में उसे अपनी माता का समाचार मिला है। शायद यह भी आदिशक्ति माँ गायत्री की ही प्रेरणा थी, जो वह यहाँ आया।

सेना की सेवा ऐसी नहीं होती कि कोई बिना सूचना दिये चाहे जहाँ चल दे और कम से कम उससे तो यह आशा नहीं की जा सकती। एक बात और-ढाई वर्षों से उसे जो कुछ मिला-दुखियों की सेवा के लिए अर्पित हो गया। खाली हाथ घर जाए? इसकी चिंता करने का तो वैसे कोई कारण नहीं है। क्योंकि महाराज बीकानेर वैसे ही इतने उदार हैं कि बिना माँगे ही सब कुछ दे देते हैं। इसी सोच के साथ उसी समय सरदार बलवंतसिंह की साँड़िनी बीकानेर की ओर उड़ चली।

सरदार बलवंत सिंह किशनगढ़ के हैं, यह किसी ने नहीं सोचा था। ढाई वर्षों में उन्होंने अपना परिचय भी किसी को नहीं दिया था। मैं एक दुख का मारा राजपूत हूँ। स्वयं महाराज से इतना ही कहा था उन्होंने। राजपूत - इतना ही परिचय उन दिनों विश्वस्त होने के लिए पर्याप्त हुआ करता था। यदि महाराज ने अनुमान किया होता कि उनका यह युवक सरदार जैसलमेर से आगे किशनगढ़ (रैनिवाल) जा रहा है, तो अकेले नहीं जाने देते। जैसलमेर लुटेरों का प्राँत है और जाना है उसी प्राँत के मध्य से। लेकिन किशनगढ़। सबने समझा यह पास का किशनगढ़ और वहाँ जाने में कोई बाधा थी ही नहीं।

कोई जान भी लेता कि बलवंत सिंह किस किशनगढ़ जा रहे हैं, तो क्या होना था? इस तपते ज्येष्ठ में कोई भी वहाँ जाना चाहेगा तो कोलायत, मोहनगढ़, जैसलमेर के रास्ते से ही जाएगा। कोलायात से सीधे किशनगढ़ केवल ७६ कोस ही तो है। दो -सवा दो सौ कोस का चक्कर क्यों किया जाए? दो दिन लगेंगे और साँड़िनी द्वार पर खड़ी होगी। माँ पता नहीं है या नहीं .........। कोई विक्षिप्त होने पर ही ऐसी बात सोच सकता है। ७६ कोस ७ मध्य में एक गाँव नहीं, एक झोपड़ी नहीं, शमी या करारे की झाड़ी भी है या नहीं, पता नहीं। जिस मार्ग की ओर बढ़ते हुए डाकुओं के भी पैर काँपे वह मार्ग।

माँ शय्या से उठ भी नहीं पातीं। पता नहीं वह हैं भी या नहीं। उसे कुछ दूसरा नहीं सूझ रहा था। जहाँ तक घड़ी एक वर्ष जान पड़ती हो- दो दिन भी बहुत होते हैं। उसी दो दिन के मार्ग पर जो मार्ग था ही नहीं, साँड़िनी उड़ी जा रही थी। बड़ी धीमी है यह साँड़नी। वह बार-बार झुँझला जाता था। साँडनी को उत्साह देता- मरु की रानी! बढ़ बढ़ी चल। तो साँड़नी अपने सवार के मनोभाव समझती थी। कदाचित वह समझती थी आज की यात्रा मृत्युयात्रा है। जब मरना ही है, सवार ने मरने का ही निश्चय किया है ऐसा ही सही। वह पूरे वेग से उड़ी जा रही थी।

कोलायात से आगे बढ़ते ही सूर्योदय हो गया। दिन के साथ वायु का वेग भी बढ़ने लगा। साँड़नी ने एक बर सिर उठाया, कुछ सूँघने का प्रयत्न किया, खड़ी हो गयी और लौटने के लिए मचलने लगी। बढ़ो। बढ़ो! आगे बढ़ो रानी! बलवंत ने पुचकारा- लौटना नहीं है। मेरी देह भी माता के पास तुम पहुँच सको तो मेरा जीवन सफल जो जाएगा। ऊँटनी ने जैसे बात समझ ली। बस चलना ही है तो वह चलेगी। सेना का ऊँट कायर नहीं होता। लेकिन उसने अपनी से सूचित कर दिया कि आगे बढ़ने का क्या अर्थ है?

मरुस्थल में बड़ी अन्धड़ चलता काई मनुष्य बैठ जाए तो उसके ऊपर रेत का पहाड़ खड़ा हो जाएगा और अन्धड़ ज्येष्ठ में न चले तो चलेगा कब? बड़े-बड़े टीबे (रेत के टीले) उड़ते हैं और मील दूर तक नवीन पर्वताकार टीबा बनता है। यह सब क्षणों में होता है- होता ही रहता है, पूरे ग्रीष्म की दोपहरियों में। ऐसे ग्रीष्म में शरहीन, ग्रामहीन, छायाहीन, मार्गरहित मरुस्थल में जो बढ़ पड़े- क्या कहेंगे आप उसे?

बहुत थोड़ी देर में बलवंत को अपने सिर के साफे का ढंग बदलना पड़ा। उसने उसने दोनों कान बन्द कर लिए। अनेक बार दोनों नेत्र बंद कर लेने पड़ते थे उसे। सहसा ऊँटनी चौंकी। उसने अपने पीछे की ओर से रेत उड़ती देखी। भाले को उसने ठीक सम्हाल लिया। चार - पाँच ऊँट उसके पीछे आ रहे थे।

आप कहाँ जाएँगे? पीछा करने वालों में एक ने बड़े प्रेम से पास आकर उसने पूछा।

किशनगढ़! बलवंत सिंह ने भी पूछा-आप लोग?

हम लोगों को भी वहीं जाना है। हमारे साथी जैसलमेर से वहाँ कल ही पहुँच गए होंगे। हम लोग बीकानेर रह गए, कुछ आवश्यक वस्तुएँ लेने के लिए। आगन्तुकों में एक ने पूरा परिचय दिया अपना। कोई बारात गई है। किशनगढ़। ये लोग पीछे रह गए हैं। अब पहुँचने की शीघ्रता है, इससे सीधा मार्ग पकड़ा है। आपका साथ हो गया, यह बड़ा अच्छा हुआ।

आपके साथ तो पानी नहीं है। आगन्तुकों को आश्चर्य हुआ, पर उन्हें क्या मालूम, उसी यात्रा किस मनः स्थिति में प्रारंभ हुई थी। वह कुछ जवाब दे इसके पहले ही वे कहने लगे, कोई बात नहीं! बीच में थोड़ा पानी मिल सकता है। एक देवी स्थान है मार्ग में आगन्तुकों ने आश्वासन दिया- मार्ग हमारा जाना-बूझा है। आवश्यकता होने पर ऊँट रेत में दबे मतीरे ढूँढ़ लेगा।

तभी आँधी का वेग बढ़ गया। रेत झोंके के कारण प्रायः नेत्र बन्द रखने पड़ते थे। ऊँट अपने अनुमान पर स्वतः बढ़े जा रहे थे। सहसा एक भाला ‘खटाक’ से उसकी कोठी में आकर लगा।

अच्छा! दूसरा भाला फिर फेंका गया, किन्तु वह सिर के पास से होता नीचे गिर गया। बलवंत सिंह की साँड़नी सावधान हो गयी थी। स्वयं बलवंत ने अपना भाला संभाल लिया था।

मूर्ख! चिल्लाया एक लुटेरा। बलवंत सिंह जिन्हें साथी मानकर निश्चिन्त हो गया था, दरअसल वे लुटेरे थे। यह तो अंधड़ की कृपा थी कि उनके भाले लक्ष्यच्युत हो रहे थे अन्यथा अच्छे- से -अच्छा सैनिक भी इन लुटेरों दो-दो हाथ नहीं कर सकता।

अच्छा ठहरो! उसने क्रोध में एक की ओर ऊँट झुकाया और भाले का भरपूर हाथ धर दिया। लेकिन चूक गया उसका भी लक्ष्य। मनुष्य का रक्त गिरने के स्थान पर ऊँट पर बंधी बखाल में भरा जल-भर करके गिर रहा था और कोई सम्हाल, इससे पहले बखाल खाली हो गयी।

ठहरो! लुटेरों के सरदार ने हाथ उठा लिए। उसके साथी भी ठिठक गए। कितना बहुमूल्य था वह खाल में भरा पानी। किसी मनुष्य के रक्त से इस समय वह कहीं मूल्यवान था और अब रेत उसे पी चुकी थी।

अब तो मरना है। लुटेरे सरदार ने कहा-तुम्हें भी मरना है और हम सबको भी मरना है। लड़ने से अब कोई लाभ नहीं। जब जीवन की आशा ही नहीं है। तो धन का क्या महत्व। हम सब साथ रहेंगे। तो तुम्हें कुछ सुविधा ही होगी।

मुझे लुटेरों की दया नहीं चाहिए। बलवंत सिंह ने भाला उठा रखा था।

तुम्हें न सही, हमें तो चाहिए। सरदार ने हाथ जोड़ दिये। हम सब साथ रहेंगे तो किसी प्रकार कहीं पानी ढूँढ़ने का प्रयत्न कर भी सकेंगे। तुम्हें हम लोगों पर विश्वास न हो तो हम अपने शस्त्र फेंक देते हैं। लुटेरों ने कमर की तलवारें भी रेत में नीचे फेंक दीं।

देवी के स्थान पर जल नहीं है क्या? बलवंतसिंह चौंका। लुटेरे सहासा इतने दीन बन जाए, यह कोई छोटी बात नहीं थी। पानी न मिला तो इस मरुभूमि में समाधि बनेगी, इसमें संदेह करने का कोई कारण ही नहीं था।

आप समझते हैं कि ऊँट अभी दो घण्टे और चल सकते हैं? लुटेरों के सरदार ने कहा-देवी का स्थान मरुस्थल के केन्द्र में है। वहाँ संध्या से पहले नहीं पहुँचा जा सकता और जल वहाँ है यहाँ नहीं, यह कोई नहीं जानता। आपने सुना नहीं कि गर्मियों में देवी वहाँ प्रत्यक्ष निवास करती हैं। मनुष्य वहाँ जा नहीं सकता और पहुँच जाए तो लौटता नहीं।

माँ गायत्री ही जानती हैं क्या होगा? बलवंत सिंह को आदिशक्ति की कृपा एवं सामर्थ्य पर पूर्ण विश्वास था। अब उसे एक क्षण व्यर्थ नष्ट करना भयंकर दिख रहा था। लेकिन महाभय मुँह फाड़े खड़ा था। आकाश धूल से भर गया था। पश्चिम दिशा अंधकारमयी हो रही थी। अन्धड़ आ आ रहा था और अन्धड़ का सीधा अर्थ था-मृत्यु

रेत भड़भूजे की भट्टी में भी कदाचित इतनी कभी तपती हो, जितनी वहाँ तप रही थी। ऊपर से सूर्य अग्नि की वर्षा कर रहा था। दिशाओं से लपटें आ रही थीं। ऊपर से सूर्य अग्नि की वर्षा कर रहा था। दिशाओं से लपटें आ रही थीं। शरीर झुलसा जा रहा था। कण्ठ सूख गया था इस पर अन्धड़ आ रहा था। बैठ जाएँ तो रेत ऊपर पहाड़-सी समाधि बना देगी और खड़े ऊँट पर बैठे रहें तो पता नहीं कितनी दूर जाकर हड्डियाँ रेत में गड़ेंगी। ऊँट तक निराशा से क्रंदन जैसे ध्वनि करने लगे। हम सब एक-दूसरे को आपस में बाँधकर बैठ जाएँ। लुटेरों के सरदार ने सलाह दी।

मैं तुम लोगों के साथ मृत्यु में भी बटवारा नहीं करूँगा। महाशक्ति जो चाहेंगी वही होगा। लेकिन पाँचों लुटेरों एक-दूसरे को परस्पर बाँधकर बैठ गए और अपने ऊँट उन्होंने अपने चारों ओर खड़े कर लिए। बलवंत सिंह एकाकी खड़ा रहा। परिस्थितियों इतनी विपन्न हो रही थीं कि पुरुषार्थ असहाय था। उसने अपनी चित्तवृत्तियों को एकाग्र किया और उसकी चेतना सूर्यमण्डलस्थ माँ गायत्री के ध्यान में खोने लगी। उसके होठों से अस्फुट स्वरों में ......... ओम् भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् के शब्दों के मन्द कम्पन निकल रहे थे। अन्धड़ को आना था- आया बलवंतसिंह को फिर पता नहीं क्या हुआ। अवश्य अन्धड़ ने उसे उठाकर फेंका, इतना स्मरण है। फिर तो मूर्च्छा आते-आते उसे मुख से निकला था- हे माँ! रक्षा करो ...........माता गायत्री प्रकृति की अधीश्वरी शक्ति हैं। स्वयं मूल प्रकृति हैं। समस्त सृष्टि का आदिकारण हैं। उन्हीं के ईषत कटाक्ष से ब्रह्माण्डों का जन्म होता है। हृदय में उनकी कृपा के लिए पुकार उठे और कृपा का अवतरण न हो, यह भला कैसे संभव है?

मरुभूमि में एक छोटा मेघखण्ड प्रकट हुआ। तपती दोपहरी में, भयंकर अंधड़ के मध्य, कहीं और कभी-राजस्थानवासी जानते हैं कि उतंक मेघ कब कहाँ प्रकट होगा, कुछ कहा नहीं जा सकता। वह तो ग्रीष्म की दोपहरी में ही प्रायः प्रकट होता है। राजस्थानी लोकगाथा के अनुसार महर्षि उतंक जब समाधि से जगते हैं - तब देवराज इन्द्र उनकी क्षुधा शांत करने के लिए जलवृष्टि करते हैं। आज की ये जलवृद्धि महर्षि उतंक की प्यास शांत करने के लिए हुई या फिर बलवंत सिंह पर महाशक्ति गायत्री की कृपा का अवतरण था-कौन-क्या कह सकता है?

कुछ भी हो, बड़ी-बड़ी बूँदें पड़ने लगी थीं। धरा और आकाश चारों ओर उगल रहे थे और उस अग्निवर्षा के मध्य कुछ गज भूमि में बड़े जोर से वर्षा हो रही थी। राजस्थानवासियों के अनुसार उतंकमेघ सदा ऐसे ही तो वृष्टि करता है।

बलवंत सिंह के नेत्र खुले। वह भूमि पर पड़ा था। उसके वस्त्र भीगकर रेत से लथ–पथ हो गए थे। उसने अपने सम्हाला। उसकी दृष्टि सबसे पहले ऊँट पर पड़ी। उसकी साँड़नी वर्षा में भीगी उसके पास खड़ी थी।

धन्य हो माँ! बलवंत सिंह ने हाथ जोड़कर मस्तक झुकाया। अब उसमें पर्याप्त स्फूर्ति थी। ऊँट पर चढ़ने के बाद स्वयं पता नहीं कि किधर जा रहा है। मार्ग जानने का कोई उपाय नहीं था। लेकिन सायंकाल की अरुणिमा ने जब मरुस्थल पर गुलाल बिखेरना प्रारंभ किया, तब तक उसका ऊँट देवी स्थान के कुण्ड में जल पी रहा था। वह भी टेकरी पर खेजड़ी के नीचे देवी के चबूतरे के सामने साष्टाँग प्रणाम करते हुए लेट गया।

दूसरे दिन वह अपने गन्तव्य पर पहुँच गया। तू आ गया बेटा। कहते हुए उसकी माता हाथ अपने बिछुड़े पुत्र की पीठ सहला रहे थे।

मैं आ गया माँ! बलवंत का कण्ठ भरा था। सीधे मरुस्थल के मार्ग से आया हूँ। मरुस्थल के मार्ग से? पीछे खड़े बड़े भाई के स्वर में आश्चर्य था।

हाँ भैया! बलवंत न उनके चरणों में मस्तक रखा। माँ गायत्री की भुजाएँ बहुत लंबी हैं। वे मरुभूमि में भी अपनी संतानों की रक्षा कर ही लेती है। उसके इस कथन को सुनकर उपस्थित सभी जनों के मन- माँ गायत्री के प्रति श्रद्धाभक्त हो उठे। सभी को गायत्री उपासना की महिमा का बोध हो रहा था।


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