शिवत्व एवं उसके साथ जुड़ी प्रेरणाएँ

August 1998

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शिवपुराण में उल्लेख है-

यतः सर्व समुत्पन्न येनैव पाल्यते हितात्। यस्मिंणलीयते सर्व येन सर्वमिदं ततम्। तदैव शिवरुपं ही प्रोच्सते हि मुनीश्वराः॥

अर्थात् जिससे जगत की रचना, पालन और नाश होता है, जो इस सारे जगत के कण कण में संव्याप्त है, हे मुनीश्वर! वह वेद में शिव रूप कहे गये है। अन्य शास्त्रों में भी इसी भाव को व्यक्त करते हुए कहा गया है-

सर्वाननशिराग्रीवः सर्वभूत गुहाशयः। सर्वव्यापी स भगवाँस्तस्मात् सर्वगतः शिवः।

अर्थात् जिसके सब ओर मुख, सिर और ग्रीवा है, जो समस्त प्राणधारियों की हृदय-गुहा में निवास करते हैं, जो सर्वव्यापी और सबके भीतर रम रहे हैं, उन्हें ही शिव कहा जाता है। अमरकोष के अनुसार, श्वः श्रेयसं शिवं भद्रं कल्याणं मंगलं शुभम्।

अर्थात् शिव शब्द का अर्थ मंगल एवं कल्याण होता है। स्वः-श्रेय-शिव-भद्र-कल्याण-मंगल और ये सभी शब्द समानार्थक हैं। विश्वकोष में भी शिव शब्द का प्रयोग मोक्ष में, वेद में और सुख के प्रयोजन में किया गया है। यथा- शिवम् च मोक्षे क्षेये च महादेवे सुखे। अतः शिव का अर्थ हुआ आनन्द, परम मंगल और परम कल्याण। जिसे सब चाहते हैं और जो सबका कल्याण करने वाला है वही ‘शिव’ है।

भगवान शंकर के साकार और निराकार दो रूपों का वर्णन विस्तारपूर्वक प्रायः सभी पौराणिक, आध्यात्मिक ग्रंथों में किया गया है। उनकी प्रतिमा पर विचार करें तो प्रतीत होगा कि अलंकार रूप से ऐसे अगणित तथ्य उस आकृति में जोड़े गये हैं, जिन पर ध्यान देने वाला शिव-उपासक निरन्तर आत्मिक प्रगति की ओर बढ़ता रह सकता है। कहना न होगा कि उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्तव्य में ही उपासना और साधना के सारे रहस्य सन्निहित हैं और उन्हें अपनाने वाला सच्चे अर्थों में ईश्वर भक्त और सिद्ध पुरुष बन सकता है।

कहा गया है-

साधकानाम् हितार्थाय ब्रह्मणो रूप कल्पना।

अर्थात् साधकों का साधन प्रयोजन पूरा करने के लिए भगवान के रूप की कल्पना गढ़ी गयी।

ब्रह्म एक है। उस एक ब्रह्म की ही विद्वानों ने अनेक रूपों में वर्णित तथा चित्रित किया है। देवताओं की आकृति-प्रकृति आयुध वाहन आदि अनेकानेक प्रकार के दृष्टिगोचर होते हैं और कई बार लगता है कि वे परस्पर विरोधी ही नहीं, प्रतिस्पर्धी भी हैं। इस प्रकार की मान्यता सर्वथा भ्रामक है। तथ्य यह है कि परब्रह्म की विविध शक्तियों को अलग-अलग नाम-रूप देकर उन्हें साधकों की रुचि के अनुरूप विनिर्मित किया गया है। साधना में ध्यान का प्रमुख स्थान है। ध्यान के लिए कोई आकृति चाहिए। निराकार ब्रह्म को इसी प्रयोजन के लिए साकार रूप में प्रस्तुत किया गया है। नामों और रूपों की भिन्नता वाला देव प्रकरण साधकों की सुविधा भर के लिए है। उससे एक ब्रह्म की सत्ता को चुनौती नहीं दी जाती है और न ही बहुदेववाद का प्रतिपादन होता है।

वस्तुतः देवताओं की आकृति-प्रकृति में साधकों के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण शिक्षाएँ तथा प्रेरणाएँ प्रस्तुत की गयी हैं, ताकि ध्यान-धारणा का प्रयोजन पूरा करते हुए साधक उस देव आकृति के सहारे अपने लिए उपयुक्त प्रकाश एवं प्रेरणा भी प्राप्त करता रह सके।

भगवान शिव की प्रतिमाएँ व शिवलिंग शैवमन्दिरों में सर्वत्र स्थापित है। वैष्णव सम्प्रदाय में शिवलिंग को शालिग्राम के रूप में माना गया है। दोनों ही लिंग हस्त, पाद चक्षु, कर्णादि विहीन स्त्री- पुरुषादि भेद विनियुक्त और विशेष भाव विनियुक्त है। उपासना ग्रंथों में इन दोनों की ब्रह्म लिंगों के लिए लगभग सामान्य विशेषणों का प्रयोग हुआ है। शिर, वक्ष हस्तपादादि विहीन चक्षु कर्णादि सर्वेन्द्रिय विवर्जित, निर्विशेष दण्डाकृति के रूप में उन्हें मान्यता दी गयी है।

यह शिवलिंग या शालिग्राम गोलाकार ब्रह्माण्ड का प्रतीक है। यह समस्त संसार ही ब्रह्म है। यह गोल पाषाण से बनी शिवलिंग प्रतिमा का संकेत है। विश्वसेवा ही शिव अथवा विष्णु की सच्ची भक्ति है। लोकमंगल के लिए किये गये प्रयासों में उपासना का सारा तत्त्वज्ञान भरा पड़ा है।

बाल्मिकी रामायण और पुराणों में विस्तारपूर्वक वर्णन आता है कि भगीरथ जब गंगा को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाये तो पहले भगवान शिव ने उसे अपनी जटाओं में धारण कर लिया। वस्तुतः यह एक अलंकारिक वर्णन है। शिव के मस्तक में से गंगा का प्रवाहित होना उत्कृष्ट विचारधारा के प्रवाह का संकेत है। इसी तरह शिव के जटाजूट की व्याख्या करते हुए शास्त्र कहते हैं-

विश्रामोऽयं मुनीन्द्राणाँ पुरातनवटो हरः। वेदान्त साँख्य योगाख्यास्तिस्नस्तज्जटयः स्मृताः।

अर्थात् मुनीन्द्रों के विश्राम स्थान, पुरातन वटवृक्ष स्वरूप हर ही है। उस वटवृक्ष की जटाओं के रूप में सिर के आभूषण हैं- वेदान्त, साँख्य और योग। भगवान शिव के जटाजूट का यही दर्शन है।

भगवान शिव के ललाट पर चन्द्रमा स्थित है। चन्द्रमा मन का प्रतीक माना जाता है। अतः ललाट पर चन्द्रमा का धारण शान्ति और संतुलन से मनः स्थान को भरे रहने की बात को इंगित करता है। यही कारण है कि शिव का मन सदैव स्वच्छ, निर्मल, पवित्र, शांत और सशक्त बना रहता है। जब कभी कामदेव उसमें विकृति उत्पन्न करने की कुचेष्टा करता है, तब वे उसे अपने तीसरे नेत्र से भस्म कर देते हैं। तीसरा नेत्र ध्यान का नेत्र है, विवेक का नेत्र है। सामान्य मनुष्य चर्मचक्षुओं से तात्कालिक लाभ ही देखते हैं और आज की तत्क्षण लिप्सा के लिए भविष्य को अंधकारमय बनाते है। तीसरा नेत्र विवेक का, दूरगामी परिणामों को देखता है और उपलब्धि भविष्य की संभावनाओं को ध्यान में रखते हुए वर्तमान की रीति-नीति निर्धारित करता है। शिवभक्ति के पीछे यह प्रेरणा है कि हमारे मस्तिष्क में से ज्ञानगंगा प्रवाहित होती रहे। परिस्थितियाँ हमें उद्विग्न एवं असंतुलित न करें। चन्द्रमा जैसा धवल और प्रकाशपूर्ण हमारा दृष्टिकोण है। हम दूरदर्शी बने और तीसरे नेत्र से वह देखें जो सर्वसाधारण को दिखायी नहीं पड़ता। भविष्य-निर्माण हमारा लक्ष्य हो, उसके लिए आज की सुख-सुविधा को छोड़कर यदि तपस्वी, संयमी और परमार्थी रीति-नीति अपनानी पड़े तो संकोच न करे। विवेक दृष्टि के जागरण से कुविचार सहज ही नष्ट हो सकता है। इस तथ्य को कोई भी विचारशील व्यक्ति अपने जीवन क्रम में घटित कर सकता है।

श्मशान में निवास, चिता-भस्म का शरीर पर लेपन और मुंडमाला धारण का प्रयोजन मृत्यु का स्वागत एवं सहगमन है। जन्म और मरण दोनों ही जीवनसंकट के दो पहिए हैं। जन्म के साथ मृत्यु जुड़ी हुई है। जो आज जन्मा है उसे कल मरना ही पड़ेगा। यदि इस तथ्य को भली-भाँति हृदयंगम किया जा सके, तो प्रत्येक साँस को बहुमूल्य सम्पदा समझ कर उसके सदुपयोग की आतुरता एवं सतर्कता बनी रह सकती है। कुकर्म और कुमार्ग से बचा जा सकता है और मिथ्या अहंकार से छुटकारा मिल सकता है।

भूत-प्रेतों की सेना साथ रहने का अलंकार भी इसी दृष्टि से है कि मरणोपरान्त भगवान से ही पाला पड़ेगा। शिव भूत-प्रेतों को, पतित, दुखी और असमर्थों को भी साथ लेकर चलते हैं। शिवभक्त की उदारता भी पिछड़े और पतित लोगों को स्नेह देने एवं ऊपर उठाने की होनी चाहिए।

शिव द्वारा विष को कंठ में धारण करने का अर्थ है- अवांछनीयता को न तो पचाना और न उगलना, वरन् ऐसे स्थल पर दबा देना, जहाँ से अपने ऊपर तथा दूसरों पर कोई बुरा प्रभाव न पड़े। जीवन में कितने ही अवांछनीय व्यक्ति तथा घटनाक्रम ऐसे आते हैं जिनकी प्रतिक्रिया को यदि पेट में रखे तो घृणा, द्वेष से अपना नाश होता है। और यदि प्रतिशोधात्मक उग्र रूप धारण किया जाये तो सुधार के साथ नया विग्रह उत्पन्न होता है।

एक नास्तिक राजा एक साधू की बड़ाई सुनकर उसके पास गया। साधू ने उसकी ओर ध्यान न दिया और अपने कुत्ते पर हाथ फेरता रहा। राजा ने क्रोध में आकर कहा-तू बड़ा है या तेरा कुत्ता”? साधू ने उत्तर दिया “सह हम तुम दोनों से बड़ा है, जो अपने एक टुकड़ा देने वाले मालिक के दरवाजे पर पड़ा रहता है और एक तुम और हम हैं जो भगवान द्वारा सभी प्रकार का आनन्द मिलने पर भी उसका नाम तक नहीं लेते”

ऐसी दशा में उबलते हुए दूध की तरह न उगलते ही बनता है और न पीते ही। शिव ने मध्य वर्ती मार्ग अपनाया और उसे अधर में लटका दिया, कंठ में भर लिया। विश्व पर छायी विषाक्त विभीषिकाओं को अपने ऊपर ओढ़कर सज्जन स्वयं तो कष्ट उठाते हैं और कुरूप बनते हैं, पर लोकहित को ध्यान में रखते हुए उन्हें ऐसी विपत्ति ओढ़ने में भी हिचक नहीं होती।

शिव के कंठ में, भुजाओं में, कन्धे पर सर्प लिपटे हुए हैं। वे सर्प से प्रभावित नहीं होते। सर्प उन्हें काटते नहीं, वरन् उनके संपर्क में आकर सर्प ही अपनी विषैली प्रकृति छोड़ देते हैं, और स्नेह का बदला सौजन्य से देते है। शिव-साधक की जीवननीति यही होती है वह विषैले सर्पों से भी द्वेष नहीं करता, उन्हें भी गले लगाता है। उनके शरीर को मारने की अपेक्षा प्रकृति को बदल देता है। यही दृष्टिकोण द्वेष दुर्भाग्य के निराकरण का स्थाई हल है। शिव शरीर पर सर्प के लिपटे रहने के पीछे यही प्रतिपादन है।

शिव की प्रिय आहार में विल्वपत्र और धतूरों के साथ एक और विशेष पदार्थ सम्मिलित है, जिसका नाम है भाँग। भाँग अर्थात् भंग, विच्छेद, विनाश। अब प्रश्न उठता है कि किसका विनाश या भंग? उत्तर है। माया और जीव की एकता का भंग, अज्ञान आवरण का भंग, संकीर्ण स्वार्थपरता का भंग, कषाय कल्मषों का भंग। यही है शिव का प्रिय आहार। जहाँ शिव की कृपा होगी वहाँ अंधकार भरी निशा भंग हो रही होगी और कल्याणकारक अरुणोदय का पुण्य दर्शन मिल रहा होगा।

शिव का वाहन है- वृषभ। वृषभ को धर्म का प्रतीक माना गया है। पुराणों में इस वृषभ के चार पैर बताये गये हैं-

(१) सत्य (२) प्रेम (३) विवेक (४) संयम। धर्मरूपी वृषभ इन्हीं के सहारे खड़ा होता है। और चलता है। शिव का वाहन धर्म वृषभ है। सौम्य पराक्रमी सत्ता का प्रतीक यह बैल है, जिस पर सवार होकर शिव का अवतार होता है।

शिव प्रतिमा के किसी भी पक्ष पर विचार करें उसमें आत्मा को ऊँचा उठाने वाला, प्रेरक प्रकाश प्रचुर परिमाण में भरा पड़ा है। शिव भक्ति के साथ साथ शिव प्रेरणाओं को वैवाहिक जीवन में स्थान देने की तत्परता बरती जाये तो निःसंदेह हमारा वही कल्याण हो सकता है। जिसका शिव एवं शंकर नाम के अर्थ में संकेत है।


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