जीवन - तत्व की गंगोत्री - प्राणशक्ति

August 1998

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शरीर के अवयवों के कार्यरत रहने से जीवन-प्रक्रिया का संचालन होता है, इस मोटे तथ्य को सभी जानते हैं। शरीर शास्त्र के विद्यार्थियों को यह भी पता है नाड़ी संस्थान के संचालन में अचेतन मस्तिष्क की कोई सूक्ष्म प्रक्रिया काम करती है, उसी के आधार पर रक्त-संचार, श्वास-प्रश्वास आकुंचन -प्राकुंचन के क्रिया-कलाप अनायास ही चलते रहते हैं। हमें पता भी नहीं चलता और पलक झपकने-पाचनतंत्र चालू रहने जैसे अगणित कार्यों की अतिसूक्ष्म कार्य-पद्धति अपने ढर्रे पर स्वसंचालित रीति से चलती रहती है।

मस्तिष्क का चेतन मस्तिष्क तो जाग्रत स्थिति में कोई आवश्यकता उत्पन्न होने पर ही कुछ महत्वपूर्ण निर्देश देता है अन्यथा वह ऐसे ही पूर्व स्मृतियों में, भावी कल्पनाओं में उलझा रहता है। यों विद्या-बुद्धि कुशलता, चतुरता आदि में शिर के अग्रभाग में अवस्थित चेतन मस्तिष्क ही काम आता है, पर शरीर की समस्त क्रिया के संचालन यहाँ तक कि मस्तिष्क की गतिविधियों को भी गतिशील रखने में यह अचेतन ही काम करता है।

अचेतन की वह कार्य - पद्धति जो स्वसंचालित रूप से शरीर और मस्तिष्क को गतिशील रखती है - उसे नाड़ी शक्ति (कद्बह्लड्डद्य श्वठ्ठद्गह्द्दब्) कहते हैं यह एक रहस्य है कि शरीर को सक्रिय रखने वाली इस दिव्यशक्ति को स्रोत कहाँ है? चेतन और अचेतन मस्तिष्क तो उसके वाहन मात्र हैं। इन उपकरणों को प्रयोग करने के लिए जो यह क्षमता उपलब्ध होती है, उसका भण्डार उद्गम कहाँ है। शरीरशास्त्री इस प्रश्न का उत्तर कुछ भी न दे सकने में समर्थ नहीं है। नाड़ी शक्ति तक ही उनकी पहुँच हैं यह कहाँ से से आती है, कैसे काम आती है, घटती -बढ़ती क्यों है? इस रहस्यमय तथ्य के अन्वेषण को वे अपनी शोध - परिधि से बाहर ही मानते हैं। वस्तुतः जहाँ भौतिक विज्ञान अपनी सीमा समाप्त कर लेता है, अध्यात्म विज्ञान उसके आगे आरंभ होता है।

जीवन -तत्व यों शरीर में ओत-प्रोत पड़ता है और उसी के आधार पर जीवित रहना संभव होता है, पर यह जीवन-तत्व शरीर का उत्पादन नहीं है। यह अदृश्य और अलौकिक शक्ति है, जिसमें से उपयोगी और आवश्यक अंश यह काय-कलेवर अन्तरिक्ष से खींचकर अपने भीतर धारण लेता है और उसी से अपना काम चलाता है। इस विश्वव्यापी जीवन-तत्व का नाम प्रण है।

प्राण व्यक्ति के भीतर भी विद्यमान है, पर विश्वव्यापी महाप्राण का एक अंश ही है। बकोल के भीतर भरी हवा की सीमा की नाप-तौल की जा सकती है और मोटी दृष्टि से उसका पृथक -स्वतंत्र अस्तित्व भी माना जा सकता है, पर वस्तुतः वह विश्वव्यापी वायु तत्व का एक अंश मात्र ही है। इसी प्रकार विश्वव्यापी महाप्राण का एक छोटा-सा अंश मानव शरीर में रहता है- उसी अंश को जीवन-तत्व के रूप में हम देखते अनुभव करते हैं। यह जब न्यून पड़ता, तो व्यक्ति हर दृष्टि से लड़खड़ाने लगता है और जब वह संतुलित रहता है तो समस्त क्रिया-कलाप ठीक चलते हैं। यह जब बढ़ी हुई मात्रा में होता है तो उसे बलिष्ठता, समर्थता,, तेजस्विता, मनोबल, ओजस, प्रतिभा आदि में देखा जा सकता है। ऐसे व्यक्ति ही महाप्राण कहलाते हैं, वे अपना प्राण असंख्यों में फूँकने और विश्व का मार्गदर्शन कर सकने में भी समर्थ होते हैं। प्राण को ही जीवन का आधार माना जाना चाहिए। शरीरशास्त्री जिस शक्ति-स्रोत की व्याख्या नाड़ी-शक्ति कहकर समाप्त कर देते हैं, वह वस्तुतः प्राणतत्त्व की एक लघु तरंग मात्र ही है।

मानव शरीर में विद्यमान प्राण- शक्ति से ही समस्त अन्तः संचालन और नाड़ीसमूह इसी से अनुप्राणित हैं। मस्तिष्क की कल्पना, धारणा, इच्छा, निर्णय, नियन्त्रण, स्मृति, प्रज्ञा आदि समस्त शक्तियों का उत्पादन-अभिवर्धन तथा संचालन का मर्म जानना हो तो कुण्डलिनी विद्या का आश्रय लेना चाहिए। अचेतन मन अजस्र संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य कहा जाता है और उसे योग की समस्त सिद्धियों का केन्द्र-बिन्दु माना जाता है।

विश्वव्यापी प्राण-जब शरीर में प्रवेश करता है, तो उसका प्रवेश दो छिद्रों के माध्यम से होता है, जिन्हें मूलाधार ओर सहस्रार कहते हैं। सूर्य की शक्ति जब पृथ्वी पर आती है, तो उसके माध्यम दोनों ध्रुव होते हैं। विद्युत भण्डार को जब छोटे यंत्रों में लाना होता है, तब भी प्लग के दो छेदों में दो हुक फँसाने पड़ते हैं। विश्व विद्युत महाप्राण का शरीर विद्युतकाय प्राण में अवतरित करने के लिए भी उपर्युक्त मूलाधार ओर सहस्रार छिद्र ही माध्यम होते हैं। कुण्डलिनी इस शक्ति-संतुलन नाम है। आत्मविज्ञान प्राण की मात्रा आवश्यकतानुसार घटाने-बढ़ाने के लिए इन्हीं छिद्रों का प्रयोग करता है। इस विज्ञान को समझने से जीवन-तत्व के मूल उद्गम का पता ही नहीं लगता वरन् उसकी मात्रा में न्यूनाधिक करके अभीष्ट संतुलन बनाने का भी लाभ मिलता है।

इस संसार में दिखाई पड़ने वाली और न दिखने वाली जितनी भी वस्तुएँ तथा शक्तियाँ हैं, इसे विश्व की अति सूक्ष्म और अति उत्कृष्ट सत्ता कह सकते हैं। श्वास -प्रश्वास क्रिया तो उसकी वाहन मात्र है, जिस पर सवार होकर वह समस्त अवयवों ओर क्रिया - कलापों तक आती - जाती और उन्हें समर्थ, व्यवस्थित एवं नियन्त्रित बनाये रहती है। भौतिक जगत में संव्याप्त गर्मी, रोशनी, बिजली, चुम्बक, आदि को उसी के प्रति स्फुरण समझा जा सकता है। वह बाह्य और अंतर्मन से सम्बोधित होकर इच्छा के रूप में - इच्छा से भावना के रूप में-भावना से आत्मा के रूप में परिणत होती हुई, अन्ततः परमात्मा के रूप में परिणत होती हुई, अनन्तः परमात्मा से जा मिलने वाली इस विश्व की सर्वसमर्थ सत्ता है। एक प्रकार से उसे परमात्मा का कर्तृत्व माध्यम या उपकरण ही माना जाना चाहिए।

यद्यपि प्राणसत्ता एक और अविच्छिन्न है, पर उसके क्रिया -कलापों और सीमा प्रयोजनों के आधार पर समझने की सुविधा के लिए कई नामों में विभाजन कर दिया गया है। यों-पृथ्वी एक है- समुद्र एक है, पर उन्हें समझने-समझाने की सुविधा के लिए कई महाद्वीपों ओर कई नाम के समुद्रों में विभाजित कर दिया गया हैं। एक ही व्यक्ति समय-समय पर अनेक कार्यों के आधार पर क्लर्क, पण्डित, ग्राहक, जनता, नेता आदि माना जाता है - फिर भी उसका अस्तित्व एवं व्यक्तित्व एक ही रहता है। इसी प्रकार यह विश्वव्यापी प्राणशक्ति प्रत्येक जड़-चेतन में समाई हुई है और उपकरणों के अनुसार विभिन्न कार्य कर रही है। अणु की गतिशीलता से लेकर, अंकुर उत्पन्न होने तक के अगणित क्रिया-कलाप उसी के हैं। फिर भी मानव शरीर में उसके विभिन्न क्रिया-कलापों से उसका जो विविध विधि योगदान है, उसके आधार पर सुविधा के लिए उसके कई नाम रख दिये गये हैं। पाँच प्राण मुख्य हैं। पाँच इनके सहायक उपप्राण भी माने गये हैं। पाँच मुख्य प्राणों के नाम - १ प्राण २. अपान, ३ समान, ४. उदान ५. व्यान हैं। उपप्राणों को १. नाग २. कूर्म ३. कृकल ४. देवदत्त ५. धनंजय कहते हैं, इन्हें क्रमशः उपप्राणों की गौण प्रक्रिया सम्पन्न करने वाला जाना चाहिए।

प्रथम प्राण का कार्य श्वास-प्रश्वास क्रिया का सम्पादन, स्थान छाती है। इस तत्व की अनुभूति ध्यानावस्था में पीले रंग की होती है और षट्चक्र वेधन की प्रक्रिया में यह अनाहत चक्र को प्रभावित करता पाया जाता है।

द्वितीय अपान का कार्य शरीर के विभिन्न मार्गों से निकलने वाले मलों के निष्कासन करना है एवं स्थान गुदा है। यह नारंगी रंग की आभा में अनुभव किया जाता है और मूलाधार चक्र को प्रभावित करता है।

तीसरा समान अन्न से लेकर रस-रक्त और सप्त धातुओं का परिपाक करता है और स्थान नाभि है। हरे रंग की आभा वाला और मणिपुर चक्र से सम्बन्धित इसे बताया गया है।

चौथा उदान का कार्य हैं आकर्षण ग्रहण करना अन्न जल श्वास शिक्षा आदि जो कुछ बाहर से ग्रहण किया जाता है, वह ग्रहण प्रक्रिया इसी के द्वारा सम्पन्न होती है। निद्रावस्था तथा मृत्यु के उपरांत का विश्राम संभव करना भी इसी का काम है। स्थान कण्ठ, रंग बैंगनी तथा चक्र विशुद्धाख्य है।

पाँचवाँ व्यान का कार्य रक्त आदि का संचार, स्थानान्तरण। स्थान सम्पूर्ण शरीर। रंग गुलाबी और चक्र स्वाधिष्ठान है।

पाँच उपप्राण इन्हीं पाँच प्रमुखों के साथ उसी तरह जुड़े हुए हैं जैसे मिनिस्टरों के साथ सेक्रेट्री रहते हैं। प्राण के साथ नाग। अपान के साथ कूर्म। समान के साथ कृकल। उदान के साथ देवदत्त और व्यान के साथ धनंजय का सम्बन्ध है। नाग का कार्य, वायुसंचार डकार, हिचकी, गुदा वायु। कूर्म का नेत्रों के क्रिया-कलाप कृकल का भूख-प्यास देवदत्त का जँभाई, अँगड़ाई, धनंजय को हर अवयव की सफाई जैसे कार्यों की उत्तरदायी बताया गया है, पर वस्तुतः वे इतने छोटे कार्यों तक ही सीमित नहीं हैं। मुख्य प्राणों की प्रक्रिया को सुव्यवस्थित बनाये रहने में उनका पूरा योगदान रहता है। इन प्राण और उपप्राण के भेद को और भी अच्छी तरह समझाना हो तो तंत्र मात्राओं और ज्ञानेन्द्रियों के संबंध पर गौर करना चाहिए। शब्द तत्व ग्रहण करने के लिए कान, रूप तत्व की अनुभूति के लिए नेत्र, रस के लिए जिह्वा, गंध के लिए नाक और स्पर्श के लिए कार्य त्वचा करती है।, उसी प्रकार प्राण तत्व द्वारा विनिर्मित सूक्ष्म संभूतियों को स्थूल अनुभूतियों में प्रयुक्त करने का कार्य यह उपप्राण सम्पादित करते हैं। यह स्मरण रखा जाना चाहिए। कि यह वर्गीकरण मात्र वस्तुस्थिति को समझने और समझाने के उद्देश्य से ही किया गया है। अलग-अलग आकृति-प्रकृति के दस व्यक्तियों की तरह इन्हें दस सत्ताएँ नहीं मान बैठना चाहिए। एक ही व्यक्ति को विभिन्न अवसरों पर पिता, पुत्र, भाई, मित्र, शत्रु, सुषुप्त, जाग्रत, मलीन, स्वच्छ स्थितियों में देखा जा सकता है, लगभग उसी प्रकार का यह वर्गीकरण भी समझा जाए।

प्राण को पकड़ने की विद्या का नाम प्राणायाम है। एक जगह से उसकी पकड़ मिल जाए और उसे जकड़ने की गुँजाइश हो जाए तो फिर विराट प्राण पकड़ना और उसका प्रयोग कर सकना संभव हो जाता है। छड़ का एक सिरा पकड़ कर घसीटने से सारी छड़ घिसटने लगती है। बकरी का कान पकड़ लेने से सारी बकरी, पकड़ में आ जाती है, फिर उसे जिधर भी ले चलना हो, कान पकड़ वाले के इशारे पर चलती चली जाती है। प्राणायाम की स्थूल प्रक्रिया श्वास-प्रश्वास लेने छोड़ने के क्रम में कुछ विशेष गतिविधि उत्पन्न करना हो सकता है और उसका लाभ स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए उपयोगी माना जा सकता है। पर यह तो उसकी बाह्यतम प्रक्रिया है। मूल लाभ प्राणतत्त्व की स्वच्छन्द गतिशीलता के साथ अन्तः चेतना की पकड़ स्थापित करना है। जिन पहलवानों को कुश्ती लड़ने की विशेष पकड़ आती है वह अपने से बड़े पहलवानों को भी काबू में कर लेते हैं। प्राणायाम को अन्तः चेतना द्वारा प्राण तत्व की पकड़ और उसकी अभीष्ट दिशा में प्रयुक्त करने की कला में अभ्यस्त होने की चेष्टा के रूप में ही देखा-समझा जाना चाहिए।


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