विलक्षण है इस जीव जीवन-यात्रा का हर पड़ाव

August 1998

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जीवन अनन्त की यात्रा है। वह अनन्त से उत्पन्न होकर अन्ततः उसी में विलीन हो जाता है, पर उसके लिए एक लम्बा सफर तय करना पड़ता है। इस यात्रा में मनुष्य को पति-पत्नी माता-पिता भाई-बहन स्वजन-परिजन के रूप में कितने ही साथी सहयोगी मिलते हैं। अनेक बार उनका परस्पर संबन्ध इतना प्रगाढ़ हो जाता है कि वे हर जन्म में एक दूसरे का सान्निध्य लाभ चाहते और उसकी प्राप्ति के लिए कई कई जन्मों तक भटकते रहकर इंतजार करते हैं।

ऐसी ही एक घटना लोथल के आलिंगनबद्ध पिंजर की है। प्रसंग उज्जैन एक प्रतिष्ठित व्यक्ति से सम्बन्धित है। पिछले दिनों वे पहली बार अहमदाबाद गये। वहाँ उनके मित्र ने अन्य स्थानों को देखने के साथ-साथ लोथल भी घूम आने का आग्रह किया। इसके लिए गाइड और गाड़ी दोनों की व्यवस्था कर दी। गाइड पहले इन्हें लोथल ही ले चला।

अहमदाबाद से ८. किलोमीटर दूर भावनगर स्थित इस स्थान के बारे में पुरातात्त्विक सर्वेक्षण और विश्लेषण से यह ज्ञात हुआ कि आज से लगभग ४ हजार पूर्व हड़प्पा कालीन सभ्यता के दौरान यहाँ कोई विकसित नगर रहा होगा, जो किसी प्राकृतिक आपदा के चपेट में आकर नष्ट हो गया।

करीब चार घंटे की यात्रा के बाद गाड़ी एक सुनसान से लगने वाले स्थान पर आकर रुकी। वहाँ सामने ही मध्यम आकार का एक भवन था। इसके अतिरिक्त आस-पास वीरान था। गाइड ने बताया कि यह लोथल का म्यूजियम है। यहाँ एक आलिंगनबद्ध मुगल का नरकंकाल है। जो पुरातत्व

इतना कहकर वह गाड़ा से उतर गया और म्यूजियम के गेट की ओर बढ़ने लगा। साथ में वह सज्जन भी थे। अन्दर गये तो कुल चार कर्मचारी दिखाई पड़े। पर्यटक एक भी नहीं थे। पूछताछ से ज्ञात हुआ कि बरसात के मौसम में प्रायः जनहीन रहता है और इक्के दुक्के लोग ही आते हैं। हाँ, सर्दियों में यहाँ काफी भीड़भाड़ रहती है।

खुदाई से प्राप्त पुरासामग्रियों में वहाँ कई प्रकार के मिट्टी के बरतन सिक्के और औजार रखे थे। कुछ ऐसी वस्तुएँ भी मिली, जिनके बारे में वहाँ का क्यूरेटर भी सही सही नहीं बता सका और उस काल में किस प्रयोग में आती थी। यह सब देखते हुए अन्त में वे उस कंकाल के समीप पहुँचे। कंकाल गहन प्रेमपाश में आबद्ध थे। दोनों का चेहरा आमने-सामने था और वे करवट की मुद्रा में पड़े थे। उनका हाथ एक दूसरे के शरीर के ऊपर था। पिंजर की विशिष्ट मुद्रा को देखकर यह निष्कर्ष आसानी से निकलता था कि विनाशलीला रात्रि में हुई होगी कि प्रेमी युगल को कुछ सोचने और सँभलने का अवसर नहीं मिला होगा एवं वे उसी अवस्था में काल कवलित हो गये होंगे।

उक्त कंकाल को देखकर उन सज्जन को बड़ा विचित्र अनुभव हो रहा था। रह-रहकर उनके स्मृति पटल पर अस्पष्ट से दृश्य उभरते और आरोपित हो जाते। स्मृति इतनी धूमिल एवं क्षीण थी कि कुछ स्पष्ट नहीं हो पा रहा था और न ही उनकी समझ में ठीक-ठीक यही आ रहा था कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? वे इसी ऊहापोह में खोये रहे।

खुदाई स्थल पास ही था। म्यूजियम देखन के उपरान्त व वहाँ गए। पुराकाल के भग्न आवासों के अवशेष देखने के पश्चात सब उस स्थान पर पहुँचे जहाँ से आलिंगनबद्ध कंकाल मिले थे। वहाँ कुछ विशेष नजर नहीं आया।

इस समय तक बूँदा−बाँदी शुरू हो गयी थी। गाइड ने आगन्तुक से कहा- अब हमें जल्द ही होटल पहुँचना चाहिए। वर्षा तेज हो गयी तो गाँव की कच्ची गलियों में गाड़ी के फंसने की संभावना है। इसके बाद दोनों कार में बैठे तथा होटल की ओर चल दिये।

होटल यहाँ से लगभग ५ किलोमीटर दूर एक गाँव में था। वह गाँव और आस-पास का क्षेत्र कभी छोटी रियासत रहा होगा। वहीं के जागीरदार के एक भाग में उक्त होटल स्थित था।

भवन अत्यन्त भव्य और दो मंजिला था। पर्यटकों के लिए दूसरी मंजिल के कमरे प्रयुक्त थे। वे दोनों जैसे ही वहाँ पहुँचे, होटल के एक कर्मचारी ने उनका स्वागत किया और उन पर्यटक को उनके कमरे तक पहुँचा दिया। गाइड स्थानीय व्यक्ति था, अतः प्रातःकाल मिलने की बात कहकर चला गया।

रात का भोजन लेकर वे अपने कक्ष में चले गये। होटल के सभी कर्मचारी स्थानीय थे। अतः रात में वे वहाँ न रहकर अपने अपने घर चले जाते थे। जाने से पूर्व रुकने वाले यात्रियों की पूरी व्यवस्था कर जाते।

जब सभी कर्मचारी चले गये, तो होटल एक प्रकार से सुनसान हो गया। उस हवेली में मात्र दो ही लोग रह गये। एक होटल का दरबान था दूसरे पर्यटन के लिए आये वो सज्जन। दरबान चूँकि लम्बे समय से वहाँ नियुक्त था, अतः उस पर सूनेपन का अभ्यस्त हो चुका था। उसे वहाँ कोई परेशानी महसूस नहीं होती थी, पर वे सज्जन पहली बार इस प्रकार के सन्नाटे का सामना कर रहे थे, वह भी विशाल हवेलीनुमा होटल में। उन्हें बड़ा भय अनुभव हो रहा था। वह कभी नीचे उतरकर दरबान के पास जा बैठते और बातें करने लगते, तो कभी अपने कमरे में आकर सोने का प्रयास करते, किन्तु डर के मारे, नींद नहीं आ रही थी। बार-बार उनकी आँखों के आगे म्यूजियम के वे कंकाल घूम जाते।

रात करीब ग्यारह बज चुके थे। उनकी आँख भारी होने लगी। एक ताजा यात्रा की थकान, दूसरे जल्दी सोने की आदत, सो अब नींद को टाल पाना उनके लिए मुश्किल हो गया। वे कोठरी में गये और अन्दर से दरवाजा बन्द कर बिस्तर पर लेट गये। उन्हें कब नींद आ गयी कुछ पता न चला।

थोड़ी ही दूर में वे स्वप्न लोक में विचरण करने लगे। उनने देखा उनके समक्ष एक स्वप्न सुंदरी खड़ी है। उसके वस्त्र आज के युग जैसे नहीं थे। वक्ष और कटि प्रदेश ही ढके हुए थे, शेष सभी अंग अनावृत थे। वह उन्हें पुकार रही थी- श्वेम............श्वेम। उसके चेहरे पर मन्द मुस्कान थी और एक ऐसा भाव जिसे देखने से यह प्रतीत होता था कि मानो वह उनसे चिर−परिचित हो।

यद्यपि उन सज्जन का नाम ‘श्वेम’ नहीं था, पर फिर भी न जाने क्यों इस नाम को सुनकर वे कुछ खो से गये। उनके मस्तिष्क में हलचल-सी होने लगी। इसका प्रभाव व्यग्रता के रूप में मुख-मण्डल पर स्पष्ट झलक रहा था। इस बीच उनकी दृष्टि बराबर उस युवती पर टिकी रही, जैसे कुछ याद करने का प्रयास कर रहे हों। कुछ ही क्षण में उनके चेहरे का भाव बदला और अचानक उनके मुख से निकला-यान्ति तुम।

उक्त संबोधन सुनकर वह हर्षोन्मत्त हो उठी और अपने पीछे आने का संकेत कर आगे आगे चलने लगी। वे सम्मोहन जैसी स्थिति में आ चुके थे और उसके साथ साथ अनायास खिंचे जाने लगे।

रात में घनघोर जंगल था, जिसमें यत्र-तत्र हिंसक पशु विचरते नजर आ रहे थे। वे भयभीत थे, पर यान्ति बार-बार मुड़−मुड़ कर उन्हें आश्वस्त करती कि वे कुछ भी हानि नहीं पहुँचाएँगे, निर्भय रहो। थोड़ी दूर पर एक गुरुकुल दिखाई पड़ा, जहाँ बालक शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। पेड़ों के नीचे बैठे विद्यार्थियों का अध्यापन-कार्य जैसे ऋषि लगने वाले एक व्यक्ति कर रहे थे। आस पास अनेक कुटियाँ बनी हुई थी ओर आगे बढ़ने पर जंगल पार कर मैदानी भाग में आये, तो खेतों में कार्य करते कृषक दिखलाई पड़े। इसके बाद नगर का इलाका आरंभ होता था। यान्ति उन्हें नगर के एक किनारे स्थित एक विशाल कोठी में ले गयी। वहाँ कुछ देर विश्राम करने के बाद उसने जलक्रीड़ा की योजना बनाईं

अब तक दिन का तीसरा प्रहर समाप्त हो चुका था। जलविहार के लिए यह उपयुक्त समय था। यान्ति ने दोनों के लिए कपड़े लिये और कुछ खाद्य सामग्री लेकर नगर के एक छोर पर स्थित समुद्र तट पर आ गयी। वहाँ कुछ नौकाएँ पड़ी थी। दोनों एक नाव में सवार होकर नौका विहार करने लगे। देर तक नौकायन करने के उपरान्त जब शाम घिरने लगी तो उसे किनारे लगाया। वे स्नान के लिए जल में उतर आये। काफी समय तक जलक्रीड़ा करते रहे। अब तक तट के सारे लोग जा चुके थे। कुछ-कुछ धुँधलका घिरने लगा था। दोनों ने कपड़े बदले और भोजन किया, फिर सुस्ताने की नीयत से बालुका पर लेट गये। दोनों एक-दूसरे के बाहुपाश में बँधे थे। अभी इसी स्थिति में कुछ ही पल बीते होंगे कि तीव्र गड़गड़ाहट हुई, मानो आसमान फट पड़ा हो। इसी के साथ समुद्र से लहरों का तूफानी प्रवाह तट की ओर उमड़ा यान्ति और श्वेम का चेहरा एक दूसरे के सम्मुख और विपरीत दिशाओं में था। यान्ति समुद्र की ओर मुँह कर लेटी थी, जबकि श्वेम का चेहरा नगर की ओर था। सागर की उद्दाम तरंगों को राक्षस की लपलपाती जिह्वा की तरह अपनी ओर बढ़ते देखकर युवती की चीख निकल गयी। श्वेम कुछ समय समझ पाता, इससे पूर्व ही धरती हिंडोले की तरह डोली ओर फट गयी। दोनों को संभलने का तनिक भी मौका नहीं मिला एवं वैसे ही आलिंगनबद्ध स्थिति में वे पृथ्वी में गर्भस्थ हो गये।

फिल्म की रील की तरह घूम रहे दृश्य का पटाक्षेप हो गया। इसके पश्चात् यान्ति एक बार पुनः उक्त सज्जन के स्वप्न में प्रकट हुई, बोली- श्वेम! मैं युगों से तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही थी। आज मिलकर बहुत तृप्ति अनुभव कर रहीं हूँ, पर यह मिलन तो क्षणिक है। मैं सदा-सर्वदा के लिए तुम्हारी होकर रहना चाहती हूँ, अस्वीकार मत करना।

इसके बाद सब कुछ अदृश्य हो गया। आँखें खुली, तो ज्ञात हुआ की कोई दरवाजे पर दस्तक दे रहा है। बाहर होटल का कर्मचारी चाय लिए खड़ा था। प्रातः के सात बज चुके थे। उनने चाय पी और जल्दी दैनिक क्रिया के लिए निवृत्त होकर अहमदाबाद के लिए प्रस्थान कर गये।

कहते हैं कि तभी से उनके आस-पास हरपल कोई छाया मँडराती अनुभव होता है, जो मुसीबतों और कठिनाइयों में सभी प्रकार से उनकी मदद करती एवं आश्वासन देती प्रतीत होता है कि उसके उनका कोई अनिष्ट और अमंगल नहीं होने वाला। वे अब तक कुँवारे ही हैं।

जीवन अनन्त है। इस यात्रा का हर पड़ाव उच्च से उच्चतर बनने के लिए है, मोहग्रस्त होकर पतित होने के लिए नहीं। यदि ऐसा हुआ और वास्तविक अर्थों में हम निर्लिप्त न बन सके, तो अनन्त के उस उद्गम से एकाकार हो पाना संभव नहीं, जिसे ईश्वर कहते हैं। मानवीसत्ता भटकाव का पर्याय न होकर परमात्मा-प्राप्ति के लिए एकनिष्ठता दूसरा नाम है। हमारा लक्ष्य उस सर्वश्रेष्ठ और सर्वोपरि सत्ता को प्राप्त करना ही होना चाहिए कोई दूसरा नहीं। कारण कि इस दुनिया में प्रयोज्य और प्राप्तव्य एकमात्र वही है।


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