करम का लेख मिटे ना रे भाई

August 1998

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महाराज विजयप्रताप कौशाम्बी राज्य के अधिपति थे। उनका जीवन यश - समृद्धि एवं वैभव से भरा - पूरा था। महारानी सुनन्दा रूपवती, गुणवती एवं मृदुल स्वभाव की थीं। दोनों का जीवन बड़े सुख एवं आनन्द से बीत रहा था। कौशाम्बी निवासी भी महाराज विजय प्रताप के कुशल प्रशासन एवं समर्थ में अपने उत्कर्ष की ओर गतिशील थे।

कुछ दिनों के पश्चात आनन्द में विषाद को उत्पन्न करने वाली गर्भ से एक बालक ने जन्म लिया, जो एक सिर, अन्धा, बहरा, गूँगा और लँगड़ा था। उसके शरीर के अनेक अंग गायब थे। उसे शरीर कहना भी मुश्किल था, मात्र एक माँसपिण्ड था, इसके बावजूद विचित्र बात यह थी कि वह जीवित था। महारानी सुनन्दा का मन दुख से भर गया, पर वह कर भी क्या सकती थी। बालक का जन्म हो चुका था और वह उसकी माता थी। माता का हृदय अपने पुत्र के लिए कुछ अन्यथा सोच भी नहीं सकता है।

उसने इस अनोखे बालक को तलघर में ले जाकर छिपा दिया। तलघर में ही उसे खिलाती, पिलाती, उसका पालन-पोषण करती रहती। कभी भूलकर भी उसे वह बाहर नहीं निकालती थी। उसने इस बालक का नाम मकराक्ष रखा। तलघर में ही रहकर वह धीरे-धीरे बड़ा होने लगा।

उसी नगर में एक दीन-हीन किन्तु वीभत्स मनुष्य रहता था। वह भौंड़ा, अन्धा और गरीब था। उसकी शक्ल बड़ी भद्दी थी। यहाँ तक कि उसे देखने मात्र से डर लगता था। उसके आस-पास मक्खियाँ भिनभिनाया करती थीं, वह अपने एक साथी की सहायता से लकड़ी के सहारे में घूम-घूमकर भीख माँगा करता था।

बसन्त ऋतु के दिन थे। खेतों में सरसों एवं वन में पलाश के फूल मुसकराते हुए अपनी छटा बिखेर रहे थे। उन्हीं दिनों भगवान महावीर कौशाम्बी नगर के राज्योद्यान में पधारे। बिजली की तरह सारे नगर में यह खबर फैल गयी। झुण्ड के - झुण्ड स्त्री-पुरुष उनके दर्शन करने और उपदेश सुनने के लिए राज्योद्यान की ओर उमड़ पड़े। उन दर्शनाभिलाषी स्त्री-पुरुषों में साधारणजन से लेकर स्वयं राजा विजय प्रताप और महारानी मृगावती भी थीं। उस अंधे मनुष्य के कानों में भी राज्योद्यान की ओर जाते हुए मनुष्यों की भनक पड़ी। वह अपने साथी से पूछ बैठा- क्यों भाई, आज इतना शोरगुल क्यों हो रहा है? क्या आज कोई पर्व है?

साथी ने उत्तर दिया- नहीं, आज किसी पर्व या उत्सव की तिथि नहीं है। नगर के राज्योद्यान में चौबीसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी का आगमन हुआ है। सब लोग उन्हीं के दर्शन करने और उपदेश सुनने जा रहे हैं।

भगवान महावीर का नाम उसे किसी जादुई चमत्कार की तरह लगा। इस नाम की चर्चा उस जमाने हर बाल-वृद्ध युवक-युवती के जुबान पर थी। महावीर के व्यक्तित्व से सभी चमत्कृत थे। उनके उपदेश, उनका सान्निध्य हजारों-लाखों लोगों के जीवन की दिशा को सन्मार्ग की ओर मोड़ रहा था। अन्धा व्यक्ति मन - ही - मन सोचने लगा कि वह भगवान महावीर के दर्शन तो नहीं कर सकता, क्योंकि वह अन्धा है। पर वह उनके उपदेश तो सुन ही सकता है। क्यों न वह भी राज्योद्यान में पहुँचकर उन्हें प्रणाम करे और उनका उपदेश सुनें वह अपने साथी से बोला-भाई मैं भी भगवान महावीर का उपदेश सुनना चाहता हूँ। तू मुझे भी राज्योद्यान में ले चल। साथी ने प्रसन्नतापूर्वक अपनी सहमति जतायी और दोनों उद्यान में जा पहुँचे, वहाँ बैठकर वे भगवान महावीर का उपदेश सुनने लगे।

हठात् महावीर स्वामी के पट्ट गणधर गौतम स्वामी ने उस अन्धे व्यक्ति को देखा। उसकी शक्ल -सूरत तो विचित्र थी ही, उसके आस-पास मक्खियाँ भी भिनभिना रही थीं। गौतम स्वामी की दृष्टि बार-बार उस व्यक्ति की ओर चली जाती। वह रह-रहकर उसे देखने लगते। उसके प्रति उनके मन में दया जाग उठी। इसी कारण वे भगवान का प्रवचन भी दत्तचित्त होकर न सुन सके।

उपदेश समाप्त होने पर लोग अपने-अपने घर चले गये, पर वह अन्धा व्यक्ति राज्योद्यान में ही रुक गया। गौतम स्वामी ने उसे देखकर भगवान महावीर से प्रश्न किया -प्रभो इस अन्धे मनुष्य का जीवन इतना दुःखपूर्ण क्यों हुआ? मेरे विचार से संसार में इससे बढ़कर और दुखी नहीं हो सकता।

महावीर स्वामी ने उत्तर दिया- वह इसी नगर के राजा विजय प्रताप का पुत्र है गौतम! लोग उसे मकराक्ष कहते हैं। इसने जब से जन्म लिया, तब से तलघर में रहता आ रहा है। उसकी पीड़ा हृदय को कँपा देने वाली है।

भगवान महावीर ने गौतम को बताया कि मकराक्ष का शरीर कैसा है। उसका पालन -पोषण किस प्रकार हो रहा है और अब वह तलघर में किस प्रकार नारकीय जीवन व्यतीत कर रहा है।

गौतम स्वामी के मन में मकराक्ष को देखने की इच्छा तीव्र हो उठी। वह बोले, मैं मकराक्ष को देखने के लिए आपकी अनुमति चाहता हूँ।

महावीर ने गौतम स्वामी को अनुमति दे दी।

गौतम स्वामी मकराक्ष को देखने राजभवन पहुँचे। राजा और रानी दोनों ने हृदय से उनका आदर-सत्कार किया। उनके पास भोजन का पात्र नहीं था, इसलिए वे समझ गए कि गौतम स्वामी का आगमन उनके घर में भिक्षा के लिए नहीं हुआ, फिर उन्होंने किसलिए कृपा की? महारानी सुनन्दा उत्कण्ठा के साथ बोल उठीं-देव आपने अपने चरणों की रज से मेरे भवन को पवित्र किया मैं धन्य हो गयी।

रानी सुनन्दा का हृदय प्रसन्नता से नाच उठा। उन्होंने शीघ्र ही अपने सभी पुत्रों को बुलाकर गौतम स्वामी के सम्मुख खड़ा कर दिया। उनके वे सभी पुत्र सुन्दर वस्त्रों और आभूषणों से सुसज्जित थे।

गौतम स्वामी ने एक क्षण रानी सुनन्दा के उन सभी पुत्रों को देखा। वे उन्हें देखते ही बोले, भद्रे, मैं तुम्हारे इन पुत्रों को देखने के लिए यहाँ उपस्थित नहीं हुआ हूँ।

सुनन्दा आश्चर्यचकित रह गयीं उसने विस्मय भरे स्वर में कहा तो, फिर आप किस पुत्र को देखना चाहते है, देव?

गौतम स्वामी ने उत्तर दिया, भद्रे मैं तुम्हारे उस पुत्र को देखने आया हूँ, जिसे तुमने जन्म से ही तलघर में छिपा रखा है। जिसका पालन - पोषण भी तुम वहीं कर रही हो।

सुनन्दा को और अधिक आश्चर्य हुआ, क्योंकि मकराक्ष के जनम और उसके तलघर निवास की बात राजा, रानी और एक सेविका को छोड़कर कोई नहीं जानता था, फिर यह बात गौतम स्वामी को कैसे पता चली? सुनन्दा बोल उठी- तलघर में रहने वाले पुत्र की बात तो किसी को मालूम नहीं है। आश्चर्य है, यह बात आपको कैसे मालूम हुई?

गौतम स्वामी ने उत्तर देते हुए जो कुछ भगवान महावीर से सुना था, महारानी सुनन्दा को कह सुनाया।

मकराक्ष के भोजन का समय हो चुका था। सुनन्दा भोजन, जल और मुँह ढँकने का एक वस्त्र लेकर गौतम स्वामी के साथ तलघर की ओर चल पड़ी।

जब वह तलघर के द्वार पर पहुँची, तो उसने अपने मुँह पर कपड़ा बाँध लिया और गौतम स्वामी से कहा कि वह भी मुँह पर कपड़ा बाँध लें, क्योंकि जिस तलघर में मकराक्ष रहता है, वह भयंकर दुर्गन्ध से भरा हुआ था।

तलघर का द्वार खुला। माँस के एक पिण्ड के तरह मकराक्ष बैठा हुआ अपनी माँ की राह देख रहा था। वह भूख से व्याकुल हो रहा था। उसके आस-पास से ऐसी दुर्गन्ध उठ रही थी कि सिर फटा जा रहा था।

सुनन्दा ने उसके सामने खाना रख दिया। वह श्वान की तरह खाने पर टूट पड़ा और सारा भोजन चट कर गया।

भोजन उसके शरीर में जाकर जल्दी ही रक्त और मवाद के रूप में परिवर्तित हो गया ‘ पर आश्चर्य इस बात का था कि वह रक्त और मवाद फिर उसके शरीर में से निकलकर बाहर टपकने लगा।

गौतम स्वामी मकराक्ष के शरीर और उसकी इस घिनौनी हालत को देखकर सचमुच काँप उठे। वह सोचने लगे कि इस जीव ने ऐसा कौन-सा पाप किया था, जिसे फलस्वरूप इसे ऐसी नारकीय यातना सहनी पड़ रही है? वे भगवान महावीर की सेवा में उपस्थित हुए। उन्होंने उनसे कहा- हे भगवन्!

मकराक्ष सचमुच बड़े दुःख का जीवन बीता रहा है। उसके भयंकर दुखों को देखकर मेरा मन काँप उठा है। पर देव मैं यह जानना चाहता हूँ कि उसने ऐसे कौन से पाप किये थे, जिसके फलस्वरूप उसे यह भयंकर दुख भोगना पड़ रहा है?

भगवान महावीर अन्तर्चेतना के स्पन्दनों में डूब गये वह कुछ पलों तक अपनी गहराइयों में डूबे रहे। फिर अपने आप ही बोल उठे-गौतम उसके पिछले जन्म की कहानी बड़ी अद्भुत है। ध्यान से सुनो। इस भारत क्षेत्र में बहुत दिन हुए एक नगर था। लोग उस नगर को सुकर्णपुर के नाम से पुकारते थे। सुकर्णपुर में एक बहुत बड़ा क्षमतावान मनुष्य रहता था। उसका नाम इकाई था। वह सुकर्णपुर नगर का स्वामी था। उसके अधीन पाँच सौ गाँव और भी थे।

पर वह बड़ा अधर्मी और लोभी था। लूट, हत्या और अपहरण ही उसके जीवन का व्यापार था। वह लोगों का धन जबरदस्ती छीन लेता था उनकी सुन्दर बहू-बेटियों ले जाता था।

धीरे-धीरे इकाई वृद्ध हो गया। उसके शरीर में कई प्रकार के रोग पैदा हो गए। पर फिर भी वह लूट-खसोट करता रहा, पापकर्मों में लिप्त रहा। उसकी अन्तिम बेला भी आ गयी, पर वह आखिरी दम तक चारों ओर डाकुओं को लूट-खसोट के लिए उकसाता रहा। प्राण निकलते समय भी उसके होठों पर हत्या, हिंसा और चोरी ही थिरकती रही। मरने पर वही इकाई राजा प्रताप के पुत्र के रूप में पैदा हुआ। अपनी बात पूरी करते हुए भगवान महावीर ने गौतम स्वामी की ओर गंभीर दृष्टि से देखा और कहने लगे-कर्मफल का विधान सुनिश्चित और अकाट्य है गौतम इस अनिवार्य विधान से कोई नहीं बच सकता।

मकराक्ष के पापकर्मों की कहानी और उसके दुख से गौतम स्वामी के मन में धर्म और सदाचरण की निष्ठा और भी तीव्र हुई। जैसी करनी वैसा फल-आज नहीं तो निश्चय कल’ का मर्म उन्हें और भी स्पष्ट होता चला गया।


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