विश्व-स्वास्थ्य-संगठन सर्वेक्षण के अनुसार प्रतिवर्ष लाखों लोगों की मौत हृदय रोगों से होती है। संसार की सबसे अधिक व्यथा हृदय रोगी की है। कैंसर की विभीषिका का नम्बर इसके बाद आता है। अन्य सब रोगों का नम्बर इसे बाद का है।
हृदय के दौरे क्यों आते हैं और उनका उपचार क्या हो सकता है? यह जानने से पहले हमें इस महत्वपूर्ण अवयव की संरचना की थोड़ी जानकारी प्राप्त करनी चाहिए।
हृदय चार कक्षों में विभक्त है। दायीं ओर के दो कक्षों का काम यह है कि वे रक्त को फेफड़ों में भेजकर उसमें आक्सीजन का सम्मिश्रण करायें। बायीं ओर के दो कक्षों का काम यह है कि शुद्ध रक्त को सम्पूर्ण शरीर में भेजें। दो निकास नलियाँ हृदय से निकलती हैं।
पल्मोनरी आर्टरी-फुफ्फुस धमनी, एओर्टा -महाधमनी, पहली तक जाती है और दूसरी शेष शरीर को महाधमनी में ऐसे वॉल्व होते हैं, जो एक ही दिशा में खुले और बंद हों। उसी विशेष व्यवस्था के कारण उक्त नहीं लौट सकता।
बुढ़ापे से लेकर आहार-विहार तक ही विकृतियाँ और दुश्चिन्ताएँ जैसे कारण मिलकर हृदय रोग उत्पन्न करते हैं। खराबी शरीर में अधिक चर्बी वाले रसायन कॉलेस्ट्राल-इकट्ठे होने से आरंभ होती है। इससे धमनियों में जकड़न-आर्थेरोस्क्लेरोसिस की शिकायत बढ़ती है। नाड़ियाँ मोटी ओर बड़ी होती चली जाती हैं। दूसरी ओर रक्त में चर्बी के थक्के -थ्रोम्बिन में जा उलझते हैं। जब तक नाड़ियों में कोमलता रहती है, तब तक वे रबड़ की तरह फूलकर इन थक्कों के लिए आवागमन का रास्ता देती रहती हैं। पर जब वे अकड़ जाती हैं तो उनकी फूलने -फैलने की क्षमता कुण्ठित हो जाती है। इसी दिशा में थक्के जब अड़ जाते हैं, तो रास्ता रुक जाता है। और दिल का दौरा सामने आता है। नाड़ियों में बढ़ने वाली कठोरता अन्ततः हृदय की कठोरता स्टेनोकार्डिया में परिणत होती है और वह कठोरता जब रक्ताभिषरण में अड़चन उत्पन्न करती है, तो स्थानीय संघर्ष उठ खड़ा होता है। और सूजन या घाव को जन्म देता है। इसी परिस्थिति की डॉक्टरों की भाषा में मायोकार्डियल इन्फेक्शन कहते हैं। क्रमिक रूप से बढ़ती हुई यह विकृतियाँ हृदय रोगों की छोटी-बड़ी साध्य - असाध्य स्थिति के रूप में जानी जाती है।
दिल के दौरे के यों अनेक कारण और उनके स्वरूप हो सकते हैं, पर हार्टअटैक नाम से प्रचलित व्यथा में अधिकांश रोगियों को एक ही कठिनाई का सामना करना पड़ता है कि हृदय को रक्त लाने ले जाने वाली नाड़ियों का ढीलापन घट जाता है और उनकी दीवारें कठोर हो जाती हैं। एक ओर तो नाड़ियों की यह सिकुड़न तथा कठोरता और दूसरी और रक्त में चर्बी का तथा खून की फुटकी-सी बढ़ने लगती है। यह फुटकी रक्त-नाड़ियों में अटक जाती है तो हृदय के अमुक भाग को शुद्ध रक्त मिलना बंद हो जाता है और भूख तड़पकर मरने लगता है। यह तड़पन दिल के दर्द के रूप में प्रकट होती है। यह आंशिक क्षति हुई। इसे विश्राम से दूर किया जा सकता है। नसों पर श्रमजन्य दबाव न पड़े तो आहिस्तगी के साथ उस अवरोध का कोई न - कोई मार्ग निकाल देती हैं। ऐसा भी हो जाता है कि जो दूसरी नाड़ियाँ उस क्षुधित स्थान को रक्त पहुँचाती थीं अधिक सक्रिय होकर अभाव की पूर्ति कर सकने योग्य बन जाए ओर जहाँ अवरोध अड़ गया था, उसमें कुछ अधिक बड़ा संकट न रहे।
कभी-कभी हृदय की कोई दीवार ही घायल हो जाती है या कोई अंग ठीक तरह काम कर सकने के अयोग्य हो जाता है, तो भी दिल में दर्द या दौरे पड़ने लगते हैं। बूढ़ा ओर कमजोर दिल जरा-जरा से कारण पर अपना संतुलन खो बैठता है और उसकी चाल घटने बढ़ने से लेकर उक्त के अवरोध तथा घर्षण से सह्य या असह्य पीड़ा होने लगती है। कहना न होगा कि हृदय की विपत्ति का प्रभाव समस्त शरीर पर पड़ता है। रक्त का शोधन और अभिसरण ठीक तरह न होने पर अंगों को न तो उचित मात्रा में रक्त मिलता और न वह आवश्यक शक्ति देने योग्य शुद्ध होता है ऐसी दशा में सिर चकराने लेकर हाथ-पाँव काँपने तक और घबराहट, बेचैनी से लेकर पसीना छूटने तक अनेकों प्रकार के उपद्रव विभिन्न स्थानों पर उठ खड़े हो सकते हैं। हृदय का दौरा पड़ने पर शरीर की प्रायः सभी स्वाभाविक क्रिया - प्रक्रियाएँ लड़खड़ा सकती हैं।
हृदय रोगों के यों अनेकों भेद - उपभेद हैं, पर उनमें तीन मुख्य हैं -
एंजाइना पैक्टोरिस, २. कोरोनरी थ्रोम्बोसिस ३. कोरोनरी एम्बोलिज्म।
ऐंजाइना पैक्टोरिस में दर्द अधिक होता है, रोगी जोर से चिल्लाता है और बेहोश हो जाता है। दर्द का फैलाव सीने के दायें-बायें, कन्धे, गर्दन और बाजू तक बढ़ जाता है। ऐसे दौरे अक्सर काम करते - करते पड़ जाते हैं। ब्लडप्रेशर, डायबिटीज, सिफलिस जैसे रोग पहले से मौजूद हों तो वे इसे आमन्त्रित करते रहते हैं।
कोरोनरी थ्रोम्बोसिस का दर्द हल्का और लगातार कई दिनों तक टिकने वाला होता है। इस तरह के दौरे प्रायः रात को सोते-सोते पड़ते हैं। प्रायः 40 वर्ष से ऊपर के लोगों पर ही इसका आक्रमण होता है। पसीना छूटना, मुँह से लार गिरना जैसे लक्षण दिखाई पड़ते हैं।
कोरोनरी एम्बोलिज्म उस स्थिति में जिसमें कोई रक्त की फुटकी हृदय नाड़ी में अड़ी होती हो, हड्डी टूटने पर उस जगह से हवा का रक्त के साथ मिलकर बुलबुला उत्पन्न करना उसका हृदय में रुक जाना भी इस उपद्रव का कारण होता देखा गया है।
दिल के दौरों का एक कारण फ्योक्रोमों साइटोमा एक प्रकार का ट्यूमर भी है, जो एड्रीनल रस ग्रन्थि में पाया जाता है। मानसिक तनाव बना रहने पर यह संकट भी उत्पन्न होता है और उसका प्रभाव दिल के दौरे तक जा पहुँचता है। अधिक दिमागी काम करने वाले ही बहुत करके इस व्यथा से जकड़ जाते हैं।
हृदय का दौरा पड़ने पर डॉक्टर अपने ढंग से अपना काम करने में लग जाते हैं। वे उस कारण को ढूँढ़ते हैं, जिसके कारण व्यथा की उत्पत्ति हुई है। परीक्षण - निरीक्षण, इसके बाद दवा-दारु विश्राम, निद्रा और उतने पर भी कुछ न बन पड़े तो आपरेशन या निकम्मे दिल को हटाकर किसी दूसरे का उस स्थान पर फिट करना, यही है चिकित्सकों की सीमा-मर्यादा जिसमें वे भरसक दौड़-धूप करते हैं और कभी-कभी कइयों को कुछ लाभ भी पहुँचाते हैं, पर देखा गया है कि सामयिक उपचार करने के उपरांत भी जड़ नहीं कटती और दौरे बार-बार पड़ते रहते हैं, कुछ दिन विराम मिलने के बाद बीमारी फिर उभर आती है।
इन रोगों का निदान करते हुए-रक्ताभिषरण के कारण उत्पन्न प्रवाह की स्थिति जाँचने का काम इलेक्ट्रो-कार्डियोग्राम से लिया जाता है। दिल की किसी माँसपेशी के मर जाने से लेकर अवरोध एवं घाव होने तक की स्थिति का पता इस परीक्षा से बनने वाले ग्राफों द्वारा चल जाता है। कार्डिएकमानीटर की क्षमता इससे भी अधिक है, वह टेलीविजन के पर्दे पर आने वाली तस्वीरों की तरह दिल की हरकत के चित्र प्रस्तुत करता रहता है।
हृदय के कक्षों में नालियाँ डालकर अन्दर का दबाव जानने का प्रयत्न किया जाता है और रक्त के स्तर का पता लगाया जाता है। इस प्रक्रिया को कार्डियेक कैथेटेराइजेशन कहते हैं। हृदय में डाय का प्रवेश करके उसके फोटोग्राफ लेना ओर आन्तरिक स्थिति का पता लगाना एंजियोकार्डियोग्राम कहा जाता है। ऐसी ही अन्य परीक्षा - प्रक्रियाएँ हैं, जिनके द्वारा हृदय पर कहाँ क्या बीत रही है, इसका विवरण जाना जाता है।
दिल का दौरा पड़ने पर चिकित्सक प्रधानतया एक ही काम करते हैं कि रोगी को अधिकाधिक विश्राम करने की व्यवस्था कठोरतापूर्वक कराएँ। हफ्ते में पूरा विश्राम करने की सलाह देते हैं, यहाँ तक कि करवट बदलने जैसे श्रम में भी दूसरों का सहारा लेने की व्यवस्था करते हैं। स्थिति के अनुसार पूरे या अधूरे विश्राम की व्यवस्था इसलिए कराई जाती है कि रोगी पर शारीरिक श्रम के कारण पड़ने वाले दबाव से उसे बचाया जाए। शारीरिक श्रम स्वभावतः रक्त के अधिक तेज बहाव की माँग करता है, इससे दिल पर बोझ पड़ता है और कष्ट के शमन करने में कठिनाई पड़ती है, इसलिए ऐसी परिस्थिति में विश्राम अनिवार्य हो जाता हैं। दर्द घट जाने पर भी रोगी को निश्चिन्त नहीं हो जाना चाहिए वरन् अंगों को अपनी स्वाभाविक स्थिति में आने तक काम न करने की छुट्टी दी जानी चाहिए। दिल के रोगी दर्द की अधिकता से नहीं आक्सीजन के अभाव में मरते हैं। श्रम बढ़ेगा तो आक्सीजन का खर्च भी बढ़ेगा। रक्त उसे पूरा न कर सका तो मौत निश्चित है। ऐसा संकट खड़ा न हो जाए इसलिए दौरा पड़ने के दिनों में तो रोगी को अधिकाधिक विश्राम करना ही चाहिए और आगे भी जीना चढ़ने, दौड़ने, भारी वजन उठाने जैसे श्रमसाध्य कार्यों से बचना चाहिए।
औषधि के रूप में भी इस अवसर पर ऐसी दवाएँ दी जाती हैं, जो तन्द्रा एवं निद्रा की स्थिति पैदा करें और रोगी की बेचैनी तथा चिल्लाहट बन्द हो जाए। खाने की दवाएँ हो या लगाने की उसमें तन्द्रा-निद्रा लाने वाले तत्व अवश्य रहेंगे। विपत्ति की घड़ी में यह कामचलाऊ उपचार तक प्रकार से आवश्यक हो जाता है।
थके को विश्राम देना-घाव भरने के लिए क्षत-विक्षत स्थान को बिना हिलाये-डुलाये पड़ा रखना उचित भी है। उदर रोगों में उपवास कराके जिस प्रकार इस क्षेत्र को पुनः कार्य करने के लिए समर्थ बनाया जाता है, ठीक उसी प्रकार तन्द्रा उत्पन्न करने वाली औषधियों द्वारा अथवा रोगी को वैसा करने का निर्देश देकर चिकित्सक लोग क्षतिपूर्ति कराते हैं।
एड्रिनेलिन, डिजिटेलिस, मेफेन्टिन आदि औषधियों का डॉक्टर लोग समय पर प्रयोग करते हैं। अनय प्रकार के उपचार भी ढूँढ़े और प्रयोग किये जा रहे हैं। नकली दिल बनाये और लगाये जा रहे हैं। एक का दिल निकाल कर दूसरे के सीने में फिट करने के भी कई प्रयोग हुए हैं। दिल की मालिश से लेकर स्थानीय गड़बड़ी का छोटा आपरेशन तक के अनेक उपचार कार्यान्वित किये जा रहे हैं। रूसी विशेषज्ञ प्रो. कयास्नकोव चैकोस्लोवाकिया के डॉ. केरोल सिक्का प्रो. नेगोवस्की, डॉ. फार्समान आदि विशेषज्ञों ने हृदय चिकित्सा के नये आधार और नये उपकरण प्रस्तुत किये हैं।
छुट-पुट आपरेशन तो कभी-कभी सफल हो जाते हैं, पर हृदय प्रत्यारोपण की दिशा में शरीरशास्त्रियों का अत्याधिक उत्साह होने पर भी अभी उस दिशा में कोई कहने लायक सफलता नहीं मिली है। शरीर ने अपने ऊपर दूसरे दिल का आधिपत्य सहन और स्वीकार नहीं किया है।
चिकित्सकों के सहयोग तथा चिकित्सा -उपचार की आवश्यकता से इंकार नहीं किया जा सकता है। पर उससे भी अधिक आवश्यक यह है कि हृदय रोगों के मूल कारणों को समझा जाए और उनको समय रहते रोका जाए, ताकि इस महारोग की विभीषिका पर अंकुश रखा जा सके। आग लगन पर पानी डालने के लिए दौड़ना अच्छा है। पर इससे भी अच्छा यह है कि आग लगने ही देने की सावधानी बरती जाए।
यदि हम शारीरिक और मानसिक स्थिति को संतुलित बनाये रह सके तो निश्चित रूप से ऐसी सुदृढ़ता और सशक्तता बनी रहेगी, जिसके रहते किसी हृदय को रोगों की व्यथा से ग्रसित न होना पड़े।
विश्व - स्वास्थ्य -संगठन ने संसार भर में इन दिनों हृदय रोगों की वृद्धि का कारण मानसिक उद्वेगों को बताया है। बढ़ती हुई नशेबाजी और कामुकता भी इसका एक बड़ा कारण है। अमेरिका, ब्रिटेन आदि देशों में कुपोषण, गरीबी जैसे अभावजन्य कारण नहीं है, फिर भी वहाँ हृदय रोग पिछड़े कहे जाने वाले देशों की अपेक्षा कहीं अधिक तेजी से बढ़ रहे हैं, इसका एक बड़ा कारण अनास्था, अशान्ति, अनिश्चितता और असंयमजन्य उद्वेगों का दिन-दिन उभरते जाना ही कहा जा सकता है।
हृदय विशेषज्ञ डॉ. ह्नाकनेन्स का कथन है कि अण्डा, माँस मक्खन जैसी चिकनाइयों का प्रचलन दिल के रोगों को बढ़ा रहा है। यदि लोग इतनी ही राशि, फल-सब्जियों पर खर्च करने लगें और अपनी खाने सम्बन्धी आदतें सुधार लें, तो न केवल दिन के दौरे से वरन् अन्य रोगों से भी रक्षा हो सकती है और सुखपूर्वक जिया जा सकता है।
हार्वर्ड विश्वविद्यालय कैम्ब्रिज (मेसाचुसेट्स) की हृदय रोग अन्वेषी परिषद द्वारा हार्वर्ड बी. स्प्राग के नेतृत्व में जो शोधकार्य चल रहा था उसकी रिपोर्ट 1923 पृष्ठों में प्रकाशित हुई है उसमें जहाँ संरचना सम्बन्धी खराबियों से उत्पन्न होने वाले हृदय रोगों की चर्चा है, वहाँ मानवी रहन-सहन को भी दोषी ठहराया गया है और कहा गया है कि यदि लोग हलका, हरा और सुपाच्य भोजन किया करें, दिनचर्या संतुलित रखें, शारीरिक श्रम में उत्साह रखे और मानसिक उद्वेगों से बचे रहें, नशेबाजी से परहेज रखें तो बढ़ते हुए हृदय रोगों के संकट से तीन-चौथाई मात्रा में छुटकारा मिल सकता है।
एडिनवरा विश्वविद्यालय के डॉ. पैसमोर ने बढ़ते हुए हृदय रोगों के कारण तलाशने में लंबा समय लगाने के उपरांत निष्कर्ष निकाला है कि समृद्धिशाली देशों में एक ऐसा समाज बनता जा रहा है, जिसे कम से कम शारीरिक श्रम करना पड़ता है। जो करते हैं वह मानसिक ही होता है पर उसमें शारीरिक परिश्रम के लिए कोई स्थान नहीं रहता। लिफ्टों पर नीचे-ऊपर उतरने-चढ़ने मोटरों पर चलने तथा दूसरी आवश्यकताओं के लिए यंत्रों पर निर्भर रहने से शरीर के बहुमूल्य अवयवों जंग लगना शुरू हो जाता है। आराम अच्छा तो लगता है, पर उसका अभिशाप भयंकर विपत्तियों के रूप में सामने आता है। इनमें दिल की बढ़ती हुई बीमारियों को अग्रणी कहा जा सकता है।
दिल के दौरे से मरने वाले लोगों में ६३ प्रतिशत अमीर, २५ प्रतिशत मध्यम वर्ग के और ११ प्रतिशत गरीब लोग होते हैं। यहाँ अमीरी और गरीबी का वर्गीकरण आरामतलबी और श्रमशीलता के आधार पर किया गया है।
हैडिलवर्ग (जर्मनी) के हृदय विशेषज्ञ डॉ. हिमेज हुक्समैन ने पश्चिमी बर्लिन में हुई मेडिकल काँग्रेस में अपना निष्कर्ष सुनाते हुए कहा-हृदय रोगों का सम्बन्ध उतना शारीरिक कारणों से नहीं, जितना मानसिक परिस्थितियों से है। देखने में यह लगता है कि यह एक माँस पिण्ड है और उसे शारीरिक कारण ही रुग्ण कर सकते हैं, पर गहरी खोजें उससे आगे आती हैं और वे कहती हैं कि मानसिक घुटन एवं उत्तेजना का सबसे बुरा प्रभाव दिल पर पड़ता है, इसलिए अधिक भावुक अथवा घुटन भरी परिस्थितियों में रहने वाले लोग अधिक मात्रा में हृदय रोगों से ग्रसित पाये जाते हैं। आहार-विहार सम्बन्धी दोष न होते हुए भी शरीररचना में कोई गड़बड़ी न रहते हुए भी अनेकों रोगियों को हृदय रोगों से ग्रसित पाया जाता है। उसका कारण उनकी घुटन भरी असंतुष्ट मनः स्थिति में ही देखा जाना चाहिए और उनके उपचार के लिए दवा-दारु तक सीमित न रहकर उनके चिन्तन में सुधार एवं परिस्थिति -परिवर्तन के रूप में भी किया जाना चाहिए।
मस्तिष्कीय उथल-पुथल शरीर के संवेदनशील संस्थान को अस्त-व्यस्त करके रख देती है। स्नायु-संस्थान की नेत्री ‘ वेगस’ तंत्रिका को लड़खड़ा देने वाले मानसिक विक्षोभ ही होते हैं। इससे सारा नाड़ी-संस्थान ही गड़बड़ा जाता है और फिर उस गड़बड़ी का अन्त हृदयजन्य रोगों के रूप में परिणत होता है। स्नायु रोग, न्यूरोसिस, अति रुधिर तनाव-हाईपरटेन्शन-हृदयकाठिन्य-स्टेनोकार्डिया अन्ततः विविध स्तर के हृदय रोग बनकर मनुष्य के सामने मृत्यु जैसी विभीषिका उत्पन्न करते हैं।
यदि मानसिक आवेगों, उद्वेगों ओर मनोविकारों से बचकर रहा जा सके, विचारो में प्रौढ़ता विकसित करके जीवन में आये दिन प्रस्तुत होते रहने वाले उतार-चढ़ाव से हँसते-खेलते निबटते रहने की कला सीखी जा सके, तो हृदय रोगों की आधी समस्या सहज ही हल हो सकती है। यह प्रयोजन अध्यात्म तत्व-ज्ञान के आधार पर ही पूरा हो सकता है। अस्तु हृदय रोगों से सुरक्षित और दौरा पड़ने पर मनोबल बढ़ाकर भीतरी साहस को बनाये रखने वाले अध्यात्म तत्त्वज्ञान का भी महत्वपूर्ण उपयोग हो सकता है। आज सबसे घातक व्याधि का उपचार है- अपने तनाव को घातक न बनने देकर रचनात्मक बनाकर ऊर्जा में बदल लेना। यही ऊर्जा जीवनशक्ति के अक्षय भाण्डागार का निर्माण करती है। हृदय रोग से इसी से जूझा जा सकता है।